हमारे यहां शिक्षा हाशिये के समाजों (सबाल्टर्न) तक भी गया
उर्मिलेश उर्मिलदेश या दुनिया की कोई भी वर्चस्ववादी या निरंकुश शक्ति चाहे जितनी साजिश रचे, वह भारत जैसे विशाल, विविधता-भरे और अपेक्षाकृत शिक्षित समाज को अफगानिस्तान (जहां साक्षरता महज 43 % है) नहीं बना सकती! पर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर अफगानिस्तान जैसी बर्बरता, निरंकुशता और धार्मिक कट्टरता का खतरा तो अपने यहां भी बना ही हुआ है.

वह समय-समय पर दिखता रहता है, कभी यूपी में, कभी गुजरात में, कभी ओडिशा में कभी मध्यप्रदेश में तो कभी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी. कानपुर से क्योंझर और राजसमुद से रामगढ़ तक, ऐसी छोटी-बड़ी डरावनी तस्वीरें बार-बार उभरती रहती हैं.
अफगानिस्तान में वास्तविक शिक्षा की स्थिति बहुत दयनीय रही है. सामाजिक और राजनैतिक संरचनाएं मध्ययुगीन दौर की हैं. मुट्ठी भर लोग ही अच्छी शिक्षा हासिल करने का सौभाग्य हासिल कर सके. वे सभी वहां के अभिजन (Elites) रहे हैं.
हमारे यहां 77 फीसदी से ज्यादा लोग साक्षर हैं और दक्षिण के कई राज्य सुशिक्षित भी हैं. हमारे मध्यकालीन संतों और समाज सुधारको के चलते समाज में बहुत जागृति आई.
फिर आधुनिक काल में ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, सावित्री बाई फुले, श्री नारायण गुरु, अय्यंकली, पेरियार, डा अम्बेडकर, अन्ना दुरै, कुछ क्रिश्चियन मिशनरियों,फातिमा शेख और केरल की वामपंथी सरकारों के महान् अभियानों के चलते हमारे यहां शिक्षा और ज्ञान का प्रचार-प्रसार सिर्फ अभिजन (Elites) तक सीमित नहीं रहा.
वह हाशिये के समाजों (सबाल्टर्न) तक भी गया. यह बुनियादी फर्क है-अफगानिस्तान और भारत की सामाजिकता में.
भारत-विरोधी तमाम आंतरिक और बाह्य साज़िशों के बावजूद इसीलिए भारत एक जीवंत समाज के रूप में अपना वजूद कायम किये हुए है.
लेकिन खतरा तो हमेशा बना रहता है. सोवियत संघ जैसे संगठित और हमसे ज्यादा विकसित देश को किस तरह तहस-नहस किया गया, यह हम अतीत में देख चुके हैं. छोटे से क्यूबा पर भी खून्खार नजरें लगी हैं.
इन दिनों भारत में अशिक्षा और अज्ञान का अंधेरा जरूर बढ़ाने की भरपूर कोशिश हो रही है. विश्वविद्यालय बर्बाद किये जा रहे हैं.
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में निजीकरण बढाकर आम लोगों की पहुंच से उसे दूर किया जा रहा है. हमारे देश के अभिजन (Elites) बहुत बडे पैमाने पर अपने बच्चों को विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने भेज रहे हैं.
भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की राजनीतिक माला जपने वाले असंख्य नव-अभिजनो के बच्चे इन दिनों अमेरिका और यूरोप के बेहद महंगे निजी शिक्षण संस्थानों में पढ रहे हैं.
इधर अपने मुल्क में शिक्षा और शिक्षण को पुरातनपंथी बनाने का अभियान चलाया जा रहा है.
अमेरिका में संचार और मीडिया की शिक्षा ले रहे अपने देश के नव अभिजन किसी कथित हिंदुत्ववादी, अफसर या बिजनेसमेन के बच्चे Walter lippmann या कैथरीन ग्राहम के बारे में पढ़कर भारत लौटेंगे और सीधे Times of India, The Hindu, Express या ऐसे ही किसी बड़े अखबार में सहायक संपादक बन जायेंगे.
लेकिन भारत के किसी संचार या मीडिया शिक्षण संस्थान(कुछेक अपवादों को छोड़कर) में भर्ती गाजीपुर या गाजियाबाद के किसी साधारण आदमी के बच्चे को पढाया जायेगा कि दुनिया के पहले पत्रकार नारद मुनि थे.
फिर उस संस्थान की डिग्री लेकर वह किसी, जी-हुजूर टीवी चैनल, नव-जागरण या नव-उजाला में नौकरी पाकर हिंदी भाषी समाज में अज्ञान का अँधेरा फैलाने के लिए अभिशप्त होगा. मसलन, वह दो हजार के नये नोट में किसी खुफिया चिप की मौजूदगी की कहानी गढ़ेगा.
अपने यहां वैज्ञानिक मिजाज और तर्कशीलता का अब तक जो थोड़ा-बहुत माहौल बना था, उसे बर्बाद करने पर अमादा ऐसी तमाम शक्तियों को निश्चय ही कुछ वर्चस्ववादी वैदेशिक शक्तियां बढ-चढ कर मदद कर सकती हैं.
दुर्भाग्यवश, हमारे यहां ऐसे तत्व काफी समय से सक्रिय हैं जो भारतीय समाज को अपढता, असंगतता, बर्बरता और कट्टरता की तरफ ले जाना चाहते हैं।
ये तत्व हमारी पहले से बेहाल शिक्षा व्यवस्था को और बेहाल कर रहे हैं. ऐसे में भारत और खासकर यहां के आम लोगों का स्वतंत्र वजूद अगर कोई बचा सकता है तो वह आधुनिक और वैज्ञानिक मिजाज वाली शिक्षा ही है.
हम आपसे हमेशा की तरह अपील करेंगे कि हर जाति और धर्म के किसान, मजदूर, दलित-वंचित, पिछड़े लोग, प्लीज अपने बच्चों को हर कीमत पर अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करें.
बच्चा शुरू से ही अंग्रेजी जरूर पढ़े और किसी ऐसे स्कूल में दाखिला न ले जो किसी संकीर्ण-धार्मिकता और कट्टरता को बढावा देता हो!
उत्पीड़ित और वंचित समाजों की एकजुटता ही भारत पर मंडराते हर तरह के खतरे को नाकाम कर सकती है.
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