आज के इस पन्ने पर तेभागा से राजनांदगांव तक का इतिहास

तेभागा के महान नेता प्रकाश राय की पुण्यतिथि पर उनकी अमरगाथा

उत्तम कुमार

 

अच्छा किया, निष्ठुर बहुत अच्छा किया,

इसी तरह मेरे हृदय में धधकती हुई अंगार जला दो।।

मेरा यह धूपबत्ती जब तक नहीं जलेगी,

उसकी सुगंध नहीं फैलेगी।।

मेरा यह दिया जब तक नहीं जलेगा,

प्रकाश नहीं फैलेगा।।

निष्ठुर तुमने ठीक ही किया है।।।


(3 दिसम्बर 1975 को प्रकाश राय द्वारा पत्नी माधवी को समर्पित श्रद्धांजलि कविता)

ठीक बीते कल ही उनके पौता अनिमेष राय से बात हुई थी कि जो व्यक्ति व्यवस्था परिवर्तन के कामों में लगा हो और वह मुख्यधारा में न आकर कुछ और करना चाह रहा हो उनके कामों पर भी विवेचना होनी चाहिए। राजनांदगांव में आकर राय ने वास्तव में सच्चे लोकतंत्र के लिए कार्य कर उन उपलब्धियों को हासिल किया जिन्हें पाना आसान नहीं। हां उन्होंने धन संचय का काम नहीं किया, अपने परिवार के लिए बैंक बैलेंस या प्रापर्टी नहीं छोड़ी लेकिन मजदूर-किसान संघर्षों के जिन उपलब्धियों को उन्होंने छोड़ रखा है, वह बेशकीमती है। उसे जज्ब करना आज की पीढ़ी के लिए टेड़ी खीर है।’

बंगाल का तेभागा आंदोलन देश के प्रमुख किसान आंदोलनों में से एक था। यह आंदोलन बटाईदारों द्वारा जोतदारों के विरूद्ध चलाया गया किसान विद्रोह था। 1940 में ‘लगान आयोग’ ने सिफारिश की थी कि फसल का दो तिहाई हिस्सा वर्गदारों (किसानों) को दिया जाना चाहिए, परंतु जोतदारों द्वारा ऐसा न करने पर किसानों द्वारा यह आंदोलन चलाया गया। इस आंदोलन की मांग के आधार पर इसे तेभागा (दो तिहाई) आंदोलन का नाम दिया गया। इस आंदोलन में सबसे मुख्य भूमिका बंगाल किसान सभा ने निभाई। इसके नेतृत्व में सभाओं व प्रदर्शनों का गौरवशाली आयोजन किया गया।

‘तेभागा चाई’ (हमें दो तिहाई भाग चाहिए) व इंकलाब जिंदाबाद जैसे नारे बंगाल के साथ पूरे देश में फैलने लगा। शीघ्र ही तेभागा आंदोलन जलपाईगुड़ी, मिदनापुर, रंगपुर व चौबीस परगना जिलों में भी फैल गया। आंदोलनकारी लाठी लेकर प्रदर्शन करते थे व नारे लगाते थे। पैदा किए गए उपज को जोतदार के घर न ले जाकर अपने घर ले जाते थे। बंगाल की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों कंसारि हलदार, अशोक बोस (प्रकाश राय), सुरेनधर चौधरी, नरेन गुहा, नित्यानंद चौधरी व जुझारू महिलाओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, कई स्थानों पर आंदोलनकारियों तथा पुलिस के बीच हिंसक झड़पें भी हुई।

स्वाधीनता के पश्चात भी यह आंदोलन उस समय तक जारी रहा जब तक 1949 में वर्गदार अधिनियम नहीं बन गया। भले ही वर्तमान समय में वह आंदोलन न चल रहा हो लेकिन किसानों के हित में कई रूपों में आंदोलन आज भी जारी है और उनके खिलाफ भूमि अधिग्रहण कानून लाने की कोशिश आज भी जारी है। इसे याद करना छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव से किसान आंदोलन के साथ मजदूर आंदोलन को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले सख्शियत को याद करना है। उनके मृत्यु के बाद गुमनामी से भरे उनके जिंदगी व इतिहास पर प्रकाश डालते हुए 3 सितम्बर 2015 की पुण्य तिथि के अवसर पर प्रकाश राय की ऐतिहासिक भूमिका को याद करते हुए उनकी पुत्रवधु मंजु राय से चर्चा की।

इस आंदोलन से जुड़े प्रमुख नेताओं में से एक प्रकाश राय का जन्म समृद्ध जमींदार परिवार में हुआ था। दो वर्ष की उम्र में ही उनकी मां बीनापाणी देवी का देहांत हो गया था। उसके पश्चात उनका पालन-पोषण उनकी दादी मृणालिनी देवी ने की। वह प्रख्यात क्रांतिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्ता व स्वामी विवेकानंद की भांजी थी। वह अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण समय सिस्टर निवेदिता, रविन्द्रनाथ टैगोर व साहित्यकार नवीनचंद्र सेन के साथ गुजारी। वह चाहती थी कि अशोक देश के भूखे, नंगे, गरीब, शोषितों के पक्ष में खड़े हो और उसका पिता चाहते थे कि वह सामन्ती वातावरण में पले-बढ़े।

इस अंतरविरोध के बीच व दादी से अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ साहित्य व कहानी सुनने के बाद गरीबों के बीच रहना उत्तम समझा। उन्होंने सबसे पहले 1936-37 में कालापानी की सजा प्राप्त अंडमान के राजनैतिक बंदियों की मुक्ति के लिए कलकत्ता के न्यू इंडिया स्कूल में नवीं में पढ़ते हुए हड़ताल व धरना-प्रदर्शन में भागीदार बनें। इसके बदले उन्हें अपने मित्रों के साथ बेंत की सजा दी गई। 1938 में वे गणित में विशेष अंक अर्जित कर कालेज में दाखिला लिया। तब तक वे कविता व लेखन कार्य से जुड़ चुके थे।

1940 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए। उन्हें चुनौती के रूप में जमींदारी प्रथा के खिलाफ गुप्त संगठन बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। वे उस चुनौति को स्वीकार किए। 1943 में बंगाल में भयानक अकाल के दौर में जब 50 हजार लोग भूख से मर गए तब वे डाकतार यूनियन के पदाधिकारी होने पर भी नियमित गांव में जाते थे एवं गरीबों को कम्युनिस्ट पार्टी के नजदीक लाने का प्रयास करते थे। उसी समय बांग्लादेश में स्थित खुलना जिले में अपने पिताजी के जमीन का बंटवारा किसानों के बीच कर दिया अपने जमींदार पिता को हैरत में डाल दिया था। इससे उनके पिता को आर्थिक क्षति पहुंची।

अशोक नित्यानंद चौधरी व भवानी सेन से सलाह लेकर मैमनसिंग जिले में विशाल सभा को संगठित किया। उन्हें 200 स्वयंसेवकों को संघ में भर्ती दी। अशोक बोस के नेतृत्व में उस क्षेत्र के सभी सरकारी मुलाजिमों को गिरफ्तार कर पहरे में रखा गया। रात्रि को करीब 8 बजे थानेदार ने कुछ अधिकारियों ने सशस्त्र पुलिस का एक दस्ता लेकर हमला करने पहुंचे पर अशोक ने स्वयंसेवकों को लेकर पुलिस दस्ता और अधिकारियों को घेर कर सुबह तक रोके रखा।

जब 6 हजार एकड़ के धान की कटाई व वितरण समाप्त हुआ तब उन्हें छोड़ा गया। इस घटना के बाद एक साल के अंदर ही लोगों को बसने के लिए जमीन एवं क्षतिपूर्ति मिलने लगा। 1946 में पूरे बंगाल में ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन उत्कर्ष पर था। इस आंदोलन में आंकड़ों के अनुसार 60 लाख किसानों ने हिस्सा लिया। कंसारि हलदार, अब्दुल रज्जाक खान, अब्दुल हालिम, नित्यानंद चौधरी ने आंदोलन को नेतृत्व दिया। अंग्रेजी शासन की मदद से जमींदारों ने काफी दमन चलाया पर आंदोलन रूका नहीं। जंगल में आग की तरह इसने आंध्र में तेलंगाना को हवा दी।

1947 का समय भारत में विभाजन का था। हिन्दु मुसलमान साम्प्रदायिक दंगों से देश भडक़ उठा था। कलकत्ता के नजदीक का इलाका इससे अछूता नहीं रहा। इस दौरान दंगा रोकने के एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत पूरे आत्मविश्वास के साथ गांव-गांव मं मुस्लिम जनता से सम्पर्क किया एवं कम्युनिस्ट पार्टी के रास्ते पर चलकर साम्प्रदायिक तत्वों को अलग करने का आह्वान किया। तय हुआ कि मुसलमान जनता के हाथों पार्टी का झंडा व लाठी देकर हिन्दू आदिवासी व दलितों के घर दिन रात पहरा देना तय हुआ।

इसके बाद 15 अगस्त 1957 को स्थिति सामान्य हुआ। 1973 के फरवरी में जब अशोक बोस 25 साल के बाद संघर्ष क्षेत्र में पहुंचे तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) नेता के नाम पर उनका गांव-गांव में भव्य स्वागत किया गया। दिसम्बर में उनकी पत्नी माधवी व पुत्र अमित का भी इसी तरह गांव-गांव ले जाकर स्वागत किया गया। मार्च 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी व उसके जनसंगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया। उन्हें नजरबंद कर अलीपुर सेन्ट्रल जेल में रखा गया। पुलिस ने एक दमन अभियान चलाया व दिसम्बर में वे रिहा हुए।

उसके बाद पार्टी निर्देश पर बंगाल के सुंदरवन क्षेत्र में अधिया किसानों को संगठित किया। इसी वर्ष नवम्बर में उनके नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। फसल काटने के पूर्व तैयारी में कैनिंग थाना के डोंगाजोरा में गोली चलाई गई जिसमें 4 भूखे किसान शहीद हो गए। कईयों लड़ाकुओं ने भूख बर्दास्त नहीं किया। दमन के सामने झूक गए। सुन्दरवन के समस्त वन क्षेत्र में पुलिस कैम्प बिछाया गया।

उद्देश्य तय किया गया कि ‘पंचायत खमार’ में धान लाया जाएगा। पुलिस उस दौरान अशोक बोस को खोज रही थी। जुझारू नेता अश्विनी दास 15 स्वयंसेवकों के साथ 36 रायफलधारी गोरखा फौजों के सामने कूद पड़ा। तत्काल गोली चलाकर उसे भून दिया गया। वह गिरने लगा पर उसकी बहन आठ माह की गर्भवती अहिल्या ने गिरते हुए झंडे को थाम लिया एवं भाई को बचाने का प्रयत्न करने लगी। इसे देख पुलिस ने उस पर भी गोली चलाई। अहिल्या के सीने व गर्भ को पुलिस ने संगीन से चीर दिया। उसके बाद एक के बाद एक अहिल्या, अश्विनी, सरोजिनी, बताशी, उत्तमी, भदीवेवा, देवेन आदि सात लोग शहीद हो गए।

इस घटना की खबर जंगल में आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गई। शाम तक सात शवों को जलाया गया। इसके बाद कलकत्ता में राजनैतिक बंदियों को रिहा करने का आंदोलन चला 27 अप्रैल 1949 को दोपहर 50 महिलाओं ने कुछ लोगों के साथ बहू बाजार स्ट्रीट पर जुलूस निकाला। लोगों ने नारा लगाया हमारे पति, पुत्र और भाइयों को जेल से रिहा करो। एकाएक सशस्त्र पुलिस टूट पड़ी। इस तरह लतीका सेन, प्रतिमा गांगुली, आमिया दत्ता व गीता सरकार शहीद हुई। बुंदाखाली में सुरेन्द्र सुधीर और नीलकंठ शहीद हुए। इस दौरान गिरफ्तार लोगों से उनके नेताओं के संबंध में पूछताछ कठोरता के साथ जारी था।

यह संघर्ष सोनारपुर, भांगौड़, नयाबाद, खैयादा, साहेब, आबाद, मथुरापुरा, जिपलाट, डोंगाजोरा, विष्णुपुर, घपघपी, जयनगर, राधानगर, दुर्गामंडप, गांववेड़े, दाउदपुर, शुकदोयानि, संदेशखाली तक फैल गया। दूसरी ओर तेलंगाना में किसानों का महान सशस्त्र संघर्ष आदिवासियों एवं भूमिहीनों को जमीन दिलाने के लिए बहादुरी के साथ आगे बढऩे लगा था। पश्चिम बंगाल में अशोक बोस को जिला पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई। कंसारि हलदार को किसान सभा का प्रमुख बनाया गया। सूरेनधर चौधरी, नरेन गुहा, नित्यानंद चौधरी को औद्योगिक क्षेत्र में विशेष जिम्मेदारी दी गई।

उस समय स्थानीय प्रमुख नेता के रूप में गजेन माली, विजय मंडल,भूषण कामिला, तरणी साहू, भीम घडुई, दिजेन दिन्दा, मंगल सारेंग, जोतिन माईती, सूर्य बारीक आदि नए नेतृत्वकत्र्ता के रूप में उभर कर आए। नरेन गुहा के नेतृत्व में अंदमान से लौटे नेता सुरेनधर चौधरी को पुलिस सुरक्षा में अस्पताल में इलाज करवाते समय उठा लाने की योजना बनाई गई। उन्हें सफलतापूर्वक लाकर गुप्त स्थान में रखकर इलाज करवाया गया।

बैरकपुर में रिजर्व आर्म फोर्स के अधिया किसानों के आंदोलन का प्रचार प्रसार किया गया। बाद में जब इन सशस्त्र फौजों को काकद्वीप आंदोलन को कुचलने के लिए भेजने का आदेश दिया तब चार सौ सिपाहियों ने जाने से इंकार कर दिया। इस बीच अशोक गुप्त रूप से गांवों में किसानों के बीच कार्य करते रहे। पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें जीवित या मृत पकडऩे के लिए 50 हजार रुपए पुरस्कार की घोषणा कर चुकी थी।

1950 के अंत में नरेन गुहा व अशोक बोस ने हरिनघाट व बारासात इलाके के किसानों से सम्पर्क करना प्रारंभ किया। यहां पुलिस की कड़ी पहरेदारी थी। वे मिलिटरी वर्दी पहन चौकियों की तलाशी करते हुए 30 मील का रास्ता तय करते हुए उड़ोला ग्राम में पहुंचे। उनके कार्यकर्ताओं ने उन्हें पहचानकर गांव तक पहुंचाया। वह ऐसा समय था जब उनके नाम से दुश्मन आतंकित हो जाते थे। नंदन नाम की एक बांग्ला पत्रिका में लिखा है कि काकद्वीप और डूबीरभेड़ी इलाके में आज भी बुजुर्ग किसान अपने नाती-पौते को अशोक बोस की कहानी सुनाते हैं।

इन कहानियों से उनकी आंखें आशा से भर उठती है। इस आंदोलन में कलकत्ता मेडिकल कालेज व यादवपुर इंजीनियरिंग कालेज के विद्यार्थी कूद पड़े थे। यह वह समय था जब सामंती लूट यहां लगभग समाप्त हो चुका था। उस तख्त पर जहां पहले मैनेजर बैठते थे वहां पर हर इकाई में संघर्ष समिति के नेतागण बैठकर किसानों को जमीन का पट्टा, खेती करने के औजार व खाने के लिए धान जो जमींदारों की कचहरी में जप्त किया गया था बांटने लगे।

यह वह मुकाम था जहां से गांव को बाहरी हमलों से बचाया जाता था। संघर्ष समिति की देखरेख में कलकत्ता से नवयुवक डाक्टर भी आए और घूम-घूमकर लोगों की बीमारियों का इलाज भी करने लगे। उनमें से एक डॉक्टर पूणेन्दू घोष थे जो बिलासपुर आकर बस गए थे। 

1944-47 के समय में उन्होंने चौबीस परगना जिले के काकद्वीप यानी तेभागा आंदोलन के प्रमुख क्षेत्र में मेडिकल यूनिट बनाने का काम किया था। वे महमंद के लाल खदान मेें कैंसर व एक पांव के कट जाने के बावजूद रांगा डॉक्टर के रूप में गरीबों के हित मेे कार्य करते रहे उन्होंने नाटक, गीत, उपन्यास, कहानियां और लेख लिखे। वे आजीवन सेतु पत्रिका निकालते रहे। उस समय भी कुर्बानियों का लंबा इतिहास रहा है। शिवरामपुर में नगेन दलुई गोली का शिकार हुआ।

सुरेनदास को जेल के अंदर पीटते-पीटते मार डाला गया। एक गांव के दो नवजवानों को पकड़ कर पुलिस उनकी छाती पर नाचने लगी। फिर पत्थर से उनके गुप्तांगों को कुचल दिया गया। श्याम को गिरफ्तार कर उसके छाती पर बर्फ रख दिया गया, उसके नाखूनों के अंदर दिन भर पिन चुभो कर यंत्रणा दी गई और मल द्वार में बिजली प्रभावित कर दी गई, चंदनपीढ़ी गांव की विधवा सूरजमुखी के हाथ में लगी गोली को निकालने पुलिस ने पूरे हाथ चाकू से धीरे-धीरे काटने लगे।

पाखी के गर्भ को रायफल के कुंदे से पीटकर गर्भपात कर दिया गया। उनके पति अमियो जो टूट चुका था उससे उन्होंने अपना संबंध विच्छेद कर लिया था। 9 जून 1949 को रेलवे ट्रेड यूनियन के नेता सुमथा चक्रवर्ती जो जेल में भूख हड़ताल में थे जेल में चलाएं गए गोलीबारी में मारे गए। ये सारे यातनाएं बड़े नेताओं के ठौर-ठिकाने, पहचान व उनके बारे में जानकारियां न बताने के कारण दिए गए। इन कुर्बानियों की तुलना हम चैकोस्लोवाकिया के कम्युनिस्ट पार्टी के नेता जूलियस फूचिक की बलिदान व यातना से कर सकते हैं।

सरकारी दमन शुरू हुआ। प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार किया गया। सैकड़ों लोगों को जेल भेज दिया गया और महिनों तक पूरे गांव के लोगों को सुबह से शाम तक पुलिस कैम्प में फौजी पहरे में बैठे रहने को बाध्य किया गया। चर्चित नेता गजेन माली जैसे लोग गिरफ्तार हो चुके थे। आंदोलन को टिकाए रखने के लिए रणनीति में बदलाव किया गया अशोक बोस व कंसारि हलहार सुंदरवन से निकल आएं। सशस्त्र संघर्ष को लेकर बहस शुरू हो गई। क्या सही क्या गलत पर सिंहवालोकन होने लगा। सामंती व साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ पुन्नप्पा और वायलर, वर्ली, तेभागा व तेलंगाना का किसान संघर्ष ने भारत में मुक्ति के लिए इतिहास लिख छोड़े हैं।

कांग्रेसी शासन व्यवस्था इस आंदोलन को कुचलने के बाद चुप नहीं बैठा। काकद्वीप आंदोलन के नेताओं में अशोक बोस, गजेन माली, कंसारि हलदार, भूषण कमिला, विजय मंडल, मानिक हाजरा, तारिनी साहू, भीम घडुई, खिरोद बेरा, सूर्य बारीक, दिजेन दिन्दा एवं छब्बीस और लोगों के विरूद्ध षडय़ंत्र का मामला चलाने के लिए एक विशेष अदालत का गठन किया गया।

1959 में नए ट्रिब्यूनल ने 9 नेताओं को कालापानी की सजा दी एवं बाकी सभी रिहा कर दिए गए। न्यायालय ने कहा कि इन लोगों ने शोषण व गरीबी का राजनैतिक फायदा उठाकर इन सब को गलत रास्ते पर ले जाने वाला नदिया जिले का एक मुख्य नौजवान अशोक बोस है जो आज भी फरार है। निखिल चक्रवर्ती दिल्ली इलाज के लिए भूमिगत हो गए। कंसारि हलदार सर्वोच्च न्यायालय तक अलग मामला लडक़र चार साल के बाद बेकसूर रिहा हो गए।

इन विकट परिस्थितियों में अशोक बोस के जीवन में एक बदलाव आया। सभी प्रमुख साथी जेल में थे। उनके पास रहने का निरापद आश्रय भी नहीं था और न ही पास में पैसा ही था। उन पर पचास हजार रुपए के इनाम की घोषणा से भी लोगों में लालच पैदा हो गई थी। बदहाल परिस्थिति व क्षय रोग के बीच जूझते हुए वह जून 1952 में अपनी पत्नी माधवी के साथ मध्यप्रदेश पार्टी से संपर्क के बाद मध्यप्रदेश के राजनांदगांव (जो अब छत्तीसगढ़) में बस गए।

उन्होंने यहां इतिहास का दूसरा अध्याय शुरू किया। पार्टी व जनसंगठन को मजबूती देने के कार्य में वे मृत्यु तक जुटे रहे। रायपुर के सुधीर मुखर्जी व दुर्ग के गंगा चौबे, नवागांव के दशरथलाल चौबे व बीएनसी मिल मजदूरों के सहयोग से मोतीपुर मजदूर बस्ती में एक वाचनालय स्थापित किया। वे वहां सुबह-शाम बैठकर मजदूरों को अंग्रेजी और राजनीति पढ़ाने लगे।

40 पढऩे वाले साथी हर माह एक-एक रुपया देकर वाचनालय का खर्च चलाते थे। छह माह बाद उमराव चाल स्टेशनपारा में विलियम रावले के घर में रहने लगे थे। करीब 2 साल वाचनालय चलाने के बाद बीड़ी मजदूरों की समस्याओं को लेकर उन्हें संगठित करने का कार्य शुरू किया। यूनियन के बनते ही 500 मजदूरों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

पार्टी के कुल आमदनी 50 रुपए में से भरकापारा में 25 रुपए किराए से आफिस लिया गया। वहीं से शहर के सारे आंदोलन का संचालन होता था। यहां भी उनका व पत्नी का खर्च चलना मुश्किल हो गया था। मजदूरों ने मिलकर उनके घर के लिए चावल, दाल, तेल, सब्जी का इंतजाम किया। इन विकट स्थिति में 1957 में 22 नम्बर बीड़ी कारखाना के सामने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए। नौ दिन के प्रयत्नों के बाद शहर के मध्यम वर्ग, प्रतिष्ठित नागरिक एवं व्यापारी वर्ग के लोग कारखाना मालिक को कुछ मांग मनवाने में सफल हो गए।

इस आंदोलन के बाद कम्युनिस्ट पार्टी का परचम पूरे राजनांदगांव सहित प्रदेश में फैल गया। करीब एक साल के अंदर दुबारा 11 नंबर बीड़ी कारखाने की तालाबंदी को समाप्त करने के लिए भूख हड़ताल करना पड़ा। जहां उनकी जीत हुई कारखाना मजदूरों के लिए खोला गया।

1958 में फारवर्ड ब्लाक (जिसकी नींव राजनांदगांव में रामचंद्र सखराम रूईकर ने रखी थी) के साथ संयुक्त रूप से नगरपालिका परिषद की 5 सीट लड़ी गई। पांचों सीट के उम्मीद्वार जीतकर आए। फारवर्ड ब्लाक को 15 सीटों में से केवल 7 सीट मिले। इसी वर्ष राजहरा में भिलाई के लिए लोहा खदान शुरू हुआ। ठेकेदार ज्योति ब्रदर्स मजदूरों को तार से बंधे घेरे में रखकर गुलामों की तरह काम लेता था। कृष्णा मोदी व गंगा चौबे ने मजदूरों को तार के घेरे से मुक्ति दिलाई। इन नेताओं के आग्रह पर प्रकाश राय राजहरा खदान जाकर मजदूरों को संगठित करने लगे।

कृष्णा मोदी व राय भूखे रहकर वहां मजदूरों को संगठित करने के कार्य में लगे रहे। रात गुजारने के लिए वे बाजार की बेंच पर सोते थे। वहां के आंदोलन के लिए यहां के बीड़ी श्रमिकों ने चंदा कर सहयोग प्रदान किया। राजनांदगांव से बाजीराव शेंडे, अर्जुन श्यामकर, गणेराम यादव, महादेव बोमले, दौव्वा जैसे नेताओं ने राजहरा में जाकर मजदूरों को संगठित करने का कार्य किए। आंदोलन के दौरान अधिकारियों ने प्रकाशराय को जीप के नीचे कुचल देने का फरमान जारी किया। उससे बेखौफ प्रकाशराय राय अकेले ही रात को दूर-दूर जंगल में जाकर श्रमिक बस्तियों में जाकर श्रमिकों की मीटिंग लेते थे।

उनके सभा में ठेकेदारों व गुंडाओं ने बंदूक व तलवार लेकर हमला बोल दिया था। सुखदेव, दसरू, शिवलाल, नसीम आलम के नेतृत्व में 400 मजदूरों ने भाड़े के गुंडों का मुंह तोड़ जवाब दिया और मीटिंग को पूरा किया। 1960 में भिलाई मैनेजमेंट के आदेश में खदान से 2000 मजदूरों को छटनी कर दिया। छटनी के खिलाफ में भूख हड़ताल में बैठे प्रकाश राय को गिरफ्तार कर लिया गया। नागपुर से आए सान्याल भी गिरफ्तार कर लिए गए।

नेताओं की गिरफ्तारी से आक्रोशित श्रमिकों ने थाने का घेराव कर दिया। एडीएम के आदेश के बाद भी आंदोलन नहीं बिखरा। बाद में समझाइस के बाद प्रकाशराय व सान्याल को जेल जाना पड़ा व दोनों नेता 40-40 हजार की जमानत पर छूटे। 15 दिन के बाद छटनी के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ। बड़े नेताओं में शाकिर अली खां, वि_लराव व केजी श्रीवास्तव राजहरा पहुंचे। इस आंदोलन के सामने मैनेजमेंट को झूकना पड़ा और 1600 मजदूरों की छटनी को रोकना पड़ा।

इस आंदोलन के साथ पार्टी और जनसंगठन का विस्तार हुआ। प्रकाश राय खैरागढ़ व सिंघोला में बीड़ी श्रमिकों को संगठित करने के कार्य में जुट गए। लगभग 1960 के करीब उन पर खुफिया विभाग का नजर गढ़ चुका था। इस दौरान बंद बीएनसी मिल को खुलवाने के मजदूरों के सत्याग्रह आंदोलन को चलाने का निश्चय किया गया था। संघर्ष के दौरान डेढ़ माह के लिए प्रकाश जेल चले गए। संघर्ष के दौरान 17 दिसम्बर 1961 को कम्युनिस्ट पार्टी के अजय घोष, सोहनसिंह भाखना, एसए डांगे, ईएमएस नंबूद्रीपाद व भूपेश गुप्ता जवाहरलाल नेहरू से मिल कर राजनीतिक बंदियों की मुक्ति, गिरफ्तारी वारंट व उनके विरूद्ध चले रह मामले वापस लेने की प्रार्थना की।

इसके बाद 15 अगस्त 1962 को केन्द्रीय एवं प्रांतीय शासनों के आदेश से काकद्वीप, तेलंगाना एवं अन्य राज्यों के सजा प्राप्त राजनैतिक कैदियों को जेल से रिहा किया गया। इस तरह 14 साल के भूमिगत जिंदगी से तेजासिहं स्वतंत्र, राजाराम, दर्शनसिंह ढांकला, इन्द्रसिंह मुरारी, शारवासिंह सभी पंजाब से व अशोक बोस पश्चिम बंगाल को मुक्ति मिली।

जब राजनांदगांव जिला नहीं बना था। 1967 में लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के पदमावती देवी के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में जहां कांग्रेस को 1,32,444 वोट मिले थे वहीं प्रकाश राय को 46,004 वोट मिले थे। 1973 को अशोक बोस को काकद्वीप जाने का अवसर मिला। उनके पुराने मित्र नहीं रहे लेकिन जो मिले वे सभी लोग उन्हें अपने गले से लगाकर आंखें में आंसू लिए प्रसन्न हो उठे। वे अंतत: चंदनपीढ़ी भी गए जहां अहिल्या ने अपने गर्भ के अजन्मे बच्चे के साथ अपनी जान की कुर्बानी दी थी। उन्होंने वापसी में उस स्थान को अंतिम बार प्रणाम भी किया।

यादोराव भिमटे ने बताया कि श्रमकानूनों के संबंध में सरकार ने उनसे अनुशंसा मंगवाई थी। उनके नेतृत्व में श्रमिकों, गरीबों व वंचितों के लिए उनका निस्वार्थ भाव से संघर्ष चलते रहा। उनके आंदोलन के बदौलत सरकार को श्रम कानून बनाने में मजबूर होना पड़ा। उनके संघर्ष व सुझाव से राज्य व केन्द्र सरकार ने कई मजदूर हितैषी कानून बनाए मजदूरों व किसानों को सुविधाएं मिलने लगी। आज बीएनसी मिल व बीड़ी श्रमिक उन्हें नहीं भूला पाए हैं।

उन्होंने निश्चित रूप से समाजवाद के स्थापना में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। आखिरकार 3 सितंबर 1983 को राजनांदगांव के ऐतिहासिक जयस्तंभ चौक में श्रमिकों के एक सभा को संबोधित करते हुए अस्वस्थता की अवस्था में उनका निधन हो गया। उनके पुत्रवधु मंजूराय ने बताया कि 17'8 जनवरी 1983 को उनके निधन से पूर्व प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी, पश्चिम बंगाल, तेभागा आंदोलन के रांगा डॉक्टर पूर्णेन्दू घोष, बिलासपुर से उनसे मिलने उनके पुराने निवास चिखली, राजनांदगांव पहुंचे थे। उन्हें याद करना हथियारबंद संघर्ष के साथ लोकतांत्रिक आंदोलन के सम्मिश्रण को सिद्दत के साथ समझना भी है। उनका संघर्ष रूका नहीं कई रूपों में आज भी उनका संघर्ष जिंदा है और उन्हें लोग एक बहादुर एवं निस्वार्थ स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद करते हैं।

धन्यवाद देना चाहूंगा मेरे प्यारे मित्र कन्हैयालाल अग्रवाल (जो अब नहीं रहें), तुहीन देव, बाजीराव शेंडे (जो अब नहीं रहें), अमेलेन्दु हाजरा, नरेन्द्र बन्सोड़ (जो अब नहीं रहें), अनिमेष राय, यादोराव भिमटे को जिनके सहयोग से इतिहास के गुमशुदगीभरे पन्नों के गर्द से उन्हें निकालने का पहला प्रयास 3 सितम्बर 2015 को किया। एक स्मृति सभा बुलाई गई और सैकड़ों की संख्या में लोग छत्तीसगढ़ के कोने-कोने से पहुंचे।

क्या आज हम उन्हें ‘प्रकाश राय जुगजुग जीओ ’ नहीं कह सकते?

आज की पीढ़ी और व्यवस्था से कहना चाहूंगा कि राजनांदगांव के इस बदलावकारी इतिहास पर सोचिएगा जरूर?


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