शिव का पुन:पाठ
रामप्रकाश कुशवाहाशिव ही ऐसे एकमात्र मिथकीय चरित नायक हैं जो अपनी परिकल्पना में ही आस्तिकता और नास्तिकता, भौतिकता और आध्यात्मिकता तथा देवता और मनुष्य होने के सन्धि स्थल पर अत्यंत प्रेरक एवं दिव्य दोनों रूपों में उपस्थित हैं। स्त्री और पुरुष के प्रजनन अंगों को ही सृष्टि के प्रतीकों के रूप में चुनना सरल आदिम मनुष्य के द्वारा ही संभव था। यही एक मात्र देवता हैं जो आज भी मुक्त हैं और मात्र एक प्रतिशत ही पुरोहितों के कब्जे मे आ सके हैं। उनका एक अन्य प्रतिनिधि प्रतीक अब भी उन्ही के अधीन है।
.jpg)
अश्वत्थ वृक्ष यानी पीपल का पेड़ तो मन्दिर के शिखर पर भी उग जाता है और तब शिव गर्भ गृह छोड़ कर मंदिर के शिखर पर ही हवाखोरी करने लगते हैं। गावों में भी वे किसी पीपल वृक्ष के नीचे मिट्ठी के चबूतरे पर पिण्डाकार सपरिवार मुक्त लोक देवता के रूप में दिख जाते हैं।
शिव भारतीय वसुधैव कुटुंबकम के प्रतीक विशिष्ट देवता और केन्द्रीय चरित्र हैं। उनके परिवार में साँप, बैल और पुत्रवत पालित हाथी का शिशु सब शामिल हैं। वे अब तक जाने गए पहले ऐसे मनुष्य हैं जिन्होंने यह प्रयोग किया कि हाथी के बच्चे को प्रशिक्षित करने पर उससे मनुष्य जैसा व्यवहार कराया जा सकता है। हाथी के बच्चे को पहली बार पालने का प्रयोग उनहोंने अपने पुत्र की असामयिक मृत्यु के बाद किया था।
पेट भरा होने पर,खतरे की आशंका न होने पर और आत्मीय व्यवहार का अभ्यस्त हो जाने पर साॅप जैसा विषैला प्राणी भी पालतू बनाकर अपने गले में रखा जा सकता है। कम से कम भारत में कृषि कार्य के लिए बैल के प्रथम प्रयोक्ता भी वही रहे होंगे। मानव-मस्तिष्क और उसके विवेक को गांजा, भांग और धतूरा जैसी वनस्पतियाँ भी प्रभावित कर सकती हैं इस ओर भी गम्भीरतापूर्वक ध्यान उनका ही गया था। सिर्फ़ तम्बाकू को ही छोड़ कर जो कोलम्बस अमेरिका से लाया था और देर से भारत पहुँचा।
इस तरंह शिव का पौराणिक आख्यान वाला चरित्र भी कम समाज-मनोवैज्ञानिक महत्व का नहीं है। वे एक पागल प्रेमी पति हैं और अपनी मृत पत्नी के शव को अंग-प्रत्यंग गलने और गिरने तक ढोते रहते हैं। उनके इसी समर्पण को देखते हुए दूसरी पीढ़ी की एक अन्य युवती पार्वती ने भी हठपूर्वक उनका वरण किया। अन्य अविवाहित, ब्रहमचारी या फिर नि:संतान देवताओं से अलग और भिन्न वे एक सच्चे और अच्छे गृहस्थ हैं और पिता भी।
यदि वे इस धरती पर कभी रहे होगे तो वे निश्चय ही किसी आदिम कबीले के खानदानी मुखिया भी रहे होंगे अन्यथा अधिकांश समय आसन जमाए हुए भी शानदार ढंग से उनकी गृहस्थी भी कैसे चलती! पहली पत्नी सती को अपने पिता दक्ष के यहाँ जाने की जिद पर वे जिस प्रकार पर्याप्त अनुचर साथ भेजते हैं इससे उनके प्रजापति होने की पुष्टि होती है।
मुझे पूरा विश्वास है कि शिव चार्वाकों के धार्मिक नायक या पूज्य प्रवर्तक हैं और चार्वाक भी कोई ॠषि नहीं बल्कि उस सम्प्रदाय विशेष के चारु वाक् यानी सुन्दर वचन या कथन थे। अधिक संभव है कि लिंग की प्रतीक पूजा का आरम्भ कराने वाले स्वयं जननायक आदि शिव के ही चारु वाक् रहे हो।
प्रकृति की पूजा करने वाले इस भौतिक - आध्यात्मिक सम्प्रदाय में ईश्वर की जगह पाषाण लिंग को पूजना था, प्रेमपूर्ण दाम्पत्य जीवन जीना था और जरूरत पडने पर परस्पर सौहार्द और विनिमय या लेेन-देन जारी रखते हुए जीवन का सम्मान करना और आवश्यक होने पर उधार मांग कर भी घी पीना और जीव न जीना था। इसतरह देखें तो शिव सामूहिक जीवन-सुरक्षा योजना के आदिम प्रवर्तक थे - सहज, आत्मीय और प्रेमिल! संभवत आदिम साम्यवादी भी।
निश्चय ही शिव कम जनसंख्या वाले समय में ग्राम्य समाज के इतिहास पुरुष रहे होंगे। हैं। यदि काशी में ही रहे होंगे तब भी उस समय की काशी हरी-भरी कृषि क्षेत्र एवं वन क्षेत्र के निकट रही होगी। बढते पालित हाथी शिशु के अधिक भोोजन की पूर्ति के लिए द्वार पर आने वाले लोग कुछ न कुछ हरित भेंट लाते होगे। क्योंकि हाथी की भोजन व्यवस्था मानवीय स्तर पर सामूहिक श्रम द्वारा ही संभव रही होगी। निश्चय ही प्रजापति यानी कबीले के मुखिया शिव इस बात से प्रसन्न होते होंगे कि उनके आत्मीय स्वजन उनके पालित हाथी शिशु का ध्यान रखते हैं।
सामूहिक दायित्व तथा अग्रपूजा की अवधारणा भी यहीं से आयी होंगी। इससे कबीले की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि भी हुई होंगी। गणपति का विरुद ऐसे ही कृतज्ञ मन का उद्दगार लगता है। यह श्रम-विनिमय और वस्तु-विनिमय का युग रहा होगा। उन दिनों जिस समय जिसके पास जो वस्तु अधिक रहती होगी वह दूसरों को दे देता होगा और जब उसके पास आवश्यक वस्तुओं का अभाव होता होगा तो वह ऊन्हे दूसरों से वह नि:संकोच मांग भी लेता होगा। वैसे भी दूध और घी आदि ऐसी वस्तुएं हैं जो सब समय पशुओं से उपलब्ध नहीं होतीं। इसी ने "ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत" का चारु वचन भी प्रचलित किया होंगा।
वे सीधे और सच्चे थे। सभी के स्नेह को प्राप्त थे। वे इतने अधिक लोगों के आत्मीय थे कि उनके इशारे के बिना भी उनके पक्ष में भयानक दंगा भडक सकता था। वे दक्ष हत्याकांड में घटना स्थल पर नहीं थे और न ही उस दंगे को उकसाने में उनकी कोई भूमिका थी। उनका स्वभाव ही ऐसा नहीं था कि वे हत्या की मनोभावना रखते। तब संचार के साथ न नहीं थे। उन तक बहुत देर से बुरी घटनाओं की खबर पहुँची होगी।
उनके अनुयायियों के क्रोध और हिंसा पर उनका पत्नी वियोग और पागल बना देने वाला दुख भारी पडा। यद्यपि वे कुशल नर्तक, सौम्य, पाखण्ड से दूर सादगीपूर्ण और मनमौजी स्वभाव के जननायक थेे। भारतीय स्त्रियाँ उनके पत्नी प्रेम और सफल दाम्पत्य जीवन को देखतें हुए उन्हीं को अपना आदर्श मानती हैं।
शिव का एक अवदान और है। उनकी पहली पत्नी सती के आत्मदाह ने उन्हें और उनके समुदाय को एक नया मृत्यु-संस्कार और मृत्यु दर्शन दिया - अग्नि के माध्यम से मानव-देह को पंच-तत्व में वापस विलीन करने की अवधारणा। सभी को यज्ञं-कुण्ड में जलकर राख हुई दिवंगत रानी का अनुसरण करना था।अंतर सिर्फ यही था कि सती जीते हुए जली थी जबकि अब सभी को मरने के बाद जलना था।
अप्रिय होते हुए भी उनकी प्रिय पत्नी की याद में अग्नि दाह का मृत्यु संस्कार सभी ने स्वीकार किया था। इस प्रथा के प्रवर्तक आरम्भ के लिए भी वे महाशमाशान के आदि अधिपति हैं कि उन्होंने अपने अनुचरों या गणों से यह व्यवस्था स्वयं करवाई थी। उनकी डाली हुई शव्दाह की परम्परा मे भारत-भूमि पर चिंताए आज भी जल रही हैं।
यह प्रथा आज भी विज्ञान सम्मत एवं रोगाणुओं के प्रसार और वृद्धि को निरुद्ध करने वाली मानी जाती है और शव को भूमि में दबाने की प्रथा से अलग यह जिन्दा लोगों से उनकी भूमि भी नहीं छीनती। इस तरह भारतीय सांस्कृतिक मूल के लोगों की हर जलती हुई चिता शिव के इतिहास पुरुष होने की गवाही देती है। शिव कोई कल्पना-प्रसूत आख्यान के नायक नहीं हैं।
वे हम भारतीय मूल के लोगों के वास्तविक पुरखे हैं। लोक ने उनकी शान्ति प्रियता और आक्रोश विहीन मानसिक चित्त वृत्ति को देखते हुए ही चन्द्रमा को उनके मस्तक के नाम कर दिया और उस गंगा को भी जिसे सभी चिंताओं की आग बुझानी थी। नि:संदेह शिव का चरित्र, आख्यान, कल्पना और स्मृति भारतीय सभ्यता और संस्कृति का बीज- निर्माता है। ऐसे मिथकीय आदिनायक को नमन।
कुछ अन्य टिप्पणियां
- चारु वाक या सुन्दर वचन और भी रहे होगें जो श्रुति परम्परा में देर तक बने रहे होंगे। तब लिपि का विकास न होने के कारण अधिकांश लुप्त हो गये होंगे।
- शान्ति सूचक चन्द्र का प्रतीक उन्होंने मस्तक पर धारण किया।
- यज्ञ या हवन संस्कृति आर्यों की है जबकि समाधि,ध्यान धारणा आदि आर्यों के आगमन के पूर्व से ही भारतीय है। उसे अनार्य कहना भारतीय मूल के लोगों को हिन्दू कहने जैसा है। इसीलिए मैने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया है।
- कोई ऐसे ही मिथक बनता हैं? कोई यदि एक साथ गाजा, भांग और धतूरा का सेवन करने के साथ साँप और हाथी भी पालता हो तो नि:संदेह वह जोखिमपूर्ण ढंग से प्रयोग्धर्मी है।
- विचारपूर्ण तथ्य यह है कि शिव का प्रतीक निर्माण तो किसी मनुष्य ने ही किया होगा और वह अपने समय में समाज का अग्रगण्य, बहिर्मुखी और प्रभावी नेतृत्व में रहा होगा। उस काल मे प्रकृति की हर शक्ति को देवता मानने की प्रवृत्ति दिखती है। अग्नि,वायु और जल सभी देवता थे। मुझे शिवलिंग की परिकल्पना और चार्वाक दर्शन में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समानधर्मी एकता दिखाई देती है। सोचने की बात है कि किसी ऋषि का नाम चार्वाक या सुन्दर वाणी क्यों होगा। कोई सम्प्रदाय अवश्य ही भौतिकवादी जीवन दृष्टि वाला रहा है जिसने भारतीय जन-जीवन को बहुत दूर तक प्रभावित किया है। जहाँ सारे विश्व में शव गाडे जाते हैं सिर्फ भारत में ही उसे जलाना एक प्रभावी धार्मिक निर्णय है।
Add Comment