कलंक कथाओं से भरा पड़ा है संघ-भाजपा का इतिहास
पिछले वर्ष जब केरल की कालीकट यूनिवर्सिटी ने अपने पाठ्यक्रम में अरुंधति रॉय के व्याख्यान ‘Come September’ को शामिल किया तो भाजपा प्रदेश इकाई के अध्यक्ष के. सुरेन्द्रन और उनके समर्थकों ने इसके विरोध में झंडा-डंडा उठा लिया था क्योंकि अरुंधति ने अपने व्याख्यान में एक जगह ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ का ज़िक्र किया था। इसके साथ ही यह सवाल उठता है कि क्या ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ जैसी किसी विचारधारा का हमारे भारतीय समाज में कहीं कोई अस्तित्व है भी?

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन के विचार से अयोध्या के राम मंदिर को आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी का मंदिर कहा जा सकता है। इस परियोजना को एक राष्ट्रीय परियोजना के रूप में पेश किया जा रहा है।
न्यायालय ने यह तो माना कि मस्जिद को गिराया जाना एक आपराधिक कृत्य था लेकिन इस पर भी जो लोग मस्जिद गिराने के लिए दोषी पाये गए उन्हीं लोगों को ज़मीन सौंप दी गयी। सरकार ने उस फैसले के बाद ट्रस्ट बनाया तो उस ट्रस्ट में भी महंत नृत्यगोपाल दास और चंपत राय जैसे वही लोग थे जो इस षड्यंत्र और अपराध में शामिल थे।
संघ के कई नेता जिन्हें सीबीआइ ने आरोपी बना रखा है और जिनका मुकदमा आज भी चल रहा है, वही लोग शाश्वत-दंडवत भूमि पर लोट रहे प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक के साथ बैठे भूमिपूजन कर रहे थे।
ऐसे में संविधान और कानून का पालन कौन कर रहा है? यानी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक की ओर से सीधा संदेश दिया गया कि वे भारत के संविधान और कानून से ऊपर हैं। यही ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ है। अगर भारत में कानून का राज होता तो ये लोग जेल में होते।
यह मंदिर जिसे राम मंदिर कहा जा रहा है और यह परियोजना (जिसमें एक पेंटिंग के माध्यम से मोदी का कद राम के कद से बहुत बड़ा दिखाया गया) ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ का हिस्सा कैसे है इसे जरा स्पष्टता से जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। यह भी एक कलंक-कथा है।
क़लंक़-कथाएँ भी दिलचस्प होती हैं। यह दिलचस्प कलंक-कथा अभय कुमार दुबे की पिछले दिनों आई एक महत्वपूर्ण किताब ‘हिन्दू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ में दर्ज है।
अभय लिखते हैं—“सांप्रदायिक प्रश्न को जिलाये रखने का सबसे बड़ा उदाहरण रामजन्मभूमि का मसला है जिसे हल करने की कोशिशों को संघ परिवार द्वारा सायास विफल करने के परिणाम सामने आ चुके हैं।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस से पाँच साल पहले 1987 में अयोध्या विकास ट्रस्ट की पहलक़दमियों से एक ऐसी स्थिति आई थी जब मस्जिद की मौजूदगी के साथ-साथ मंदिर बनाने पर सभी संबंधित पक्षों में समझौता होने वाला था। संघ परिवार के मुखपत्र पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र दोनों में 27 दिसम्बर, 1987 को इस आशय की ख़बर भी छपी कि मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट बन गया है और काँग्रेस सरकार मंदिर बनाने के लिए मजबूर हो गयी है।
इन अख़बारों ने ख़बरों के साथ-साथ विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल की तस्वीर भी छापी थी। अयोध्या विकास ट्रस्ट की अध्यक्षता महंत नृत्यगोपाल दास के हाथ में थी और रामजन्मभूमि न्यास के अगुआ परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के एक और नेता न्यायमूर्ति देवकीनंदन अग्रवाल भी इसमें शामिल थे। गोरख पीठ के तत्कालीन महंत अवैद्यनाथ ने इस पहलक़दमी का तत्परता के साथ समर्थन किया था।
लेकिन जैसे ही संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस को इस घटनाक्रम की जानकारी मिली, उन्होंने झंडेवालान, दिल्ली स्थित संघ के कार्यालय में फ़ौरन एक बैठक बुलवाई और अशोक सिंघल को आड़े हाथों लिया। उन्होंने सिंघल से पूछा, "तुम इतने पुराने स्वयंसेवक हो। तुमने इस योजना का समर्थन कैसे कर दिया?" सिंघल का जवाब था, "हमारा आंदोलन तो राम मंदिर के लिए ही था। यदि वह स्वीकार होता है तो उसका स्वागत करना चाहिए।"
इस पर नाराज़ होकर देवरस ने कहा कि क्या तुम्हारी अक़्ल घास चरने चली गयी है। इस देश में 800 राम मंदिर हैं। एक और बन जाएगा तो 801वां होगा लेकिन यह आंदोलन जनता के बीच लोकप्रिय हो रहा है। उसका समर्थन बढ़ रहा है जिसके बल पर हम दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति में पहुँच सकते हैं। यह प्रस्ताव स्वीकार करना आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने जैसा है।
सरसंघचालक का आदेश मिलते ही सिंघल के नेतृत्व में विहिप ने कहना शुरू कर दिया कि मंदिर-निर्माण की इस योजना में मंदिर के गर्भ-गृह की जगह तय नहीं है। इस बहाने से अयोध्या विकास ट्रस्ट का यह प्रयास नाकाम कर दिया गया।"
इस कलंक-कथा से सिद्धार्थ वरदराजन की यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि 801वें मंदिर की यह परियोजना राष्ट्रीय परियोजना नहीं है बल्कि संघ की निजी सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवादी परियोजना है जिससे किसी भी हिन्दू का उद्धार होने वाला नहीं है।
डॉ. राही मासूम रज़ा ने कभी लिखा था—"आधुनिक भारत में यह तय करना मुश्किल है कि धर्म ज्यादा बड़ा व्यापार है या राजनीति। मुझे तो लगता है सियासतदानों के लिए राम भी एक प्रॉडक्ट है और राम मंदिर भी।"
‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ को पुख्ता करती ऐसी कलंक-कथाओं से संघ-भाजपा का इतिहास भरा पड़ा है। विहिप की आधिकारिक वेबसाइट बजरंग दल को हिन्दू समाज का सुरक्षा घेरा बताती है। यह बजरंग दल भी आरएसएस का तैयार किया फ्रेंकेस्टीन है।
बजरंग दल की भी एक कलंक-कथा और सुन लें। बात तब की है जब मोदी को ‘राजधर्म’ का पाठ पढ़ाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे। ओड़ीसा के क्योंझर जिले के मनोहरपुर गाँव में आस्ट्रेलियाई समाजसेवी और कुष्ठ उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे ग्राहम स्टीवर्ट स्टेंस और उनके दो बेटों की 22 जनवरी, 1999 की रात गाड़ी में सोते समय ज़िंदा जलाकर हत्या कर दी गयी।
जीप में आग लगाकर ग्राहम स्टीवर्ट स्टेंस ओर उनके दो बेटों की हत्या का यह अभियान दो घंटे चला था और मौका-ए-वारदात से फरार होने से पहले आरोपियों ने सीटियाँ बजायी थीं तथा 'ज़य बजरंग बली’ का उद्घोष किया था।
इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी दारा सिंह के एक सहयोगी दीपू ने पुलिस को बाद में बताया कि जिस बैठक में हत्या की योजना बनायी गयी थी, उसमें 40 लोग शामिल हुए थे। मनोहरपुर में हत्या के लिए 46 लोग इकट्ठा हुए थे।
इस हत्याकांड की वजह यह थी कि लोगों को लगता था कि स्टेंस इलाके के लोगों को ईसाई बनाने के काम में लगे हुए थे। आरोप है कि दारा सिंह उर्फ़ रवीन्द्र कुमार पाल ने अपने साथियों से कहा था कि स्टेंस लोगों को ईसाई बनाने के लिए वहाँ रह रहे थे और इस तरह वे हमारे धर्म व संस्कृति को बरबाद कर रहे थे।
ओड़ीसा के पुलिस महानिदेशक ने यह कहते हुए इस निष्कर्ष पर अपनी मोहर लगा दी कि ‘इस हमले के पीछे बजरंग दल का हाथ है। निचली अदालत ने दारा सिंह को मौत की सज़ा सुनाई जिसे ओड़ीसा उच्च न्यायालय ने 2005 में उम्र कैद में तब्दील कर दिया था। हत्यारे दारा सिंह के नाम पर आज ‘धर्म रक्षक श्री दारा सिंह समिति', ‘दारा सिंह परिजन सुरक्षा समिति’ आदि संगठन बना कर आरएसएस ने उसे अमर कर दिया है।
2002 में, जब आरएसएस के आजीवन सदस्य नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान थे, जो नरसंहार हुआ उसमें बजरंग दल की बड़ी अहम भूमिका थी। बजरंग दल के नेता बाबू बजरंगी को कौन भूला है? बाबू बजरंगी ने एक गर्भवती मुस्लिम महिला के पेट को चीरकर उसमें से बच्चा निकाल कर अपने त्रिशूल पर खोंस कर नरोदा पाटिया की सड़कों पर घुमाया था। एक साक्षात्कार में उसने बताया था कि उसे ‘नरेंद्र भाई’ ने बचा लिया। यह जो गुजरात में नरसंहार हुआ था यह ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ का ही एक उदाहरण है।
उन दिनों बजरंग दल और संघ परिवार के दूसरे संगठनों ने माहौल इतना अधिक दूषित कर दिया था कि राज्य के अधिकांश शहरों से मुसलमानों का पलायन शुरू हो गया और वे बड़ी संख्या में सुरक्षित स्थान की तलाश करने लगे। इस वजह से अल्पसंख्यकों की अलग जगह बन गई।
हकीकत तो यह है कि गुजरात के अनेक शहरों में कुछ स्थानों पर अब मुसलमानों की घनी आबादी हो गई जिसे स्थानीय लोग ‘मिनी पाकिस्तान’ कहकर संबोधित करते हैं। यह ऐसा शब्द है जो वहां रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के ‘शत्रु’ होने का संकेत देता है। इलाकों को अक्सर दीवारों के माध्यम से अलग किया जाता है और प्रत्येक दंगे के साथ दीवार की ऊंचाई बढ़ती जाती है। यहां तक कि संभ्रांत इलाकों में भी मुसलमानों को संपत्ति नहीं ख़रीदने दी जाती है।
अंग्रेजी पत्रिका 'फ्रंट लाइन' में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जब मुस्लिमों ने अहमदाबाद के संपन्न हो रहे इलाके पालदों में फ्लैट खरीदे तो बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने इस इमारत में तोड़फोड़ की और एक बम फेंका जिसने लिफ्ट को तहस-नहस कर दिया। बाद में उन्होंने फ्लैट के मुस्लिम मालिकों को कौड़ियों के दाम बेचने के लिए मजबूर कर दिया।
अहमदाबाद के पुराने शहर में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने उन कारोबारियों पर हमले बोले जिन्होंने मुसलमानों को संपत्ति बेची थी। 2002 के नरसंहार का शिकार हुए मुसलमानों के अन्यत्र पलायन का सिलसिला गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भी चला। मुस्लिम विस्थापित अपने घर वापस लौटने में असमर्थ थे। उन्होंने पास के उस नगर या गांव में रहना अधिक बेहतर समझा जहां मुसलमानों की अपेक्षाकृत अधिक आबादी थी।
उन्हें लगता था कि अलग-थलग होने के कारण उन्हें निशाना बनाना ज्यादा आसान है। गांवों से मुस्लिम निवासियों को बाहर निकालने के बाद बजरंग दल की स्थानीय इकाई ने गर्व के साथ बैनर लगाकर दावा किया कि यह ‘मुस्लिम मुक्त’ क्षेत्र है। देश के किसी भी हिस्से में यह ‘मुस्लिम मुक्त’ क्षेत्र का बोर्ड लगा होना ‘हिन्दू सांप्रदायिक फ़ासीवाद’ ही तो है।
हत्यारों को सम्मानित करने की भी संघ-भाजपा में अनूठी परंपरा रही है। इसी तरह का सम्मान 25 सितंबर, 2015 को गोरक्षा के नाम पर 52 वर्षीय अख़लाक़ के हत्यारों को जेल से छूटने पर मंत्री महोदय द्वारा गले में फूल माला पहना कर किया गया था। उनमें से एक रविन सिसौदिया जब डेंगू से मर गया तो मोदी के ही एक साथी केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा उसके घर अफ़सोस करने गए।
उसकी बाकायदा तिरंगे में लपेट कर शव यात्रा निकाली गयी और पूरे राष्ट्रीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया गया। अब मुझे यह याद नहीं है कि संस्कार से पहले उसे कितनी तोपों की सलामी दी गयी थी। यह ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ की एक और बेहद शर्मनाक मिसाल है।
गोरक्षा के नाम पर कहीं पहलू खान मारा गया, कहीं रकबर खान, कहीं सिराज खान और शकील तो कहीं अलीमुद्दीन अंसारी। एक के बाद दूसरा हमला हो रहा था। कोई सुनने वाला नहीं था, कोई देखने वाला नहीं।
2017 में 'हफ़िंग्टन पोस्ट' में एक रिपोर्ट छपी तो पता चला कि धर्मांधता के मामले में भारत सीरिया, नाइजीरिया और इराक के बाद चौथे नंबर पर आ गया है। प्रधानमंत्री ने इस विषय पर बोलना कभी जरूरी नहीं समझा। एक बार गुजरात में हुई हिंसा के बारे में किसी विदेशी पत्रकार ने पूछा तो बोले कुत्ते का पिल्ला…। मुर्दा बोले, कफन फाड़े।
गुजरात में डिस्को डांडिया, कानपुर में ‘वैलेंटाइन डे’ का विरोध, ‘फायर’ और ‘पद्मावती’ फिल्म को प्रदर्शित होने देने से रोकना, ‘वाटर’ की शूटिंग को रुकवाना, अभिनेता दिलीप कुमार के घर पर नग्न प्रदर्शन, ‘और अंत में प्रार्थना’ के मंचन पर जबलपुर में किए गए हमले और तोड़फोड़, मक़बूल फिदा हुसैन तथा जतिन दास के चित्रों को नुकसान पहुंचाने, गुजरात, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में ईसाई मिशनरियों पर हमले, चर्च पर हमले, पोप की यात्रा का विरोध, मुम्बई में क्रिकेट मैच न होने देने, ईसाई साध्वियों (ननों) से किए गए बलात्कार आदि से किस प्रकार के हिन्दुत्व का पता चलता है और हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह में यह ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ की कर्रवाइयां ही तो हैं।
ऐसी कितनी ही कलंक-कथाओं से संघ-भाजपा का इतिहास भरा पड़ा है। पर ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ से जुड़े बहुत से सवाल अब जब उठ खड़े हुए हैं तो इन सवालों के जवाब देने के लिए हम बाध्य इसीलिए हुए हैं क्योंकि जो तमाम संघर्ष हमने नहीं किए अपना हिसाब मांगने चले आए हैं।
ऐसे दौर में जब इतिहास का इतना मिथकीकरण किया गया हो कि 'मिथहास' ही इतिहास होकर मंदिर में सिमट गया हो तो इस सवाल का जवाब बार-बार दोहराना पढ़े-लिखे सयानों के लिए न सही फटेहाल अनपढ़ आमजन के लिए जरूरी हो जाता है ताकि उसे पता चले कि धरती का यह टुकड़ा जिसे वह अपना विश्व-गुरु महान देश मानता है और जिसकी ‘एकता, अखंडता और संप्रभुता’ के लिए वह अपना फटे चीथड़े तो क्या चीज, जान तक की बाज़ी लगा देने के लिए तैयार है, उस देश का जन-गण-मन अधिनायक कौन है?
जब देश के ‘एंग्री यंग मैन’ ने तालियाँ बजाई थीं, तब भी उसे खबर नहीं थी कि वह सत्ता के पक्ष में खड़े एक अधिनायक के लिए तालियाँ बजा रहा है और जब उसी ‘एंग्री यंग मैन’ के कंधे पर हाथ रखकर वह जुमलेबाज़ मदारी सत्ता पर काबिज़ हुआ तो उसके हरेक एक्शन पर वह तालियाँ-थालियाँ बजाने लगा क्योंकि उसके मन में अब यह बात घर कर गई कि तालियाँ-थालियाँ बजाने वाला ‘वह’ ही असली देशभक्त है।
‘अधिनायक’ के बिना तो फ़ासीवाद संभव नहीं है। किसी सर्वसत्तावादी राज्य में जरूरी नहीं है कि फ़ासीवाद हो। तानाशाही फ़ासीवाद का रूप तभी धारण करती है जब उसे जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होता है और फिर वह एक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लेता है। यह फ़ासीवादी शक्ल जो जनता के मुँह पर लगी हम देख रहे हैं क्या हमारी अपनी शक्ल नहीं है जो हमने अपने हाथों अपनी गलतियों से बिगाड़ी है?
के. सुरेन्द्रन तथा उनके जैसे लोगों का विरोध दरअसल आईने में दिख रही, महान भारत के चेहरे के उग आई ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ की अमरबेल का ही विरोध नहीं है क्या? यह अधिनायक नहीं चाहता कि वह अमरबेल किसी को दिखाई दे जो उसने इतने जतनों से उगाई है। इसलिए वह हरेक वह आईना तोड़ देना चाहता है जिसमें वह अमरबेल दिखाई देती है।
राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ में ‘कांटे की बात’ लिखी—‘पहले हम सिर्फ शोर मचाते थे फ़ासीवाद आया, फ़ासीवाद आया। अब जब समाज में फ़ासीवाद सचमुच आ गया है तो सब चुप हैं। आज न आप धर्म के बारे में कुछ बोल सकते हैं, न इतिहास के, न फ़िल्म-नाटक बना सकते हैं, न चित्र-कार्टून, अगले दिन राष्ट्रीयता और धर्म-संस्कृति के एकमात्र तालिबान आपका जीना हराम कर देंगे। वे सिर्फ अख़बारों और मंचों से ही नहीं धमकाएँगे, सड़कों पर प्रदर्शन करेंगे, पुतले जलाएंगे, तोड़-फोड़ करेंगे।
कोर्ट-कचहरी में घसीटेंगे, शारीरिक हमले करेंगे और स्थिति यह पैदा कर दी जाएगी कि आपकी जान के लाले पड़ जाएं….। नरेंद्र मोदी नाम का दुःशासन द्रौपदी का एक-एक कपड़ा उतारता रहा, सारे कौरव बारी-बारी से अपने-अपने ढंग से उसके साथ बलात्कार करते रहे और अंधा धृतराष्ट्र निष्क्रिय बैठा कराहने के डायलॉग बोलता रहा कि यह ठीक नहीं हो रहा है…।’
कमलेश्वर ने ‘हिंदुत्ववादी नाज़ीवाद’ को अपने अंदाज़ में लानत-मलामत भेजी। संघ के कुलगुरु विनायक दामोदर सावरकर और इष्टदेव हिटलर और मुसोलिनी से रिश्तों के ऐतिहासिक किस्से पाठकों के सामने खुलकर रखे। बार-बार याद दिलाते रहे कि भारत का हर हिन्दू संघ-भाजपाई हिन्दू नहीं है। मोदी के बारे में तो यहाँ तक कह गए कि ‘नरेंद्र मोदी और आतंकवादी दोनों की बिरादरी एक है।'
अब जो यह सब देखने-सुनने को मिल रहा है इसमें हैरानी की क्या बात है? पूत के पाँव पालने में पहचाने जाते हैं। तो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो पहले कभी नहीं हुआ था।
मोदी राज में ही यह कमाल देखने में आया कि सरकारी मीडिया का इस्तेमाल गैर-सरकारी ‘साम्प्रदायिक माफिया’ के लोगों ने किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने सरकारी मीडिया पर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ प्रसारित किया। सरकारी मीडिया पर इस तरह बोलने का मौका केवल राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को ही मिलता है।
सवाल उठे कि क्या किसी निजी संगठन के कार्यक्रम को प्रसारित करने के दूरदर्शन के पास कोई मानक है? यह भी कहा जाने लगा कि जैसे कांग्रेस की सियासत 10 जनपथ से चलती थी, ठीक वैसे ही अब बीजेपी की सियासत आरएसएस के नागपुर मुख्यालय से चलती है। आरएसएस के सरसंघचालक की कोई संवैधानिक हैसियत नहीं है लेकिन फिर भी उन्हें दूरदर्शन पर बोलने का मौका दिया गया, क्यों?
'घर वापसी’ जैसी मुहिम के मुखिया रहे आरएसएस के एक और प्रचारक राजेश्वर सिंह भी अल्पसंख्यकों को टीवी पर खुलेआम धमकी देते दिखे कि अगर उन्होंने 2025 तक धर्मान्तरण नहीं किया तो उन्हें भारत से खदेड़ दिया जायेगा।
इसी बीच साधुओं जैसे कपड़े पहनने वाले अजय सिंह बिष्ट उर्फ आदित्यनाथ की तर्ज़ पर भाजपा की सहयोगी पार्टी शिव सेना (जो इन दिनों काँग्रेस की मदद से सत्ता में है) ने भी यह मांग शुरू कर दी थी कि मुसलमानों से वोट देने का अधिकार छीन लिया जाना चाहिए।
बयानबाज़ी के साथ-साथ गिरजाघरों पर हमले की ख़बरें आती रहीं पर मोदी सरकार ने कोई सख्त करवाई तो दूर चेतावनी देने की भी जरूरत नहीं समझी।
अब जब अयोध्या की धरती पर प्रधानमंत्री मोदी के कर-कमलों द्वारा भूमिपूजन के साथ ही ‘सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद’ का झंडा गाड़ दिया गया है और वामपंथियों सहित तमाम राजनीतिक दल घुटनों के बल झुके दिखाई दे रहे हैं, एक बात याद रखने वाली है कि हर तानाशाही का अंत बहुत बुरा होता है। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात नाज़ी अफ़सरों पर मुक़दमा कायम हुआ था जिसे ‘न्यूरेमबर्ग ट्रायल’ के नाम से जाना जाता है। सभी अपराधियों का यह बचाव था कि उन्हें उनके आका ने हुक्म दिया था और वे मात्र अपना काम कर रहे थे। अतः उन्हें दंडित न किया जाए।
हर तानाशाह नफ़रत की एक लहर प्रवाहित करता है, जिस पर पवित्र लेबल लगाए जाते हैं। तानाशाह स्वयं एक भयभीत व्यक्ति होता है और उसके सारे आक्रोश के तेवर महज अपने भय के ऊपर चादर डालने के लिए होते हैं। जनता जिस दिन एकजुट हो जाएगी, कच्चे सूत की चादर उतार फेंकेगी। तानाशाह का क्या होगा, खुदा जाने।
प्रधानमंत्री मोदी से पूछा जाना चाहिए कि यदि आरएसएस एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है तो अपने जीवनकाल में संघ ने हमें कितने संस्कृति पुरुष दिए हैं? वे सब कहाँ हैं? यदि नहीं तो क्यों नहीं?
भूमिपूजन के बाद तो आरएसएस और भाजपा की अब सारी पोलपट्टी खुल नहीं गई है? क्या अब भी कहने-सुनने को कुछ बाकी बचा है? क्या अब भी कोई पूछेगा कि सांप्रदायिक हिन्दू फ़ासीवाद कहाँ है?
सवाल-दर-सवाल हैं, हमें जवाब चाहिए।
(जनचौक में 12 अगस्त, 2020 को प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र पाल का संपादित आलेख)
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18/08/2021
Nemeechand
Bahut hi achha aalekh, dhanyavaad
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