भगत सिंह व उनके साथी वास्तव में थे क्या?

सुशान्त कुमार

 

फांसी पर चढऩे से पहले भगत सिंह ने कहा था, ‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो वे किसी भी प्रकार की तब्दीली से हिचकिचाते हैं। इस जड़ता व निष्क्रियता को तोडऩे के लिए एक क्रांतिकारी भावना, एक क्रांतिकारी जोश पैदा करने की जरूरत होती है अन्यथा पतन व बरबादी का वातावरण छा जाता है। जनता को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी ताकतें, लोगों को गलत रास्ते पर ले जाने में कामयाब हो जाती है। इससे इंसान की प्रगति रूक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने जरूरी है कि क्रांति की भावना को ताजा किया जाए, ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।’ 

चापेकर बंधुओं से भगत सिंह तक

22 जून को चापेकर बंधुओं ने रैंड व आयेर्स्ट को मार दिया। 1897'913 के क्रांतिकारी हिंदू धर्म के प्रति आस्थावान थे। बंकिमचंद्र चटर्जी व स्वामी विवेकानंद की बौद्धिक परंपरा में पले-बढ़े बंगाल के बीसवीं सदी के पहले दशक के ये क्रांतिकारी धार्मिक उपादानों, कर्मकांडों से व प्राचीन व तात्कालिक हिंदुत्व के पौराणिक उपाख्यानों, प्रतीकों, गीतों व नारों से प्रेरणा ग्रहण करते थे। इस सीमा तक, धर्म की एक सकारात्मक भूमिका अवश्य थी, लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी था। इस दौर में बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल, ब्रह्म बांधव उपाध्याय व अरविंद घोष जैसे जुझारू राष्ट्रीय नेता राजनीति को धर्म के रंग में रंग रहे थे। इस तरह अचेतन रूप में ही सही, उन्होंने सांप्रदायिक राजनीति के विषवृक्ष लगाए।

क्रांतिकारियों का वैचारिक विकास 

आज आठ दशक बीत जाने पर भी हालात कमोबेश वैसे ही है, शहीद के ये शब्द आज के माहौल में भी पूर्णतया प्रासंगिक है। शोषण रहित व वर्ग-विहीन समाज के निर्माण का शहीदों का सपना आज भी अधूरा है। प्रतिक्रियावादी ताकतें इस सपने को पूरा करने देना तो दूर, उनके विचार तक को जनता की चेतना से मिटाने पर तुली हुई है। यह कोशिश पुरजोर जारी है कि शहीदों की सही व वैज्ञानिक विचारधारा को आम जनता तक पहुंचने ही न दिया जाए व लोगों के दिलों में उनकी बम-पिस्तौलों से लैस सिरफिरे आतंकवादी, लेकिन बलिदानी क्रांतिकारी तस्वीर बनी रहे। कुछ लोग उन्हें खालिस हिंदू-राष्ट्रवादी सिद्ध करने पर तुले हुए हैं, जिनका मकसद भारत से अंग्रेजों को भगाकर यहां एक हिंदू राज कायम करना था।

क्रांतिकारियों द्वारा वर्ग संघर्ष, समाजवाद, साम्यवाद व अंतरराष्ट्रवाद के विचारों को अपनाए जाने, व उन्हें अपने कार्यक्रमों में व्यावहारिक रूप देने की उनकी कोशिशें व योजनाओं को ये लोग सुनने मात्र पर भडक़ उठते हैं। उधर आम जनता नहीं जानती कि भगत सिंह व उनके साथी वास्तव में थे क्या? लोग तो केवल इतना ही जानते हैं कि वे बहादुर लोग थे, जिन्होंने लाला लाजपतराय के हत्यारे सांडर्स को मारा व असेंबली में बम फेंका।

बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह एक गंभीर विचारक व एक शानदार बुद्धिजीवी थे। उन्होंने अपनी 24 वर्ष की अल्पायु में ही राजनीति, ईश्वर, धर्म, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्महत्या सहित अनेक दूसरे विषयों पर अधिकारपूर्वक अपने विचार व्यक्त किए थे। उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में तीन नारे बुलंद किए थे। पहला-इंकलाब जिंदाबाद, दूसरा-सर्वहारा जिंदाबाद व तीसरा-साम्राजयवाद का नाश हो। ये तीनों नारे बड़ी खूबसूरती के साथ उनके पूरे कार्यक्रम का निचोड़ प्रस्तुत करते हैं। 

पहले नारे के अनुसार क्रांति तब तक जारी रहेगी जबतक मनुष्य द्वारा मनुष्य का व एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण करने वाली व्यवस्था का खात्मा नहीं हो जाता, और इसके स्थान पर एक आदर्श समाज व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती। दूसरा नारा यह ऐलान करता है कि भविष्य कोटि-कोटि मेहनतकश जनता का है और वही क्रांति की मुख्य वाहक शक्ति है। तीसरा नारा फौरी कार्यभार का सूचक था। किसी भी गुलाम राष्ट्र के लिए पहली जरूरत साम्राज्यवादी गुलामी की जुंए को उतार फेंकने की होती है। भगत सिंह साम्राज्यवाद के पूरे ढांचे को ही उखाड़ फेंकने के हामी थे। वे साम्राज्यवाद की बेडिय़ों से केवल भारत को ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति की मुक्ति के तरफदार थे।

लेकिन व्यापक जनता उनकी इस विचारधारा को नहीं जानती। स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिकारियों के प्रवेश की घोषणा करने वाला पहला धमाका 1897 में पुणे में चापेकर बंधुओं ने किया था। पुणे शहर में उन दिनों प्लेग जोरों पर था। रैंड नाम के एक अंग्रेज को वहां प्लेग कमिश्नर बनाकर भेजा गया। वह बड़ा ही जालिम व तानाशाह किस्म का आदमी था। उसने प्लेग से प्रभावित मकानों को बिना कोई अपवाद खाली कराए जाने का हुक्म जारी कर दिया। जहां तक उस हुक्म का सवाल है उसमें कोई गलत बात नहीं थी। लेकिन जिस तरह रैंड ने इस हुक्म पर अमल करवाया, उससे वह अलोकप्रिय हो गया। लोगों को जबरदस्ती उनके घरों से निकाला गया। उन्हें कपड़े, बर्तन आदि तक ले जाने का समय नहीं दिया गया।

गांधी व उनके अनुयायियों ने इस परंपरा को और आगे बढ़ाया व अंत तक इससे चिपके रहे। 1914 में जब उनका आंदोलन दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा था, वे इसे छोडक़र धर्म निरपेक्षता को अपना लिया था। धर्म व राजनीति का यह तालमेल तब से आज तक लगातार हमारे सार्वजनिक जीवन को तबाह करता रहा है। अब तो इसके कारण हमारी राष्ट्रीय एकता का ढांचा ही चरमराता नजर आ रहा है।

हालांकि महाराष्ट्र के चापेकर बंधु व बंगाल के पहले दशक के क्रांतिकारी, दोनों प्राचीन भारतीय संस्कृति से प्रेरणा पाते थे, लेकिन दोनों के बीच एक मार्के का अंतर था। 30 अप्रैल, 1908 को किंग्सफोर्ड की बग्घी पर एक बम आकर गिरा। जिससे दो महिलाओं की मृत्यु हो गई। इस घटना पर 22 जून के ‘केसरी’ में लोकमान्य तिलक ने लिखा, ‘1897 की हत्या व बंगाल के बमकांड के बीच काफी अंतर है। जहां तक दिलेरी व कार्य को कुशलतापूर्वक संपन्न करने का सवाल है, चापेकर बंधुओं का दर्जा बंगाल की बम पार्टी की सदस्यों से ऊंचा है। लेकिन अगर साध्य व साधन के नजरिए से देखें, तो बंगालियों की ज्यादा तारीफ करनी होगी।’

1902 की घोषणा में अनुशीलन ने लिखा था कि, अनुशीलन की कल्पना के समाज में अनपढ़ व गरीब लोग नहीं होंगे, कायर, दुष्ट व अस्वस्थ लोग नहीं होंगे। ऐसे समाज के निर्माण के लिए सभी प्रकार की विषमताओं को समाप्त किए बगैर मानवता विकसित नहीं हो सकती। मानव समाज से धन, सामाजिक, सांप्रदायिक व प्रादेशिक विषमता दूर कर सभी मनुष्यों में समानता लानी होगी। केवल राष्ट्रीय सरकार द्वारा ही ऐसा किया जाना संभव है।

पराधीनता की दशा में अनुशीलन के स्वप्न के समाज की स्थापना संभव नहीं है, इसीलिए अनुशीलन पराधीनता के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा करती है। अनुशीलन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता चाहती है। यहीं पर बंगाल के क्रांतिकारी 1897 के पुणे केंद्र से आगे है। चापेकर बंधु विदेशियों से नफरत तो करते थे, वे खुद क्या चाहते हैं, इसके बारे में स्पष्ट नहीं थे। वे मुस्लिम विरोधी भी नहीं थे। इसके विपरीत इस दौर के पंजाब के क्रांतिकारी आरंभ से ही सांप्रदायिकता के दोष से मुक्त थे।

सरदार अजीत सिंह, लालचंद ‘फलक’, सूफी अंबा प्रसाद, लाला हरदयाल व उनके सभी सहयोगी धर्मनिरपेक्ष थे। धर्म उनके लिए एक निजी मामला था। इसके अलावा 1857 का जन विद्रोह, पूरे स्वाधीनता संग्राम के दौरान सभी स्वाधीनता सेनानियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहा। शताब्दी के पहले दशक में क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का दूसरा स्त्रोत था-फ्रांसीसी, इतावली व रूसी क्रांतिकारियों की कहानियां। 

गुलामी की अपमानजनक स्थिति के सामने समर्पण करने से बेहतर होता है, चोट करना व नष्ट हो जाना। किसी न किसी को पहली चोट करनी ही होती है। आम तौर पर पहली चोट का कोई नतीजा नहीं निकलता। पहली चोट करने वाले ज्यादातर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन उनकी कुर्बानियां कभी बेकार नहीं जातीं। झरना बढक़र एकाकार हो जाता है।

पुरानी व्यवस्था की जगह एक नई व्यवस्था आती है। सपना एक हकीकत का रूप ले लेता है। क्रांतियां इसी तर्ज पर आगे बढ़ती है। भारत का क्रांतिकारी आंदोलन भी ठीक इसी तर्ज पर आगे बढ़ा। चापेकर बंधु, खुदीराम बोस, कन्हाई लाल व मदनलाल ढींगरा ने अकल्पनीय कठिनाइयों के बावजूद उस युग की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत को चुनौती देने की जुर्रत की।

गदर पार्टी की स्थापना

पहले दौर में बहुत से क्रांतिकारी देश छोड़ कर यूरोप व अमरीका चले गए। तारकनाथ दास, शैलेंद्र घोष, चंद्र चक्रवर्ती, नंदलाल कार, बसंत कुमार राय, सारंगधर दास, सुधींद्रनाथ बोस, जीडी कुमार व लाला हरदयाल अमरीका व कनाडा में बसे भारतीय प्रवासियों से संपर्क किया। धन संग्रह किया। अखबार निकाला व कई जगहों पर गुप्त संस्थाएं कायम की। तारकनाथ दास ने फ्री हिंदुस्तान नाम से एक अखबार निकाला। वे समिति नाम की एक गुप्त संस्था के प्रधान थे। रामनाथपुरी ने 1908 में ऑकलैंड में हिंदुस्तान एसोसिएशन नाम की एक संस्था बनाई। उन्होंने सर्कुलर ऑफ फ्रीडम नाम से एक अखबार निकाला।

जीडी कुमार ने स्वदेशी सेवक नामक अखबार निकाला। वे वहां की एक गुप्त संस्था के सदस्य भी थे। रहीम व सुंदर सिंह भी इसके सदस्य थे। सुंदर सिंह आर्यन नाम के एक अखबार का संपादन करते थे। रहीम व आत्माराम ने बैंकूवर में यूनाइटेड इंडिया लीग का गठन किया। लाला हरदयाल 1911 में अमरीका पहुंचे। वे वहां स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हो गए। सानफ्रांसिस्को में हिंदुस्तानी स्टूडेंटस एसोसिएशन नाम की एक संस्था गठित की।

1913 में शिकागो में हिंदुस्तानी एसोसिएशन ऑफ दि यूनाइटेड स्टेटस ऑफ अमेरिका का गठन किया। कनाडा व अमरीका में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों की बैठक कर हिंदुस्तानी एसोसिएशन ऑफ दि पैसिफिक कोस्ट संस्था का गठन किया। बाबा सोहन सिंह भकना व लाला हरदयाल अध्यक्ष व सचिव चुने गए। मार्च 1913 में एसोसिएशन ने सानफ्रांसिस्को से गदर नाम से एक अखबार निकाला। उसके बाद एसोसिएशन का नाम बदलकर गदर पार्टी रख दिया गया।

अखबार गदर ने हिंदू-मुसलमान दोनों से आह्वान किया कि वे आर्थिक मसलों पर ज्यादा ध्यान दें। क्योंकि दोनों के जीवन पर एक जैसा प्रभाव पड़ता है। प्लेग से हिंदू व मुसलमान दोनों ही मर रहे हैं। अकाल पडऩे पर अन्न से दोनों ही वंचित रहते हैं। बेगार के लिए जोर-जर्बदस्ती दोनों पर की जाती है। दोनों को ऊंची दरों पर भू-राजस्व व जलकर देना पड़ता है। समस्या हिंदू बनाम मुसलमान की नहीं, बल्कि भारतीय बनाम अंग्रेज शोषकों की है। हिंदू-मुस्लिम एकता को इतना मजबूत बनाया जाना चाहिए कि कोई उसे तोड़ न सके।

14 मई 1914 को गदर में प्रकाशित एक लेख में लाला हरदयाल ने लिखा प्रार्थनाओं का समय गया, अब तलवार उठाने का समय आ गया है, हमें पंडितों व काजियों की कोई जरूरत नहीं है। पोर्टलैंड में अपने भाषण में कहा था कि गदर के क्रांतिकारियों को आगामी क्रांति के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें भारत जाकर, वहां से अंग्रेजों को भगाकर अमरीका जैसी एक जनतांत्रिक सरकार कायम करनी चाहिए, जो धर्म, जाति व रंग के अंतर से परे हो। जिसमें सभी भारतीय समान व स्वतंत्र हो। 

भारत में सांप्रदायिक सदभाव बढ़ाने को गदर पार्टी ने अपना मुख्य उद्देश्य बनाया। धर्म जब राजनीति के साथ घुलमिल जाता है तो वह एक घातक विष बन जाता है, जो राष्ट्र के जीवंत अंगों को धीरे-धीरे नष्ट करता रहता है, भाई को भाई से लड़ाता है, जनता के हौंसले पस्त करता है, उसकी दृष्टि को धुंधला बनाता है, असली दुश्मन की पहचान करना मुश्किल कर देता है, जनता की जुझारू मन: स्थिति को कमजोर करता है, व इस तरह राष्ट्र के उपनिवेशिक साजिशों की आक्रमनकारी योजनाओं का लाचार शिकार बना देता है। भारत में इस बात को सबसे पहले गदर के क्रांतिकारियों ने महसूस किया। उन्होंने दिलेरी के साथ ऐलान किया कि वे इस जहर को अपनी राजनीति से दूर रखेंगे। उन्होंने जैसा कहा वैसा ही किया भी।

भारतीय राजनीति में यह उनकी पहली महान उपलब्धि थी। उनका दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय था। मालाया, शंघाई, इंडोनेशिया, ईस्ट इंडीज, फिलीपीन, जापान, मनीला, न्यूजीलैंड, हांगकांग, सिंगापुर, फिजी, बर्मा में उनकी शाखाएं थीं। वे सभी देशों की आजादी के तरफदार थे। गदर की दो प्रमुख गलतियां थी। एक उनके नेता खुलकर अपनी योजनाओं, इरादों व कार्यक्रम पर बहस करते थे। इस तरह ब्रिटिश उपनिवेशियों को उनकी योजनाओं की पूरी-पूरी जानकारी रहती। दूसरा एक भ्रामक विश्वास था कि एक उपनिवेशी शक्ति उन्हें दूसरी उपनिवेशी शक्ति के चंगुल से आजाद कराने में ईमानदारी के साथ सहायता करेगी। उपनिवेशी ताकतें गदर पार्टी का रणनैतिक इस्तेमाल करने तक सीमित थे। वास्तविक व स्थायी मुक्ति के लिए गुलाम देशों को पूरी उपनिवेशिक व्यवस्था से ही लड़ाई लडऩी होगी, यह बात रूस में हुई अक्तूबर 1917 की क्रांति से स्पष्ट हुई। 

रूसी अक्तूबर क्रांति का प्रभाव

1917 की क्रांति ने रूस में मनुष्य द्वारा मनुष्य के व राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण पर आधारित व्यवस्था को समाप्त कर दिया। सोवियत जनता अपने भाग्य की स्वामी बन गई। खेतों, कारखानों व वर्कशापों पर उसका सामूहिक स्वामित्व कायम हो गया। अक्तूबर क्रांति ने न सिर्फ रूस के अवाम को पूंजीपतियों व जमींदारों की गुलामी से मुक्त किया, बल्कि एक बिल्कुल नए समाज व नए इंसान को भी जन्म दिया। भारत में ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारी आंदोलन से निपटने के लिए दोरंगी नीति अपनाई। मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधारों का ढकोसला खड़ा करके नरमपंथी राष्ट्रीय नेताओं को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की तो दूसरी ओर रौलट कमेटी की दमनकारी सिफारिशों को लागू की। इन सबके खिलाफ लोग एकजुट होने लगे।

भारतीयों को सबक सिखाने 13 अप्रैल 1919 को जलियावाला बाग में इस निश्चय को अमली रूप दे दिया गया। सितम्बर 1920 में लाला लाजपतराय ने कांग्रेस को आगाह करते हुए कहा था कि जनता छुब्ध व परेशान है। वह कुछ कर गुजरेने के मुड में है। गांधी की ढुलमुल नीतियों के बाद 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद वे चुपचाप सत्याग्रह आंदोलन वापस ले लिया व राजनीति से अलग हो गए। इस पृष्ठभूमि में जो क्रांतिकारी गांधी के कहने पर हथियार रख दिए थे, अपने को संगठित करके फिर से हथियार उठाने का फैसला किया। 

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन

सभी क्रांतिकारियों को एक अखिल भारतीय पार्टी में संगठित करने का कार्य 1923 को शचीन्द्रनाथ सान्याल ने की। उन्होंने पार्टी का संविधान भी तैयार किया। 31 दिसंबर 1924 को दि रिवोल्यूशनरी के नाम घोषणापत्र लिखा। लिखा था कि राजनीति के क्षेत्र में क्रांतिकारी पार्टी का तात्कालिक उद्देश्य संगठित सशस्त्र क्रांति द्वारा भारत के संयुक्त राज्यों का एक संघीय गणराज्य स्थापित करना है।

इस गणराज्य के अंतिम संविधान का निर्माण व घोषणा तब होगी जब सम्पूर्ण भाारत के प्रतिनिधि अपने निर्णयों को लागू करने में सक्षम होंगे। लेकिन इस गणराज्य का मूलभूत सिद्धांत सार्वजनिक मताधिकार पर, व शोषण पर आधारित ऐसी समस्त व्यवस्थाओं की समाप्ति पर आधारित होगा, जो मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण को संभव बनाती है।

इस गणराज्य में मतदाताओं को, यदि वे चाहे तो, प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार होगा, अन्यथा प्रजातंत्र एक मखौल बनकर रह जाएगा। भारत में इस तरह कम्युनिष्ट विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी। पेशावर व कानपुर में बोल्शेविक षढय़ंत्र केस, देश के कई भागों में किसानों के जुझारू संघर्ष, मजदूरों की देशव्यापी बड़ी-बड़ी हड़ताले, मजदूर-किसान पार्टी का गठन, देश के विभिन्न कम्युनिष्ट गु्रपों को मिलाकर एक अखिल भारतीय पार्टी का गठन शुरू हुआ।

इन सबसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर घटित इन घटनाओं से प्रभावित होकर अनुशीलन के कुछ कार्यकर्ता पार्टी से अलग होकर कम्युनिस्ट आंदोलन में चले गए। अनुशीलन में उनका अच्छा सम्मान था। क्रांतिकारी युवकों में साम्यवाद को लोकप्रिय बनाने में उन लोगों की महती भूमिका थी।

हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ का गठन

संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में 1925 में क्रांतिकारी पार्टी के प्राय: सभी प्रमुख नेता काकोरी षढय़ंत्र केस के सिलसिले में पकडक़र जेलों में बंद कर दिए गए थे। लाहौर के भगतसिंह व सुखदेव रूसी अराजकतावादी बाकुनिन से प्रभावित थे। भगत सिंह को अराजकतावाद से समाजवाद की ओर लाने का श्रेय सोहन सिंह जोश व छबीलदास को था। जोश ‘किरती’ नाम की पंजाबी मासिक पत्रिका के संपादक थे।

भगवती चरण वोहरा का समाजवाद की तरफ आरंभ से ही रूझान था। भगवती चरण वोहरा ने चंद्रशेखर आजाद से सलाह मशवीरा कर 26 जनवरी 1930 को गांधी के कल्ट ऑफ दि बम के जवाब में बम का दर्शन लिखा था। राजाराम शास्त्री कहते थे कि भगत सिंह पुस्तकों को पढ़ता नहीं, निगलता था, लेकिन फिर भी उसकी ज्ञान की पिपासा सदा अनबुझी ही रहती थी।

भगतसिंह पुस्तकों का अध्ययन करता, नोट्स बनाता, अपने साथियों से उन पर विचार-विमर्श करता, अपनी समझ को नए ज्ञान की कसौटी पर अलोचनात्मक ढंग से परखता। इस प्रक्रिया में अपनी समझ में जो-जो गलतियां दिखाई पड़ती, उसे सुधारने की कोशिश करता था। अंतत: 1928 के आरंभ से वे अराजकतावाद को छोडक़र समाजवाद को अपने ध्येय के रूप में स्वीकार कर लिया।

कानपुर के राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त व मौलाना हसरत मोहानी अपने को कम्युनिस्ट कहने लगे। 1927 में उन्होंने कम्युनिज्म क्या है लिखी। राधामोहन कट्टर अनिश्वरवादी थे। ईश्वर, धर्म व अंधविश्वास पर उन्होंने काफी कुछ लिखा था। उन्हें उपन्यासकार प्रेमचंद ने आधुनिक चार्वाक कहा था। 

1928 में भगतसिंह ने विभिन्न दलों को मिलाकर क्रांतिकारियों का एक अखिल भारतीय संगठन का विचार रखा। उन्होंने प्रस्ताव में कहा था कि-समय आ गया है कि हम समाजवाद को साहस के साथ अपना अंतिम लक्ष्य घोषित करे। पार्टी का नाम, व अंतिम लक्ष्य क्या हो? उन्हीं कामों को हाथ में लेना चाहिए जिनका सीधा संबंध जनता की जरूरतों व भावनाओं से हो सकता है।

हमें मामूली पुलिस अधिकारियों या भेदियों को मारने में अपनी शक्ति व समय का अपव्यय नहीं करनी चाहिए। धन के लिए हमें सरकारी खजाने पर ही हाथ डालना चाहिए। यथासंभव निजी घरों पर कार्यवाही नहीं करनी चाहिए। सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत का कड़ाई से पालन करना चाहिए। भगत सिंह ने इन सब मुद्दों पर लाहौर व कानपुर के अपने साथियों के साथ विचार विमर्श किया।

चंद्रशेखर आजाद व कुंदन लाल की सहमति भी ले ली। 8 सितंबर 1928 को दिल्ली कोटला फीरोजशाह में सभी मुद्दों पर दो दिन की बहस के बाद रखे गए सभी मुद्दों को दो के खिलाफ छह के बहुमत से स्वीकार कर लिया गया। भगत सिंह ने कभी भी कोई बड़ा राजनीतिक कदम पार्टी के केंद्रीय कमेटी को विश्वास में लिए बगैर नहीं उठाया। भगत सिंह कलकत्ते से जनवरी 1929 के पहले सप्ताह में वापस आए।

फरवरी में जब यतीन्द्रनाथ दास आगरा आए तो सभी बम फैक्ट्री स्थापित करने में व्यस्त हो गए। फरवरी के अंत में असेंबली में बम फेंकने का फैसला ली गई। इस काम के लिए भगतसिंह व बटुकेश्वर का नाम चुना गया। यह काम राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने लिया गया। जहां तक बलिदान का सवाल है, क्रांतिकारी आंदोलन में बलिदान की कमी नहीं रही।

जनवविरोधी बिल के खिलाफ फेंका असेंबली में बम 

जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है-बुद्धिजीवियों, यहां तक कि सरकारी अफसरों में भी साम्यवाद व समाजवाद के अस्पष्ट विचार फैल चुके थे। कांग्रेस के नौजवान पुरूष व महिलाएं, जो पहले ब्राइस (आन डेमोक्रेसी), मार्ले, कीथ व मैजिनी को पढ़ा करते थे, अब वे समाजवाद, कम्युनिज्म व रूस पर किताबें पढ़ते थे। कम्युनिज्म, बांए बाजू की शक्तियों व श्रमिक वर्ग के आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने केंद्रीय असेंबली में दो बिल पेश किया। पहले बिल में गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया था कि वह अंग्रेजों या अन्य विदेशी कम्युनिस्टों को भारत से निकाल दें।

दूसरे बिल का उद्देश्य, मजदूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों में कटौती करना था। 6 सितंबर 1928 को पब्लिक सेफ्टी बिल असेंबली में पेश किया। 24 सितंबर को सदन ने उसे नामंजूर कर दिया। जनवरी में कुछ फेर-बदल के साथ सरकार ने उसे फिर असेम्बली के सामने रखा।

इस बिल पर भगत सिंह ने कहा कि पार्टी को असेम्बली में बम फेंक कर सरकार के इस सख्त व हठी रवैए का विरोध करना चाहिए। दूसरा इस काम को करने के लिए जो साथी तैनात करें वे काम करने के बाद भागने की बजाए वहीं आत्मसमर्पण कर दें। केस के दौरान अदालत को पार्टी के उद्देश्यों के प्रचार के लिए मंच के तौर पर इस्तेमाल करें। तीसरा इस फैसले को कार्यान्वित करने के लिए एक और साथी के साथ उसे स्वयं जाने की अनुमति दी जाए। दूसरा बिल ट्रेड डिस्प्यूट बिल असेम्बली में 4 सितंबर 1928 को पेश किया गया था।

सदन ने उसे रोलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया। वहां से कुछ फेर-बदल के साथ उसे 2 अप्रैल 1929 को बहस के लिए असेम्बली के सामने लाया गया। सदन ने 8 अप्रैल 1929 को बहस के लिए असेम्बली के सामने लाया गया। सदन ने 8 अप्रैल को 38 के खिलाफ कुछ वोटों से उसे पास कर दिया। जैसे ही अध्यक्ष महोदय वोटिंग का परिणाम घोषित करने के लिए उठे, वैसे ही भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से असेम्बली भवन में बम फेंके व नारे लगाने के साथ-साथ पर्चे भी गिराए। जिनमें बम फेंकने के राजनीतिक उद्देश्य को स्पष्ट किया गया था। 

आतंकवाद से साम्यवाद

उनका कम्युनिज्म माक्र्सवाद के सही अध्ययन पर आधारित नहीं था। उस समय देश में जिस प्रकार की स्थिति थी, उसमें मार्क्सवाद का अध्ययन आसान भी नहीं था। दूसरी कमजोरी थी, मजदूरों व किसानों को संगठित कर आतंकवाद के साथ तालमेल बिठाने की अव्यवहारिकता को न समझ पाना। इन सारी कमियों व सीमाओं के बावजूद, इस थोड़े समय चलने वाले चर्चित दौर के खाते में महत्वपूर्ण उपलब्ध्यिां भी हैं।

लाहौर की नौजवान भारत सभा का घोषणा पत्र (1928), असेम्बली बम केस के दौरान भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त द्वारा अदालत के सामने बयान (1929), हिंदुस्तान समाजवादी प्रचातंत्र संघ का घोषणा पत्र, दिसंबर (1929), बम का दर्शन, जनवरी (1930)। ये उस युग के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि दस्तावेज है। इन दस्तावेजों के आधार पर हम कह सकते हैं कि संघ माक्र्सवाद को सिद्धांत व समाजवाद को अंतिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया।

एसएन मजुमदार ने लिखा है, हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की तमाम गलतियों व कमजोरियों के बावजूद समूचे राष्ट्रीय आंदोलन में तरूण क्रांतिकारियां को साम्यवाद की ओर आकर्षित करने में इस पार्टी के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। गांधी ने 2 मार्च 1930 को वायसराय को लिखा था कि हिंसावादी पार्टी अपनी जगह बनाती जा रही है, जिस तरह का अहिंसक आंदोलन शुरू करना चाहते हैं, उससे न सिर्फ ब्रिटिश हुकूमत की हिंसक शक्ति का, बल्कि उभरते हुए हिंसावादी दल की संगठित हिंसक शक्तियों का भी प्रतिरोध किया जा सकेगा।

मार्क्स व लेनिन थे आदर्श

हिंदूस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के अधिकांश प्रमुख नेता 1929 के मध्य तक गिरफ्तार करके जेलों में बंद कर दिए गए थे। जहां उन्हें पढऩे व विचार विमर्श करने का भरपूर मौका मिला। भगतसिंह ने 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब स्टूडेंट्स की कांग्रेस के नाम एक संदेश में कहा था कि नौजवानों को बम व पिस्तौल अपनाने के लिए नहीं कह सकते। इन्हें औद्योगिक क्षेत्रों की गंदी बस्तिओं में व गांवों के टूटे-फूटे झोपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जगाना है।

2 फरवरी, 1931 को  ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम कहा था, कि - नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ता माक्र्स व लेनिन का अध्ययन करें, उनकी शिक्षा को अपना मार्गदर्शक बनाएं, जनता के बीच जाए, मजदूरों, किसानों व शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें वर्ग-चेतना उतपन्न करें।

उन्हें यूनियनों में संगठित करें। आगे बढऩे के लिए उन्होंने कहा कि आपको जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है वह है-एक पार्टी, जिसके पास पेशेवर क्रांतिकारी कार्यकर्ता हो। ऐसे कार्यकर्ता, जिनके दिमाग साफ हो, जिन्हें समस्याओं की तीखी पकड़ हो, जिनमें पहल करने व तुरंत फैसला लेने की क्षमता हो। इस पार्टी का अनुशासन बहुत कठोर होगा। उन्होंने इस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया। यहां भगत सिंह खुल्लम-खुल्ला मार्क्सवाद, साम्यवाद व साम्यवादी पार्टी की वकालत करते दिखाई देते हैं।’ 

क्रांति की परिभाषा

क्रांति के संबंध में भगतसिंह के विचार बहुत स्पष्ट थे। निचली अदालत में जब उनसे पूछा गया कि क्रांति शब्द से उनका क्या मतलब है, तो उत्तर में उन्होंने कहा था, ‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है। वह बम व पिस्तौल की संस्कृति नहीं है।

उन्होंने कहा था कि- क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए, वे अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहते है कि-क्रांति से हमारा अभिप्राय अंतत: एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसकी इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े व औपनिवेशिक युद्धों से उत्पन्न होने वाली बर्बादी व मुसीबतों से बचा सके।

भगत सिंह नास्तिक थे

अपने आप को नास्तिक बताते हुए भगत सिंह कहते हैं- कि समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लडऩा होगा जैसे कि मूर्ति पूजा व धर्म संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लडऩा पड़ा था। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे व यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए। उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरूष के साथ सामना करना चाहिए। जिनमें परिस्थितियां उसे हरा सकती हैं। यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास व रोज-ब-रोज की प्रार्थना।
जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी व गिरा हुआ काम मानता हूं, मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को चौपट कर देगी।

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। मैं भी एक मर्द की तरह फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं। ईश्वर, धार्मिक विश्वास व धर्म को यह तिलांजलि, उनके लिए न तो आकस्मिक थी न ही अभियान या अहम का परिणाम था। उन्होंने बहुत पहले, 1926 में ही ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था। उन्हीं के शब्दों में, ‘1926 के अंत तक मुझे इस बात पर यकीन हो गया था कि सृष्टि का निर्माण, व्यवस्थापन व नियंत्रण करने वाली किसी सर्वशक्तिमान परम सत्ता के अस्तित्व का सिद्धांत एकदम निराधार है।’

विचार कभी नहीं मरती

असेंबली बम केस की अपील के दौरान लाहौर हाईकोर्ट में जस्टिस फोर्ड व एडिशन की बैंच के सामने दिए गए बयान में भगत सिंह ने सेशन जज द्वारा दिए गए फैसले की तीखी आलोचना की। उनका कहना था कि किसी व्यक्ति के अपराध पर निर्णय देते समय उस व्यक्ति के काम के उद्देश्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। फांसी की सजा पर वे कहते है, कि देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूं। वे सोचते हैं कि वे मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट कर इस देश में सुरक्षित रह जाएं। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे।

ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे, जब तक वे यहां से भागने के लिए मजबूर न हो जाए। 23 मार्च 1931 को उन्हें सुखदेव व राजगुरू के साथ फांसी पर लटका दिया गया। बलिदान व यातनाओं को सहन करने की जो भावना 1930-31 तक थोड़े से नौजवानों तक सीमित थी, अब समूची जनता में दिखाई दे रही है। आज भी कश्मीर, उत्तर पूर्व, बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा व छत्तीसगढ़ विद्रोह की भावना के गिरफ्त में है। दमन के खिलाफ विद्रोह की भावना कभी नहीं मरती। और उस समय भी वह मरी नहीं थी।


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