आत्म - केन्द्रित समाज और उजड़े हुए लोग
स्वराज करुणछत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले में पिथौरा कस्बे के पास गीली ज़मीन पर बिहार के बाढ़ पीड़ित परिवारों की महिलाएं पेड़ों के नीचे ईंटों से बनाए गए चूल्हों में खाना बना रही हैं। कुछ दुधमुंहे शिशु उनकी गोद में हैं। कुछ बड़ी उमर के बच्चे आसपास चहलकदमी कर रहे हैं। उनमें से कुछ बच्चे स्थानीय नागरिकों के पक्के मकानों के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठकर आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। शायद कह रहे हैं - पता नहीं, कल कहाँ जाएंगे।

अपराह्न हुई बारिश की वजह से ज़मीन और भी ज़्यादा गीली हो चुकी है। दोपहर जब इन लोगों से मिलकर गया था, तब विगत दो दिनों की बरसात के कारण जमीन गीली तो थी, लेकिन उतनी नहीं, जितनी अभी है। पोस्ट के साथ यह तस्वीर दोपहर की है।
सोचा, जरा अभी देख आऊं कि वहाँ ये किन हालातों में हैं। रात हो चुकी है। इसलिए अंधेरे में फोटो ठीक नहीं आएगी, सोचकर मैंने कैमरा (मोबाइल) नहीं निकाला।आँखों देखी बता रहा हूँ।
छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले में पिथौरा कस्बे के पास गीली ज़मीन पर बिहार के बाढ़ पीड़ित परिवारों की महिलाएं पेड़ों के नीचे ईंटों से बनाए गए चूल्हों में खाना बना रही हैं। कुछ दुधमुंहे शिशु उनकी गोद में हैं।
कुछ बड़ी उमर के बच्चे आसपास चहलकदमी कर रहे हैं। उनमें से कुछ बच्चे स्थानीय नागरिकों के पक्के मकानों के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठकर आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। शायद कह रहे हैं -पता नहीं, कल कहाँ जाएंगे।
गंडक और कोसी नदियों की बाढ़ से उजड़े अपने घर - परिवार के अनिश्चित भविष्य की हर किसी को चिन्ता है। आर्थिक तनाव भी है। अंधेरे में इन्हीं वृक्षों के नीचे साँप - बिच्छुओं और कीड़े - मकोड़ों की परवाह किए बिना, प्लास्टिक की पन्नियों में सोकर ये लोग रात गुजारेंगे।
उजड़े आशियानों की फिक्र और विस्थापित जीवन के आर्थिक तनाव की वजह से इन परिवारों में छोटी - छोटी बातों को लेकर आपस में कहासुनी भी ख़ूब होती है, जो मुझे शाम के वक्त सूर्यास्त की रोशनी में देखने को मिली।
जब दो औरतें एक दूसरे को हाथ दिखा - दिखाकर कर और बीच - बीच में एक दूसरे पर उंगली उठा-उठा कर जोर - जोर से अपनी बोली में पता नहीं क्या क्या बोल रही थीं। लगा कि अब - तब मार - पीट होने ही वाली है, लेकिन ग़नीमत है कि नहीं हुई ।
दोपहर को इन परिवारों से बातचीत के दौरान इनमें से कुछ लोगों ने मुझसे कुछ पैसे मांगे। मेरी जेब में 250 रुपए थे।
उनमें से 200 का नोट एक प्रौढ़ व्यक्ति को देने के लिए आगे बढ़ाया ही था कि एक साथ कई लोग उस नोट को लेने हाथ बढ़ाने लगे।
उन्हें समझाकर उस प्रौढ़ को दिया और कहा कि जरूरत का सामान खरीदकर आपस में बाँट लेना। इतने में तीन - चार महिलाएं अपने दुधमुंहे बच्चों को गोद में लिए मेरे सामने आ गईं और मदद मांगने लगीं।
मेरे पास 50 रूपए के जो चिल्हर नोट थे, वो सब उनमें बाँट दिए। उस दौरान भी इन नोटों के लिए महिलाओं में छीना - झपटी के हालात बनते बनते रह गए।
दरअसल यह देश में व्याप्त घोर ग़रीबी का एक बहुत छोटा, लेकिन जीता -जागता उदाहरण है, जहाँ एक तरफ तो सितारा होटलों में एक घंटे की शराब - पार्टी में अमीर लोग लाखों रूपये हवा में उड़ा देते हैं, दीपावली में कई परिवार सैकड़ों हजारों रुपए पटाखों में जला देते हैं।
जन्म दिन, सगाई, और वैवाहिक आयोजनों में लाखों करोड़ों रुपए सिर्फ़ अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए खर्च कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर दस - दस, बीस - बीस रुपयों के लिए गरीब लोग किस कदर तरस रहे हैं, इसे बस, इन नोटों के लिए उनके बीच मारामारी जैसे हालात देखकर महसूस किया जा सकता है।
दोपहर को फेसबुक पर पोस्ट डालने के बाद मैंने सोचा था कि सक्षम, समर्थ कुछ स्थानीय लोग और समाजसेवी संगठन इनकी मदद के लिए आगे आएंगे। उनमें से कुछ को फोन पर भी इनके बारे में बताया।
लेकिन कोई आगे नहीं आया। समाज कितना आत्म - केन्द्रित होता जा रहा है ! यह भी किसी से कहने की नहीं, सिर्फ़ महसूस करने की बात है! फिर भी मैं आपसे कह रहा हूँ!
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