अक्टूबर 2018 : नुलकातोंग मुठभेड़ नहीं आदिवासियों का नरसंहार
भारत के मानचित्र में सुकमा जिला के मेहता तथा बंडा पंचायत जैसे दो मुख्य पंचायतों में नुलकातोंग (बंडा पंचायत) गोमपाड़ (मेहता पंचायत) वेलपोच्चा (मेहता पंचायत) किल्द्रेम, एटेगट्टा जैसे गांव कहां है, शायद मानचित्रकार को भी बताना मुश्किल होगा। दूरस्त जंगलों के बीच स्थित दुर्गम रास्तों, नदी-नालों को लांघ कर 6 अगस्त को सुरक्षा बलों ने माओवादियों के खिलाफ एक बड़े ऑपरेशन में 15 आदिवासियों को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया है। जांच के बाद यह मुठभेड़ झूठा साबित हो रहा है इस मुठभेड़ को चुनौति देते हुए 8 अगस्त को सिविल लिबर्टिज कमेटी ऑफ आंध्रा एंड तेलंगाना ने एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर किया है जिसकी सुनवाई तारीख को बढ़ाते हुए आगामी 12 सितम्बर को रखा गया है।

विडंबना देखिए राज्य में आदिवासी समाज से जुड़ाव रखने के बावजूद भी चाहे वह पुलिस अधिकारी हो, चाहे विधायक या फिर सांसद आदिवासियों को लोकतंत्र में तरक्की के पटरी पर लाते नजर नहीं आ रहे हैं। घटनाक्रम को लेकर सभी के वृतांत अलग-अलग हैं लेकिन मुठभेड़ को सभी ने फर्जी करार दिया है इस मामले में जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों, विधायक और सांसद के सूर लोकतंत्र में कानून और व्यवस्था को लेकर सब कुछ केन्द्रीकृत कर देने की।
नीति आयोग की रैंकिंग में देश के सबसे पिछड़े 101 जिलों में छत्तीसगढ़ के 27 जिलों में से एक ‘सुकमा’ दसवें नंबर पर शुमार है। इन सभी जिलों में बुनियादी सुविधाओं की हालत सुधारने की जरूरत है। हालांकि नक्सलवाद के नाम पर देश दुनिया में चर्चित सुकमा की हालत इन जिलों में सबसे खराब आंकी गई है। नीति आयोग की रैंकिंग 49 इंडीकेटर्स के आधार पर जारी की गई है। यह इंडीकेटर स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि, जल संसाधन, वित्तीय समावेशन, कौशल विकास और बुनियादी अधोसंरचना पर आधारित है। नीति आयोग ने इंडीकेटर तय कर दिए हैं।
टॉप टेन की सूची में सुकमा
टॉप टेन की सूची में सुकमा इसलिए है क्योंकि यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव अब भी बना हुआ है। जिला मुख्यालय में विकास दिखता है लेकिन अंदरूनी इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सडक़, बिजली, पानी की स्थिति सुधारने के लिए अभी बहुत काम करने की जरूरत है। करीब ढाई लाख की जनसंख्या वाले सुकमा जिले की ग्रामीण आबादी जंगलों में रहती है। सबसे ज्यादा दिक्कत पहुंच मार्गों की है।
मोबाइल नेटवर्क के विस्तार के लिए 850 किमी फाइबर बिछाया जा रहा। इस साल 450 किमी सडक़ के लिए राशि जारी की गई है। जिला मुख्यालयों में शिक्षा-चिकित्सा की व्यवस्था दुरूस्त की जा रही है। अधिकांश गांवों तक इस साल बिजली पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। धूर जंगल का क्षेत्र बेहद पिछड़ा, उपेक्षित और शहरी चकाचौंध से कोसों दूर का इलाका जहां न ढंग का सडक़, बिजली, पानी के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की रोशनी गांव तक नहीं पहुंच पाई है। और हां विकास के नाम पर समानान्तर सरकार जैसे राज्य में मूलनिवासी शहरों में डामरीकृत सडक़ और खम्भों में लगे बिजली की रोशनी से परे आदिवासी डर, आतंक और लूट से अलग अपने-अपने जीवन में नई तरक्की चाहते हैं।
नक्सलियों, सलवा जुडूम और अब डीआरजी की चाक-चौबंद सैनिक घेराबंदी को आदिवासी बखूबी समझने लगे हैं। प्रभावित गांवों में तकरीबन 80, 50, 40 कच्चे मकानों में कहीं लगभग 300, कहीं 200, कहीं 100 से अधिक फटेहाल आदिवासी (मूलनिवासी) आबादी रहती है, जिनका बाहर की दुनिया से कोई वास्ता नहीं रहता है। साजा, पलास, साल, सागौन, बास, कर्रा, हल्दू, हर्रा, तेंदू, महुआ, ताड़, छिंद, सल्फी से आक्षादित जंगलों में कुपोषित बच्चे, गरीबी और भूखमरी से जूझते पतले दुबले मझोले कद काठी के गेहुंआ तथा सांवले रंग के लोग निवास करते हैं।
आजादी के 70 साल
जल, जंगल और जमीन में धंसे अमूल्य खनिज सम्पदा की रक्षा करते हुए अंतिम सांस तक टिके खड़े हैं। सरकारों के बदलने, चुनावों के तारीखों का ऐलान, राष्ट्रध्वज के फहराए जाने की जद्दोजहद और विकास के नाम पर होने वाली लंबी-चौड़ी सरकारी बैठकें अर्थात किसी भी घटनाक्रम की यहां कोई खबर नहीं होती। दण्डकारण्य के मूलनिवासी (आदिवासी) आजादी के 70 साल बाद पहली बार तिरंगा 15 अगस्त 2016 को देखा होगा! हैरानी की बात यह है कि यहां के लोगों को लोकतंत्र के सही मायने नहीं मालूम और भला मालूम हो भी कैसे? क्योंकि ‘न्यूटन’ फिल्म से कोसों दूर आज तक यहां के लोग दबावों से मुक्त निष्पक्ष मतदान देने लोक सभा और विधान सभा चुनावों में शामिल ही नहीं हो पाए हैं।
2015 की आंकड़ों की माने तो बस्तर में केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के लगभग 35 हजार और राज्य पुलिस के लगभग 20 हजार जवान तैनात हैं। साल 2018 में कुछ और यानी 10 हजार और बलों में बढ़ोतरी हुई होगी? हाल की जो खबरे हैं माओवाद के खात्मा के लिए सरकार जल्द ही बड़ा ऑपरेशन शुरू करने जा रही है। इसी सिलसिले में 4 राज्यों से 7 हजार पैरामिलेट्री फोर्स के जवानों को छत्तीसगढ़ बुलाया जा रहा है। इनकी तैनाती देश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर में की जाएगी। अगर इस पूरे संख्या को मैं लाखों में कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। किसी भी लड़ाई को जीतने के लिए भारी अत्याधुनिक असलाहों के साथ सैन्य बलों की जरूरत होती है।
और यह भी कि सिर्फ हथियारों से सब कुछ जीता नहीं जाता है ‘वियतनाम’ इसका अच्छा उदाहरण है। भारत का दण्डकारण्य क्षेत्र अघोषित युद्ध से जूझ रहा है। जहां स्कूल और अस्पताल का नामोनिशान नहीं है। जंगल के क्षेत्रों में पक्की रोड का नामोनिशान तक नहीं हैं। सडक़ों के नाम पर पगडंडियां हमें कई रास्तों के मुहाने जोड़ देती है। कब जीव-जंतु आपके समक्ष आ धमके कहा नहीं जा सकता है। यदि नदी-नालों की बात की जाए तो एक गांव से दूसरे गांव तक जाने में कई दिन लग जाएं। घने जंगलों, वनों, पहाड़ों से युक्त गुरिल्ला रणनीति के कारण यहां माओवादी काफी मजबूत स्थिति में हैं और सुरक्षाबलों पर जब चाहे तब हमले कर जान-माल को नुकसान पहुंचाते रहे हैं।
समस्या का समाधान सैनिक हल नहीं है। अभी तक की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि माओवाद का कारण सामाजिक, आर्थिक समस्या है। बस्तर के सांसद दिनेश कश्यप कहते हैं कि ‘मुठभेड़ हुआ है तो वास्तविक हुआ है उन लोगों का नक्सली मूवमेंट में इन्वालमेंट रहा होगा वो मारे गए हैं। सोनी सोरी खुद ही नक्सली है नक्सलियों को पैसा देने वाली है वह कहेगी वो लोग निर्दोष है ये है, वह बात का बड़तंगा बनाते रहती है। जो नक्सलियों को पैसा देने गई थी वही सोनी सोरी है वह झूठी है। आगे मुठभेड़ पर कहते हैं कि बाकी क्यों नहीं भागे वही लोग क्यों भागे? बीजापुर (सारकेगुड़ा) की घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि बीजपंडुम मना रहे थे कुछ भी कहते हैं। जांच रिपोर्ट पर कहते हैं कि बाकी के लोग फालतू बात कर रहे हैं।
सीजफायर
नक्सली है तभी मारे गए हैं। सोनी सोरी पहले गई अपने आप एक वातावरण बनाई, निर्दोष साबित करने की कोशिश की है यह उनका काम है। पुलिस की कार्रवाही जो होगा वह होगा। समाधान तो कितने बार बोल चुके हैं बंदूक मत चलाओ। फोर्स है तो इन दूरस्त क्षेत्र में शांति है इक्का-दुक्का क्षेत्र को छोडक़र घटनाएं कम हो रही है। जिन लोगों का जुड़ाव उन लोगों से हैं उनके खिलाफ कार्रवाई होती है। हालातों पर कहते हैं कि सडक़ों पर गड्ढे तो नक्सली लोग खोदते हैं अच्छे सडक़ को खराब कर देते हैं।
सीजफायर पर कहते हैं कि ‘हमारे मुख्यमंत्री (रमन सिंह) ने पहल की है वो कहते हैं, ‘फोर्स हटाओ तब चर्चा करेंगे ऐसा कैसे संभव है।’ चर्चा करना है तो सामने आए हम भी चाहते हैं आप मुख्यधारा में आओ। समाधान पर कहते हैं-हमारे यहां 5वीं अनुसूची लागू है। यह कोई विषय नहीं है। ’ समाधान कम इस पूरे बातचीत में वे बस्तर में आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी को अपराधी साबित करने में लगे दिखे। जिस पांचवी अनुसूची की बात कर रहे हैं उसकी दुर्दशा कौन नहीं जानता?
मुठभेड़ से जुड़े क्षेत्र में हम चौबीस घंटे रहे। रात के 7 बजे अंधेरे जंगल की ओर गए और दूसरे दिन रात 7 बजे वापसी हुई। बड़े टीवी चैनलों और अखबार ने नुलकातोंग में नक्सलियों के खात्मे का जो खबर चलाया है वह गलत साबित हो रहा है और इस बीच सुरक्षा बलों की बड़ी सफलता का पोल तब खुलता है जब मूलनिवासियों के साथ हमारी वृहद बातचीत और गहरी जांच-पड़ताल में यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मुठभेड़ नहीं बल्कि मूलनिवासियों को जल-जंगल-जमीन और उनके संस्कृति से बेदखल करने के लिए ऑपरेशन प्रहार-4 था।
जब मैंने एसपी अभिषेक मीणा से इस ऑपरेशन के बारे में बात की तो (वे व्यंग्य कसते हुए कहने लगे) ‘आपरेशन होते हैं, कई बार इसका नाम दे दिया जाता है। भविष्य में और आक्रमक ऑपरेशन होंगे, नक्सली हिंसा करने से बाज नहीं आ रहे उनकी ऑडियोलॉजिकली हमले सिक्यूरिटी फोर्स को छोडक़र पब्लिक पर हो रही है।’
जांच के बाद जो तथ्य उभर कर आए हैं वह चौंकानेवाले हैं। ग्रामीणों के अनुसार मौके पर कोई माओवादी नहीं था बल्कि 3 अगस्त को ही उन्होंने पुलिस कि तीन ट्रकों को गांव की ओर जाते देखा था। सैकड़ों की संख्या में पुलिस बल की मौजूदगी एवं उनके यातनाओं से बचने के लिए गांव के सारे लोग जंगलों की ओर भागने लगे।
प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि कुछ ग्रामीण भागते हुए लाड़ी में जा दुबके। गांव में सिर्फ वही लोग बचे, जो चलने-भागने में अधिक सक्षम नहीं हैं। लेकिन पुलिस उन्हें भी नहीं छोड़ी। ग्रामीणों ने बताया कि गर्भवती महिलाओं को भी पीटा गया। मुठभेड़ के एक दिन पहले से ही ग्रामीण भागने और छिपने की कोशिश कर रहे थे जिन पर बिना कुछ कहे और बताए गोलियां बरसा दी गईं। मरने वालों में दो-तीन नाबालिग थे। सुकमा एसपी का बयान गलत साबित हो रहा है।
पत्रकारों और सिविल सोसायटी पर संदेह सवाल खड़ा करता है
पत्रकारों और सिविल सोसायटी के लोगों को स्वतंत्र रूप से इन युद्ध क्षेत्रों में जाने से पहले थाने में जानकारी देने के लिए कहा जा रहा है और बिना किसी अधिकृत जिम्मेदार अधिकारियों के अनुमति के जाने से रोका जा रहा है। इस तरह सच को बाहर लाने के कामों में विध्न पहुंचाया जा रहा है। हम चाहते हैं कि सच्चाई सामने आए और बड़े अखबारों के पत्रकारों को चाहिए कि वह बिना वस्तुस्थिति जाने खबरों को अखबारों और टीवी में ना चलाए इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं?
सुकमा जिले के नुलकातोंग में 6 अगस्त को हुई कथित नक्सली मुठभेड़ में 15 नक्सलियों के मारे जाने के पुलिस के दावे सरासर झूठा है। यह फर्जी तो है ही दूसरी ओर हम इसे मुख्यमंत्री रमन सिंह के उस बयान से जोडक़र देख रहे है जहां पिछले दिनों उन्होंने नक्सलियों को चेतावनी देते हुए कहा था कि ‘मुख्यधारा में लौटो या गोली खाओ।’ अगर यूं ही युद्ध चलता रहा तो आदिवासियों के खात्मे के साथ लोकतंत्र भी खत्म हो जाएगी।
जो लोग मुठभेड़ में मारे गए हैं उनके परिजनों से हमारी जो बात हुई है उनका कहना है कि मरने वाले नक्सली नहीं थे। सुरक्षा बलों के ऑपरेशन से आक्रोशित ग्रामीणों ने परिजनों के शवों के साथ स्थानीय थाने का घेराव भी किया। ग्रामीणों में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजन भी शामिल थे। ग्रामीणों और चश्मदीदों का कहना है कि मुठभेड़ के बाद जब शव सौंपने की बात आई तो बच्चों के माता-पिताओं ने कहा कि पुलिस ने हमारे बच्चों को षड्यंत्र करके घेरकर मार डाला है और लाशों को पोस्टमार्टम के बाद संबंधित गांवों से कोसों दूर जंगलों में फेंक दिया गया था।
मुठभेड़ के बाद जब अगले दिन शवों को पोस्टमॉर्टम के लिए अस्पताल लाया गया तो वहां मृतकों के परिजनों ने बताया कि उनके बच्चे रात को खेत-खलिहानों में सुरक्षा बलों के भय से दुबके बैठै थे। ग्रामीणों ने हमें पूरी घटना बताई कि पुलिस फोर्स ने उन्हें घेरा तो वे डर कर भागे, भागने पर पुलिस ने उन्हें गोली मार दी। मरने वालों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें गांव से निकालकर मारा गया है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं, ‘ऐसा हम नहीं कहते, यह गांव वालों का कहना है। मारे गए कई नाबालिग हैं। जिन्हें हथियारों के बारे में जानकारी तक नहीं हैं।
नदी नाला पार करते हुए सबसे पहले हम वेलपोच्चा गांव पहुंचते हैं जहां वंजाम देवे हमसे मिलती है जिसके पुत्र वंजाम हुंगा (25 वर्ष) को गोलियों से मार दिया गया है और लाश के साथ छेड़छाड़ किया गया। उसके ना रहने पर उसके घर माता-पिता के साथ उसकी पत्नी और दो बच्चें हैं। पुलिस का कहना है कि वह जन मिलिशिया का कमांडर था। लेकिन उसके मां का कहना है कि वह कृषि कार्य कर अपने परिवार का भरण पोषण करता था।
चश्मदीद बताते हैं कि सभी लोग जब भाग रहे थे तो वह भी डर के मारे भाग रहा था। सुरक्षा बलों ने उसके साथ ज्यादती की है मरने के बाद भी उसके अंडकोष, मुंह, नाक तथा कान को हथियारों से काटा है और लाश को विभत्स बना दिया था। लाश के साथ छेड़छाड़ का आरोप पहले नक्सलियों पर लगता था इस घटना के बाद सुरक्षा बलों पर भी लगा है।
आंतरिक मामलों के लिए सबसे पिछड़े इलाके में बसे गोमपाड़ गांव व उसके आसपास के कई-कई कोसों दूर के घने जंगल परिक्षेत्र में ना तो कोई स्कूल है और न ही कोई अस्पताल। गांव में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के पास मतदाता पहचान पत्र ही नहीं है। भारत के नागरिकता के रूप में कुछ के पास पहचान के नाम पर आधार कार्ड है और ग्रामीणों में से कइयों का ना राशन कार्ड बना है, न जॉब कार्ड।
गोमपाड़ के मडक़म सुक्का से मिले
इस गांव से आगे चलते हुए जब हम गोमपाड़ के मडक़म सुक्का से मिले वह घायल अवस्था में हमें मिला, उनके बांए पैर में गोली लगी है लेकिन वह अपने इलाज के लिए अस्पताल नहीं जाना चाहता। आप पूछेंगे अस्पताल तो बीस किलोमीटर की पैदल दूरी पर है तब वह जाते क्यों नहीं? क्या उनके लिए पैदल चलना संभव नहीं? नहीं? इसलिए कि उसे डर है कि अगर अस्पताल जाता है तो नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
मडक़म सुक्का के पैर में यह गोली बीती 6 अगस्त को लगी थी। वह कहता है कि गोली लगे स्थान पर देशी दवा लगा दिया है जिससे गोली बाहर निकल आएगी। अंग्रेजी कैलेंडर में ये वही दिन था जब मेनस्ट्रीम के मीडिया में खबर आई थी कि सुकमा में सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ में 15 नक्सलियों को मार गिराया और मुठभेड़ जारी है। सुक्का इस कथित मुठभेड़ के चश्मदीद हैं। उनकी आंखों के सामने ही सुरक्षा बलों ने 15 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और मरने वालों में उनका 14 साल का बेटा मडक़म आयता भी था। आयता की बड़ी बहन मडक़ाम नंगी उस तस्वीर को हमें दिखाती है जिसमें वह अपने भाई के साथ खड़ी नजर आ रही है।
इसी गांव से माड़वी देवा (35वर्ष) तथा माड़वी नंगा (45 वर्ष), माड़वी देवा (35 वर्ष) कगती अड़मा (30 वर्ष) भी मुठभेड़ के शिकार हुए हैं। सोयम सीता (24 वर्ष)को गोली मार दिया गया। उसका छोटा भाई सोयम संतोष जो तेलंगाना में रोजी-मजदूरी करने चला गया था घटना के बाद वापस गांव आकर कुछ भी बताना नहीं चाहता है वह डर से भरा नजर आया। ना कुछ बताया और ना ही किसी को बताने दे रहा था। उसका भाई सोयाम जोगाराव बिस्तर में पड़ा रहा लेकिन उठकर हमें कुछ नहीं बताया।
बताया गया कि वह अपनी जान बचाकर लौटा है कुछ ने उसे गोली लगना बता रहे थे जबकि वह कुछ भी नहीं बोल रहा था। वे कुछ लोग खुशकिस्मत थे कि मुठभेड़ स्थल से भाग कर गांव लौट आए और अपनी जान बचा ली। चंद्रा सोयम (उसके आधार कार्ड में उसका जन्मतिथि 13/05/1997 दर्शाया गया यानी उसका उम्र लगभग 21 वर्ष का रहा होगा।) जिसे लोग सरपंच कह रहे हैं। उसकी पत्नी सोयम बद्री अपनी दूधमुंहे बच्ची को लेकर कह रही थी कि चश्मदीद ग्रामीण कहते हैं कि सोयम चंद्रा को पहले गोली मारी गयी फिर फावड़ा से उसके सिर को कुचला गया।
आज जब वे अपनी पहचान के साथ खुलकर सामने आकर अपनी और उस दिन की कहानी बताते हैं तो इससे यह जाहीर होता है कि वह एक साधारण ग्रामीण हैं जो खेती किसानी कर गोमपाड़ गांव में रहते हैं जहां भय और आतंक का राज है।
गोमपाड़ का अपना अलग इतिहास
आप जानते हैं कि गोमपाड़ का अपना अलग इतिहास है। हम मडक़ाम लक्ष्मी से भी मिले। बताया गया कि इनकी पुत्री मडक़ाम हिड़मे को साल 2006 में पुलिसवालों ने मार गिराया था। ग्रामीणों के मुताबिकसाल 2009 की घटना के बाद भी सीआरपीएफ समय-समय पर आकर गांववालों को परेशान करती रही है।
कई लोगों को जेल में डाल दिया गया। उस समय के अखबारों के हैडिंग बताते हैं कि उस साल 13 जून को जीआरडी कमांडो पुलिस ने मडक़म हिड़मे को बलात्कार के बाद मार डाला था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बिलासपुर उच्चतम न्यायालय ने उत्तर बस्तर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने याचिका निराकृत कर दी है। वहीं याचिकाकर्ता को सीआरपीसी के प्रावधानां के तहत संबंधित न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत करने की छूट दी गई है।
सोनी सोरी कहती है गोमपाड़ में 18 दिसम्बर 2017 को मछली पकड़ते हुए सोयम रामे पति सोयम कामे को सुरक्षा बल उसे गोली मारते हैं और उसका तस्वीर खींच ले जाते हैं उसे मरा हुआ समझ कर वहीं छोड़ दिए। जब ग्रामीणों को पता चलता है उसे उसी अवस्था में इलाज के लिए भद्राचलम ले जाते हैं। ग्रामीणों ने कहा कि रामे गांव से ही गायब है, उसका तो पता भी नहीं हैं।
ग्रामीण कहते हैं कि विकास से दूर रहना ही ज्यादा बेहतर है, क्योंकि सबसे पहले सडक़ों के कारण हमारे जंगलों तथा पेड़-पौधों को काट दिया जाता है। जैसे ही सडक़ बन जाती है पुलिस का आवाजाही बदस्तूर शुरू हो जाता है और सुरक्षा बल जब भी इस गांव में आए हैं, तबाही ही मचाए है। इधर दादा (नक्सली) लोग भी आकर गांववालों को परेशान करते हैं। वे हमारे युवक और युवतियों को अपने कथित संघर्ष के रास्ते ले जाना चाहते हैं।
ग्रामीण कहते हैं दिक्कत तब होती है, जब गांव में कोई बीमार पड़ता है। बीमारी की हालत में गांव के लोग मरीज को 25 किलोमीटर दूर कोंटा ले जाते हैं या फिर आंध्र प्रदेश के रास्ते भद्रचलम लेकर जाना पड़ता है। दोनों ही जगह जाने में हमेशा पुलिस का डर बना रहता है। अब तक कई लोग समय पर इलाज नहीं होने से मौत के शिकार हो चुके हैं।
हमने देखा गांव में एक भी स्कूल नहीं है। लेकिन लोग अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। इसलिए गांव के कई बच्चे कोंटा में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। पानी की किल्लत को देखते हुए गांववालों ने एक तालाब खोद लिया है, जिससे अब पानी की किल्लत नहीं होती। बिजली के बारे में गांव वाले नहीं जानते हैं। उन्हें अंधेरे में रहने के लिए मजबूर कर दिया गया है।
मुझे आश्चर्य तब हुआ जब आजतक और फारवर्ड प्रेस में छपे खबरों में एंटी नक्सल ऑपरेशन के डीजीपी डीएम अवस्थी के बयान, ‘एनकाउंटर से नक्सलियों को गहरा धक्का लगा है। तमाम नक्सली हथियारबंद थे और वे कैंप में ट्रेनिंग ले रहे थे। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) के जवानों ने उनकी तगड़ी घेराबंदी की है। जवानों ने उन्हें पहले हथियार डालने की चेतावनी दी, लेकिन नक्सलियों ने उन पर लगातार फायर शुरू कर दी।
अधिकारियों की जुबान में तलखी
मजबूरन डीआरजी को भी इन्हें मुंहतोड़ जवाब देना पड़ा। पकड़े गए नक्सलियों (एक महिला और एक पुरुष) से गहन पूछताछ हो रही है। कई बड़े नक्सली फोर्स के मूवमेंट से भयभीत है और इस एनकाउंटर की कामयाबी से विवाद पैदा करना चाहते हैं।’ जब हमने इस बयान की पुष्टि के लिए विशेष पुलिस महानिदेशक(नक्सल ऑपरेशन/विशेष आसूचना शाखा) डीएम अवस्थी से बात की तो वे इस बयान से यह कह कर साफ मुकर गए कि ‘यह बयान मेरा दिया नहीं है ना जाने किसने प्रकाशित किया, उन्होंने आगे कहा कि अधिकृत रूप से सुकमा एसपी अभिषेक मीणा को जो उस जिले के बड़े पुलिस अधिकारी है को इस संबंध में बात करने कहा गया है।
लेकिन जब उनसे दोबारा एक जिम्मेदार अधिकारी के हैसियत से इस मामले में उनकी राय जानना चाहा तो उन्होंने तलखी के साथ कहा कि ‘आपको समझ में नहीं आ रहा है कि इस मामले पर सुकमा एसपी अभिषेक मीणा से बात करने कह रहा हूं।’ मीडिया में आए उनके पूर्व के बयान और मेरे साथ हुई बातचीत से पूरे मामले को लेकर विरोधाभाष की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
हम जैसे सम्पादक पर जिस पर किसी ना किसी रूप में युद्ध क्षेत्र में रिपोर्टिंग के दौरान पछपात का आरोप लगता रहता है इस मामले में एक बड़े जिम्मेदार पुलिस अधिकारी के द्वारा इस तरह आए विरोधाभाषी बयान से उनकी गैर जिम्मेदराना रवैया और पूरे घटनाक्रम पर इसका प्रभाव पड़ता दिखता है। प्रभाव यह भी कि जांच दल के लोग और पत्रकार लोकल स्तर में जहां घटना घटी है वहां थाना प्रभारी से बात क्यों नहीं कर सकता है? सिर्फ एसपी रैंक का अधिकारी ही जवाब क्यों दे? यहां लोकतंत्र में कानून और व्यवस्था में सब कुछ का केन्द्रीकरण कर देना दिखता है।
नुलकातोंग गांव के छह लोग इस कथित मुठभेड़ में मारे गए
नुलकातोंग गांव के छह लोग इस कथित मुठभेड़ में मारे गए हैं जिनकी अंतिम संस्कार आदिवासी संस्कृति से हट कर अग्रि से दाह संस्कार किया गया है। इनमें ताती हुंगा (27 वर्ष)भी एक थे। उनके भाई ताती जोगा का कहना हैं कि मैं जीवित हूं क्योंकि उस दिन गांव में नहीं था। अगर होता तो मुझे भी मार दिए होते जैसा होते आया है। मेरा भी भाई गांव के अन्य लोगों की ही तरह सुरक्षा बलों के भय से भागा था।
गांव से कुछ दूर ही एक लाड़ी थी जहां वो लोग उस रात जान बचाने के लिए दुबके बैठे थे जबकि रात में ही पुलिस आंखमिचौली खेलते हुए उस लाड़ी को घेर चुकी थी अर्थात मुठभेड़ स्थल जिसे गांव से तीन किलोमीटर दूर बताया जा रहा है कोई बड़ा युद्ध क्षेत्र नहीं था। वह लाड़ी ही था जिसे नक्सलियों का कैम्प बताया जा रहा है।
नुलकातोंग मुठभेड़ में एक नाबालिक मुचाकी मूका भी था। उसकी माता मुचाकी सुकड़ी कहती हैं, 6 अगस्त की सुबह जब हमने गोलियों की आवाज सुनी तो हम लोग उस तरफ दौड़े तब तक मेरा 13 वर्षीय बेटा मूका जमीन में ढेर हो चुका था। साल 2008-09 में मूका के पिता मुचाकी बीमल को सलवा जुडूम ने गांव में ही मार डाला था। क्या नक्सलियों के आरोप लगा-लगा कर आप पूरे परिवार को खत्म कर देना चाहते हो। अब उनकी नाबालिक छोटी बेटी सुखरी मुका उनके कामों में हाथ बटाती है। लेकिन उसके चेहरे में भी डर साफ नजर आता है।
नुलकातोंग निवासी मडक़म हिड़मे कि माने तो पूरा मुठभेड़ झूठ के पुलिंदे पर खड़ा है। वह कहती हैं वहां जाकर कोई भी देख सकता है कि वह नक्सलियों का कैंप नहीं बल्कि लाड़ी थी। नक्सली अगर मुठभेड़ करते तो क्या पुलिस वालों को गोली या खरोच नहीं आती। सैकड़ों की संख्या में सुरक्षा बलों के बीच क्या नक्सली 15-20 ही थे। नहीं, लाड़ी में और भी लोग गांव से भाग कर अपनी जान बचाने डर के मारे दुबके बैठे थे उनको क्या मालूम था कि मौत उनका पीछा कर रहा है और इस तरह पुलिस पुरस्कार और पद्दोन्नति की लालच में निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार देगी?
दक्षिण बस्तर में मूलनिवासियों के इस क्षेत्र में खेत-खिलहान कई किलोमीटर दूर जंगलों के बीच फैले पड़े हैं। इन सुदूर जंगलों में मूलनिवासी हल के साथ गाय को भी खेती जोतने में लगाते हैं। कालांतर में बदलते समय के साथ पेंदा खेती करने के बाद अब इन जंगलों में भी ये किसान फसल को तैयार करने के लिए एक झोपड़ीनुमा ढांचा जिसे लाड़ी कहते हैं खड़ा करते हैं, बता दें लाड़ी जंगल से प्राप्त बल्लियों, बांस, ताड़ के पत्तों व घास-फूंस से बनाते हैं। यहां लाड़ी का प्रयोग खेती का सामान रखने, खाना बनाने, फसल रखने और यदा कदा घोटुल के रूप में भी करते हैं। 5 अगस्त के उस भयावह रात को ऐसे ही एक लाड़ी में गांव से सुरक्षा बलों के आमद की डर से गांव के लगभग 30-35 लोग अपनी जान बचाने यहां दुबके बैठे थे।
मडक़म हिड़मे
नुलकातोंग गांव की मडक़म हिड़मे के पति मडक़म देवा को पुलिस ने इस कथित मुठभेड़ वाले दिन ही घटनास्थल से गिरफ्तार किया है। अभिषेक मीणा का दावा है कि ‘देवा जो पकड़ा गया है वह दूसरा है गोमपाड़ वाला नहीं यह दूसरा देवा है नुलकातोंग का है इसके खिलाफ भी अपराध रजिस्टर्ड थे तथा वारंटी था। मिलिशिया में काम करता था। मिलिशिया के बाद एलओएस में चला गया था। बाद में घूटने में दर्द के कारण गांव में आकर नक्सलियों के लिए काम कर रहा था।’
हिड़में सवाल करती है कि जब देवा के खिलाफ अपराध रजिस्टर्ड थे व वारंटी था तो पुलिस इतने दिनों तक इंतजार किस चीज की कर रही थी? जब शुरू में उसे इनामी नक्सली घोषित किया गया था तो उसका नाम राशन कार्ड में कैसे दर्ज है? हो सकता है समानांतर व्यवस्था वाले क्षेत्र में नक्सलियों के आमद के कारण उनके ताकतों के सामने लोगों को मजबूरन काम करना पड़ता हो जैसे हथियारबंद पुलिस की धमक से पुलिस के लिए, लेकिन क्या ऐसे लोगों को आप संदेह के आधार पर नक्सली घोषित कर देंगे?
उनकी पत्नी और गांव के लोगों का कहना था कि देवा गांव में ही रह कर खेती करता था तथा परिवार का भरणपोषण भी करता था। अब कोई नहीं है जो घर की आर्थिक हालातों को बनाए रखे। देवा और बुधरी को पुलिस बिना गिरफ्तारी दिखाए कैसे इलाज करवा रही है यह आश्चर्य का विषय है पुलिस ने हमें दोनों की गिरफ्तारी तारीख, हिरासत तथा जेल में दाखिले को लेकर कोई जानकारी नहीं दी है। हां इलाज हो रहा है और जेल दाखिले की जानकारी पूछना पड़ेगा?
ग्रामीणों का कहना है कि सुरक्षा बल जब गांव आते हैं तो खासकर जवान युवक व युवतियों से पूछताछ, मारपीट, हत्या और जो खुशकिस्मत होते हैं, को साथ ले जाकर यातना देकर जेलों में डाल देते हैं। ऐसे ही लाड़ी में से 15 लोग अगली सुबह 6 अगस्त को सुरक्षाबलों की गोलियों का शिकार हो गए। अभिषेक मीणा का कहना है कि जो हाथ ऊपर किए हुए थे उन्हें छोड़ दिया गया। 6 अगस्त को हुई कथित मुठभेड़ के बाद सुरक्षाबलों ने दुधी बुधरी को पकड़ा है और ये नुलकातोंग गांव की रहने वाली है। पुलिस का दावा है कि बुधरी अंडरग्राउंड नक्सली मिलिशिया की सदस्य है। कोई बड़ी नक्सली नहीं है।
बुधरी के आवेदन पत्र में पंचायत सरपंच और सचिव कैसे हस्ताक्षर करते?
लेकिन बुधरी की मां उसके आधार कार्ड के आवेदन की प्रतिलिपि दिखाते हुए कहती हैं, बुधरी ने कुछ समय पहले ही आधार के लिए आवेदन किया था। अगर वह नक्सली होती तो क्या शहर जाकर आधार का आवेदन कर सकती थी? बुधरी के आधार कार्ड आवेदन पर 18 जून, 2018 की तारीख भी दर्ज है। उसके आवेदन पर ग्राम पंचायत सरपंच और पंचायत सचिव के भी हस्ताक्षर हैं। उनकी मां आगे कहती है कि अगर बुधरी नक्सली होती तो उसके आधार के लिए आवेदन पत्र में पंचायत सरपंच और सचिव कैसे हस्ताक्षर करते? लेकिन सुकमा के एसपी अभिषेक मीणा आधार पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं कि आधार कार्ड कोई भी बना सकता है। यह बड़ी बात नहीं हमारे पास भी पूरा डेटा नहीं है।
वे कहते हैं कि आधार एक भारतीय नागरिक होने का प्रमाण है। नक्सली भारतीय नागरिक हैं हम कब बोलते हैं कि वह पाकिस्तानी हैं। मीणा आगे कहते हैं कि बुधरी का हिप डिस्क डिस्लोकेट हो गया है उसे गोली नहीं लगी है उसे गिरफ्तार किया गया, उसका इलाज किया जा रहा है। मीणा आगे कहते हैं कि परिजनों ने भी बताया देवा और बुधरी नक्सलवादी थे और दोनों ने न्यायालय के सामने इस आशय का स्टेटमेंट भी दिया है। वो कहते हैं कि वहां पूरी मिलिशिया की पार्टी थी। इनमें से कोई भी निर्दोष नहीं था।
नाबालिक होने कि बात तब साबित होती है जब गोमपाड़ निवासी घायल मडक़म सुक्का के बेटे मडक़म आयता का उदाहरण हमारे सामने आता है। सुक्का के सबसे बड़े बेटे का उम्र आधार कार्ड के अनुसार अभी 18 साल है। ऐसे में निश्चित तौर से कहा जा सकता है कि आयता की उम्र 11 या उससे कम की रही होगी। कई परिजनों के पास मौजूदा मारे गए लोगों की तस्वीरों से भी हम अनुमान लगा ही सकते हैं कि मारे गए कुछ लोग नाबालिक थे। जो नक्सलवाद को जानते तक नहीं थे?
पत्रकार लिंगाराम कोडोपी
पत्रकार लिंगाराम कोडोपी की माने तो नुलकातोंग से सात नाबालिक बच्चे इस मुठभेड़ में मारे गए हैं। चूंकि हमारी मुलाकात जिन लोगों से हुई है उसके आधार पर हमारी जांच में इसकी पुष्टि नहीं हुई। हालांकि एसपी अभिषेक मीणा कहते हैं, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट्स बताती हैं कि इनमें 15 में से 13 लोग वयस्क थे। सिर्फ दो लोगों के बारे में डॉक्टरों का कहना है कि उनकी उम्र 18 या 19 के आसपास हो सकती है।
पुलिस द्वारा बताए जा रहे इस बड़े मुठभेड़ की असलियत तब सामने आती है जब नुलकातोंग से कोंटा के लिए लौटते समय पुलिस द्वारा छोड़ दिए गए दो चश्मदीद माडवी लकमा और सोड़ी आंदा तथा उनके परिवार की मुलाकात जंगल के रास्ते इत्तेफाक से हमसे हो जाती है।
वे कहते हैं कि जब लाड़ी को लक्ष्य कर पुलिस ने फायरिंग शुरू की, तब ये दोनों उसी लाड़ी में मौजूद थे। गोलीबारी के बाद इन दोनों को भी पुलिस अपने साथ थाने ले गई थी लेकिन देवा और बुधरी की तरह इनकी गिरफ्तारी कहीं दिखाई नहीं गई। यानी आधिकारिक तौर पर पुलिस ने सिर्फ दो ही लोगों को गिरफ्तार दिखाया था। लेकिन पुलिस ने इस तरह चार लोगों को अपने साथ ले गई थी। इस मामले में एसपी अभिषेक मीणा ने बताया कि लखमा और हांदा संगम के सदस्य थे। चावल इकट्टा करना, मीटिंग चलाना, लेटर ले जाना करते थे।
मुठभेड़ के समय उस स्थान में दोनों उपस्थित थे लेकिन ये नक्सलियों का साथ नहीं दे रहे थे। लखमा खेती की ओर आ रहा था, हांदा लाड़ी में था। दोनों नक्सलियों को साथ नहीं दे रहे थे। दोनों फायरिंग के समय हाथ ऊपर कर के जमीन पर बैठ गए थे। असलियत कुछ और है लकमा और आंदा को पुलिस ने आठ दिनों तक हिरासत में रखा बिना रोजनामचा और कागजों पर उनका कहीं उल्लेख नहीं किया जाना बताते हैं इस तरह उन्हें 14 अगस्त को छोड़ा गया। इतने दिनों तक ये दोनों पुलिस थाने में ही कैद रहे।
सवाल यह उठता है कि जब सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ से पहले चेतावनी दी होगी तो क्या उन 15 में से जिसमें 30 लोगों का होना बताया गया है में से 2 लोग ही हाथ ऊपर उठाए होंगे और उन्हें युद्धबंदी के रूप में पकड़ लिया गया? और बाकियों को जिसमें नाबालिक भी थे क्या उन लोगों ने हाथ ऊपर नहीं किए थे और इस वजह से उन्हें गोली मार दिया गया।
ग्रामीण कहते हैं कि इन दोनों को भी मार दिया जाता वह तो वक्त पर बड़ी संख्या में महिलाएं पहुंच गई और उनके दबाव से सुरक्षा बलों को इन दोनों को गिरफ्तार करना पड़ा। मौके में पहुंचे कई गर्भवती महिलाओं के साथ भी पुलिस ने बदसलुकी की है।ग्रामीणों ने संदेह व्यक्त किया है कि बुधरी, देवा के साथ इन दोनों को भी पुलिस इस पूरे मामले में सरकारी गवाह बनाने में जुटी नजर आती है।
पुलिस ने वारंटी, अपराधी तथा ईनामी
इस घटना से साबित होता है कि पुलिस यह सिद्ध करना चाह रही है कि जिसे धोखे से कहे या जानबूझ कर गोली लग गई है उसे नक्सलवादी घोषित किया जाए और जिन्हें गोली लगा और भाग गए उसे भी पकड़ा जाए? और जिसे गोली नहीं लगी उन पर ग्रामीण होने का लेबल लगा दिया जाए। सुरक्षा बलों की यह लॉजिक हजम होने को नहीं है।
पुलिस ने वारंटी, अपराधी तथा ईनामी जैसे जिन लफ्जो का उपयोग किया हैं ये शब्द उन्हें फंसाते नजर आते हैं क्या जांच दल अथवा पत्रकारों को इस आशय का सुरक्षा बलों ने कोई नोटिफिकेशन या लिखित में घोषणा प्रेस को दिखाया है? यह पुलिस की झूठ है सुरक्षा बल चाहते तो तमाम ग्रामीणों को गिरफ्तार कर सकते थे सुरक्षा बल और सरकार को बदले की भावना जैसी मानसिकता से बचना चाहिये और समस्या के समाधान पर जोर देना चाहिये।
दूसरी बड़ी बात 15 नक्सलियों को मार गिराने के पुलिस के दावों की पोल अगले दिन ही खुल गई जब कोंटा में महिलाओं ने प्रदर्शन किया और कहा कि मारे गए लोग नक्सली नहीं थे। उनका कहना है कि पुलिस ने नक्सल अभियान को सफल दिखा कर प्रशंसा और आउट टर्न प्रमोशन पाने के लिए बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया वे साधारण किसान थे जिनको मार गिराए जाने के बाद पुलिस नक्सलवादी करार दे रही है। इस बीच पी विजय और सोनम पेंटा ने एक झूठा विरोध प्रदर्शन का जाल बुन कर बेला भाटिया और नंदनी सुन्दर के ऊपर हमला करते हुए नक्सलियों का साथ देने का कहानी गढऩे की कोशिश कर रहे हैं और यह बताने कि कोशिश की है कि जो बस्तर
और आदिवासियों के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होगा उन्हें सबक सिखाया जाएगा। आपको यह भी बताते चले कि सुकमा के थाना प्रभारी ने सोनी सोरी को एक नोटिस भेजा है जिसमें उन पर किसी ग्रामीण सोड़ी हड़मा आत्मज सोड़ी भीमा ने आरोप लगाया है कि मुठभेड़ के बाद उसे धमकी चमकी देकर पुलिस वालों के खिलाफ झूठी बात बोलने व केश करने के लिए उकसाने, जबरन दबाव देकर साथ चलने और खाना खिलाने पर पैसा नहीं देने, घर व खेती का काम में नुकसान होने का शिकायत दर्ज करवाया है। इस नोटिस के जवाब में सोरी ने सिरे से इसे झूठा और बेबुनियाद बताया है और कहा है कि सोड़ी हड़मा नाम के किसी भी व्यक्ति को वह पहचानती तक नहीं है। सोरी ने कहा है कि सरकार और पुलिस सच को बाहर लाने के उनके प्रयास में रूकावट डालने के लिए घिघौने हथकंडे अपना रही है।
15 लाशों का दोबारा पंचनामा व पोस्टमार्डम करवाएं जाएं
सिविल सोसायटी की तकाजा है कि इसकी न्यायिक जांच के साथ स्वतंत्र जांच एजेंसी से जांच हो। घटना में शामिल सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन, एसआईबी, एसटीएफ, डीआरजी जैसे सुरक्षा बलों के खिलाफ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाए, उन पर हत्या की मुकदमा भी बनें, दोषी सभी आरोपियों को बर्खास्त किया जाए, जिन अधिकारियों के निर्देशन पर कथित मुठभेड़ को अंजाम दिया गया उन्हें भी बर्खास्त करें, सभी 15 लाशों का दोबारा पंचनामा व पोस्टमार्डम करवाएं जाएं।
जांच में निष्पक्ष फारेन्सिक लेब की सेवा ली जाए, महिलाओं के साथ अत्याचार, लूट, संपत्ति का नुकसान का प्रकरण दर्ज हो, इस आदिम क्षेत्र में अनुच्छेद 15(1), 15(4), 46, 335, 332, 338, 342, 275, 243, 244, 244(1), 275(1) सहित 5 वीं व 6 वीं अनुसूची के उल्लंघन पर संज्ञान लिया जाए, देशी-विदेशी पूंजीपतियों की खनिज पट्टे व एमओयू रद्द हो।
सलवा जुडूम तथा अग्रि को हथियारों से लैस करना बंद हो, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित बुनियादी सुविधाओं पर बल देते हुए आदिवासियों के लिए खनिज व वनोपजों से जुड़े लघु उद्योगों, कपड़ा व मकान की व्यवस्था हो तथा रायल्टी और उद्योग धंधों में शेयर प्रदान करें। आवागमन के लिए साधनों की व्यवस्था हो, आदिवासियों की रक्षा के लिए तत्क्षण फौजी टुकडिय़ों व पुलिस बलों को बैरकों में वापस बुलाए जाएं।
जिससे वे स्वतंत्रता के साथ अपनी जिंदगी निर्वाह कर सकें, माओवादी आंदोलनों को दमनात्मक तरीकों से उन्मुलन करने के बजाए उसका राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक हल ढूंढा जाए, क्षेत्र में शांति के लिए हरसंभव प्रयास किए जाए। जिससे आदिवासी नस्लों को बचाया जा सकें, दमनात्मक अभियानों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की हिदायतों का पालन करें।
गामीणों तथा चश्चदीदों ने बताया कि घटना के वक्त मौके पर कोई माओवादी नहीं था। सच तो यह है कि बड़ी संख्या में पुलिस के जवानों को देखकर निहत्थे ग्रामीण भागने और छिपने की कोशिश कर रहे थे। जवानों ने बिना चेतावनी और आत्मसमर्पण के लिए घोषणा किए बगैर सोचे-समझे उन पर गोलियां दाग दी।
इसके बाद जब जवानों को पता चला कि वे माओवादी नहीं बल्कि ग्रामीण हैं तो वे घबरा गए और अपना गुनाह छिपाने के लिए घटना के प्रत्यक्षदर्शियों को भी मारना शुरू कर दिया। पत्रकार लिंगाराम बताते हैं कि ‘उन्हें भी मृतकों के परिजनों से मिलने नहीं दिया जा रहा था, हम किसी तरह चकमा देकर ग्रामीणों से मिल सके हैं। हमारा यह भी कहना है कि उनसे मुलाकात की भनक लगते ही पुलिस ने एक-एक करके सभी ग्रामीणों को छिपा दिया था।
6 अगस्त को जो मुठभेड़ हुआ था वह फर्जी था
सुकमा के पुलिस अधीक्षक का दावा है कि 7 अगस्त को यह मुठभेड़ स्थल किसी भी गांव से 3 किमी की दूरी पर है। कुछ दिनों पहले बैठक हुई थी शहीद सप्ताह को लेकर रिक्रूटमेंट सीजन आने वाला था। थोड़ा हिट करना था। जनरल इन्फारमेशन था कि यहां है। जबकि मुठभेड़ स्थल से लौटे आंबेडकराईट पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय महासचिव अर्जुन सिंह ठाकुर का इस मामले पर कहना इस मामले को कुछ और ही रंग देता है, वे इसे फर्जी करार देते हुए कहते हैं कि 6 अगस्त को जो मुठभेड़ हुआ था वह फर्जी था।
अगर वहां नक्सली होते तो दोनों ही पक्षों को गोलियां लगती। सिर्फ एक ही पक्ष के 15 लोगों का धाराशाही हो जाना और सुरक्षा बलों को खरोंच तक ना आना प्रथम दृष्टया संदेह पैदा करता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस मुठभेड़ में 12'3 वर्ष के बच्चों को मार दिया गया है गोमपाड़ के श्मशान घाट में मडक़म आयता (11 वर्ष) का स्कूल बैग भी हमें नजर आया। क्या वे नक्सली हो सकते हैं? वे कहते हैं कि आदिवासी जल, जंगल तथा जमीन की बात करते हैं जिसका निराकरण होना चाहिए। सीजफायर के लिए शासन उच्चस्तर पर पहल करें।
पत्रकार कोडोपी सवाल करते हैं कि एसपी मीणा का यह बयान काफी नहीं है, गांव के ग्रामीण कुछ और ही कहानी बता रहे हैं। क्या जिला सुकमा एसपी स्वतंत्र जांच के लिए तैयार हैं? अगर तैयार हैं तो हमें जांच-पड़ताल करने दें। जिला पुलिस प्रशासन द्वारा किसी भी जांच टीम को रोकना नहीं चाहिए। हमेशा पुलिस गलत होती है तो ही रोक-टोक करती है। खबरों की माने तो न्यूयार्क टाइम्स की पत्रकार को मुठभेड़ स्थल तक पहुंचने नहीं दिया गया। पत्रकार राहुल कोटियाल इस पूरे मामले पर लिखते हुए कहते हैं कि ‘तमाम सच्चाइयों के बावजूद इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि निर्दोष ग्रामीणों को नक्सली बताकर मारा जाना गलत है और गोमपाड़ में तथ्य ऐसा होने की चुगली करते हैं।’
जब 13'4 अगस्त को हम गांव के पीडि़त महिलाओं से मिलने पहुंचे तो उन्होंने बताया कि वे दो दिन से भूखे हैं। कई प्रभावित अपने आश्रितों के नहीं होने से तबियत बिगडऩे से खाना नहीं खा पा रहे हैं। उनके परिजनों की हत्या के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। कई सारे लोगों को गोली लगी हुई है जिनका इलाज नहीं हो रहा है। इससे पहले सोनी सोरी के नेतृत्व में दल नुलकातोंग जा चुका है और कांग्रेस ने भी मुठभेड़ पर संदेह व्यक्त किया है और जांच के लिए 18 सदस्यीय जांच दल बनाया है लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक तक उनकी जांच टीम प्रभावित गांव तक नहीं गए हैंं?
क्षेत्रीय विधायक को पूरे मामले पर बोलने का अधिकार नहीं है?
जब हमने इस संबंध में कोंटा विधायक कवासी लखमा से बात किया तो पहले वे दो-तीन दिनों तक बात करने से बचते रहे और अंत में मामले को भूपेश बघेल के पाले में डालते हुए पूरे मामले में चुप्पी साध ली है। क्या उनके पार्टी में भी उस क्षेत्र से चयनित क्षेत्रीय विधायक को पूरे मामले पर बोलने का अधिकार नहीं है?
मुठभेड़ के घटना को फर्जी करार देते हुए नाराज ग्रामीणों और परिजनों ने कोंटा थाने तक पैदल मार्च निकाला और आधी रात को थाने का घेराव कर दिया। बाद में पुलिस ने समझाकर उन्हें वहां से वापस गांव भेजा। वहीं, मुठभेड़ को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में भी दायर की गई है। जिस पर अगली सुनवाई 12 सितम्बर को तय किया गया था। इस गंभीर मामले में आंध्रा-तेलंगाना के सिविल लिबर्टी कमेटी के नारायण राव ने मामले में याचिका दायर की है। सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ करेगी।
सच कहता हूं कि आजादी के 70 सालों बाद पहली बार प्रभावित गोवों में से एक गोमपाड़ तब सुर्खियों में आया जब आजादी के बाद पहला तिरंगा फहराया गया था और हैरानी की बात यह है कि ये काम भी जन-गण-मन के ‘भाग्य विधाताओं’ ने नहीं, बल्कि उन गरीब मूलनिवासियों ने किया है, जो इस लोकतंत्र में निहत्थे बंदूकों के गोलियों का शिकार होते आए हैं। देखिए तब झंडा उस आदिवासी बच्ची ने फहराया है, जिसकी बड़ी बहन मडक़म हिड़मे को पुलिस ने नक्सली बताकर मार दिया था। कानून और व्यवस्था की गंभीरता और मेनस्ट्रीम की धारा देखिए कि उस गांव में हाल के मुठभेड़ में 15 व्यक्तियों में से 6 को मौत के घाट उतार दिया गया है। यही है गोमपाड़ में लोकतंत्र की सच्ची कहानी।
माओवादियों का आरोप
माओवादियों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर आरोप लगाया है कि जुलाई माह में मडक़ागुड़ेमू, दुलेड़, एर्रापल्ली, मेट्टागुड़ा राशपल्ली, बोट्टेलोंग जैसे गांवों में सुरक्षा बलों ने हमला किया। मेट्टागुड़ा के तीन महिलाओं के बलात्कार की जानकारी मिल रही है। 6 अगस्त को बड़े केड़वाल, टोंडामरका गांवों पर ग्रामीणों की सम्पत्ति लूट ली गई। और नुलकातोंग कथित मुठभेड़ क्षेत्र में भी जबरन जान-माल को नुकसान पहुंचाया गया। यही नहीं कई गभर्वती महिलाओं के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया। इस संबंध में एसपी मीणा कहते हैं कि नक्सलियों और ग्रामीणों के आरोप में मतभेद है। वहां सुरक्षा बल किसी भी महिलाओं को टच तक नहीं करते हैं नक्सली गंदा से गंदा आरोप सुरक्षा बलों के ऊपर लगाते हैं। मेट्टागुड़ा सहित अन्य किसी भी गांव वाले ने इस तरह के कोई आरोप सुरक्षा बलों पर कभी नहीं लगाए हैं।
छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के अंधेरे इलाकों में ऐसे कई गोमपाड़ गांव सांस लेते हैं, जहां सुरक्षाबल, राज्य प्रशासन और माओवादियों के अत्याचार की कहानी हर जुबान जंगलों से होते हुए बाहर मीडिया और अंतरराष्ट्रीय जगत की ओर पहुंच रही है। इस झूठी मुठभेड़ की कहानी सामने आने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इन दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में हो रहे ऐतिहासिक और क्रूर अन्याय की गाथा खुलकर सामने आएगी।
उम्मीद यह भी कि इन गरीब-पिछड़े आदिवासियों की आवाजें सत्ता के कानों तक गूंजेंगी और सरकार तक पहुंचेगी और समाधान पर नए सिरे से विचार-विमर्श होगा। इस संबंध में प्रख्यात आदिवासी नेत्री सोनी सोरी ठीक कहती है ‘मिलिशिया होने का आरोप ऐसा है जो किसी भी आदिवासी पर कभी भी लगाया जा सकता है। किसी को भी मारकर सुरक्षा बल आसानी से ये कह देते हैं कि वो मिलिशिया का सदस्य था। दो साल पहले हम लोगों ने एक तिरंगा यात्रा निकाली थी।
15 अगस्त के दिन हमने गोमपाड़ गांव में ही तिरंगा फहराया था
इस यात्रा में 15 अगस्त के दिन हमने गोमपाड़ गांव में ही तिरंगा फहराया था। हमारी कोशिश थी कि इन दुर्गम क्षेत्र के लोगों को मुख्यधारा में शामिल किया जाए। लेकिन आज उसी गोमपाड़ गांव के छह लोगों की पुलिस ने नक्सली बताकर हत्या कर दी है। अब मैं किस मुंह से उन लोगों के पास जाकर मुख्यधारा में आने की अपील करूं?’ बहरहाल हो यह रहा है कि पुलिस मिलिशिया बता कर ग्रामीणों को मार कर सच्ची मुठभेड़ बता रही है तो माओवादी पुलिस मुखबीर बता कर आदिवासियों को मार सच साबित करने में लगे हुए हैं।
सारकेगुड़ा के बाद दोबारा नुलकातोंग और उसके पड़ोसी गावों में आकर आदिवासियों के जीवन से जुड़े इस भयावह नरसंहार को जाहीर करने वाली कहानी को समाप्त कर रहा हूं कि इस तरह के विभत्स घटनाओं की पुनरावृत्ति भविष्य नहीं हो। अर्जेंटीना-चिली के उपन्यासकार एरियल डॉर्फमैन के नाटक ‘डैथ एंड द मेडन’ में, तानाशाही के दौरान हिरासत में बार-बार बलात्कार और यातना की शिकार औरत, अपने पति-देश में लोकतंत्र की बहाली के बाद पूर्ववर्ती शासन के दौरान हुए अपराधों के लिए गठित आयोग द्वारा नियुक्त एक मानव अधिकार वकील -से पूछती है, ‘और फिर? तुम पीडि़तों के रिश्तेदारों की सुनते हो, अपराधों की निंदा करते हो, लेकिन अपराधियों का क्या हुआ?’ वह कहता है, ‘यह तो न्यायाधीशों पर निर्भर है।
न्यायालयों को सबूतों की एक सूची मिलती है और न्यायाधीश आगे की कार्यवाही करता है...’ उसकी बात को बीच में ही काटते हुए उसकी पत्नी पूछती है, ‘न्यायाधीश?...जिसने कभी एक भी बंदी-प्रत्यक्षीकरण याचिका नहीं स्वीकारी? न्यायाधीश पेरालटा जिसने उस बेचारी औरत, जो अपने गुमशुदा हुए पति के बारे में पूछने आई थी, से कहा था वह शायद उससे ऊबकर किसी दूसरी औरत के साथ भाग गया था? वही न्यायाधीश?...’
पच्चीस साल से भी ज्यादा पहले लिखे गए इस नाटक को आज पढऩे पर डॉर्फमैन के शब्दों को नए रूप में उसी तीखेपन के साथ दोहराने की इच्छा होती है-‘उस पुलिसवाले से...जिसने प्राथमिकी लिखने से इन्कार कर दिया था? वही पुलिसवाला जिसने अपनी मुर्गी के पैसे मांगने आई एक गरीब औरत से कहा था वो उसके घर को उसके बच्चें सहित आग के हवाले कर देगा? वही पुलिसवाला?...’
खुद डॉर्फमैन ने कुछ साल पहले कहा था
खुद डॉर्फमैन ने कुछ साल पहले कहा था- ‘मैं रोमांचित हूं कि ‘डैथ एंड द मेडन’ बीस सालों बाद भी बासी नहीं पड़ा है...। रोमांचित जरूर, पर यह एहसास चिंताजनक है कि मानवता ने अपने अतीत से कोई सबक नहीं सीखा, यातना का उन्मूलन नहीं किया गया है, न्याय यदा-कदा ही होता है, सेंसरशिप जारी है, लोकतांत्रिक क्रांति की आशाएं हताश, दूषित और विकृत की जा सकती हैं। मैं इतना ही कर सकता हूं कि पूछूं कि क्या आज से 20 साल बाद भी यही शब्द फिर से लिखूंगा-‘यह कहानी कल घटी थी, पर हो सकता है आज घटी हो।’ (एरियल डॉर्फमैन का यह अंश सुधा भारद्वाज, श्रेया के, शिवानी तनेजा, महीन मिर्जा, फरीदा एएम, रिनचिन, शालिनी गेरा की पुस्तक ‘गवाही’ से)
विभत्स अभियान बरक्स समाधान
आदिवासियों ने जिस तरह से अंग्रेजों की गुलामी को नहीं स्वीकारा उसी तरह वह देशी-विदेशी पूंजीपतियों की गुलामी को स्वीकार नहीं करना चाहते। वह अपनी आज़ादी को बचाए रखने के लिये, अपनी जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन पर अपना हक चाहते हैं जिसके लिये वे लगातार संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सरकार पूंजीपतियों के मुनाफे को प्राथमिकता दे रही है। 2005 में सलवा जुडूम चलाया गया जिसमें 650 गांव को जला दिया गया, महिलाओं से बलात्कार किया गया, सैकड़ों लोगों को मार दिया गया, लाखों लोग गांव छोडऩे पर मजबूर हुए, हजारों लोगों को उनके गांव से उठाकर कैम्पों में रखा गया जिसका खर्च टाटा और एस्सार जैसी कम्पनियों ने उठाया।
इस अभियान के तहत काफी संख्या में सीआरपीएफ, सीआईएसएफ, बीएसएफ, कोबरा, नागालैंड, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, ग्रे हाउंड भिन्न-भिन्न तरह के अर्धसैनिक बल के जवानों को माओवादी इलाकों में भेजा गया। सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर डालने के आरोपी अंकित गर्ग को गैलेंट्री अवार्ड से तथा एसएसपी कल्लुरी को राष्ट्रपति का पुलिस मैडल से नवाजा जा चुका है। इस बीच में काफी फर्जी मुठभेड़ और बलात्कार की घटनाएं हुईं। 15 जनवरी, 2016 को सीडीआरओ और डब्ल्यूएसएस जैसे मानवाधिकार समूह ने यौन हिंसा और राजकीय दमन के खिलाफ महिलाएं की टीम छत्तीसगढ़ गई थी।
इस टीम का अनुभव भी अक्टूबर में गई टीम जैसा ही था। 11 से 14 जनवरी, 2016 को सुकमा जिले के सुकमा के कुन्ना और उसके आसपास के गांवों में एक अभियान में 13 से 30 साल उम्र की कई युवा औरतों पर हमला किया गया। औरतों के ब्लाउज और बाहरी कपड़ों को खींचा व फाड़ा गया। उनके स्तनों को दबाया गया और चुसनियों पर चिकोटी काटकर जांचा गया कि उनकी छाती में दूध है या नहीं क्योंकि अगर वे स्तनपान कराने वाली औरतें नहीं हों, तो फिर वे नक्सली हो सकती हैं।
छोटेगदम गांव में, तीन युवा लड़कियों के साथ देड़छाड़ की गई और बलात्कार की धमकी दी गई 14 साल की एक लडक़ी को नंगा किया गया। एक बच्चे की मां भीमी को भी पीटा गया। कुन्ना में जब लाखा बुडा की जवान बेटी को खींचा जा रहा था, वह चिल्लाई और खुद को बचाने में कामयाब रही। स्कूल में और स्कूल से कैंप के रास्ते में औरतों के समूहों को सुरक्षा बलों ने घेर लिया और उनके साथ छेड़छाड़ की। कुछ मामलों में, उन्हें घरों के अंदर धकेलकर यौन हिंसा की गई।
एक मकान में, औरतों के अंदरूनी वस्त्रों को जलाकर उन्हें दीवार पर टांग दिया गया और उनके नीचे एक फोन नं. 9589117299 लिख दिया गया, यह कहते हुए कि वे सुरक्षा के लिए उस नंबर पर फोन कर सकती है, एक बार फिर औरतों की असुरक्षा का मजाक उड़ाया गया। आयाग ने इस घटनाओं के संबंध में भी राज्य अधिकारियों से रिपोर्ट मांगी है। अद्र्धसैनिक बलों के अलावा सामाजिक एकता मंच, बस्तर विकास संघर्ष समिति, नक्सल पीडि़त संघर्ष समिति, अग्नि जैसे दर्जनों मंच सरकारी संरक्षण में बनाये गये हैं जिनकी सभाओं में आई जी तथा एसपी शामिल होते रहे हैं।
अक्टूबर 2016 में केन्द्री जांच ब्यूरो ने अपनी अंतरिम जांच रिपोर्ट पेश की जिसमें उसने सुरक्षा बलों को 160 घर जलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया और यह भी कहा कि पुलिस ने झूठ बोला था कि ये घर नक्सलियों ने जलाए हैं। रिपोर्ट में इस घटना में 323 विशेष पुलिस अपसरों ओर पुलिसकर्मियों तथा 95 सीआरपीएफ/कोबरा कर्मियों की संलि३ता के प्रमाण होने का दाव किया गया है। कल्लूरी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से इस अभियान के लिए जिम्मेदार होने की बात कबूल की है।
इन मंचों के माध्यम से राजसत्ता सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले करवाती है, डराने धमकाने का काम करती है। छत्तीसगढ़ के दुर्गम इलाकों में भी अच्छी सडक़ों का निर्माण किया जा रहा है ताकि टाटा, एस्सार, जिन्दल, मित्तल व अन्य पूंजीपतियों द्वारा छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सम्पदा को लूट कर ले जाया जा सके।
सुकमा के कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन के अपहरण पर सरकार और माओवादियों की बीच भी कुछ लोगों ने मध्यस्थता करवाई थी।
माओवादियों द्वारा सुकमा जिले के कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन के अपहरण से उत्पन्न स्थिति को सुलझाने के लिए चार मध्यस्थों डॉ. बीडी शर्मा, और प्रोफेसर हरगोपाल, (जिन्हें सीपीआई (माओवादी) द्वारा मनोनीत किया गया था) और निर्मला बुच और एसके मिश्रा (जिन्हें छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मनोनीत किया गया था) के बीच रायपुर में बैठक हुई। इस बैठक में मेनन को छुड़ाने के साथ-साथ दूसरी बात पर जो चर्चा हुई थी वह थी कि छत्तीसगढ़ के विभिन्न जेलों में न्यायिक हिरासत में बंद आदिवासियों की संख्या काफी है।
राज्य सरकार विवेचना/अभियोजन लंबित सभी व्यक्तियों जिसमें माओवादियों से सम्बंधित मामले भी थे, इन मामलों की समीक्षा के लिए सहमत हुई थी। विवेचना/अभियोजन बंदी के निकट रिश्तेदार/परिवार के सदस्यों को लंबी दूरी के कारण जेल में उनसे मिलने में तकलीफ होती है। इसके लिए उच्चाधिकार प्राप्त स्थायी समिति का गठन किया गया समिति की अध्यक्ष निर्मला बुच थी। बाद में सरकार ने इस समिति की बात को अनसुना कर दिया जिस पर निर्मला बुच ने नराजगी भी प्रकट की थी।
क्रमांक |
ग्राम | मृतक का नाम | आयु | माता का नाम | पिता का नाम |
पूर्व ग्राम |
1 |
गोमपाड़ | सोयम सीता | 24 | धर्मे | रामा |
गुर्रा |
2 |
--- | सोयम चन्द्रा | 24 | सुब्बी | चेंसाल |
गुर्रा |
3 |
--- | कड़ती अड़मा | 25 | हिड़मे |
देवाल |
कर्का |
4 |
--- | माड़वी नन्दाल | 27 | मुचो | हिड़मा |
कामपेदागुड़ा |
5 |
--- | मडक़म आयता | 11 | लिंगे | सुक्का |
कर्का |
6 |
--- | माडवी देवाल | 29 | मंगली | वारे |
खूना |
7 |
नुलकातोंग | सोड़ी प्रभू | 26 | सुकड़ी | --- |
घोरेल |
8 |
--- | मडक़ाम टिंकू | 26 | बुदरी | हिड़मा |
नेंगाम |
9 |
--- | ताती हुंगा | 27 | --- | हुंगा |
सिंगाम |
10 |
--- | मुचाकी हिड़मा | 17 | --- | लखमा |
--- |
11 |
--- | मुचाकी देवाल | 19 | सन्नी | हुर्राल |
घोरेल |
12 |
--- | मुचाकी मूखा | 13 | सुकडी | बोटी |
--- |
13 |
वेलपोच्चा | वंजाम हुंगा | 25 | देवे | नन्दा |
घोरेल |
14 |
किल्द्रेम | माडवी हुंगा | 25 | कोसी | इंगा |
तोगूंम |
15 |
एटेगट्टा | माड़वी बामून | 26 | गंगी | जोगा |
--- |
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