खुद मौत भी उनके होठों की मुस्कान मिटा न सकी

मनोरंजन व्यापारी (मदन दत्त)

 

कई राज्यों के ठोकरे व जेल की जिंदगी से छूटने के बाद हाथरिक्शा खींचने का श्रमसाध्य कार्य करने वाले फेसबुक में मेरे प्यारे मित्र मनोरंजन व्यापारी बांग्ला में लिखते हैं। उनका जीवन महाश्वेता देवी से एक छोटी सी मुलाकात के बाद आश्चर्यजनक ढंग से बदल गया। आज वे बांग्ला साहित्य में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं।

रिक्शा में बिठाए गए अपने अनजान सवारी महाश्वेता देवी से अनजाने में कहा कि अभी-अभी पढ़ा एक शब्द ‘जिजीविषा’ का अर्थ समझ में नहीं आया। अत: रास्ते में उसने महिला से इसका अर्थ पूछा। महिला ने इसका अर्थ जीने की इच्छा बताई। बाद में परिचय होने के बाद महाश्वेता देवी ने उनका शब्द ज्ञान बढ़ाया, लेख व पुस्तकों को लिखने में मदद की।

महाश्वेता देवी इस लेख के प्रस्तावना लिखते हुए कहती है कि -मैं उसे मदन दत्त के नाम से जानती थी। सन् 1979-80 में वह रिक्शा चलाता था। मैं अपनी पत्रिका ‘बर्तिका’ के लिए रिक्शा चालकों के बीच लिख सकने वालों की तलाश कर रही थी कि मदन ने अपनी सीट के नीचे से मेरी किताब ‘अग्निगर्भ’ निकाल कर मुझे अचम्भे में डाल दिया। वह रिक्शा चलाने, मछली केंद्रों में काम करने व राजमिस्त्री होने के साथ-साथ ‘बर्तिका’ और अन्य छोटी पत्रिकाओं के लिए लिखता भी था। फिर कुछ सालों के लिए मैं उसकी खोज-खबर न ले सकी।

तभी बस्तर से मनोरंजन व्यापारी की अपील आई। मदन का ही असली नाम मनोरंजन है। वह नियोगी के प्रोत्साहन पर ही विद्रोही कवि सुकांत भट्टाचार्य के नाम पर एक पुस्तकालय खोल रहा था। उसने मुझसे बंगला पुस्तकों के लिए अपील की थी। नियोगी की मौत के बाद उसने मुझे यह लेख बंगला में भेजा था जिस ‘प्रतिक्षण’ ने अपने दिसम्बर 1991 के अंक में प्रकाशित किया था। यहां नियोगी को श्रद्धांजलि का अनुवाद दिया जा रहा है। मुझे उसका अनुवाद करने में गौरव का अहसास हो रहा है।

यह अमर शंकर गुहा नियोगी के प्रति मिट्टी में उपजी श्रद्धांजलि है।

नियोगी के श्रद्धांजलि पर मनोरंजन व्यापारी का यह विचारोत्तेजक लेख:-

जब मैं कलकत्ता छोडक़र स्थायी रूप से मध्यप्रदेश रहने आ रहा था तो कवि समीर राय ने उनका पता देकर कहा था कि ‘उससे जरूर मिलना।’ दंडकारण्य (बस्तर) में बसने के बाद मैंने उन्हें कई पत्र लिखे, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। दल्ली तक जाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। सन् 1989 के संसदीय चुनाव के दौरान डॉ. शैबाल जाना और जोगिन सेन गुप्ता से मेरा परिचय हुआ। वे छमुमो (छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा) के उम्मीद्वार जनकलाल ठाकुर का प्रचार करने हमारे क्षेत्र में आए हुए थे। वे मुझे नियोगी के पास ले गए।

पखांजोर बाजार में छमुमो की एक सभा हो रही थी। मैंने देखा कि एक आदमी मोटे खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने अन्य लोगों के साथ जमीन पर बैठा था। तब भी वह इतना अलग दिख रहा था! उसका चेहरा हंसी से खिला हुआ और आत्मविश्वास से भरा हुआ था। एक नजर में ही स्पष्ट हो गया कि वह व्यक्ति किसी भी दबाव या पैसे के सामने झुकने वाला नहीं था।

मैंने उनके साथ दस मिनट बातचीत की और तभी तय कर लिया कि मैं जिंदगी भर इस व्यक्ति के कदमों पर चलने का प्रयास करूंगा। मैंने उन्हें बीड़ी दी और उन्होंने माचिस मेरी ओर बढ़ा दी। फिर मुझसे कहा, ‘व्यापारी, कभी दल्ली आना।’ दल्ली राजहरा मजदूरों का नया तीर्थ है। यहां पहुंचते ही मैं हैरत में पड़ गया। दुकानों, बाजारों, घरों और नुक्कड़ों, सभी जगहों से, लाल हरे झंडे स्वागत कर रहे थे। पुरूष लाल कमीज और हरी हाफपैंट पहने थे, औरतें लाल साड़ी और हरा ब्लाउज। ट्रकों, जीपों व रिक्शों पर लाल-हरे झंडे लहरा रहे थे।

मैं शाम को नियोगी से मिला। वे यूनियन आफिस में बैठे हुए एक बूढ़े आदमी से बात कर रहे थे। वह बूढ़ा किसी बहुत दूर के गांव से आया था। उसने सुन रखा था कि नियोगी एक महान डाक्टर हैं और दल्ली में एक बड़ा अस्पताल चलाते हैं। यहां इलाज होने से मरते हुए आदमी को भी नया जीवन मिल जाता है। अत: वह बूढ़ा नियोगी के पास इस आशा के साथ आया था कि वे उसका इलाज करेंगे। यह बूढ़ा बुढ़ापे की बीमारियों से त्रस्त था। नियोगी ने उसकी बातें खूब सहानुभूति और धैर्य के साथ सुनी और उससे कहा, ‘आप एकदम ठीक हो जाएंगे। रात में आराम करिए, सुबह हम लोग अस्पताल चलेंगे।

’ उस बूढ़े के पास न तो खाने के लिए पैसा था, न ही सोने के लिए कोई बिछावन। नियोगी ने एक लडक़े को बुलाकर उस बूढ़े को यूनियन के मेस में ले जाकर खाना खिलाने और अस्पताल से दो कम्बल लाकर यूनियन आफिस में उसके सोने का इंतजाम करने को कहा। फिर वे अलग-अलग जगहों से आए छमुमो के कार्यकर्ताओं से मिले और रात दो बजे तक उनसे चुनाव के बारे में विचार-विमर्श करते रहे। घर जाने से पहले वे उस बूढ़े के बारे में पूछताछ करने गए। वह बिना कम्बल के एक मोटी सूती चादर ओढ़े हुए पड़ा था।नियोगी आमतौर पर बहुत संयत और शांत रहते थे, लेकिन उस दिन मैंने उन्हें गुस्से से आगबबूला होते हुए देखा।

उन्होंने तमतमाते हुए पूछा, ‘वह लडक़ा कहां गया?’
लडक़ा मुंह लटकाए उनके सामने आ खड़ा हुआ।
‘मैंने तुम्हें क्या कहा था? तुम इतना छोटा-सा काम भी न कर सके और लोगों की सेवा करने चले हो?’
‘जी, अस्पताल में कोई फालतू कम्बल नहीं था। मरीज बहुत ज्यादा थे।’
‘तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? जाओ, जाकर जनक के या मेरे घर से अभी कम्बल लेकर आओ।’

इसके बाद नियोगी तभी सोने गए जब छमुमो के अध्यक्ष जनकलाल के घर से कम्बल लाकर उस बूढ़े को ओढ़ाया गया। जरूरतमंद और पीडि़त लोगों के प्रति इस मानवीय व्यवहार के जरिए ही नियोग ने अनेक दिलों का प्यार जीत लिया था।
एक दिन डॉ. शैबाल जाना एक मरीज को देखने जाते समय मुझे भी साथ ले गए। हम दो मील पैदल चलकर मजदूरों की बस्ती में पहुंचे। वहां खाट पर एक बूढ़ा लेटा हुआ था। डॉ. जाना ने कहा, ‘डोकरा! मेरा यह दोस्त कापसी से आया है।

मैंने इसे बता दिया है कि आप एक बहुत अच्छे कथावाचक हैं। इसे भी एक कहानी सुनाइए, न।’ 

बूढ़ा आदमी काफी खुश हुआ। बिना दूध की चाय पेश की गई और वह रामायण की कहानी नए सिरे से सुनाने लगा। दल्ली के इस गरीब बाशिंदे ने सन् 1977 की मजदूर हड़ताल देखी थी। वह अनुभव इतना प्रभावशाली था।

मैंने महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘चोट्टी मुडा और उसका तीर’ पढ़ रखा था और जानता था कि कैसे एक इंसान अमर, अविरल धारा, किंवदंती और अक्षय बन जाता है। यह कोई महज कपोलकल्पना नहीं थी, इसे नियोगी ने साबित कर दिखाया था।
नियोगी ने 2 अक्टूबर 1990 को भिलाई के मजदूरों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों की एक मीटिंग बुलाई।

भयभीत पूंजीपितियों के इशारे पर भाजपा सरकार ने मीटिंग पर पाबंदी लगा दी। लेकिन नियोगीजी ने इसकी परवाह नहीं की। उन्होंने 24 घंटे के भीतर मीटिंग का स्थान भिलाई से बदल कर रायपुर कर दिया, 30-40 हजार लोगों के भोजन की व्यवस्था की, मीटिंग को सफलतापूर्वक आयोजित किया और इस तरह से राज्य सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया। सिर्फ वे ही ऐसा कर सकते थे। अखबारों ने भी स्वीकार किया कि उनकी संगठन क्षमता अनूठी थी।

पिछले तीने दिनों से भारी वर्षा हो रही थी। फिर भी...वह विशाल जन समूह सपने की तरह लग रहा था। लोग खड़े-खड़े वक्ताओं की बातें सुन रहे थे, क्योंकि मैदान कीचड़ से भर गया था। माइक्रोफोन पर नियोगी की आवाज गूंज रही थी, ‘हम मजदूर और किसान हैं। हमारा पूरा अस्तित्व ही पानी और धरती पर निर्भर है। इसलिए अगर बैठ सकते होतो बैठ जाइए।’

और वह सागर के समान विशाल भीड़ चुपचाप उसी कीचड़े भरे मैदान में बैठ गई ताकि नियोगी को सुन सके।

एक बार मैं अपने एक दोस्त के साथ राजहरा उनके घर गया। पिछली रात 2 बजे तक बैठक चलती रही थी। वे 3 बजे के बाद ही सो पाए होंगे। उन्हें जगाया नहीं जाना चाहिए था, फिर भी उन्होंने बिछावन छोड़ दिया और शांत व संयत रूप से एक बेंच पर आ बैठे। उनकी पत्नी आशा चाय ले आई। इतने बड़े नेता की पत्नी होने के बावजूद घर में उनका कोई मददगार न था, वे घर का सारा काम खुद ही करती थीं।
चाय की चुस्की लेते हुए नियोगी ने कहा, ‘मेरी तबियत ठीक नहीं है। रात से ही थोड़ा-थोड़ा बुखार है।’

मैं अपने आपको भूल-सा गया और अनायास ही उनका बदन छू लिया। बदन काफी गर्म था, उन्हें तेज बुखार था। फिर भी वे हमसे मिलने चले आए थे-दो साधारण आदमियों  के साथ।

ऐसे थे नियोगी। उनकी नजरों में कोई भी छोटा नहीं था। वे सबों को एक समान तरजीह व तवज्जो देते थे। जो कोई भी उनके पास आता, उनके प्यार का हकदार बन जाता था।

आज 29 सितम्बर को मैं अपने प्यारे नेता शंकर गुहा नियोगी के दर्शन करने आया था। वे शहीद चौक के सामने लेटे हुए थे।...मैंने उन्हें सलाम किया। हमेशा की तरह आज उन्होंने अपनी कसी हुई मुट्ठी आसमान की ओर नहीं उठाई। ऐसा लगता था कि मानो वे किसी सपने में खोए हों। भाड़े के हत्यारों की गोलियां भी उनके होठों की मुस्कान न मिटा सकीं। खुद मौत भी उनके सपने को खत्म न कर सकी।

अनुवाद-धु्रव नारायण


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  • 28/09/2021 R. A. nayak

    Niyogi jinda hai मेहनतकशो मे,झोपडियो मे,खेत,खलिहान, खदानो मे,विचारो मे........

    Reply on 29/09/2021
    R. A. Nayak