राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और चालीस लाख 'घुसपैठिये'
प्रेमकुमार मणिफणीश्वरनाथ रेणु का एक उपन्यास है 'जुलूस '. पूर्वी पाकिस्तान, अर्थात अब के बंगला देश, से आये हुए शरणार्थियों का एक टोला बस गया है नबीनगर ग्राम के एक छोर पर. जाहिर है पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर कौन आवेंगे. ये हिन्दू शरणार्थी हैं, लेकिन उस टोले को सबलोग पकिस्तनिया टोला कहते हैं. एक शरणार्थी कालाचंद घोष की माँ पवित्रा से कहती है - ' दीदी ठाकरुन! देश माने हिन्दुस्तान की करे हम बुझाइया दिन?... कैसे देश माने हिंदुस्तान हो?

हमलोगों के गाँव का नाम है नोबीनगर और यहां के लोग कहते हैं पाकिस्तानी टोला ?...आमरा की मोछलमान ?... तो हम पाकिस्तानी कैसे हुए ?... " ठेठ हिन्दुओं का यह टोला पाकिस्तानी टोला कैसे बन गया ? डाकिया भी चिट्ठी पर नबीनगर के बगल में पेंसिल से लिख देता है - पाकिस्तानी टोला. रेणु ने देस, राष्ट्र और मजहब की मानसिकता को बारीकी से इस उपन्यास में समझा है.
लेकिन असम सरकार ने जिन चालीस लाख लोगों को अवैध नागरिक घोषित कर दिया है, उस में जाने कितनी पवित्रा, कितने कालाचांद घोष और उसकी माँ हैं. सब आज किंकर्तव्यविमूढ़ हैं. उन्हें अपनी भारतीयता का सर्टिफिकेट देना है कि वे या उनके माता - पिता 24 मार्च 1971 से पूर्व यहाँ रह रहे थे या नहीं.
असम की सरकार ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC - नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स) बनाया है. चालीस लाख लोग इससे बाहर हैं. उनका कोई देस नहीं, कोई वतन नहीं, कोई राष्ट्र नहीं. वे बस मानुस जीव हैं. जानवर से बदतर. यह भारत उनका नहीं है, भारतमाता उनकी नहीं है.
शरणार्थी कौन होते हैं? कैसे होते हैं? दुनिया के अनेक हिस्सों में यह समस्या अपने -अ पने तरीके से है. मैंने जितना समझा है वह यह कि किसी एक इलाके या देस से दूसरे इलाके या देस में लोग जाते हैं तब जाने वाले लोग दो तरह के होते हैं.
यदि वे मजबूत -ताकतवर और संगठित हैं, तब आक्रमणकारी होते हैं; लेकिन गरीब, कमजोर और असंगठित हैं, तब शरणार्थी कहे जाते हैं. पश्चिमी पाकिस्तान से बहुत सारे हिन्दू आये और वे भारत में बस गए.
दिल्ली में कितने शरणार्थी हैं, सब जानते हैं. आज वे क्या हैं यह भी जानते हैं. हमलोग जब युवा थे तब सुनते थे जिन - जिन इलाकों में औद्योगिकीकरण होता था और मज़दूर बहुत होते थे, उन इलाकों में कम्युनिस्ट मजबूत होते थे. जिन इलाकों में शरणार्थी बहुत होते थे, वहां - वहां संघ और जनसंघ मजबूत होता था.
इसलिए शरणार्थियों, बाहरी - भीतरी, या असली - नकली के इस मुद्दे को उठाने से शुभ - लाभ की राजनीति करने वाली भाजपा को सीधा लाभ दिखाई देता है. चुनावी साल में इस मुद्दे को बहुत सोच समझ कर उसने उठाया है.
संसद में हो रही बहसें उसे राजनीतिक लाभ देंगी, उसका विश्वास है. जो भाजपा सांस्कृतिक- राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता की बात करती थी, आज रजिस्टर की राष्ट्रीयता की बात कर रही है. इसे लेकर वह जितनी आक्रामक है, उसी से इस मुद्दे के प्रति उसकी प्रतिबद्धता दिखती है.
लेकिन हम लाभ के लफड़े में न पड़ कर उन चालीस लाख लोगों के बारे में सोचें, जो आज अवैध कहे जा रहे हैं. वे गरीब हैं, इसलिए उनका कोई देस नहीं है. कहीं उनकी जगह - जायदाद नहीं हैं. पशु - पक्षियों की तरह अपना पेट और हाथ लिए वे कहीं भी चल जाते हैं. जो काम मिलता है, कर लेते हैं ,जो रोटी मिलती है, खा लेते हैं.
मैं, उनकी कोई वकालत भी नहीं कर रहा. केवल सोच रहा हूँ. आपसे इस विषय पर सोचने का अनुरोध भी कर रहा हूँ. मेरे यहाँ मूलनिवासी संघ और आंदोलन के नेता कार्यकर्त्ता भी आते हैं. वे तमाम द्विज जातियों यथा ब्राह्मणों और राजपूतों को बाइली या बाहरी कहते हैं. उनकी नजर में वे विदेशी हैं और उनका वश चले तो उन्हें निकल बहार करें.
अंग्रेजों, तुर्कों - मुगलों और उनमें अंतर यही है कि वे कुछ पहले आये और तुर्क - मुगल - अंग्रेज कुछ बाद में. उनके कहने में दम है. आर्य, शक, हूण, यूची, तुर्क, मोगल, पठान जाने कितनी जातियां आईं. मूलनिवासी आंदोलन के कार्यकर्त्ता संघियों की तरह ही इरादा रखते हैं कि एक रोज इन तमाम लोगों को इस भारतभूमि से खदेड़ देंगे.
मुझे समझा पाने में वे अक्षम होते हैं. मैं उन्हें समझा पाने में परेशान होता हूँ. मूलनिवासी मूवमेंट वाले इस देश को अनार्यभूमि बनाना चाहते हैं, आर्यसमाजी आर्यभूमि. संघियों के जगद्गुरु सावरकर ने आर्य - अनार्य मिलाकर हिन्दू कहा और हिंदुस्तान नहीं, हिन्दुस्थान की वकालत की, जिसमे पृथक पुण्यभूमि वाले मुस्लिम - ईसाई बाइली - अवैध कहे जायेंगे.
मैं इसमें किसी का समर्थक नहीं हूँ. मैंने जिस भारत को समझा है, वह राजनीतिक रेशों से अधिक सांस्कृतिक रेशों और तानों - बानो से बुना है. हमारे सांस्कृतिक आख्यान बतलाते हैं, इस देश का नाम भारत तो शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर बना है.
शकुंतला के पास पहचान की वह अंगूठी खो गयी थी, जिसे दुष्यंत ने सम्बन्ध बनाने के समय उसे दिया था. राजा तो राजा होता है, वह शकुंतला को नहीं पहचान पाता; अपनी अंगूठी जरूर पहचानता है. गर्भवती शकुंतला अपने पति के राज दरबार में अपमानित होती है और फिर एक नाटकीय कथाक्रम के उपरांत ही भरत अपने पिता द्वारा अंगीकार किया जाता है.
कृष्ण को देखिये. महाकवि सूरदास का कृष्ण पहचान का संकट बचपन से झेल रहा है. उसे यशोदा ने नहीं जाया है. राजनाथ सिंह जैसे बलराम उसे चिढ़ा रहे हैं. -'मोसो कहत मोल को लीन्हो जसुमति तोहे कब जायो '- यह नंदग्राम उसका नहीं है ,यशोदा और नन्द का वह पुत्र नहीं है - गोरे नन्द यशोदा गोरी तू कत स्याम सरीर; चुटकी दे - दे हँसत ग्वाल सब सिखै देत बलवीर ' ग्वालों द्वारा कृष्ण का मज़ाक बनाया जा रहा है. लेकिन यही कृष्ण अपने युग का नायक बनता है. भारत और भारतीयता का प्रतीक.
और उस राम की कहानी! जिसके मंदिर बनाने केलिए भाजपा - संघ व्याकुल है. कबीर -रैदास के घट -घट व्यापे राम की बात नहीं, उसी राम की बात जो दसरथ के घर कौशल्या की कोख से जन्मा. उस राम ने अयोनिजा - खेत में मिली अज्ञातकुलशील सीता को पत्नी रूप में अंगीकार किया, उसे गरिमा और पहचान दी. सीता के पास भारतीयता की कौन सी पहचान थी?
हज़ारों कथाएं हैं हमारे सांस्कृतिक इतिहास में. हमारी संस्कृति ने करुणा और संवेदना का संस्कार हमें विरासत में दिया है .इन संस्कारों के बूते ही हमारे संतों ,कवियों, दार्शनिकों ने भारत को गढ़ा है. यह है हमारे भारत की कहानी. सुजला -सुफला भारत पहाड़ों और नदियों का भूगोल भर नहीं है. वह यहाँ के लोगों की धड़कन है.
हमारे संतों-कवियों ने यही सिखलाया है कि जो हमारी शरण में है, वह सुरक्षित है. शरण में आये एक कुत्ते केलिए युधिष्ठिर ने स्वर्ग को दांव पर लगा दिया था. शिवि ने एक शरणागत कबूतर केलिए खुद को तराजू पर रख दिया था. उसी भारत में हम चालीस लाख लोगों को लांक्षित कर रहे हैं!
यदि वे अपने को भारतीय कहते हैं तो पूरे देश को उन्हें भारतीय मानना चाहिए. और यदि किन्ही के खिलाफ पक्के सबूत हों, तो राष्ट्रसंघ का सहयोग लेकर उन्हें उस देश के हवाले करना चाहिए. जिनका भी जन्म इस देश की जमीन पर हुआ है, वे सब इस देश के हैं और होने चाहिए.
उन सबका इस्तेमाल हम देश निर्माण में करें. यदि उनके बीच कोई समाज या देश विरोधी गतिविधि दिख रही हो, तो बेशक उचित कार्रवाई हो, लेकिन उन्हें बिलावजह केवल इस आधार पर कि उनके पास सक्षम प्रमाण नहीं है, हम उन्हें अपमानित न करें. वे गरीब हैं. गरीब मुश्किल से अपनी जान बचा पाते हैं, पहचानपत्र कहाँ से संभाल रखेंगे.
यह राष्ट्रीय समस्या तो है ही मानवीय समस्या भी है. मैं चाहूंगा, पूरा देश सभी स्तरों पर गंभीरता और विवेक के साथ इस समस्या पर विचार करे.
यह लेख 2018 में लिखा गया था.
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