मोहला-मानपुर के जिला बनने का मतलब

सुदीप ठाकुर

 

यह लंबे संघर्ष से बना जिला है। दरअसल अलग प्रशासनिक इकाई के बनने से निचले स्तर तक सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं के पहुंचने की संभावना तो बढ़ती ही है, स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं के लिए नया फलक भी खुलता है। बशर्ते कि नए जिले या नई प्रशासनिक इकाइयां राजनेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों के लिए नए चारागाह न बन जाएं। 

दिल्ली, उसके बाद नागपुर ( जब वह अविभाजित मध्य प्रदेश की राजधानी था), भोपाल (जब वह राज्यपुनर्गठन के बाद बने मध्य प्रदेश की राजधानी था और अब रायपुर (जब यह छत्तीसगढ़ की राजधानी है) से दूरस्थ इलाकों तक पहुंचना वैसे भी मुश्किल होता है। यह अलग सवाल है कि नया जिला बनने से क्या राजधानी से उसकी दूरी कम हो जाएगी?

यह सवाल सिर्फ राज्य के सचिवालयों में बैठे महानुभावों से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि देश और राज्यों की राजधानियों में काम करने वाली सामाजिक और गैर सरकारी संस्थाओं से भी जुड़ा है जिनके नुमाइंदे पता नहीं किस किस तरह की रिपोर्ट्स के जरिये किस किस तरह के दावे करते रहते हैं। इसे जरा मेरे एक निजी उदाहरण से समझिए।  

कुछ वर्ष पूर्व मैं जिस  अखबार में काम करता हूं उसने यूनिसेफ के साथ आदिवासी अंचलों को लेकर एक साझा कार्यक्रम चलाया। इसके तहत देश के अनेक राज्यों में जाकर रिपोर्टिंग करनी थी। मैं भी इसका हिस्सा था। मुझे मानपुर जाकर रिपोर्टिंग करनी थी।

रायपुर स्थित यूनिसेफ के कार्यालय से जो मोहतरमा इसमें समन्वय कर रही थीं उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की कि रायपुर से आपको मानपुर पहुंचने में एक घंटे लगेंगे! मैंने उन्हें बिना यह बताए कि मैे राजनांदगांव का रहने वाला हूं कई बार समझाने की कोशिश की कि यह संभव नहीं है। जब वह नही मानीं तो मैंने उन्हें बताया कि मैं छत्तीसगढ़ का हूं, राजनांदगांव मेंं ही रहता हूं और बचपन से पचासों बार मानपुर जा चुका हूं। 

बहरहाल, मोहला-मानपुर का नया जिला बनना ऐतिहासिक कारणों से भी महत्वपूर्ण है। बस्तर और गढ़िचिरौली से सटा घने जंगलों से घिरा यह इलाका सचमुच प्राकृतिक रूप से बेहद खूबसूरत है। मोहला-मानपुर के जिला बनने की लंबी यात्रा है। समझ लीजिए कि सौ बरस से भी लंबी यात्रा। यह शुरू होती है अंग्रजों के जमाने से। शायद उससे भी पहले से।

इसकी जानकारी मुझे मोहला पानाबरस के जमींदार और महान आदिवासी नेता लाल श्याम शाह की जीवनी पर काम करते समय मिली थी। इस क्षेत्र की चार जमींदारी रियासतें: कोराचा, अंबागढ़ चौकी, औंधी और मोहला-पानाबरस कभी सेंट्रल प्राविंस ऐंड बरार के चांदा जिले का हिस्सा होती थींं। सेंट्रल प्राविंस ऐंड बरार से अलग होकर ही महाराष्ट्र बना है।

चांदा बाद में चंद्रपुर बन गया और उससे अलग होकर गढ़चिरौली जिला बनाया गया। अंग्रजों ने 1906 में प्रशासनिक कारणों से रायपुर को विभाजित कर दुर्ग जिले का गठन किया था।

दुर्ग के जिला बनने के एक साल बाद एक अक्तबूर, 1907 को चांदा जिले की ये चार जमींदारियां, कोराचा, अंबागढ़ चौकी, औंधी और मोहला-पानाबरस को दुर्ग स्थानांतरित कर दिया गया। औंधी और कोराचा जमींदारियां मानपुर से सटी हुई थीं और अंबागढ़ चौकी मोहला-पानाबरस से।

जैसा कि मैंने अपनी  किताब लाल श्याम शाह एक आदिवासी की कहानी में भी दर्ज किया है, छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख नदी शिवनाथ के उद्गम स्थल के करीब होने के कारण नए बने दुर्ग जिले में स्थित इन चार जमींदारियों को 'शिवनाथ एस्टेट' भी कहा जाता था।

दुर्ग के जिला बनने के 67 साल बाद इससे अलग कर राजनांदगांव को जब नया जिला बनाया गया तब इन चार जमींदारियों सहित मोहला-मानपुर का पूरा क्षेत्र उसके अधीन आ गया। राजनांदगांव के जिला बनने के 48 साल बाद अब मोहला-मानपुर उससे अलग होकर एक नई उड़ान भरने को तैयार हैं।

बस्तर और गढ़चिरौली से सटा यह आदिवासी क्षेत्र भीषण रूप से नक्सल प्रभावित है। पच्चीस साल से भी अधिक समय हो गया, जब नक्सलियों ने मानपुर का थाना लूट लिया था। इसके अलावा इसी क्षेत्र के मदनवाड़ा में नक्सलियों ने भीषण हमला किया था, जिसमें पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे सहित 29 पुलिस कर्मियों की मौत हो गई थी।

इन दिनों पता नही, लेकिन कुछ वर्ष पहले तक मानपुर से चांदा को जाने वाली सड़क बुरी तरह बर्बाद थी। नक्सलियों ने जगह जगह गड्ढे कर रखे थे। और निश्चित ही कुछ इंजीनियरों और ठेकेदारों का भी इसमें कमाल रहा होगा। 

वन संपदा से भरपूर मोहला-मानपुर में विकास की असीम संभावनाएं हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि इस क्षेत्र के लाल श्याम शाह और देव प्रसाद आर्य जैसे महान आदिवासी नेताओं ने विकास के साथ ही यहां के लोगों का निर्णय लेने की प्रक्रिया में मजबूत प्रतिनिधित्व का जो सपना देखा था वह अब पूरा हो सकेगा।


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