सच को सच कहने में कब तक गाते रहेंगे अंग्रेजों की प्रशंसा में गीत
डॉ. क्रांतिभूषण बंसोड़ेअंग्रेजों को लेकर हमारे देश में दो तरह के मत पाये जाते हैं। एक कहता है कि अंग्रेजों के कारण एक वर्ग विशेष की मुक्ति हुई तो दूसरा कहता है कि अंग्रेजों ने 200 सालों तक हमारा शोषण किया है। ईस्ट इंडिया कम्पनी का भी इतिहास जान लेना सही नहीं है क्या? अंग्रेज भारत में दो सौ साल राज करते रहे। उनका उद्देश्य क्या भारत की गरीब जनता का उद्धार करना था? या उनका शोषण करना?

अंग्रेजों का मकसद दलितों को जातिवाद से मुक्त करना था? या भारत की खनिज संपदा का दोहन करना था? जब तक हम इन सवालों का जवाब नही ढूंढ़ते या जान नहीं लेते, तब तक हम केवल अंग्रेजों का गुणगान करते रहेंगे।
यह वैसी ही बात है जैसी बीजेपी करती है। बीजेपी (तब की जनसंघ) तथा आरएसएस ने भी अंग्रेजों का समर्थन किया।
सावरकर ने तो अंग्रेजों से माफी भी मांग ली। तो क्या आपको नहीं लगता कि एक तरफ बाबासाहेब भी अंग्रेजों के समर्थक थे, तथा दूसरी तरफ जनसंघ भी अंग्रेजों के समर्थन में था।
इस हिसाब से बाबासाहेब जनसंघ के समर्थक कहलाये या जनसंघ भी बाबासाहेब के विचारों का समर्थन करता था?
हमें यह अच्छी तरह जान लेना चाहिये कि सामंतवाद हो, साम्राज्यवाद हो या पूंजीवाद आम जनता, जो गरीब, अशिक्षित, मजदूर, किसान,दलित तथा आदिवासियों की हितचिन्तक कभी हो नहीं सकता है।
पूंजीवाद या साम्राज्यवाद या सामंतवाद की विचारधारा ब्राह्मणवाद की तरह ही जातिवाद में लोगों को अलग अलग समूह में बांटकर रखना उनके अपने स्वार्थ की रक्षा के लिये फायदेमंद होता है।
मैकाले की शिक्षा पद्धति से पहले जो शिक्षा पद्धति थी, वह वास्तव में किसी काम की नही थी।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कहने को नालंदा विश्विद्यालय था, उसका लाभ किसी दलित या गरीब को नहीं मिलता था। वह विशेष वर्ग के बच्चों का था। हम दलित बेवजह नालंदा पर गर्व करते हैं।
बावजूद मैकाले की शिक्षा पद्धति से बाबू मानसिकता तथा गुलाम मानसिकता के ही लोग आजपर्यंत तक भारत में विकसित हो सके हैं।
लार्ड मैकाले ने ही कहा था कि उसकी शिक्षा पद्धति से काले अंग्रेज पैदा होंगे। जो रंग में भारतीय होंगे लेकिन मानसिक रूप से अंग्रेज रहेंगे। अंग्रेज माने विशिष्टजन या अभिजात्य वर्ग की मानसिकता का व्यक्ति! ना कि आम आदमी!
जिसका नतीजा आज यह है कि भारतीय जनता में अधिकांश लोग पढ़ाई करके डिग्री हासिल करते हैं, वे कोई नया आविष्कार नहीं करते हैं।
परम्परागत गुलामी को बरकरार रखने या नौकरी हासिल करने के मकसद से शिक्षा हासिल करते हैं।
यही मुख्य कारण है कि आज भारत के पढ़े लिखे लोग मजदूरों, किसानों तथा श्रमिक वर्ग से नफरत करते हैं।
और तो और स्थिति यह है कि नेताओं, अफसरों की चापलूसी करना, भ्रष्टाचार में लिप्त रहना एवं अपने ही वर्ग की समस्याओं को ना केवल नजरअंदाज करना बल्कि उसके खिलाफ कल्याणकारी कार्यों के बीच रोड़ा बनना उनके महान कार्य हो गये हैं।
इसकी अगली कड़ी यह है कि समस्त सरकारी स्कूल की शिक्षा पद्धति पर सवाल उठाया जाता है। तथा प्राइवेट स्कूल कॉलेज को बढ़ावा दिया जा रहा है।
अलग अलग शिक्षा पद्धितियों के कारण भारत की जनता की मानसिकता अलग अलग हो गई है। जिससे जनता के बीच में आपस में ही एकजुटाता बनाना कठिन हो गया है तथा उनमें आपसी खाई बन चुकी है।
अब वर्तमान सरकार ने नई शिक्षा नीति बना ली है। जिसका कुल जमा हिसाब यह है कि बच्चों को केवल इतना ज्ञान दो जिससे वे केवल स्किल्ड श्रमिक मजदूर बन सकें। कोई विशेष प्रतिभाशाली बच्चे ही आगे जाकर कुछ विद्वान बन पाते हैं।
इसलिये तर्क यह कहता है कि हमें भी बीजेपी/आरएसएस की तरह अंधभक्त बनने की बजाय कठोर आत्मालोचना के नजरिये से इतिहास का विश्लेषण करना आवश्यक है, जिससे सही नतीजों पर पहुंच सकें।
इतिहास की ओर लौटे तो देखते हैं कि बाबासाहेब ने अपनी समझ से अपने दौर में जो कुछ कहा, वह उनके विचार थे। उस वक्त की परिस्थिति के अनुकूल थे।
उन्होंने अंग्रेजों का समर्थन लेकर तथा उनके सहयोग से दलित समाज की समस्या को खत्म करने का अपना प्रयास किया था।
अब हमें यह समझना होगा कि जो कुछ बाबासाहेब ने कहा वही आज भी सही है, यह मान लेना अंधभक्ति होगी। बाबासाहेब ने कहा था कि दलित समस्या खत्म करने के लिये जाति उन्मूलन किया जाना आवश्यक है।
तथा उनका मिशन अधूरा है। तो हमें उनके अधूरे मिशन को पूरा करने के लिये आज वस्तुगत परिस्थिति के अनुसार अपनी समझ भी विकसित करनी चाहिये। तथा उसके हिसाब से अपनी रणनीति भी बनाना होगा।
कभी भी पुराना विश्लेषण आज हमारे काम की विचारधारा नहीं हो सकती। नई विचारधारा तथा नया दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। आज हम केवल ‘बाबासाहेब ने ऐसा कहा था...’ यह कह देने मात्र से काम नहीं चलेगा।
बाबासाहेब के मरने के बाद ही उनको पूंजीवादियों की सत्ता ने अपने कब्जे में ले लिया था। इसके कारण सत्ता में बैठे सभी राजनीतिक दल उनके नाम का इस्तेमाल करके आम जनता को गुमराह करते आ रहे हैं।
आज बीजेपी तथा आरएसएस जो कहते हैं वही सभी दलित संगठन भी कहते हैं, तथा करते हैं। बहरहाल बीजेपी तथा सभी दलित संगठनों का हाल एक जैसा है।
सन 1990 में मायावती यानी बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) ने ही यूपी में सत्ता के लालच में मृत बीजेपी को संजीवनी देकर इतनी बड़ी पार्टी में बदलने के चक्कर में अपने आप को पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी पार्टी में बदलने में बड़ी भूमिका निभाई थी।
उसके अलावा रामविलास पासवान, उदितराज , रामदास आठवले के बारे में भी आप सभी अच्छी तरह जानते ही हैं।
अब वर्तमान में बीजेपी के साथ गठबंधन करके वापस आने के लिये मायावती और बीएसपी बीजेपी को मदद कर रही है क्यों? इस काम में ओवैसी की पार्टी की भी गिनती होने लगी है।
बीजेपी ने आज पिछले सात सालों में भारतीय जनता को बेहाल किया उसका विरोध किया जाना चाहिये या कि उसको जीवित रखना चाहिये? यह सवाल हमें बीएसपी से तो पूछना ही होगा कि नहीं?
बाबासाहेब होते तो क्या मायावती या बीएसपी को समर्थन देते या उसका विरोध करते? क्या यह सवाल हमें आज अपने आप से नहीं पूछना चाहिए?
और बीजेपी आज खुलेआम भारतीय जनता जो दलित हैं, गरीब हैं, मेहनतकश हैं उसमें फूट डालकर उनका शोषण कर रही है। उसके खिलाफ विद्रोह करना जरूरी है या उसको समर्थन देकर अधिक शोषण का परमिट देना? निर्णय आपको करना है।
अगर आप बाबासाहेब को पढ़ते हैं, तो उन्होंने कहा था-‘जो संविधान लिखा है, वह मजबूरी में लिखा है। उनका बस चलता तो वह पहले व्यक्ति होंगे, जो इस संविधान को आग लगाकर जला देंगे। उनका कहना किस सन्दर्भ में था, उसे हमें बखूबी समझना चाहिये।
बाबासाहेब के लिये काम करना है, तो अपने आप को हर प्रकार से विकसित करना होगा। सही को सही तथा गलत को गलत कहना होगा। यह भी समझना होगा कि यदि बाबासाहेब ने कहीं ना कहीं गलती भी की ही होगी।
आखिर वह भी इंसान ही थे। उन्हें भगवान बना देना तथा उनकी पूजा करना जरूरी नहीं है। बल्कि उनके कार्यों से सीख लेकर उनके अधूरे कार्य को पूर्ण करना ही उनके सच्चे अनुयायी होना है।
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14/08/2021
Hemlal Kurrey
Very Good
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