अफगानिस्तान किस ओर

तुहिन देब

 

कंधार, लश्कर गाह जैसे प्रमुख शहरों में भीषण लड़ाई चल रही है। अफगानिस्तान के दो तिहाई हिस्सा तालिबान के कब्जे में आ गया है। उसने तीन और सूबों की राजधानियों और सेना के स्थानीय मुख्यालय पर कब्जा कर लिया है। इसके साथ ही देश के पूर्वोत्तर हिस्से पर इस चरमपंथी संगठन का पूर्ण कब्जा हो गया है।

पूर्वोत्तर में बदख्शां और बगलान सूबे की राजधानी से लेकर पश्चिम में फराह प्रान्त तक तालिबान के कब्जे में चला गया है। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी तालिबान के कब्जे वाले इलाके से घिरे बाल्ख सूबा गए हैं ताकि तालिबान को पीछे धकेलने में स्थानीय सरदारों से मदद मांगी जा सके।

तालिबान की बढ़त से फिलहाल काबुल पर सीधे तौर पर खतरा नहीं है लेकिन उसकी गति से सवाल पैदा हो रहे हैं कि अफगान सरकार कब तक अपने दूरदराज़ के इलाकों पर नियंत्रण रख सकेगी। मोर्चों पर तालिबान की सरकार के विशेष कार्रवाई बलों के साथ लड़ाई चल रही है जबकि नियमित सैनिकों के लड़ाई के मैदान से भागने की खबरें भी आ रही हैं।

हिंसा की वजह से हज़ारों की संख्या में लोग शरण के लिए राजधानी पहुंच रहे हैं। अब तक 11 प्रांतीय राजधानियों पर तालिबान के कब्जा हो गया है। ताजा समाचार यह है कि गृहयुद्ध की आग में झुलसते अफगानिस्तान को हिंसा से बचाने के लिए अफगान सरकार ने तालिबान को सत्ता में बंटवारे का प्रस्ताव दिया है।

कई शहरों में तो तालिबान ने अपने आदिम जमाने के कानून भी फिर से थोप दिए हैं। महिलाओं और लड़कियों का घरों से निकलना बंद है। पुरुषों को लंबी दाढ़ी रखने को मजबूर किया जा रहा है। तालिबान के कब्जे वाले इलाकों में पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। कुछ दिन पहले ही बीबीसी की ओर से कार्यरत भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी को तालिबान ने मार डाला। जनता के लिए तालिबान के राज में ढाये गए आतंक की याद फीकी नहीं हुई है। 2001 में बामियान प्रान्त में प्राचीन बुद्धमूर्ति का विध्वंस भी शामिल है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद की भूमिका

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज अफगानिस्तान जिस भीषण संकट के मुहाने पर खड़ा है तो उसके लिए प्रमुख रूप से दुनिया की जनता का दुश्मन नम्बर एक अमेरिकी साम्राज्यवाद जिम्मेदार है। अफगानिस्तान, अमेरिका की दोगली नीतियों का शिकार हो गया है।

11 सितंबर 2001 में वाशिंगटन में वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर व पेंटागन पर हुए हमले के बाद अमेरिका ने इसके लिए अल कायदा व तालिबान को जिम्मेदार मानते हुए (जबकि इन  आतंकवादी संगठनों का जन्मदाता अमेरिका ही है) अफगानिस्तान पर भीषण सैनिक आक्रमण कर उसे अपने नया उपनिवेश बनाया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के दलाल हामिद करजई के नेतृत्व में अपनी कठपुतली सरकार बनाया।

अमेरिका की रुचि अफगानिस्तान में खनिज तेल व प्राकृतिक गैस की चाहत के साथ साथ अपने भू राजनीतिक हिट में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद जिसे पूंजीवादी प्रचारक "समाजवादी" कहकर प्रचारित करते थे कि खिलाफ अपना साम्राज्यवादी प्रभुत्व थोपना था।अब अमेरिका इस मुल्क को अनंत काल तक अपना नवउपनिवेश बना पाने में अक्षमता के चलते, अधर में लटका कर भाग रहा है। इसके लिए अमेरिका को कोई पछतावा नहीं है।

बाइडेन कह चुके हैं कि अफगानिस्तान अपनी लड़ाई अब खुद लड़े। मतलब साफ है कि अमेरिका करेगा वही जिसमें उसके हित होंगे, भले उसके कारण  लाखों लोग मारे जाते रहें, उसे कोई परवाह नहीं। 1975 में 15 वर्ष तक चले खूनी संघर्ष में विएतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी व जन मुक्ति फ़ौज के हाथों मिली करारी हार के बाद उसे इसी तरह भागना पड़ा था।

अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी तो अब खुल कर कह भी रहे हैं कि अमेरिका की जल्दबाजी ने अफगान जनता को गंभीर संकट में धकेल दिया है। बाइडेन ने 11 सितंबर तक युद्धग्रस्त अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सेना की वापसी का अप्रैल में आदेश दिया था। अब तक वहां से 90 फीसदी से अधिक सैनिक अमेरिका लौट चुके हैं।

सैनिकों और उपकरणों को अफगानिस्तान से वापस लाने का पेंटागन का बड़ा काम लगभग पूरा हो चुका है और अमेरिकी सेना का मिशन 31 अगस्त तक पूरा हो सकता है। बाइडेन के अनुसार उन्होंने बीस साल से अधिक समय में एक हज़ार अरब डॉलर से अधिक राशि खर्च की। अमेरिका  ने अपने हित के लिए अफगानिस्तान को बर्बाद करके मध्ययुग में धकेल दिया।

भारत की स्थिति

अमेरिकी साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर कॉरपोरेट परस्त भारत की मोदी सरकार की अफगानिस्तान के बिगड़ते हालात से नींद उड़ी हुई है। पहली बार ऐसा हुआ है कि भारत सरकार को संकटग्रस्त अफगानिस्तान से अपने नागरिक सुरक्षित निकालने का फैसला करना पड़ा।इससे पता चलता है कि वाकई वहां हालात कितने बदतर होते जा रहे हैं और लोगों का जीवन कितने गंभीर संकट में है।

अफगानिस्तान में इस वक़्त करीब डेढ़ हजार भारतीय हैं।जिनमे राजनयिक,दूतावास कर्मचारी और भारतीय कंपनियों व परियोजनाओं में काम कर रहे भारतीय शामिल हैं। जिनके अलावा मिडिया कर्मी भी हैं।भारत सरकार ने अफगानिस्तान से भारतीय नागरिकों को लौट आने के लिए परामर्श जारी किया है। अमेरिका  चाहता है कि उसकी हारी हुई अफगान जंग को  उसकी अनुगत फ़ासिस्ट मोदी सरकार जारी रखे।

अफगानिस्तान की सरकार भी यही चाहती है।लेकिन भारत सरकार के लिए स्थिति हर तरीके से विपरीत है। कूटनीतिक मोर्चे पर भी वह पूरी तरह से कटा हुआ है।  तालिबान का प्रमुख संरक्षक पाकिस्तान इस मामले में काफी आगे है। तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने पर पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से बहुत लाभ होगा। चीनी सामाजिक साम्राज्यवाद ने भी तालिबान के साथ अपने संबंध बेहतर कर लिए हैं।

इसी प्रकार साम्राज्यवादी रूस ने भी अपने भावी हित को देखते हुए तालिबान से सुलह करने के मूड में है। वैसे तो पाकिस्तान समर्थित तालिबान जो घोर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन है के खिलाफ सैनिक अभियान चलाना कॉरपोरेट शाषित हिन्दुराष्ट्र कायम करने वाले युधोन्मादी संघ परिवार के लिए मुफीद रहता।

लेकिन देश के भीतर कोरोना काल मे बदहाली का सामना कर रही जनता के आक्रोश व ऐतिहासिक किसान आंदोलन के मद्देनजर उसके लिए यह कदम उठाना मुश्किल है। दूसरा कारण है कि राजीव गांधी के कार्यकाल में श्रीलंका में शांतिसेना के नाम से भेजी गई भारतीय सेना के हश्र से सब वाकिफ हैं। हालिया जानकारी के अनुसार कतर की राजधानी दोहा में अफगानिस्तान पर क्षेत्रीय सम्मेलन में भारत,तुर्की व इंडोनेशिया के भाग लेने की संभावना है।

इतिहास

1973 में राजा जहीर शाह के खिलाफ राजतंत्र विरोधी आंदोलन तेज हो गए। प्रधानमंत्री दाऊद खान  ने सरकार बनाई। 1978 के अप्रैल में वामपंथी उभार एवं सेना के एक हिस्से की मदद  से दाऊद खान  की हत्या होने के बाद  अफगानिस्तान में बदलाव आया। जिसे (सौर) अप्रैल क्रांति कहते हैं। देश में वामपंथियों की पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (पीदीपीए) के दो घड़े थे-खल्क और परचम।अप्रैल क्रान्ति के बाद जनवादी वामपंथी ताक़तों के नेतृत्व में नूर मोहम्मद ताराकी की सरकार बनी। इस सरकार को सोवियत संघ का समर्थन था।

उसके बाद हाफिजुल्लाह अमीन, फिर पूरी तरह से सोवियत संघ के पिट्ठू बबरक करमाल की सरकार बनी। वामपंथियों के बीच सत्ता संघर्ष के बावजूद देश और समाज मे कई सारे कल्याणकारी कार्यक्रम संचालित हुए।शिक्षा, स्वास्थ्य, जनवादी अधिकार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य होने शुरू हो गए।विशेषकर महिलाओं को समाज में आगे आने का मौका मिला। समाज आधुनिकता और खुलेपन की ओर बढ़ा।अफगानिस्तान में वामपंथी सरकार को सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद का समर्थन प्राप्त था।

अफगानिस्तान के समाज मे सदियों से प्रभाव जमाये सामंती कबीलाई  रूढ़िवाद को बढ़ते प्रगतिशील मूल्य रास नहीं आये। उसे राजतंत्रवादी और अमेरिकी साम्राज्यवाद ने खाद पानी दिया।1979 में अमेरिका ने पाकिस्तान के पेशावर में वामपंथ विरोधी कट्टरपंथी मुजाहिदीन ताक़तों के लिए जिहादी सामरिक प्रशिक्षण केंद्र, पाकिस्तान की तत्कालीन जियाउल हक सरकार के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में शुरू किया।

अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों के जरिए सैनिक हस्तक्षेप करने की शुरुआत हुई और इसमें अमेरिका ने दिल खोलकर पाकिस्तान सरकार व अफगान मुजाहिदीनों को हथियार व तमाम संसाधन मुहैय्या करवाये। अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों के हमले से दोस्त अफगान सरकार को बचाने के नाम पर सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद ने अपनी सेना को लड़ाई में उतारा। मुजाहिदीनों के पीछे अमेरिकी सेना  व सीआईए के अधिकारी प्रत्यक्ष संचालन कर रहे थे।

अफगानिस्तान में एक मार्क्सवादी संगठन भी था जो अफगानिस्तान में सोवियत संघ के सैनिक हस्तक्षेप के खिलाफ अफगान जनता के जनवादी अधिकारों के लिए लड़ रहा था, साथ में यह अमेरिकी साम्राज्यवाद के हथकंडों का भी विरोध एक धर्मनिरपेक्ष नजरिये से कर रहा था। इस संगठन का नाम अफगान राष्ट्रीय प्रतिरोध (सामा) था, जिसके नेता अफगान राष्ट्रीय प्रतिरोध के प्रतीक अब्दुल मजीद कलकानी को सोवियत सेना के शिविर में यातना देकर मार दिया गया था।

दस साल तक चले अफगानिस्तान युद्ध (जब सोवियत सेना व अफगान सरकार की सेना मुजाहिदीनों की लड़ाई चल रही थी) में पाकिस्तान को अमेरिका व यूरोपीय ताक़तों से  सामरिक व संसाधन का  बहुत लाभ हुआ। लेकिन समाज व देश का भीषण साम्प्रदायिकरण व सैन्यीकरण हो गया।आज हम नफ़रत व आतंकी युद्ध में कराह रहे पाकिस्तान की हालत को अच्छी तरह देख रहे हैं जिसका जन्म ही मज़हब के आधार पर हुआ था।

आज भारत मे कॉरपोरेट घरानों के दलाल संघी फ़ासिस्ट, मनुवादी हिंदुत्व के आधार पर दलित, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक, गरीब मेहनतकश विरोधी हिन्दुराष्ट्र बनाना चाहते हैं तो इस देश का हश्र भी पाकिस्तान व अफगानिस्तान की तरह होगा,इसे समझने के लिए ज्यादा बुद्धिमान होने की जरूरत नहीं है।

हॉलीवुड में सुपर स्टार सिल्वेस्टर स्टेलोन पर बनी रेम्बो श्रृंखला की एक फ़िल्म में हम शीतयुद्ध के दौरान कैसे जंगजू अमेरिका को गौरवान्वित किया जाता था उसकी एक झलक देख पाते हैं। यही झलक हम टिमोथी डाल्टन द्वारा अभिनीत जेम्स बॉन्ड की अफगान युद्ध पर बनी फिल्म में देखते हैं। शीतयुद्ध के चरम पर 80 के दशक से रोनाल्ड रीगन व मार्गरेट थैचर के मार्गदर्शन में साम्राज्यवादी ताक़तों ने लोक कल्याणकारी गणराज्य की अवधारणा को त्याग कर घोर जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत करते हुए अफगान युद्ध की रूपरेखा बनाई।

प्रगतिशील ताक़तों ने अफगान मुद्दे पर  अस्सी के दशक में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद दोनों के साम्राज्यवादी रुख की कड़ी निंदा की थी और अफगानिस्तान की जनता को अपना भविष्य बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के करने देना चाहिए ऐसा अवस्थान लिया था।

1990 के दशक की शुरूआत में गोर्बाचोव के नेतृत्व में सोवियत संघ का विघटन होना और दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में एक ध्रुव के बनने से परिस्थितियों में बदलाव आया।एक तरफ तो भूमंडलीकरण - निजीकरण वाली नवउदारवादी लुटेरी व्यवस्था को साम्राज्यवाद ने पूरी दुनिया में लागू किया ।

दूसरी ओर साम्राज्यवाद विरोधी ताक़तें कमजोर हुई।ऐसी परिस्थिति में कमजोर रूस को अफगान युद्ध से अपने हाथ खींचने पड़े।1992 में राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की भूतपूर्व सोवियत समर्थित सरकार को अपदस्थ कर ,मुजाहिदीनों के उत्तरी गठबंधन ने अस्थायी तौर पर काबुल में बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व में सरकार बनाया।

राष्ट्रपति नजीबुल्लाह व उनके करीबी लोगों ने काबुल के  संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यालय में शरण लिया।नॉर्थरन अलायन्स की सरकार, जिसमे तालिबान विरोधी अपेक्षाकृत उदार युद्व सरदार- अहमद शाह मसूद जिसे पंजशीर का शेर भी कहते थे,  अब्दुल रशीद दोसताम तथा गुलबदन हेकमत्यार जैसे लोग शामिल थे जिन्होंने करीब पंद्रह सालों से सोवियत सेना के विरुद्ध लड़ाई की थी। लेकिन उत्तरी गठबंधन की तुलनात्मक रूप से उदार सरकार, अमेरिकी व पाकिस्तानी हितों का  पूर्णरूपेण प्रतिनिधित्व नहीं कर पाती थी।

नतीजतन 1996 मे अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित व पाकिस्तान द्वारा संरक्षित कट्टरपंथी संगठन तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया।तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करते ही कट्टर धार्मिक कानून लागू कर महिलाओं, अल्पसंख्यकों सहित आम जनता के सारे मौलिक नागरिक अधिकारों को छीन लिया या पैरों तले कुचल दिया।तालिबान शासन के दरम्यान संगीत, फ़िल्म, कलात्मक क्रियाकलापों पर पूरी तरह पाबंदी थी।

केवल कट्टर धार्मिक शिक्षा के अलावा कोई भी शिक्षा साक्षरता की गतिविधियां बंद थी। इस शासन में सबसे ज्यादा बुरी हालत  महिलाओं,बच्चों और हाशिये पर रहने वाले समुदायों की थी। इस मध्ययुगीन शाषन की शुरुआत उन्होंने, काबुल में संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यालय में घुसकर पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह व उनके भाई की यातना देकर हत्या की और उनकी लाश को सार्वजनिक रूप से एक लैम्पपोस्ट पर टांग दिया।

आगे क्या?

अफगानिस्तान की स्थिति बहुत ही निराशाजनक है। पूरा देश गरीबी, अशिक्षा, अस्वस्थता, कर्ज़  से लड़ हुआ है और  मानव अधिकारों के  नाम पर कुछ भी नहीं है। वहां मानवता कराह रही है।पूरी दुनिया जानती है कि वह अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद ही है जिसने इराक,लीबिया, अफगानिस्तान जैसे देशों को अपनी नवउपनिवेशवाद की नीतियों से तबाह जर दिया। सारे कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन, अमेरिका की पैदाइश हैं चाहे वह ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व वाला अल कायदा हो,चाहे बगदादी के नेतृत्व वाला इसिस हो या मुल्ला मोहम्मद उमर के नेतृत्व वाला तालिबान हो। भले ही बाद में ये भस्मासुर बन गए लेकिन सच्चाई यही है कि ये सब अमेरिकी  मंसूबों के तहत पले बढे। साम्राज्यवाद ने अफगानिस्तान का सर्वनाश कर दिया।

जो ताक़त इस परिस्थिति में मूलभूत बदलाव ला सकती थी, जो एक सच्चे मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थान से साम्राज्यवाद व उसके देशीय दलाल सामंती कट्टरपंथी गिरोहों से,जनता को गोलबंद कर लड़ने की चुनौती ले सकता था ऐसी ताक़तों का वहां नितांत ही अभाव है। भले ही यूरोप में अफगान प्रवासियों के बीच कुछ मार्क्सवादी-लेनिनवादी हैं लेकिन उनकी ताकत बहुत कम है, स्वदेश में उनकी कोई मौजूदगी नहीं है। प्रगतिशील ताक़तें बहुत चिंता के साथ वहाँ के घटनाक्रम को देख रही हैं।

उनकी अभी भी यही मांग है कि अफगानिस्तान में कोई भी बाहरी हस्तक्षेप या साम्राज्यवादी आक्रमण न हो। वहां तत्काल युद्धविराम हो तथा शांति और जनता की सुरक्षा को प्राथमिकता में रख कर शांति वार्ता आयोजित की जाय।तालिबान या उस जैसे कोई भी कट्टरपंथी आतंकी गिरोह के शाषन की जगह अफगानिस्तान की आम जनता का जनवादी, धर्मनिरपेक्ष शाषन  कायम हो । समाज के सभी जरूरतमंद व शोषित तबके के कल्याण के लिए कार्यक्रम बने। रोटी, शांति व आज़ादी के लिए राजनीतिक मुहिम चले। महिलाओं, बच्चों, गरीबों, अल्पसंख्यकों सहित आम अफगान जनता को स्थायी शांति, सुरक्षा व मौलिक अधिकारों की गारंटी हो।विश्व जनमत भी यही चाहता है।
 


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