फेसबुक ने ‘कश्मीर पर लिखना अभी बाकी है’ पर लगाया प्रतिबंध
उत्तम कुमारफेसबुक ने मेरे मीडिया हाऊस तथा मेरी प्रतिक्रियाओं को प्रतिबंध कर दिया है। जो लोग यह सोचते हैं कि सोशल मीडिया हमारी आजादी को बनाये रखे हुवे हैं वे भ्रम में है। फेसबुक लगातार पाठकों तक हमारी पहुंच को कुंद करने का काम कर रही है। फेसबुक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का कार्य तेजी के साथ कर रही है। 2014 से मैं फेसबुक पर स्वतंत्र विचार के साथ लिखते आ रहा हूं। लगभग उसी समय से अल्टरनेट मीडिया के लिए 'दक्षिण कोसल' की जानकारी फेसबुक में लगाई है। और अब खुद की ‘द कोरस’ मीडिया हाऊस और अपनी प्रतिक्रियाओं का फेसबुक में लगातार पुख्ता सुबूतों के साथ प्रकाशित किया है। फेसबुक ने 2019 में कश्मीर पर लिखी गई ‘कश्मीर पर लिखना अभी बाकी है’ पर प्रतिबंध लगाया है। यह हमारे शासक वर्ग के साथ फेसबुक का लिबरल भयानक कदम है। फेसबुक जनपक्षधर पत्रकारिता को कुचलने का पहल लगातार कर रहा है। जिसका हम सभी को विरोध करना चाहिए। और हमारे देश में संविधान में प्रदत्त अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्त अभिव्यक्ति के झंडे को ऊंचा उठाना चाहिए।

जम्मू कश्मीर में अभी बिलकुल अभी बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस हमले में बताया जा रहा है कि सीआरपीएफ के 40 से ज्यादा जवानों की मौत हो गई है। 40 से अधिक घायल हैं, जिनमें 15 बेहद गंभीर अवस्था में हैं। धमाका इतना ताकतवर था कि मौके पर हर तरफ इंसानी मांस के लोथरे और मशीनों के पुर्जे बिखरे पड़े हैं। घटनास्थल से आ रही तस्वीरें इतनी भयावह हैं कि मानवता शर्मशार हो जाए।
निश्चित ही सरमाएदारी का दौर बड़ा खतरनाक होता है और इसका जीवन के हर क्षेत्र पर असर पड़ता है। कला-संस्कृति भी इससे अछूती नहीं रहती है। खासकर लेखक और पत्रकार तो बिलकुल भी नहीं। जो लोग कम से कम कश्मीर का इतिहास नहीं जानते हाल फिलहाल वे चुप बैठे। देशभक्ति के झंडे और अखंडता के नारे से परे हमें कश्मीर के इतिहास, सरकार और विभाजन के बाद रियासतों के विलय से उपजे आतंक का हल ढूंढना होगा।
आंकड़ों पर आपको विश्वास हो तो कश्मीर में अब तक लाखों लोग मारे जा चुके है। सेना द्वारा शांति कायम करने के प्रयास भी नाकामयाब रहे हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भारत सरकार यह कह रही थी कि कश्मीर के हालात सामान्य हो रहे हैं, कि कुछ समय बाद वहां से सेना हटा ली जायेगी।
जैसे हमारे बस्तर में शांति और सेना को हटाने को लेकर रस्साकशी तनी है। सरकार संगीनों के बल पर आंदोलन को कुचलने का प्रयास करती है और दूसरी ओर इसके नेताओं को खरीदने का। दोनों में असफल रहने के बाद वह इंतजार करती है कि लोगों का गुस्सा ठंडा हो जाय।
इस तथ्य को हम छिपा सकते कि पिछले बीस सालों में कश्मीर में करीब एक लाख लोग मारे जा चुके हैं। एक लाख कोई मामूली संख्या नहीं होती। यह मानव संहार का मुद्दा भी है। लेकिन यहां तो कश्मीर में जनसंहार विस्तारवादी सोच का आंतरिक मामला है। भारतीय सरकार जम्मू कश्मीर को किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। यह हम लगातार सुन रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर की समस्या का बीज तभी पड़ा जब देश आजाद हुआ ठीक उसी तरह जैसे उश्रर-पूर्व की राष्ट्रीयताओं की समस्याएं उभर कर आई। आजादी से पहले जम्मू-कश्मीर प्रदेश एक रियासत थी। इतिहास बताता है इसका शासक था हरी सिंह। यह रियासत उन पांच सौ से ज्यादा रियासतों में से एक थी जिन्हें आजादी के बाद भारत में मिला लिया गया।
साल 1947 में सत्ता के हस्तांतरण के समय अंग्रेज शासकों ने एक चाल के तहत तत्कालीन भारत की सभी रियासतों को यह अधिकार दे दिया कि वे चाहें तो हिन्दुस्तान में शामिल हों, चाहें तो पाकिस्तान में। नहीं तो स्वतंत्र रहें। हैदराबाद व जूनागढ़ की रियासत के साथ जम्मू-कश्मीर की रियासत बड़ी रियासत थी जिसके शासकों की अपनी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं।
साल 1947 में पहले हरी सिंह ने यही सोचा कि वह अपनी स्वतंत्र रियासत बनाए रखेगा लेकिन ऐसा हो न सका। भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा पर होने के कारण उसे यह संभव भी दीख रहा था। वह दो देशों के बीच में अपना स्वतंत्र अस्तित्व देखता था। ब्रिटिश सरमाएदारी का उसे शह भी था जो इसे अपने लिए फायदेमंद समझते थे। वे वहां अपना औपनिवेश कायम कर भारत पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते थे।
आश्चर्यजनक ढंग से जल्दी ही हरी सिंह का भ्रम टूटा कि उसकी स्वतंत्र रियासत नहीं चल सकती। उसे पाकिस्तान और भारत सरकार से तो खतरा था ही, उसे एक तीसरी दिशा से और वह भी ज्यादा बड़ा खतरा दिखाई पड़ा। यह खतरा था नेशनल कांफ्रेंस का आन्दोलन। साल 1930 के दशक से शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी आंदोलन पैदा हुआ था।
इसे नेशनल कांफ्रेंस के तहत गोलबंद किया गया। यह आंदोलन मूलत: हरी सिंह के रजवाड़े शासन के खिलाफ था लेकिन साथ ही अप्रत्यक्षत: अंग्रेजी शासन के भी। यह कश्मीरी राष्ट्रीयता का भी आंदोलन था। नेशनल कांफ्रेंस और शेख अब्दुल्ला के कांग्रेस पार्टी और नेहरू जैसे नेताओं से अपेक्षाकृत मधुर संबंघ थे।
वास्तव में नेहरू ने कुटनीतिज्ञता के साथ आगे बढ़े कि आजादी के बाद कश्मीरी राष्ट्रीयता को मान्यता मिलेगी। नेशनल कांफ्रेंस के आंदोलन के दबाव में हरी सिंह ने पाकिस्तान सरकार के साथ समझौता कर पाकिस्तान में विलय करने की सोची। सवाल उठता है राजा ने तो सोचा क्या पूरी आ उसके लिए तैयार थी, क्या यह जरूरी नहीं समझा गया?
लेकिन वहां की शर्तें उसे कठोर प्रतीत हुई। उसके बाद उसने भारत सरकार से समझौता की। इस समझौता के परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। यहां यह गौर करने की बात है कि इस समझौते में भारत सरकार द्वारा बल प्रयोग की भी अपनी भूमिका थी।
भारत सरकार और हरी सिंह के बीच जो समझौता हुई उसके परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान की धारा 370 अस्तित्व में आई हालांकि इसके पीछे नेशनल कांफ्रेेंस के दबाव का भी बड़ा हाथ था। उसकी सहमति के बिना यह समझौता अस्तित्व में नही आ सकता था। धारा - 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष स्वायत्तता के अधिकार मिले। उसकी अपनी अलग संविधान सभा होनी थी, उसका अलग संविधान व झण्डा होना था।
उसका प्रधानमंत्री होना था। भारत सरकार का अधिकार वहां केवल कुछ ही क्षेत्रों में लागू होना था-सुरक्षा, संचार, मुद्रा इत्यादि में। विशेष बात यह थी कि भारतीय संविधान की धारा 370 में परिवर्तन का अधिकार भी जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को ही दिया गया, भारतीय संसद को नहीं।
बताया जाता है कि इस धारा को ड्राफ्ट करने से बाबा साहेब आम्बेडकर ने मना कर दिया था।लेकिन भारत सरकार के इरादे कुछ और थे। धारा 370 के तहत जम्मू कश्मीर का भारत में विलय तो महज पहला कदम था। उसने जम्मू-कश्मीर को लेकर भारतीय अखंडता की कहानी गढ़ डाली। इसके लिए उसने नेहरू के जमाने में कार्रवायी करनी शुरू कर दी जब शेख अब्दुल्ला के दोस्त नेहरू ने उन्हें जेल में डलवा दिया।
हुआ यूं कि विलय की शर्तों के अनुरूप जम्मू कश्मीर संविधान सभा के चुनाव हुवे और उसमें नेशनल कांफ्रेंस ने बहुमत हासिल कर लिया। इस संविधान सभा में नेशनल कांफ्रेंस ने लगभग संपूर्ण स्वायत्तता का संविधान बनाना शुरू कर दिया। नेहरू सरकार कुछ दिन तो इंतजार करती रही लेकिन फिर उसने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया, संविधान सभा को भंग कर दिया।
इस सबके विरोध में हुए प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग मारे गये। यह तो अभी महज शुरुआत थी। अपनी कठपुतली सरकार से वह जम्मू-कश्मीर के मामले में और हस्तक्षेप करती रही। यही नहीं धारा 370 में भी वह छेड़छाड़ करती रही। इसके लिए वह जम्मू कश्मीर की संविधान सभा नहीं बल्कि उसकी विधान सभा का इस्तेमाल करती रही।
दस साल तक जेल में रखने के बाद जब भारत सरकार को लगा कि शेख अब्दुल्ला उनके अपने हो गये हैं तो उन्हें रिहा कर दिया गया। कुछ सालों के समझौता के बाद जब उन्हें भारतीय शासकों की इच्छाओं के अनुरूप नहीं पाया गया तो एक बार फिर उन्हें जेल में डाल दिया गया। फिर वे बाद में तभी बाहर आये जब एकदम अपने हो गये थे। लिहाजा तब तक भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर में और दखल कर लिया था।
साल 1980 के दशक में इस खेल का अंतिम चरण शुरू हुआ। तब तक शेख अब्दुल्ला गुजर चुके थे और उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला नेशनल कांन्फ्रेंस के नेता थे। राजीव गांधी की सरकार ने फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त कर नेहरूवादी पैतरा चली। कश्मीर के लोग यह देखकर हैरान रह गये कि दिल्ली के हुक्मरान फारुख अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस जैसे अपने को भी सहन करने को तैयार नहीं। वर्षों से संचित हुआ लावा 1990 में फूट पड़ा।
तब से अब तक सारे देशभक्तिपूर्ण एकता और अखंडता के नारों के बावजूद भारत सरकार वहां अपना शांतिपूर्ण शासन कायम करने में कामयाब नहीं हो पाई है।इस बार के विद्रोह में कश्मीरियों का नेतृत्व किया जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने। नेशनल कांफ्रेंस के कथित अपने बन जाने के बाद इसने कश्मीरी राष्ट्रीयता की मांग को बुलंद किया। जब ऊपरी शांति भंग हुई तो इसके नेतृत्व में सारा कश्मीर उबल पड़ा।
और तब भारत और पाकिस्तान के शासकों की सारी घिनौनी चालें सामने आईं। यदि भारत के शासक जम्मू-कश्मीर को अभिन्न अंग बनाना चाहते हैं तो पाकिस्तान के शासक भी 1947 से ही इसी फिक्र में हैं। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेताओं के पाकिस्तान में शरण लेने से उसकी उम्मीदों को बल मिला।
बहुत बाद में उसे लगा कि फ्रंट उतना उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं चल रहा है तो फिर उसने पैतरा बदला। यह भी कहा जाता है उसने कुछ आतंकवादी संगठनों को मदद भी की। दूसरी ओर स्वयं भारत सरकार ने फ्रंट की कमर तोड़ने की कोशिश की। उसकी खुफिया एजेन्सियों ने इसमें पूरी जान लगा दी। परिणाम यह हुआ कि न केवल जेकेएलएफ किनारे लग गया बल्कि कश्मीरी राष्ट्रीयता के आंदोलन के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आंदोलन मुखर हो गया।
भांति - भांति के मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन अपने घृणित कारनामे अंजाम देने लगे।कश्मीरी राष्ट्रीयता के बदले मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकी धारा का प्रमुख हो जाना भारत और पाकिस्तान दोनों शासकों के लिए फायदेमंद बनता गया। पाकिस्तान के शासक इसे अपने इस्लामी शासन से जोड़ सकते थे और पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर के बीच धार्मिक एकात्मकता स्थापित कर सकते थे।
कश्मीरी राष्ट्रीयता उनके किसी काम की नहीं थी बल्कि घातक भी थी। यह तब और था जब खुद पाकिस्तान में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आंदोलन पाकिस्तानी शासकों के लिए समस्या बने हुए हैं। यह भारतीय शासकों के लिए भी फायदेमंद था। वे तब इसे इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में पेश कर सकते थे। यही नहीं वे इसे अमेरिकी सरमाएदारी के लिए 9/11 के बाद मुस्लिम आतंकवाद विरोधी अभियान से भी जोड़ सकते थे।वे सारी दुनिया को बता सकते थे कि जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या नहीं है।
यह तो बस कुछ विदेश से आये मुस्लिम कट्टरपंथियों का काम है। यह विदेशी एजेन्टों का काम है और कुछ भी नहीं। साल 1948 में भारत ही जम्मू कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में ले गए। तब वहां तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में एक जनमत संग्रह कर यह फैसला किया जाय कि वहां के लोग क्या चाहते है- भारत में विलय, पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्रता। परिणाम आप सभी देख ही रहे हैं।
पिछले कई दशकों से जम्मू कश्मीर में भारत सरकार, पाकिस्तान सरकार और मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकवादियों ने देश निर्माण का अभ्यास चला रखा है। लेकिन अब एक उठान शुरू हुआ है। आतंकवादियों से अलग एक बार फिर जनता सामने आ गयी है। और वह भी मात्र पत्थरों का हथियार अपने हाथों में लिए हुए। जैसे कि हम पाषाण युग में लौट आएं हो! जनता को इस विद्रोह से भारत सरकार को यह नहीं सूझ रहा है कि वह क्या करें?
वह किससे वार्ता करें? किसे खरीदें? किस तरह इस बढ़ते आतंकी कड़ी को तोड़े? भारत में इन राष्ट्रीयताओं के आंदोलन का सवाल सीधे भारत के संघर्षो से जुड़ा हुआ है। केवल भारत में यहां के मूलनिवासी ही इस समस्याओं को हल कर सकते हैं। लेकिन वह कैसे हल करेगी? क्या वह हल करेगी इन राष्ट्रीयताओं को ‘आत्मनिर्णय’ का अधिकार देकर-स्वतंत्र होने समेत।
लेकिन क्या भारत के लोगों सहित जम्मू-कश्मीर के लोगों का हित इस बात में है कि जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाय या भारत टुकड़े-टुकड़े हो जाय! नहीं! शायद यह तभी संभव है जब सभी राष्ट्रीयताओं को अलग होने का अधिकार देना होगा। यह भी हो सकता है कि कुछ समय के लिए कुछ या सभी राष्ट्रीयताएं अलग हो जायं। लेकिन फिर वह यह भी एक स्वैच्छिक भारतीय गणराज्य के रूप में गठित होंगी तो यह एकता बिलकुल ही प्राचीनता से नई सदी के लिए प्रबुद्ध गोण्डवाना लैंड की दिशा में होगी।
यह लगभग तय है तो यह समूचे दक्षिण एशिया में बढ़ रहे असंतोष को भी नई दिशा देगी। तब पाकिस्तान बांग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि भी इस नए भारत के सृजन से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। जो न केवल अधूरे राष्ट्रीयताओं की समस्याओं का समाधान करेगा बल्कि इस क्षेत्र के सभी देशों के आपसी दुराग्रह को भी दूर कर देगा।
जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कांग्रेस, भाजपा, भाकपा-माकपा सभी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की चीख पुकार मचाती रहेंगी और कश्मीर जलता रहेगा। और हर दिन वहां कश्मीरी जनता की खून की नदियां बहती रहेगी। क्या लेखिका अरूंधति राय ने सही कहा है कि कश्मीर वैसे भी कभी भारत का हिस्सा नहीं था?
और 1947 में उसे जबरन भारत में मिला लिया गया था। अरूंधति राय कहती है कि कोई नहीं जानना चाहता कि कश्मीर के लोग वास्तव में क्या चाहते हैं और यह जानने में अगर उनकी थोड़ी भी रुचि होती तो वहां पर जनमत संग्रह अब तक करा दिया जाता। लेकिन हमारा दिमागी दिवालियापन हमें बताता है कि संसद कांड से लेकर अब तक कश्मीर में कब्रें ही बरामद हो रही हैं।
15 फ़रवरी 2019 को फेसबुक में पब्लिक के साथ साझा किया गया।
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