रंजन मुण्डा के लिए अर्थहीन है आजादी
विशद कुमारगुलाम भारत में जो पैदा हुआ हो और आजाद भारत में जब उसके जीवन में कोई व्यवस्थागत बदलाव न दिख रहा हो, तो उसके लिए आजादी अर्थहीन लगती है। बस इसी अर्थहीन आजादी की पीड़ा से पीड़ित हैं गुलाम भारत में पैदा हुए झारखंड के लातेहार जिला अंतर्गत महुआडांड़ प्रखंड के नेतरहाट पंचायत के केराखाड़ गांव के निवासी 80 वर्षीय रंजन मुण्डा।

रंजन मुण्डा को 'गुलाम भारत और आजाद भारत' में कोई फर्क नहीं दिखता है। वे कहते हैं आजादी के पहले मेरा जन्म हुआ लेकिन आजाद भारत में हमें अभी तक कोई सुविधा नहीं मिली है, तो काहे की आजादी!
80 साल के रंजन मुण्डा का कहना है कि आजादी के बाद से अभी तक उनका न राशन कार्ड बना है। न ही सरकार की जनाकांक्षी योजनाओं का अभी तक कोई लाभ मिला है, आजादी के बाद कई सरकारे आईं और गईं।
बता दें कि आजादी के बाद से जनजातीयों, दलितों, पिछड़ों एवं आर्थिक कमजोर तबकों के लिए सरकार द्वारा कई जनाकांक्षी योजनाएं बनती रही हैं। देश की आजादी के 75 साल और झारखंड अलग राज्य गठन के 21 साल के बाद भी रंजन मुण्डा सरीखे लोगों के जीवन में कोई बदलाव इसलिए नहीं आया कि उनकी पहुंच सरकार की इन योजनाओं के कर्ता—धर्ता तक नहीं रही।
यही वजह है कि सरकारी योजनाओं का लाभ रंजन मुण्डा को अभी तक नहीं मिल पायी है। 2008 में वृद्धा पेंशन शुरू हुआ था, जो 2018 में बंद हो गया। वृद्धा पेंशन बंद होने की सबसे बड़ा कारण यह रहा बैंक एकाउंट का आधार से जोड़ने का क्रम। क्योंकि 2008 के बैंक एकाउंट में रंजन मुण्डा की अंकित जन्मतिथि 2016 में बना आधार कार्ड में अंकित जन्मतिथि से मेल नहीं खाया।
इस बावत एक स्थानीय पत्रकार वसीम अख्तर बताते हैं कि जब आधार कार्ड बन रहा था, तो आपरेटरों द्वारा उसमें सभी लोगों की जन्मतिथि 1 जनवरी ही जोड़ दिया गया, साल भले ही अलग—अलग डाला गया। यही वजह रही कि बैंक में 2016 के पहले खोले गए एकाउंट में दर्ज जन्मतिथि जब बाद में आधार से लिंक हुआ, तो जन्मतिथि में अंतर होने के साथ सरकारी योजनाओं के लाभ से कई लोगों को वंचित होना पड़ा। कुछ लोगों द्वारा भाग—दौड़ करके अपना आधार सुधरवाया गया, जबकि रंजन मुण्डा जैसे लोग इससे आज तक वंचित रह गये हैं।
वसीम बताते हैं कि सबसे दिक्कत वाली बात यह है कि आधार कार्ड में सुधार के लिए महुआडांड़ प्रखंड में कोई सुविधा नहीं है। ऐसे में लोगों को 90 किमी दूर लातेहार जिला मुख्यालय जाना पड़ता है, या बगल के राज्य छत्तीसगढ़ के कुसनी। क्योंकि छत्तीसगढ़ का कुसनी महुआडांड़ से मात्र 45 किमी दूर है।
कहना ना होगा कि ऐसी दशा का शिकार अकेले रंजन मुण्डा ही नहीं है। कितने ही रंजन मुण्डा हैं, जिस पर हमारी नजर नहीं जाती है, या हम उन्हें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।
आधार कार्ड से पैदा हुई समस्याओं का रंजन मुण्डा जैसों की कहानी के रिश्तों के बीच यह बता दें कि 2017 में बिना परिवारों को बताये झारखण्ड में लाखों राशन कार्ड रद्द किये गए थे। क्योंकि वे आधार से जुड़ने की अर्हता पूरी नही कर पाए थे। तत्कालीन रघुवर सरकार का दावा था कि इनमें ज्यादातर कार्ड 'फ़र्ज़ी' थे। लेकिन, हाल ही में जे—पाल का एक अध्ययन से यह साफ हो गया है कि रद्द किये गए कार्डों में ज़्यादातर फ़र्ज़ी नहीं थे।
उल्लेखनीय है कि 27 मार्च 2017 को झारखंड की रघुवर सरकार की मुख्य सचिव राजबाला वर्मा ने कहा था कि ''सभी राशन कार्ड जिन्हें आधार नंबर के साथ जोड़ा नहीं गया है, वे 5 अप्रैल 2017 को निरर्थक हो जाएंगे ... लगभग 3 लाख राशन कार्ड अवैध घोषित किए गए हैं।''
इस बावत सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, झारखंड सरकार द्वारा 27 मार्च 2017 एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी।
22 सितंबर 2017 को झारखंड सरकार ने अपने एक हजार दिनों की सफलताओं पर एक पुस्तिका जारी की। उसमें उन्होंने यह कहा कि ''आधार नंबर के साथ राशन कार्ड को सीड करने का काम शुरू हो गया है। इस प्रक्रिया में 11 लाख, 64 हजार फर्जी राशन कार्ड पाए गए हैं। इसके माध्यम से, राज्य सरकार ने एक वर्ष में 225 करोड़ रुपये बचाये हैं, जिनका उपयोग अब गरीब लोगों के विकास के लिए किया जा सकता है। 99 % राशन कार्ड आधार के साथ सीड किए गए हैं।''
10 नवंबर 2017 को, खाद्य विभाग (झारखण्ड सरकार) ने स्पष्ट किया कि हटाए गए राशन कार्डों की संख्या असल में 6.96 लाख थी, न कि 11 लाख। इसमें सबसे हास्यास्पद पहलू यह रहा कि रद्द किये गए कार्डों को "फ़र्ज़ी" आदि कहा जाता रहा।
बता दें कि आधार के इसी करिश्में के कारण 28 सितंबर 2017 को सिमडेगा जिले की 11 वर्षीय संतोषी कुमारी की भूख से हुई मौत ने पूरे राज्य को हिला दिया था। संतोषी कुमारी की मौत 'भात दे, भात दे' करते हुए हुई थी। उसका पूरा परिवार चार—पांच दिनों से कुछ नहीं खाया था। दरअसल उसके परिवार का राशन कार्ड, आधार से सीड न होने के कारण, 22 जुलाई 2017 को रद्द किया गया था। यह जानकारी खुद सरयू राय, तत्कालीन खाद्य आपूर्ति मंत्री द्वारा दी गई थी। बता दें कि संतोषी कुमारी स्कूल में मिलने वाला मध्याह्न भोजन घर लाती थी जिसे परिवार के सदस्य थोड़ा—थोड़ा खाकर गुजारा कर लेता था। मां भी कहीं कहीं काम करके कुछ लाती थी। किसी कारण स्कूल एक सप्ताह से बंद था, जिस वजह से मध्याह्न भोजन का मिलना बंद हो गया। ऐसे में पूरा परिवार चार—पांच दिनों से कुछ नहीं खाया था और संतोषी की जान चली गई।
2020 में बोकारो जिले के कसमार का भूखल घासी 6 मार्च को जीवन का जंग हार गया। उसकी मौत के पहले उसके घर में लगातार चार दिनों तक चुल्हा नहीं जला था, मतलब बीमार भूखल घासी को लगातार चार दिनों से खाना नहीं मिला था।
वहीं गढ़वा जिला मुख्यालय से करीब 55 कि0 मी0 दूर और भण्डरिया प्रखण्ड मुख्यालय से करीब 30 कि0 मी0 उत्तर पूर्व घने जंगलों के बीच 700 की अबादी वाला एक आदिवासी बहुल कुरून गाँव की 70 वर्षीया सोमारिया देवी की भूख से मौत 02 अप्रैल हो गई। सोमरिया देवी अपने 75 वर्षीय पति लच्छू लोहरा के साथ रहती थी। उसकी कोई संतान नहीं थी। मृत्यु के पूर्व यह दम्पति करीब 4 दिनों से अनाज के अभाव में कुछ खाया नहीं था। इसके पहले भी ये दोनों बुजुर्ग किसी प्रकार आधा पेट खाकर गुजारा करते थे।
बता दें कि दिसंबर 2016 से लेकर अप्रैल 2020 तक 24 लोगों की जान भूख के कारण गई है। ये वो आंकड़े हैं जो किसी न किसी सूत्र से मीडिया तक पहुंच पाये थे। जो मीडिया तक नहीं पहुंच पाये वे गुमनाम रह गए।
इन भुखमरी से हुई मौतों में से लगभग आधी मौतें किसी ना किसी तरीके से आधार से सम्बंधित समस्याओं से जुड़ी थीं।
प्रख्यात अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन, पॉल नीहाउस और संदीप सुखटणकर द्वारा इस अध्ययन के तहत झारखण्ड में 10 रैंडम ढंग से चुने गए ज़िलों में 2016 -2018 में रद्द हुए राशन कार्डों का शोध किया गया है। अध्ययन के परिणाम इस प्रकार हैं — 2016 और 2018 के बीच 10 ज़िलों में 1.44 लाख राशन कार्ड रद्द किये गए थे।
कुल रद्द किए गए कार्डों के 56% (एवं कुल कार्डों के 9%) आधार से जुड़े नहीं थे।
रद्द किये गए राशन कार्डों में से 4,000 रैंडम ढंग से चुने गए कार्डों के जांच में पाया गया कि लगभग 90% रद्द किये गए राशन कार्ड फ़र्ज़ी नहीं थे। बस लगभग 10% "घोस्ट" (फ़र्ज़ी) परिवारों के थे, यानी वह परिवार जिनका पता नहीं लगाया गया था।
कहना ना होगा कि भले ही सरकारी जनाकांक्षी योजनाओं में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से आधार से लिंक करने का नियम बनाया गया है, लेकिन सच यह है कि जबसे सरकारी जनाकांक्षी योजनाओंं को आधार से जोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ है, तबसे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों, आदिवासी बहुल क्षेत्रों और जंगल—पहाड़ों पर बसने वालों की परेशानी बढ़ गई है। कहीं नेटवर्क की कठीनाई, तो कहीं आधार में गड़बड़ी के कारण परेशानी बढ़ी है। जिसके लगातार खुलासे होते रहे हैं। भूख से मरने वालों की खबरों में आधार मुख्य कारण रहा है।
बावजूद सरकारी स्तर से इसका कोई स्थाई विकल्प तैयार नहीं हो सका है। इतना जरूर हुआ है कि जब भी भूख से मरने की खबर या भूखों मरने की स्थिति की खबर हाई लाइट हुआ है, सरकारी स्तर से त्वरित रूप से प्रभावित या प्रभावित परिवार को कुछ मदद करके अपने कर्तव्यों की औचारिकता पूरी कर ली जाती है। यही कारण है कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी रंजन मुण्डा जैसे लोग हमारी डपोरशंखी व्यवस्था के शिकार हैं।
रंजन मुण्डा की कहानी यह है कि वर्षों पहले उनकी पत्नी रिजी देवी दुनिया छोड़कर चली गई। दो लड़के थे, बड़ा लड़का बोधन मुण्डा की भी मौत हो गयी और छोटा बेटा महेन्द्र मुण्डा 12 वर्षों तक रोजगार को लेकर गायब रहे, अब जाकर अपने परिवार के बीच रह रहे हैं। जबकि महेन्द्र की पत्नी भी इस दुनिया में नहीं है।
शारीरिक व आर्थिक परेशानी झेलता असहाय वृद्ध रंजन मुण्डा अपनी बहन मुली देवी के घर महुआडांड़ प्रखंड के चंम्पा पंचायत का गनसा गांव चले गये हैं। क्योंकि एक तो वृद्धा पेंशन बंद है, दूसरा उनके पोते उनकी देख—रेख में अक्षम हैं। वहीं बहन मुली देवी की माली स्थिति भी ठीक नहीं है, उसका एक बेटा और बहु हैं।
बेटे के दो बच्चे हैं, अत: वह मजदूरी करके अपना और अपनी मां, पत्नी सहित अपने बच्चों का परवरिश करता है। यहां भी जो राशन कार्ड है, उसमें मुली देवी के बेटा व बहु का ही नाम है, अत: इन्हें केवल दो लोगों के अनुपात में चावल मिलता है, जिससे पूरे परिवार का भरण पोषण संभव नहीं हो पाता है।
रंजन को अपना बीता हुआ कल याद तो है, लेकिन बोलने में कठीनाई के कारण बहुत कुछ बता नहीं पाते हैं। बावजूद आजाद भारत की व्यवस्था से उन्हें काफी शिकायत है। आजाद भारत की व्यवस्था के शिकार वे तब हुए थे जब वे 25—26 साल के थे। अपने अतीत को याद करते हुए रंजन मुण्डा बताते हैं कि उनकी रिश्तेदारी तत्कालीन मध्यप्रदेश व वर्तमान छत्तीसगढ़ में भी है, अत: जब वे 25—26 साल के थे, तब वे अपने घर नेतरहाट पंचायत के केराखाड़ गांव से अपने रिश्तेदार के लिए 10 सेर चावल लेकर मध्यप्रदेश अंतर्गत बलरामपुर जिला के समरी गांव जा रहे थे। झारखंड तब बिहार हुआ करता था और समरी गांव बिहार व मध्यप्रदेश की सीमा में था।
जैसे रंजन मुण्डा मध्यप्रदेश की सीमा में गए, वहां की पुलिस ने उन्हें यह आरोप लगाते हुए पकड़ लिया कि वे मध्यप्रदेश से चावल की तस्करी कर बिहार ले जाते हैं। इस आरोप के साथ उन्हें अंबिकापुर जेल भेज दिया गया। इस घटना की किसी को जानकारी नहीं थी। अंतत: उन्हें 6 महीने बाद छोड़ दिया गया, तब वे अपने घर आ सके। वे बताते हैं कि इस घटना के लगभग 10 साल बाद किसी मुकदमे में एक परिचित का जमानतदार बने, पुलिस के भय से वह कहीं भाग गया तो पुलिस रंजन मुण्डा को गिरफ्तार कर ले गई, फिर इन्हें तीन महीने तक लातेहार जेल में बिताना पड़ा।
रंजन मुण्डा जैसे लोगों की कहानी हमारे समाज, हमारी व्यवस्था पर कई सवाल खड़ी करती है। कहना ना होगा कि रंजन मुण्डा जैसे लोगों को सरकार या सामाजिक संगठनों को गंभीरता से लेना होगा।
सामाजिक कार्यकर्ता सभिलनाथ पैकरा बताते हैं कि रंजन मुंडा लातेहार जिला के महुआडांड़ प्रखण्ड के ग्राम पंचायत सोहर के अरहांस गाव के निवासी थे। लेकिन इनके पिता स्व.लब्दु मुंडा को घर दमदा (घर जमाई) अरहांस से केराखांड़ लाया गया था, तब से इनका परिवार केराखांड़ में रहता था। रंजन मुंडा का नाम राशन कार्ड में नहीं है। वहीं इन्हें सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रहा था, पिछले पांच साल से बन्द है।
रंजन मुंडा के दो बेटे थे। पहला बेटा बोधन मुंडा अब इस दुनिया में नहीं है। उसकी पत्नी रिजी बेंग (47 वर्ष) जो ज़िंदा है, उसके तीन लड़के हैं।
पहला मनोज (25 वर्ष) जिसकी पत्नी शोभाग्या कुजूर (22 वर्ष), जिसका 2 वर्ष का एक बेटा रियांस कुजूर है।
दूसरा बेटा मनीजर (22 वर्ष) जिसकी पत्नी आरती कुजूर (20 वर्ष), जिसका पुत्र आभा केरकेटा ढाई वर्ष और अभय केरकेटा 1 माह का है।
तीसरा बेटा राजेश (20 वर्ष) जिसकी पत्नी संतोषी उम्र (18 वर्ष), जिसका बेटा अमन केरकेटा उम्र 3 वर्ष और अनसुल केरकेटा उम्र 1 वर्ष है।
स्वर्गीय बोधन मुंडा के तीनों बेटा का नाम राशन कार्ड में नाम है। रंजन मुंडा का किसी राशन कार्ड में नाम नही है।
इस परिवार को इंदिरा आवास का लाभ 2015-2016 में मिला था, जिसमें माता रेजिना सहित सभी लोग रहते हैं।
रंजन मुंडा का दूसरा बेटा महेंद्र मुंडा (50 वर्ष), जिसकी पत्नी फर्न्सिसका कुजूर जो अब इस दुनिया में नहीं है। 1995 में महेंद्र बाहर काम करने गए थे, इन्होंने 12 वर्ष तक बाहर काम किया। लेकिन अब घर में ही रहते हैं। इनका राशन कार्ड तो है लेकिन इनको इंदिरा आवास का लाभ नहीं मिला है। इन्होंने बताया कि कई बार प्रयास करने के बाद भी नहीं मिला। इनकी चार बेटी और एक बेटा है।
(1) रेसामणि उम्र 27 वर्ष जो की बंगाल में रहती है।
(2) रेखामनी उम्र 25 वर्ष गाव में ही रहती है और गांव में ही ससुराल है।
(3) रेशमा उम्र 23 वर्ष बाहर है, इसके बारे में कोई जाकारी नहीं है कि वह कहां है।
(4) रश्मिता उम्र 20 वर्ष राजाडेरा गुमला में रहती है।
(5) बेटा रोमन केरकेटा लगभग 15 वर्ष महुआडांड़ में पढ़ता है।
महेंद्र मुंडा का कहना है कि जमीन ज्याद नहीं है, हमलोग मजदूरी से ही जीवन यापन करते है, लगभग 160 डिसमिल जमीन केराखांड़ में कमाने—खाने के लिए दिया गया है, जो घर दमदा के माध्यम से मिला था। पैतृक गांव अरहांस में भी जमींन नही है।
बता दें कि केराखांड़ के पूर्व ग्राम प्रधान मदेश्वर मुंडा द्वारा इस जमीन को कब्जा करने की बराबर कोशिश होती रही, इन्हें बराबर डराया धमकाया जाता रहा है। अब उनके मरने के बाद इसी परिवार के सुधेश्वर मुंडा द्वारा डराया धमकाया जाता है। इस कारण रंजन मुंडा अब महुआडांड़ में अपने बहन के यहां रहते हैं।
यहां राजनीतिक त्रासदी यह है कि पलामू प्रमंडल के रहने वाले मुण्डा, चिक बड़ाईक, लोहरा जो आदिवासी हैं उन्हें सामान्य श्रेणी में रखा गया है।
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