आदिवासी भाषाओं का संकट
विनोद कुमारइस पर राजनीति तो होती है, गंभीर बहस-विमर्श नहीं होता है. हमारे पास यह जानकारी तो है कि कितनी आदिवासी भाषायें हैं. उनमें से कितनी मिट गई. कितनी मिटने के कगार पर हैं. लेकिन हमारे पास उन्हें बचाने की कोई दृष्टि या कार्य योजना नहीं. मेरे दिमाग में जो बातें चलती रही हैं पिछले कुछ दिनों से, उन्हें यहां कलमबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूं, यह भी अपने निजी अनुभवों के आधार पर.

मैं हिंदी भाषी हूं. मेरी पत्नी तेलुगु भाषी. लेकिन चूंकि हम घर में हिंदी में ही बातचीत करते हैं, इसलिए मेरे बच्चे तेलुगु नहीं सीख पाये. वे हिंदी बोलते हैं और अंग्रेजी. मेरी पत्नी की एक अन्य बहन का विवाह एक बंगला भाषी से हुआ. और चूंकि उनके यहां घर में बंगला बोली जाती है, इसलिए उस घर के बच्चों ने बंगला सीखा.
इसके अलावा शिक्षा दीक्षा की भाषा अंग्रेजी होने की वजह से अंग्रेजी भी. जबकि एक अन्य बहन का विवाह सजातीय तेलुगु भाषी से ही हुआ और उनके घर में तेलुगु में बातचीत होती है, इसलिए उस घर के बच्चे तेलुगु जानते हैं.
इसका एक अर्थ यह हुआ कि हमारी मातृभाषा इस बात से तय नहीं होती अब कि बच्चे को जन्म देने वाली मां की भाषा क्या है. बच्चे वही भाषा सीखते हैं जो उनके घर में बातचीत के लिए इस्तेमाल होता है. और अंग्रेजी इसलिए वे सीख पाते हैं, क्योंकि उच्च शिक्षा की भाषा अंग्रेजी है.
इसलिए आदिवासी भाषाओं का भी भविष्य सबसे पहले तो इस बात से तय होगा कि उनके घरों में उनके माता पिता किस भाषा का इस्तेमाल करते हैं. फिर उनके स्कूल में पढ़ाई की भाषा क्या है.
दुर्भाग्य से विस्थापन के शिकार आदिवासी घरों में अब अपनी मूल भाषा का इस्तेमाल नहीं होता. वे रोजी रोटी की तलाश में जहां जा कर बसते हैं, उस क्षेत्र की भाषा, इस्तेमाल करते हैं. अपने कार्य स्थल में इस्तेमाल होने वाली भाषा को अपना लेते हैं.
धीरे-धीरे वे अपने घरों में भी उसी भाषा का इस्तेमाल करने लगते हैं. इसके अलावा चूंकि वे सामान्यतः निम्न आय वर्ग में आते हैं, इसलिए उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और उसी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं जो उस राज्य की भाषा होती है. इस तरह उनका रिश्ता अपनी मूल भाषा से टूटता चला जाता है.
जरूरी नहीं कि उनका विस्थापन ही हो. वे जहां रहते हैं, वहां का पूरा परिवेश भी बदल सकता है. जैसा कि झारखंड में विकसित हुए शहरों के आस पास हुआ. टाटा, रांची, बोकारो, हजारीबाग और एक हद तक दुमका का भी परिवेश पूरी तरह बदल चुका है. वहां कार्यस्थलों पर बहिरागत भाषायें बोली जाती है. बाजार की भाषा भी बहिरागत भाषा है. वहां के स्कूलों में शिक्षा के माध्यम स्थानीय भाषायें नहीं. जाहिर है कि वहां के बड़े और बच्चे दोनों अपनी भाषा से कटते चले जा रहे हैं.
आर्थिक रूप से थोड़े संपन्न आदिवासी समाज की समस्या कुछ और है. अपनी भाषा से प्रेम होने के बावजूद वे उस भाषा को अपनाते हैं जिसमें रोजगार के अवसर अधिक हैं. इस क्रम में पहले वे हिंदी या अन्य राज्यों की प्रचलित भाषा को अपनाते हैं और फिर अंग्रेजी को.
और इस क्रम में अपनी भाषा से कटते चले जाते हैं. ऐसे बहुत कम घरों में अब अपनी मूल भाषा का इस्तेमाल होता है. जैसे हिंदी भाषी मध्यम वर्ग अंग्रेजी को अपनाता है और अपने बच्चों को अंग्रेजी में ही घर में भी बात करने के लिए बाध्य करता है, वैसे ही, आदिवासी मध्यम वर्ग अपने बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी सीखने-बोलने के लिए बाध्य करता है.
यानी, जो कार्य स्थलों और रोजगार की भाषा होती है, बाजार की भाषा होती है, उसी को लोग अपनाते हैं और आदिवासी समाज भी अपना रहा है. इस लिहाज से देखें तो उन इलाकों में आदिवासी भाषाएं अभी भी जीवित हैं जो आधुनिकता से दूर हैं और पिछड़े कहे जाते हैं. यानी, शहरों से दूर के ग्रामीण इलाके. जहां की कार्य संस्कृति अभी नहीं बदली है.
जिनका जीवन पुराने तरीके की कृषि व्यवस्था और परंपरागत कुटिर उद्योगों से जुड़ा हैं. सिंहभूम के ग्रामीण इलाकों में या फिर कोल्हान के जंगलों के भीतर बसे गांवों में अभी भी अपनी मूल भाषा में बात करते लोग मिल जायेंगे, लेकिन शहरों के करीब के गांवों, कस्बों की आदिवासी बस्तियों में मूल भाषा में बात करते लोग नहीं मिलते.
इसका एक ठोस उदाहरण मैं रांची शहर के बीच बसे-बचे आदिवासी गांवों के हालात के आधार पर दे सकता हूं. मैं पिछले कुछ वर्षों से कांके डैम साईड में बसे एक उरांव गांव में बच्चों को पढ़ाने जाया करता हूं. वहां के बच्चे और उनके माता पिता अपनी उरांव/ कुड़ुख भाषा में बात नहीं करते. वे जानते ही नहीं. बड़ों में कुछ लोग मुंडारी थोड़ा बहुत समझते हैं, लेकिन अपनी भाषा नहीं.
सभी हिंदी ही बोलते समझते हैं. मैंने प्रसिद्ध फिल्मकार और फोटोग्राफर बीजू टोप्पो की पत्नी कुर्दुला से आग्रह किया कि वह आ कर बच्चों को सप्ताह में एक दिन उनकी भाषा पढ़ाये. वह दो चार सप्ताह आई भी और बच्चों ने रुचि दिखाई अपनी भाषा सीखने में. लेकिन यह योजना नहीं चल पाई.
दरअसल, व्यक्तिगत प्रयासों से भाषा विलोपन की समस्या का समाधान निकालना मुश्किल है. इसके लिए तो राजसत्ता की मदद और इच्छाशक्ति जरूरी है. और वह राजसत्ता जो आदिवासी सभ्यता और संस्कृति को तबाह कर ही फलफूल रही है, वह इस काम में क्यों मदद करे? इसके लिए तो आदिवासी समाज को ही आगे आना पड़ेगा.
विडंबना यह भी कि आदिवासी प्रबुद्ध वर्ग भाषा और संस्कृति की बात भले करे, वह सार्वजनिक रूप से अपनी भाषा में बात करते लजाता है. मेरी जानकारी में ऐसे बहुत कम साहित्यकार या आदिवासी बुद्धिजीवी रह गये हैं जो अपनी मूल भाषा में लिखते हैं. अधिकतर ने हिंदी या अंग्रेजी को अंगीकार कर लिया है. वैसे में आदिवासी भाषाओं का अस्तित्व खतरे में बना रहेगा.
वैसे, अभी भी इस दिशा में सामूहिक प्रयास सफल हो सकता है. यदि रांची शहर के आस पास के आदिवासी गांवों में आदिवासी भाषाओं के आठ दस केंद्र भी खोल कर कम से कम दो तीन वर्षों तक सप्ताह में एक दिन भी पठन-पाठन का केंद्र चलाया जाये, तो इसके सार्थक परिणाम सामने आ सकते हैं.
लेकिन भाषा की राजनीति एक बात है और भाषा के प्रचार प्रसार का काम दूसरी बात. आदिवासी भाषायें तो तभी बचेगी जब आदिवासी समाज आदिवासियत पर गर्व करें, अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करें.
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