साम्प्रदायिकता और संस्कृति

उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की रचना

मुंशी प्रेमचंद

 

हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक स्वरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गए हैं, कि अब न कहीं मुसलिम संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक ही संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुसलिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।

हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई संस्कृति और मुसलिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थानपूजक नहीं हैं? ताजिए को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मसजिद को खुदा का घर कौन समझता है?

अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े-से-बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रंथों को गपोड़े समझता है। यहां तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अंतर नहीं दीखता। 

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिलकुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मदरासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है, जैसे मदरासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं, सर्व-साधारण की भाषा बोलते हैं, चाहे वे उर्दू हो या हिन्दी, बंगला हो या मराठी।

बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहां का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान आपके सामने खड़े कर दिए जाएं, कोई तमीज नहीं। हिन्दू स्त्री-पुरूष भी मुसलमानों के से शलवार पहनते हैं, हिन्दू स्त्रियां मुसलमान स्त्रियों की ही तरह कुरता और ओढ़नी पहनती-ओढ़ती हैं। हिन्दू पुरूष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बांधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं।

बंगाल में जाइए, वहां हिन्दू और मुसलमान स्त्रियां दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरूष दोनों ही कूरता और धोती पहनते हैं। तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं, तो हिन्दू भी अस्सी फीसदी मांस खाते हैं। ऊंचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊंचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं या भंग के गोले चढ़ाते हैं, जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है।

मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते हैं, हां कुछ लोग अफीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाजी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं हैं। हां, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं और उसका मांस खाते हैं, लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियां मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं, यहां तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़ती, हालांकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अंतर नहीं है।

संसार में हिन्दू ही एक ऐसी जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त संसार से धर्म संग्राम छेड़ देना चाहिए? संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहां भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागिनियां दोनों गाते हैं और मुगल काल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं।

नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सीगे में भी हम मुसलमानों को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को। फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन-सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना जोर बांध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड।

और इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं, जो साम्प्रदायिकता की शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है, और कुछ नहीं।

हिन्दू और मुसलिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की जरूरत समझते हैं, जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सके। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना और इस तरह विदेशी शासन की अपेक्षा विदेशी शासन कहीं हिन्दू या किसी मुसलिम शासन को स्थायी बनाना है।

उन्हें किसी हिन्दू या किसी मुसलिम शासन की अपेक्षा विदेशी शासन कहीं सह्य है। वे ओहदों और रिआयतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते। 

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रिआयतें पा गया है, तो हिन्दू क्यों न सरकार का दामन पकड़े और क्यों न मुसलमानों ही की भांति सुर्खरू बन जाए! यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना, जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक होकर राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार-शक्ति से बाहर है।

दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएं मध्यवर्ग के धनिकों, जमींदारों, ओहदेदारों और पद-लोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यवसायिक प्रभुत्व जमा सकें।

साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुंचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जाएंगे।

अगर और ज्यादा गहराई तक जाएं, तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई-न-कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसाई ही सरल हो जाती है। 

एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफसरों की निगाह में बड़ी इज्जत है, इनकी वे बड़ी खातिर करते हैं। इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं, ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है, आपस में खूब लड़े जाओ, खूब एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाओं।

उनके पास फरियाद ले जाओं, फिर उन्हें किस का गम है, वे अमर हैं। मजा यह है कि बाजों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं।

इतिहास से उसके उदाहरण भी दिए जाते हैं। इस तरह की गलतफहमियां फैलाकर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई जमाना था, जब मुसलमानों के राजकाल में हिन्दुओं ने स्वाधीनता पाई थी, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के जमाने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उन जमानों को भूल जाइए।

वह मुबारक दिन होगा, जब हमारी शालाओं से इतिहास उठा दिया जाएगा। यह जमाना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी-आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे यह अंधविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके।

जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है, न जरूरत। 'संस्कृति' अमीरों का, पेटभरों का, बेफिक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राण-रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है। उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूच्छत थी, तब उस परधर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था।

ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि वह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी, जो राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगतसेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है।

उस पुरानी संस्कृति में उसके मोह का कोई कारण नहीं हैं और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आंखे बंद किए हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।


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