ब्राह्मणवादी साजिश के इर्दगिर्द घूमता सिलगेर आंदोलन 

सिलगेर में आदिवासियों के जनसंहार पर पीयूसीएल की गहन पड़ताल

द कोरस टीम

 

राज्य सरकार को इस बर्बर घटना  पर तुरंत संज्ञान लेते हुए एक स्वतंत्र और उच्च स्तरीय जांच की घोषणा करनी  चाहिए और इस घटना के जिम्मेदार पुलिस और प्रशासन पर तत्काल कार्यवाही सुनिश्चित किया जाना चाहिए। घायलों को अस्पताल में सुरक्षित और सही स्वास्थ्य सेवाएं दी जाए, जो ग्रामीण लापता है, अंदेशा है कि वो सभी पुलिस के हिरासत में हैं उन्हे वापस उनके गांव में छोड़ा जाए।

यह गोलीकांड बस्तर में लगातार  मानवाधिकारों और ग्रामीणों पर सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा की वारदातों की कड़ी का एक हिस्सा है जिस पर तुरंत राजनैतिक समाधान ढूंढऩे की जरूरत है, जहां राज्य सरकार  के शह पर  इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं को पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा सिलगेर के जनसंहार की घटना स्थल में जाने पीडि़तों से मिलने  रोका जा रहा है, घटना में  अस्पताल में भर्ती घायलों से बात करने नहीं दी जा रही है। पुलिस द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं का जासूसी और पीछा किया जा रहा है, यह इस बात का संकेत है कि छत्तीसगढ़ की वर्तमान सत्तारूढ़  सरकार आदिवासियों के मानवाधिकारों को कुचलने किस तरह से आमादा है।

बस्तर में पिछले छह महीनों में इस तरह की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है। बीजापुर में कैंप का विरोध करते हुए ग्रामीणों पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया और कई आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया जो अब  भी जेल में बंद है। 9 मार्च को महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विरोध में हो रहे महिला दिवस के कार्यक्रम से पुलिस प्रशासन ने आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता को  सबके सामने नक्सली होने के झूठे केस में अवैध रूप से गिरफ्तार किया। 

पीयूसीएल का मानना है कि इन सभी घटनाओं में लोकतांत्रिक रूप से हो रहे आंदोलनों और विरोध को दबाने की कोशिश है। बस्तर में नक्सली उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों के विरोध को कुचला जा रहा है। पुलिस फायरिंग, फर्जी मुठभेढ़, अवैध गिरिफ्तारियों की वारदातों को रोकने राज्य सरकार को पुख्ता कदम उठाने की मांग करता है।

पीयूसीएल के दो जांच दल सिलगेर मामले को दो चरणों में जांच पड़ताल किया। जो 4 से 6 जुलाई तथा 16 से 18 जुलाई को सिलगेर की घटनास्थल की बारिकी अपने रिपोर्ट में दर्ज की है। जांच दल में एपी जोशी, सोनी सोरी, श्रेया, रूपदास टण्डन, लिंगाराम कोडोपी, दीपिका जोशी, धीरज कुमार, आलोक विमल प्रेमानंद, सुनीता पोट्टम, डॉ. आदित्य राज, वी एन प्रसाद राव, गायत्री सुमन, आशीष बेक, किशोर नारायण,  राजिम तांडी, शिप्रा देवी, कुमुद नंदगावे, संतन दास तथा डिग्री प्रसाद चौहान शामिले थे। 

सिलगेर की पृष्ठभूमि

17 मई को सिलगेर, सुकमा में पिछले पांच दिनों से अचानक और रातों रात अस्तित्व में आये सुरक्षा कैंप के खिलाफ अपना विरोध और असहमति दर्ज करा रहे आंदोलनकारी आदिवासियों पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की सूचना संचार माध्यमों और और बस्तर में रह रहे साथियों से प्राप्त हुआ फायरिंग में तीन आदिवासी ग्रामीण कवासी वागा, उडक़ा पाण्डु, उरसा भीमा की मृत्यु हो गयी, इनमें उडक़ा पाण्डु का उम्र कुल 14 वर्ष था। कुछ दिन बाद सोमली, जो गर्भवती थी, उसकी लाठीचार्ज के दौरान चोट लगने के कारण बाद में उसकी मृत्यु हो गयी स्थानीय शासन प्रशासन ने अपनी त्वरित प्रतिक्रया में कहा कि मारे गए गांव वाले नक्सली थे जिसका गांव वालों ने खंडन किया है। 

घटित घटना के संबंध में तथ्य और जानकारी इकट्ठा करना, वास्तविकता का पता लगाने पीयूसीएल के द्वारा एक जांच दल का गठन कर सिलगेर का दौरा किया गया। बस्तर पहुंचने पर हमें साथी आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता सोनी सोरी द्वारा बताया गया कि 27 जून को नीलावया गांव में संतोष मरकाम नामक एक आदिवासी ग्रामीण की तथाकथित फर्जी मुठभेड़ हुई है जिस पर टीम त्वरित निर्णय लेते हुए जांच के लिए घटना स्थल निलावाया पहुंचा।

नीलावया पहुंचने पर तीन महीने पहले एक और घटना कोसा मरकाम को सुरक्षा बल द्वारा अगवा और हत्या करने का मामला सामने आया। इसी गांव में कुछ साल पहले भीमा मंडावी की सुरक्षा बलों द्वारा हत्या की बात भी सामने आयी। अपनी पन्द्रह सदस्यीय जांच दल में छत्तीसगढ़ पीयूसीएल और अन्य संगठनों के कार्यकर्ता, महिला संगठन से जुड़े कार्यकर्ता और वकील शामिल रहे हैं। 

घटना के तथ्य
नीलावाया गांव, दंतेवाड़ा में दो अलग अलग तथाकथित फर्जी मुठभेड़

दंतेवाड़ा जिले के कुआकोंडा तहसील में स्थित निलावाया गांव है। 2011 के जनगणना के मुताबिक निलावाया की आबादी 700 से थोड़ा अधिक है। निलावाया के 4 मोहल्ले हैं पटेलपारा, मल्लापारा, मिलकनपारा और गोरेपारा। गांव में एक आंगनबाड़ी व एक प्राथमिक शाला है। स्कूल के लिए बच्चों को अक्सर 20 किमी दूर बुरगुम के आश्रम शाला में पढऩे जाना पड़ता है। गांव के लोग बाजार करने 13 से 27 किमी दूर पोटाली या पालनार पैदल जाते हैं। आसपास के 20 किमी के दायरे के 9 गांवों में एक भी प्राथमिक स्वास्थ केंद्र नहीं है। लगभग सभी गांववाले खेती किसानी का काम करते हैं धान मुख्य फसल होता है। खेती के अलावा लोग अपने अजीविका के लिये जंगल में उपलब्ध लघु वनोपाज जैसे महुआ आदि पर निर्भर हैं।

वे तेंदूपत्ता तोडऩे का काम भी करते हैं और गर्मियों के दिनों में तेलंगाना के मिर्ची बगानों में प्रवासी खेत मजदूर के रूप में काम करते हैं। निलावाया से सबसे पास अस्पताल लगभग 15 किमी दूर, गांव समेली में हैं। समेली वही गांव है जहां सितंबर 2018 में सीआरपीएफ के जवानों ने एक नाबालिग युवती, नंदे का सामूहिक बलात्कार किया। नंदे ने न्याय के लिये अवाज उठाया मगर तमाम दबावों के चलते दिसंबर 2018 में उन्होंने आत्महत्या कर लिया। समेली में आज उनके शहादत के याद में एक स्मारक खड़ा है, जिस पर हाल में ही पुलिसवालों ने बिना परिवार या गांववालों के अनुमति के कुछ अपने ही मन के देवी देवताओं का चित्रण कर दिया है। मार्च 2020 में नंदे व कवासी पाण्डे के शहादत के याद में महिला दिवस के अवसर पर आदिवासी मानवधिकार रक्षक हिड़मे मरकाम को सैकड़ों की भीड़ के बीच, दंतेवाड़ा के एसडीएम के रहते हुए पुलिस ने घसीटते हुए गैर कानूनी गिरफ्तारी की।

गैर-कानूनी गिरफतारियां, पुलिस व सुरक्षाबल द्वारा यौन हिंसा व फर्जी मुठभेड़  दंतेवाड़ा के लोगों के लिये नयी बात नहीं है। निलावाया के निवासियों के लिये भी यह पहली बार नहीं है जहां पुलिस व सुरक्षाबलों ने निलावाया के किसी निहत्थे व निर्दोष निवासी को उठाकर उनकी हत्या कर दी। 6 अक्टूबर 2015 को, जब भीमा माडवी नीलावाया के मिलकनपारा में अपने बहन के घर से वापस पटेलपारा में अपने घर लौट रहे थे, तब गश्त पर निकले पुलिस व सुरक्षाबल के सदस्यों ने रास्ते के एक मैदान में उनको गोली से मार दिया। बंदूक के नोक पर पुलिस व सुरक्षाबलों ने भीमा के परिवार वालों का दस्तखत कोरा कागज पर लिया और शव को जबरदस्ती बिना पोस्ट मोर्टम के जलाने को मजबूर किया। 

इस साल फिर से निलावाया में ऐसे ही 2 फर्जी मुठभेड़ हुई हैं जिसका पड़ताल जांच टीम ने किया। हिड़मे मरकाम के गिरफ्तारी के बाद दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव द्वारा दिए गए बयान से स्पष्ट होता है कि पुलिस की ऐसी गैर कानूनी वारदातें इक्का-दुक्का दुष्ट पुलिसकर्मियों के कारनामें नहीं है बल्कि वहां की पुलिस ऐसी हिंसा का दुरुपयोग राज्य के इशारे पर बस्तर के आदिवासियों के अपने हक व अस्मिता के संघर्ष को कुचलने के लिये व उनका जनसंहार करने के लिये एक रणनीति के रूप में किया जा रहा है। अभिषेक पल्लव का दावा है कि हिड़मे जेल से ‘मेरे आईजी बनने तक नहीं निकल पाएगी’ सशस्त्र सुरक्षा बलों की हिंसा व गैर कानूनी कारनामों को इनाम व पदोनत्ति से पुरस्कृत करने की नीति बस्तर की मूलवासियों के जीने या जीवित रह पाने के लिए खतरा बन गई है।

अड़मा उर्फ़ संतोष मरकाम की फर्जी मुठभेड़ में मृत्यु घटना के संबंध में पीडि़त परिजन और ग्रामीणों के कथन

1. सुक्की मरकाम पति स्वर्गीय संतोष मरकाम उम्र -33 साल, ग्राम निलवाया पटेलपारा थाना अरनपुर जिला दंतेवाडा छत्तीसगढ़ ने बताया कि घटना दिनाक 27.6.2021 को दिन के 11 बजे के आसपास खेत जोताई के काम के बाद मैं खाना बनाने के लिए अपने घर वापस आ गयी थी। मुझे गोलियों की आवाज सुनाई दी। घर से बाहर निकलने पर मैंने देखा और जब घटनास्थल पर पंहुची तो देखा मेरा पति गिरा पड़ा था, वहां पर सिविल ड्रेस में दो पुलिस वाले थे, जिसमें से एक इसी गांव निलवाया का निवासी है और उसका नाम अमित कवासी है। मेरे पति के सीने और दाहिने तरफ पेट के ठीक ऊपर गोली लगा था और उस जगह से खून रिस रहा था। उसने जांच टीम को बताया कि उनके पास तीन बड़े और दो छोटे छोटे खेत हैं, जिसमें धान का खेती करते हैं। हमारे तीन बच्चे हैं, एक लडक़ा और दो लडक़ी। बेटा पालनार में रहकर दूसरी कक्षा में पढ़ाई करता है 

2. नंगी कोर्रम पति गंगा, उम्र 40 साल, ग्राम नीलावाया ने बताया कि वह अपने मक्का के बाड़ी में रखवाली कर रही थी, तभी दो पुलिस वाले संतोष को खींचते हुए अपने साथ ले जा रहे थे। मैंने छुड़ाने की कोशिश किया तो उन्होंने मुझे धकेल कर फेंक दिया और उसे थोड़ा ही दूर ले जाकर गोली मार दिए। पुलिस वाले आपस मेें बोल रहे थे कि -‘चलो चलो वो मिल गया है। घटना के तुरंत बाद 25-30 की संख्या में पुलिस वाले वहां पहुंच गए और कुछ ही देर में वहां पुलिस वालों की संख्या 300 तक पहुच गयी थी और गांव वालों द्वारा मना करने के बावजूद संतोष के मृत देह को अपने साथ ले गए।’ 

3. बंडी (पति भीमा कोर्राम, उम्र 45 साल, ग्राम नीलावाया) ने बताया कि वह गांव के रिश्ते में संतोष की चाची लगती है। उसने कहा कि पुलिस वाले बड़ी दरिंदगी से उसे चार गोली मारे चौथा गोली उसके सिर पर मार दिये। हम लोग उठाने जा रहे थे तभी पुलिस वाले डंडा दिखाकर रोक दिया। और संतोष के मृत शरीर को दोनों हाथों और पैरों से पकडक़र उठाते हुए महुआ पेड़ के पास ले गए। फिर उन लोगों ने फोटो खींचा।

4. निलावाया घटना के संबंध में ग्राम पंचायत के सरपंच सुकेश कुमार से घटना के संबंध में उनका कथन लिया-‘मेरा नाम सुकेश कुमार कवासी पिता हूँगा कवासी, वर्तमान में ग्राम पंचायत का सरपंच हूं, मेरा जन्म यहीं हुआ है और मैं संतोष को बचपन से जानता हूं कि वह कभी भी नक्सल गतिविधियों में शामिल नहीं रहा है। वह नीलावाया गांव का ही निवासी है। मैं घटना के समय घर पर खाना खा रहा था, तभी गांव के ही दो महिलाएं बंडी और मंगी मुझे आकर बताये मैं जब वहां पहुंचा और पुलिस वालों को मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि धोखे में मारा गया है। मृतक की पत्नी के कहे अनुसार मैंने पुलिस के कब्जे में संतोष के मृत देह पर उसके जेब से रूपये 21,000/- वापस निकाले, जिसे उस परिवार ने मुर्गा बकरी बेचकर खेत को ट्रेक्टर से जुताई के खर्चों के लिए इकठ्ठा किया था।

मैं गांव वालों के साथ लगभग 200 लोगों की संख्या के साथ दंतेवाड़ा जिला अस्पताल गई थी और कलेक्टर से मिलने भी गई थी। जहां सुरक्षा बल द्वारा आदिवासी व्यक्ति के हत्या की घटना के खिलाफ विरोध दर्ज करते हुए दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की मांग किये। विरोध प्रदर्शन को तोडऩे पुलिस ने गांव के तीन लोगों जिनका नाम हिडिया, मंगा और नन्द कुमार है को पकड़ कर भयादोहन किया गया और विरोध प्रदर्शन बंद कर मृतक के शव को गांव ले जाने दवाब डाला।

ग्रामीणों से यह पता चला कि हिडिया की पत्नी डिलिवरी के लिये अस्पताल में भरती थीं। जब वे अस्पताल के बाहर नाश्ता लेने गये, तब दंतेवाड़ा के एसपी ने महिला के पति, इंडिया मंडावी व दो रिश्तेदारों (मंगा कोर्सम व नंन्दकुमार मरकाम ) को उठा लिया व उन्हें थाना ले गये। अस्पताल में एफआईआर की मांग लेकर डटे निलावाया के ग्रामीण से एसपी ने कहा कि उन तीनों को तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक गांववाले शव लेकर गांव वापिस न जाएं। यह उल्लेख करना जरुरी है कि जांच टीम के द्वारा जब घटना के संबंध में जांच की जा रही थी, तब भी इस अन्यायपूर्ण आदिवासी जनसंहार के खिलाफत में ग्रामीण आदिवासी, संतोष मरकाम के मृत देह को प्रशासन से नहीं लेने का ऐलान अपने प्रतिरोध जारी रखे किये थे।

संतोष मरकाम की मृत्यु की घटना में यह नोट करना ज़रूरी है की सभी तरफ फॉर्स ने सरपंच को सुकेश को बोला की संतोष को धोके से मारा गया (जैसा ऊपर उसके कथन में दिया है।) परिवार को पोस्टमार्टम के बाद शव सुपुर्द करते वक्त भी जो सुरक्षा बलों ने परिवार से आवेदन हस्ताक्षर कराया उसमें कही भी सतोष के नक्सल होने का जिक्र नहीं है। इसके अलावा सरपंच और सभी ग्रामीणों का भी कहना है कि संतोष किसी भी तरह की नक्सल गतिविधियों में लिप्त नहीं था। वहीं दूसरी तरफ 11 जुलाई 2021 को भास्कर रायपुर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पुलिस संतोष को 5 लाख का इनामी नक्सल और मुठभेड़ में मारने का दावा कर रहे है।

कोसा मरकाम की मौत और उसके नक्सल होने का आरोप फर्जी तो नहीं? 

कोसा मंडावी पुत्र अंडा मडक़ाम की मृत्यु के तथ्य इक्कठा करने के लिए उनकी बीवी हड़मे मरकाम और गांव के सरपंच से बात हुई। कोसा का एक पुत्र है जो पांचवीं कक्षा में है।

मालापारा, नीलवाया गांव की यह घटना लगभग तीन माह पहले की है। हड़मे को सही दिनांक याद नहीं पर उनके अनुसार उस समय महुआ थोड़ा थोड़ा गिर रहा था। रात को परिवार खाना खाके बरामदे में सोया था और लगभग 12 बजे थे। उस दौरान दो महिलाएं घर में दीदी दीदी बोलके घुसे, हड़मे उनको पहचान नहीं पायी। आसपास और फोर्स के लोग थे, सभी वर्दी में थे और उनके पास बन्दूक भी थी। वे कोसा का फोटो खींचे, कोसा को उठाके ले गए और बोले कुछ नहीं करेंगे। रात को उसने पड़ोसियों को उठाया और घटना के बारे में बताया। उसे यह भी नहीं पता था कि कौन-सा रास्ता ले गए हैं।

यह पूछने पर कि उसे कैसे पता चला की कोसा को मार दिए हैं तो वह यह बतायी कि वह सुबह, उजारा होने पर दो गोलियों की आवाज़ सुनी सुबह सब गांव वाले मिलकर समेली ले गए पर वहां से उन्हें वापस भेज दिया गया। घटना के तीसरे दिन सरपंच कमांडर लेकर दंतेवाड़ा गया। तीसरे दिन लाश को वापस लाये और चौथे दिन अंतिम संस्कार किया गया। सरपंच सुकेश कवासी (पुत्र उंगा, उम्र 27, पांचवी पास) ने बताया की कोसा नक्सल नहीं था वह पढ़ा लिखा भी नहीं था। उन्होंने बताया की फोर्स ने उन्हें 1 लाख का इनामी नक्सल बोलकर मार डाला।

नीरम में हुए एक आदिवासी महिला के साथ यौनिक हिंसा और हत्या 

नीरम गांव जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दंतेवाड़ा से गीदम चैक होते हुए सडक़ मार्ग के माध्यम से कसौली पारा से पगडंडी और उसके बाद नाव के द्वारा इंद्रावती नदी पार करते हुए पहले एकेली गांव और उसके बाद जो दूसरा गांव है वह नीरम है। पुलिस ने एक प्रेस रिलीज़ जारी की जिसमें उन्होंने घोषित किया कि 31 मई को इसी क्षेत्र में पायके वेको नाम की एक महिला नक्सली का मुठभेड़ में मृत्यु हुई।

घटना के संबंध में मृतिका के पिता, बुआ व अन्य ग्रामवासियों का बयान लिया 

वेक्का गुमड़ा (उम्र 45 साल, ग्राम नीरम, पंचायत सिरिंगेड़, थाना-बंगापाल, थाना भैरमगढ़ जिला- बीजापुर) ने बोला कि घटना रविवार का था। 30 मई 2021, उस रात को करीब 12 बजे जब हमारा पूरा परिवार खाना खाकर अपने घर में सो रहा था तभी मेरी बेटी पायके उम्र 18 साल अचानक से चिल्लाने लगती है कि मम्मी मुझे कुछ लोगों ने पकड़ लिया है। उस वक्त हमारे घर का बिजली बंद था लेकिन सौर उर्जा चलित बिजली की रौशनी घर में आ रही थी जिससे यह साफ-साफ देखा जा सके कि क्या हो रहा है। 

उस समय उसकी आवाज सुनकर हम लोग जग गये और देखा कि दो महिला पुलिस जिनका नाम जयो इस्ताम और मासे लेकाम था और जिनमें से एक को हम लोग पहचानते हैं जो हमारे पास के ही कुमेड़ गांव निवासी हैं। और डीआरजीएफ में काम करते हैं, उनके चंगुल से मेरी पत्नि और हम लोग छुड़ाने लगे लेकिन उक्त पुलिस वालों ने हमें धक्का दे दिया और हमारी बेटी पायके को घर से घसीटते हुए बाहर ले गये। मुझे घर में बंद कर बाहर से दरवाजा बंद कर दिये। हमने पुलिस वालों को हमारे बेटी को क्यों ले जा रहे हो पूछा तो कोई जवाब नहीं दिया और हमारे बेटी को घसीटते हुए ले गये। 

जांच टीम को मृतिका के पिता ने बताया कि उसने उन पुलिस वालों के सामने रोया और गिड़गिड़ाते हुए कहा था -‘मेरा बेटा पहले से दो साल से जेल में बंद है जिसका नाम राजूराम है और अब तुम लोग बेटे की तरह जो हमारी देखभाल कर रही है और एक मात्र सहारा है उसे मत लेकर जाओ हम बेसहारा हो जायेगें वही हमारा एक मात्र सहारा है। मेरी बेटी का शादी तय हो चुका था और शादी को केवल एक सप्ताह ही बचा हुआ था और पुलिस वालों ने उसे मार दिया। 

उक्त घटना के समय पुलिस वालों ने हमारे घर के टार्च वगैरह को भी तोड़ कर फेंक दिया ताकि हम उनके पीछे-पीछे ना जा सके। अगले दिन सुबह गांव के सरपंच मनकी को पूरे घटना के बारे में बताया उसके बाद बंगापाल थाना जाने पर पता चला कि हमारी बेटी को दंतेवाड़ा ले गये हैं जब हम दंतेवाड़ा थाना में पहुंचे तो वहां के पुलिस वालों ने बताया कि तुम्हारा बेटी तो नक्सली है और वह पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारी गयी है। इतना सुनते ही मुझे और गांव के लोगों को घोर आश्चर्य हुआ और पुलिस का साजिश और करतूत समझने में देर नहीं लगी और फिर हम लोग हाफते हुए अस्पताल में गये।

अस्पताल के कर्मचारियों ने हमारी बेटी के लाश दिखाये उसका हाथ पैर और शरीर का अंग कटा हुआ था जिसे एक प्लास्टिक के थैले में लपेट कर हमें दे दिये और वहां से अस्पताल की गाड़ी में हम लोगों को सीधे नीलगोड़ गांव के पास लाकर छोड़ दिये मृत शव को हम गांव वालों ने इकट्ठा होकर घर में आये। और उसका दाह संस्कार कर दिये। शव वाहन के लोगों ने हमें दो सौ रुपये देने को कहा तभी गांव के सरपंच के बोलने पर वे 100 रुपये में मान गये। और उसका दाह संस्कार कर दिये।

उसी गांव के निवासी एक महिला व पाईके के बुआ के बयान से पता चलता है कि पाइके को जब उठाकर ले जाया गया तब वो नाईटी पहनी हुई थी 31 मई के सुबह को जब गश्त में आए पुलिस व सुरक्षा बल नीरम से निकलकर पास के जंगल में बैठकर खाना खा रहे थे, तब बेडमा के तीन ग्रामीण एक बच्ची व दो बुजुर्ग महिलाएं जो रास्ते के पास थे ने देखा कि एक महिला का निवस्त्र लाश पड़ा था रास्ते में जब वे बाजार के लिए जा रहे थे। मृत शरीर पर चोट के निशान थे। उसके शरीर के कुछ हिस्से काटे गये थे। पुलिस वाले उन तीनों ग्रामीणों को देख नहीं पाये थे।

जब लाश को अस्पताल से वापस गांव लाया गया तब पाइके के परिवार वाले अंतिम संस्कार के लिए इकट्ठा हुए तब उन्होंने देखा कि पाइके के शरीर पर पोस्टमार्टम के निशान के अलावा और भी चोट व निशान थे। उनका एक स्तन पूरा कटा हुआ था, दोनों हाथों के चारों उंगली कटे हुए थे बांह पर भी कट के निशान थे। उनके गुप्तांग में काफी सूजन थी व कट व चोट के निशान थे, पाइके के बुआ ने कहा कि वो जिस हालत में थी वह मैं बता नहीं सकती गांव के और भी लोगों ने यह बात दुहराते हुए कहा कि वो जिस हालत में थी उसको हम बता नहीं सकते साफ दिखाई दे रहा था कि पाडक़े के साथ हत्या के पहले सामूहिक बलात्कार किया गया था।

मृतका के पिता गुमड़ा 

बयान दर्ज करते समय उपस्थित ग्रामीणों ने मृतका के पिता वेकामू गुमड़ा के साथ एक साथ स्वर मिलाते हुए कहा कि पुलिस वाले जब चाहे तब हमारे गांव सहित पूरे क्षेत्र में हम आदिवासियों को नक्सली केस में फंसा देते हैं। झूठा मूठभेड़ की कहानी गढ़ देते हैं और हमारे महिला का बलात्कार कर उनके स्तन को काटकर बहुत ही बर्बर घटनाओं को अंजाम देते हैं। क्या पुलिस वालों के लिए कोई भी कानून नहीं है। गांव वालों ने जांच टीम को कहा कि पुलिस वालों को थाना के भीतर ही रहना चाहिए और बिना लोगों के जरूरत और बिना बुलाये उन लोगों को थाने से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए तभी हम आदिवासियों को पुलिस के बर्बरता से मुक्ति मिलेगी। और हम लोग शंतिपूर्वक जीवन यापन कर सकेंगें।

सिलगेर गांव, सुकमा का एक संक्षिप्त परिचय

सिलगेर, सुकमा में सुरक्षा कैंप के विरोध में प्रदर्शन करते आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग 

सिलगेर गांव सुकमा जिले के जगरगुंड़ा थाना के अंतर्गत एक गांव है। साल 2011 के जनगणना के मुताबिक गांव की आबादी लगभग 500 है, नौकरी करने वाले 3 हैं जिनमें से सभी गोंड आदिवासी समुदाय के लोग हैं। गांव वालों से ली गयी जानकारी के अनुसार अब यह आबादी 580 है। गांव में कुल घर 97 हैं, नौकरी करने वाले 3 हैं (2 आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व एक जल प्रबंधक), स्टूडेंट्स कुल 32 हैं। गांव में बिजली नहीं ह। साल 2020 में सोलार प्लेट लगाया गया। गांव में कुल 15 हैण्ड पम्प है। गांव के लोग ज़्यादातर खेती पर आश्रित हैं व साल में एक बार धान उगा लेते हैं और बकरी व मुर्गे भी पालते हैं और उन्हें हाट में बेचकर पैसा कमाते हैं।

जंगल से लघु वन उपज बीनना उनकी आय का दूसरा प्रमुख स्रोत है। हर साल फरवरी और मार्च के महीने में जब मिर्ची तोडऩे का काम मिलता है, कई लोग आंध्र और तेलंगाना मज़दूरी के लिए कई दिन तक पैदल चलकर जाते हैं। वे महुआ के फूल तोडऩे के समय लौट आते हैं जिन्हें वे हाट में बेचते हैं। गर्मियों में वे तेंदूपत्ता तथा कोरसा तोडऩे का काम करते हैं। जिनकी ज़मीन पर कैंप को गैर कानूनी रूप में रातों-रात बिठाया गया। कह रहे थे कि इस साल वो धान या कोरसा की खेती कैंप के कारण नहीं कर पाए। और न हीं अपने जमीन पर स्थित महुआ पेड़ से महुआ तोड़ पाए। सिलगेर ग्रामीणों को किसी भी शासकीय योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। जैसे कि प्रधानमंत्री आवास योजना, किसान सम्मान निधी योजना, स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय, साफ़ पीने का पानी आदि तो फिर सवाल यह है कि कैसे विकास की बात कर रही है सरकार?

सिलगेर सुकमा व बीजापुर के सीमा के करीब है और बीजापुर जिला मुख्यालय सुकमा जिला मुख्यालय से ज़्यादा नज़दीक पड़ता है। सिलगेर पहुंचने के लिये जो सडक़ जाती है, वो बीजापुर और बासागुड़ा के बीच पक्की सडक़ को आगे बढ़ाकर बनाई गयी है। यह वही सडक़ है जो सारकेगुड़ा से होते हुए गुजरती है, जहां सीआरपीएफ ने 2012 में 17 लोगों को मार डाला था। जिनमें 7 बच्चे भी शामिल थे। ये लोग उस समय बीज उत्सव मना रहे थे। ‘इस नरसंहार के एक हफ्ते बाद सारकेगुड़ा में नया कैंप स्थापित किया गया और उसके साथ ही बीजापुर और बासागुड़ा के बीच पक्की सडक़ बनाई गई। 10 साल बीत चुके और सिलगेर के पास सरकार व शासन का चेहरा केवल सुरक्षा कैंप के रुप में दिखाई देता है, लेकिन वहां के पढ़े-लिखे युवा लोग जो महामारी के चलते पिछले दो साल से गांव में ही हैं यह आंकड़े उन्होंने इकट्ठे किए हैं। 17 मई के गोलीकांड के बाद आंदोलन में शामिल युवा साथियों ने अपना एक मंच का गठन किया मूलवासी बचाओ मंच इस मंच का मुख्य उद्देश्य है कि आदिवासी लोगों के हक़ व जल जंगल जमीन के सुरक्षा के लिए काम करना। मंच के साथियों ने इन आँकड़ों को भेजा है। 

सलवा जुडुम के समय से अब तक इस इलाके के कई गांव जलाए गए हैं, कई घरों को लूटा गया है, कई ग्रामेणों को फर्जी मुठभेड़ों में मारा गया है व कई महिलाओं का पुलिस व सुरक्षाकर्मियों द्वारा बलात्कार किया गया है। अप्रैल 2021 में माओवादियों के मुताबिक भारत का पहला ड्रोन हमला इसी इलाके के कुछ ही दूरी पर पामेड़ ब्लॉक में किया गया। बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक सुन्दर्राज ने इस बात को नकारा है, मगर इस घटना से कुछ ही महिने पहले ऐलान हुआ था कि सुकमा, बीजापुर, नरायणपुर व दंतेवाड़ा में नए ज़्यादा ताकतवर ड्रोन सीआरपीएफ द्वारा तैनात किये जाएंगे।

घटना के संबंध में प्रभावित ग्रामीणों और आंदोलनकारियों के कथन

मुचाकी लक्ष्मी (पति बुदरू उम्र 35 ग्राम सिलगेर) ने जांच दल को बताया कि ग्राम सिलगेर में खोले जा रहे सीआरपीएफ कैम्प के विरोध में किए जा रहे शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन में 17 मई को मेरे चाचा उईका पाण्डु पिता उईका रामा आयु लगभग 14 वर्ष निवासी ग्राम तिम्मापुर भी अपने गाँववालों के साथ शामिल हुए थे और घटना समय लगभग 12 बजे सीआरपीएफ व डीआरजी पुलिस बल के द्वारा आँसू गैस छोड़े व गोलीबारी किए जिससे मेरे चाचा उईका पाण्डु के सिर में गोली लगी। गोली लगने के कारण उईका पाण्डु ज़मीन पर गिर गया। जब गांव वाले उईका पाण्डु के पास जा रहे थे तब डीआरजी पुलिस बल के लोग उईका पाण्डु को खींचते हुए ले गए। कुछ समय बाद गोली लगने के कारण उनकी मृत्यु हो गयी।

यह जानकारी उसी दिन उईका पाण्डु की मृत्यु की जानकारी बाड़से देवा जो रिश्ते में मेरे मामा लगते हैं ने वापस सिलगेर गांव आकर मुझे बताया। 12 मई को कऱीब 150 डीआरजी एवं सीआरपीएफ पुलिस बल के सदस्य सिलगेर गांव को चारों तरफ़ से घेर लिए। सारे पुलिस बल बंदूकों एवं लाठियों से लेस थे। एक-एक ग्रामीण को पुलिस द्वारा लाठियों से मार पीट किया गया। लाठियों का वार शरीर के सभी अंगों पर किया गया। कई ग्रामीणों के सिर पर भी लाठी से मारा गया। यह मारपीट की कार्यवाही दिनांक 12 मई को सुबह 8से 9 बजे तक लगातार चलती रही। लगभग 17'8 लोगों को गम्भीर चोटें आई हैं। आंदोलन के शुरुआत से लेकर 16 मई तक रोज़ सीआरपीएफ एवं डीआरजी पुलिस बल के द्वारा ग्रामीणों पर रोज़ लाठी चार्ज किया गया जिससे कई ग्रामीणों को गंभीर चोटें आयीं है। कुछ ग्रामीणों को उनके सिर पे लाठी से वार किया गया। एक ग्रामीण जिसका नाम कुंजाम उंगा का सर फट गया था। यदि उसको समय पर इलाज नहीं किया गया होता तो निश्चित रूप से उसकी मृत्यु हो जाती।

कोरसा सोमा (पिता कोरसा मुक्का उम्र 60 वर्ष, ग्राम सिलगेर) यह कि कैम्प जिस भूमि पर बना हुआ है, वह मेरे और मेरे परिवार की निजी भूमि है। इस भूमि पर मेरे और मेरे परिवार के द्वारा कृषि कार्य किया जाता है। हम इस भूमि पर धान, मक्का, कुटकी आदि फसल का उत्पादन करते आये हैं। इसी से मेरे और मेरे परिवार का जीवनयापन होता है। इस भूमि पर शासन के द्वारा राजस्व का पट्टा जारी हुआ है। पट्टे के अनुसार इस भूमि का खसरा क्रमांक 658, 663 एवं 660 है जिसका कुल रकबा लगभग 5 एकड़ या डेढ़ खाड़ी है। उक्त भूमि पर मेरे पूर्वजों एवं परिजनों द्वारा कई पीढि़़य़ों से कृषि कार्य किया जाता रहा है।

कैम्प की स्थापना के कारण परिवार के आजीविका का साधन ख़त्म हो गया है एवं परिवार में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी है। मेरे जानकारी के अनुसार आंदोलन स्थल पे कोई भी नक्सलवादी उपस्थित नहीं था। आंदोलन में उपस्थित सभी लोग सामान्य ग्रामीण एवं किसान थे। पुलिस के द्वारा की गई लाठी चार्ज की कार्यवाही, आंसू गैस की कार्यवाही एवं गोलीबारी पूर्णरूप से एक तरफा थी। ग्रामीणों के द्वारा किसी भी प्रकार की हिंसात्मक जवाबी कार्यवाही नहीं की गयी है। आंदोलन के शुरुआत से लेकर अब तक शांतिपूर्ण ढंग से संविधान पर आस्था रखते हुए आंदोलन करते आए हैं।

उईका बसंती (पिता लखमु आयु 14 वर्ष निवासी ग्राम तिम्मापुर) दिनांक 12 मई को सम्पूर्ण ग्रामवासी जब कैम्प के अधिकारियों से शांतिपूर्ण बात करने गए थे तब गांव वालों के बिना किसी जानकारी के कैंप स्थापना से सम्बन्धित सवालों का कोई जवाब नहीं दिया गया बल्कि ग्रामीणों के ऊपर बल प्रयोग करते हुए डराया धमकाया गया। धीरे धीरे इस घटना की जानकारी आसपास के गांव के ग्रामीणों को भी हुई जिससे अन्य गाँव के ग्रामीण भी सिलगेर गांव के ग्रामीणों के साथ आ गए और इस अवैधानिक कैंप स्थापना के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत हो गयी।

13 मई तक सिलगेर गांव के अलावा भी अन्य गांव के ग्रामीण इस आंदोलन में भाग लेने आ गए क्योंकि उन्हें भी यह डर सताने लगा कि जिस तरह से सिलगेर गांव में अचानक अविश्वसनीय तरीक़े से रातों-रात सीआरपीएफ कैम्प की स्थापना कर दी गयी है, उसी तरीक़े से आसपास के अन्य गांवों में भी कैम्प की स्थापना की जाएगी।

इस तरह से ग्राम सिलगेर, मंडी मरका, चिन्ना तर्रेम, पेद्दा गेल्लुर, चिन्ना गेल्लूर, वेदरी, दरभा, जोन्ना गुड़ा, जिराम, तिमापुरम, कुदेड़, मेसुम, गोंदोड, उरसाम, टोलोड़, बैनपल्ली, अवटपल्ली, कोरसागुडा, सारकेगुड़ा, कोतागुडा बुडगिनपल्ली, पेगड़ी पल्ली, सिपुर बटी, बंडागुडा, गुंडाम, सुटभाई, कोंडापल्ली, अल्लूम, तुम्माल, पुवार, बटूम, जभागटा, मीनागटा, चेनेतिपुराम, पुलानपाड़, सुरपन, गोटोड़, इकुम, बोटेन, उकुड़, दल्ला, मलीपाड़, बड़ातर्रम एक राय होकर सिलगेर कैम्प के सामने कऱीब आठ से दस हज़ार की संख्या में आदिवासी कैम्प के सामने इक_ा होकर धरना प्रदर्शन और नारेबाज़ी करते हुए अपनी मांगों को शांतिपूर्ण तरीके से रखे।

मृतक उईका पाण्डु

बाड़से देवा (पिता मांगडु आयु 17 वर्ष निवासी ग्राम सिलगेर) दिनांक 17 मई को रोज़ की तरह सम्पूर्ण गांव के ग्रामवासी सुबह 8 बजे शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए एकत्रित हुए। इस तिथि को पुलिस की मारपीट की कार्यवाही वीभत्स रूप ले ली। सीआरपीएफ के द्वारा डीआरजी पुलिस बल को सामने में रख कर ग्रामीणों से मारपीट करने की योजना बनायी गयी। डीआरजी के पुलिसबल गुंडो की तरह व्यवहार करते हैं। वे सामान्य तौर पर कम पढ़े लिखे एवं आत्मसमर्पित नक्सली होते हैं। जो क़ानून की परवाह नहीं करते। उनको सिर्फ़ ग्रामीणों को मारपीट करने आता है। 

17 मई को डीआरजी बल के सदस्यों के नेतृत्व में ग्रामीणों के साथ आरपार की आखिऱी लड़ाई लडऩे की उद्देश्य से पूरे आदिवासियों पर लाठीचार्ज किया गया। इस लाठीचार्ज के कारण ग्रामीण बहुत नाराज़ हो गए। दोपहर 12 बजे के बाद से पुलिस बल के द्वारा ग्रामीणों पर आंसू गैस का उपयोग 2 घंटा तक किया गया। आंसू गैस के उपयोग ग्रामीणों के आंख में एवं चमड़ी में अत्यधिक जलन महसूस होने लगी। आंसू गैस प्रयोग करने के बाद ग्रामीणों में भगदड़ मच गयी। और वो इधर उधर भागने लगे। जब ग्रामीण इधर उधर भागने लगे तो पुलिस उनको दौड़ा दौड़ा के उन पर अंधाधुंध फायरिंग करने लगी। गोली चालन आधा घंटे से भी अधिक चला।

धरनास्थल पर तीन ग्रामीण उईका पाण्डु पिता रामा उम्र लगभग 14 साल ग्राम तिम्मापुर, उरसा भीमा उम्र लगभग 30 साल ग्राम गुंडम एवं कोवासी वागा पिता हड़मा उम्र लगभग 35 साल ग्राम सुटभाई गुंडम के गोलीबारी के कारण मौके पर ही मृत्यु हो गयी। गोलीबारी के कारण लगभग 19 ग्रामीण को गम्भीर चोटें आयी है एवं लगभग 296 लोगों को अलग अलग दिनों में किए गए लाठीचार्ज के कारण गम्भीर एवं सामान्य चोटें आयें हैं। 

बांड़ागुड़ा की गर्भवती महिला सोमली पुनेम को दिनांक 16मई को किए गए लाठी चार्ज से पीठ कमर रीढ़ के हड्डी पर गम्भीर चोटें आयी थी। लाठी चार्ज के कारण एवं आंसू गैस के कारण हुए भगदड़ में भी उस महिला को चोट आयी थी। पुलिस बलों द्वारा तनाव पूर्ण स्थिति के कारण और सडक़ मार्ग में आवाजाही की अवरोध के कारण मृतिका सोमली का प्रारम्भिक इलाज गांव स्तर में जड़ी बूटी के माध्यम से किया गया और दिनांक 24 मई को उक्त चोटों के कारण मृत्यु हो गयी।

कुड़म जोगा पिता माडक़ा आयु लगभग 40 वर्ष निवासी ग्राम तुमालपाड़ ने बताया कि मैं 17 मई को सिलगेर धरना स्थल के प्रथम पंक्ति में ही पुलिस की गोली से मर गए साथी कवासी वागा के साथ ही थी। धरना में पुलिस वालों ने आंसू गैस के गोले छोड़े और उसके बाद अंधाधुंध फ़ायरिंग चालू कर दिया जिसमें मैंने देखा कि मेरे साथी कवासी वागा के सीने के दाहिने तरफ़ के थोड़ा नीचे गोली लगी। तभी उसने मुझे बताया कि मुझे बुलेट लग चुकी है। और मैं नहीं चल सकता। यह कहते हुए वहीं तड़पते हुए उसकी जान चली गयी।

माड़वी भीमा पिता जोगा आयु लगभग 18 वर्ष निवासी ग्राम टेकलगुड़ा ने बताया कि 17 मई को मैं सिलगेर के धरना स्थल में उपस्थित था। उस दौरान पुलिस द्वारा गोलीबारी के कारण पुलिस की गोली मेरे बाएं कंधे में पीठ की तरफ़ से गोली घुसते हुए सामने तरफ़ निकल कर पार हो गया। तब मुझे ज़ोर का झटका लगा और वहीं पर गिर पड़ा और तभी थोड़े बाद में वहीं से पुलिस वालों ने मुझे पकडक़र बासगुड़ा थाना में ले आए जहां से मुझे बीजापुर जिला अस्पताल में ले गए और उपचार के लिए मैं लगभग एक महीना तक भर्ती रहा। मेरे शरीर पर गोली के निशान अब भी मौजूद है। 

घटना से संबंधित तथ्य व अवलोकन

सिलगेर के आदिवासी ग्रामीणों द्वारा दिनांक 12 मई को कैम्प में अधिकारियों से बातचीत करने गए एवं उनसे जानकारी चाही गयी कि अचानक से कैम्प की स्थापना की ज़रूरत क्यों पड़ी? ग्रामीण इस बात पर नाराज़ थे कि कैम्प की स्थापना एक तरफ़ा और बिना कोई सहमति की प्रक्रिया और अनावश्यक रूप से किया गया है और कैम्प के स्थापना से ग्रामीणों में भय व्याप्त हो रहा है। उक्त कैम्प की स्थापना ग्रामीणों की निजी भूमि एवं ग्राम सिलगेर की सामुदायिक भूमि को रातों-रात कब्जा कर की गयी है।

सिलगर गांव की शासकीय जमीन जहां पर सैन्य शिविर का निर्माण किया जा रहा है, वह भूमि गांव के सामुदायिक उपयोग का हिस्सा है जिसका उपयोग ग्रामीणों के द्वारा निस्तार एवं वनोपज संग्रहण के लिए किया जाता रहा है। कैम्प की स्थापना से ग्रामीण सार्वजनिक निस्तार की सुविधा से भी वंचित हो गए हैं। उक्त कैम्प की स्थापना सडक़ के किनारे की गयी है। सामान्य ग्रामीण जो इस रास्ते से आना जाना करते हैं, उनको कैम्प के द्वारा अनावश्यक पूछताछ एवं प्रताडि़त किया जा रहा है।

कैम्प की स्थापना के सम्बंध में स्थानीय अदिवासियों के साथ परामर्श की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। न तो कोई ग्राम सभा आहुत की गयी है और न ही किसी तरह का कोई प्रस्ताव प्रस्ताव पारित किया गया है। यदि कोई ग्राम सभा प्रस्ताव कैम्प के समर्थन में सरकारी रिकार्ड में हो तो वो वह प्रशासन एवं पुलिस के द्वारा गुपचुप तरीक़े से की गयी फर्जी कार्यवाही है।

और इस सम्बंध गांव के लोगों के बीच न तो कोई चर्चा की गयी है और न ही किसी तरह का कोई सहमति लिया गया है। उक्त सरकारी दमन, पुलिसिया बर्बरता और गोलीकांड की घटना के सम्बंध में जिम्मेदार सरकारी कारिंदों के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही के लिए सोमली के पति मनीष पुनेम, मृतक के परिजन एवं अन्य ग्रामीणों के द्वारा जागरगुंडा थाना सहित महामहिम राज्यपाल, माननीय मुख्यमंत्री एवं जिलाधीश बिजापुर को प्रेसित किया गया है जिस पर यह रिपोर्ट लिखे जाने तक तक कोई सार्थक कार्यवाही नहीं की गयी है।

सिलगेर मामले में सरकार को पीडि़त आदिवासियों के खिलाफ हुए बर्बर गोलीकांड पर संज्ञान लेते हुए एक प्रथम सूचना पत्र पुलिस, अर्धसैनिक बलों और दोषी अधिकारियों के खिलाफ़ दर्ज किया जाकर कार्यवाही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

सत्तारूढ़ कांग्रेस की सरकार ने जो प्रतिनिधियों का टीम गठित किया था, इसमें सरकार द्वारा यह कहा गया था कि वो सरकारी टीम जाकर वहां घटना से संबंधित तथ्य एकत्र करेगी लेकिन हुआ इसके उलट ही वह टीम वहां पहुचकर आंदोलन को खत्म करने के लिए नसीहत और समझाईस देने लगी आंदोलनकारियों द्वारा लिखित आश्वासन की मांग करने पर उन्हें वह भी नहीं दिया गया।

पुलिस ने परलागट्टा गांव के 7 लोगों को एक रात पकडक़र रखा जब वे लोग आंदोलन में शामिल होने आ रहे थे। उनको कहां रखा गया वो पता लगाना मुश्किल हो रहा था। यह लोग मूलवासी बचाओ मंच के एक सदस्य के ही निवासी थे और घोर चिंता यह थी कि उन्हें जेल न भेजा जाए। 

सिलगेर गोलिकांड में गंभीर रूप से घायल 5 लोग पुनेम सुक्कू ग्राम पुसबाका, डोडी आयतु ग्राम - गुटपेल्ली, भीमा मंडावी ग्राम तेकलगुड़ा, मुचाकी गंगा ग्राम तेकलगुड़ा व सोमडी पोडियाम ग्राम मारोडबाका - तब अस्पताल में भरती थे। इसमें से 3 को गोली लगी थी व एक का तत्कालिक सर्जरी भी करना पड़ा था। इन 5 लोगों के परिवार वालों से खबर मिली कि उनको 4-5 दिन पहले ही डाक्टरों ने डिसचार्ज करने का सुझाव दिया था मगर पुलिस-प्रशासन के आदेश पर उन्हें वहीं रखा जा रहा था। 

सामजिक कार्यकर्ताओं का एक दल जो 7 जून को पहुंचने की कोशिश कर रहे थे को पुलिस-प्रशासन द्वारा रोका गया। आंदोलनकारी इस अपेक्षा में थे कि वे रुकेंगे और अगले दिन के आम सभा में दोबारा आने की कोशिश करेंगे। मगर 8 तारीक को पता चला कि वो दल वापस रायपुर निकल गई थी व राज्यपाल से मिलने जा रहे थे। बाद में यह भी पता चला कि वे मुख्यमंत्री से भी उसी दिन मुलाक़ात करने वाले थे।

तब भी वे चाह रहे थे कि कम से कम दल के कुछ साथी कैसे भी करके वापस तर्रेम के सभा स्थल पर आए उनका कहना था कि वे भी पुलिस प्रशासन पर दबाव डालेंगे व पत्रकारों के साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी आतें तो ताकत मिलती। मगर जब दल के सदस्यों से पता चला कि वे राज्यपाल व मुख्यमंत्री से मिलेंगे और आम सभा के लिये लौटना संभव नहीं होगा तब फिर मंच के सदस्य ने अपने मांगों को फोन मैसेज द्वारा भेज कर दल से निवेदन किया कि कम से कम वे उनके लिये भी मुख्यमंत्री व राज्यपाल से मुलाक़ात करने का समय की मांग करें। 

इन सबके चलते 8 मई को आम सभा न करके आंदोलनकारी बीजापुर के पुलिस व प्रशासन से तर्रेम में मुलाक़ात व बातचीत करने गए। बीजापुर के कलेक्टर रितेश कुमार, एसपी लोचन कश्यप के साथ समाज के कुछ साथियों के मौजूदगी में बातचीत हुई। पुलिस-प्रशासन की मुख्य मांग थी कि आंदोलन समाप्त किया जाए व सडक़ खाली किया जाए।

उन्होंने महामारी के कानून के बल पर कार्यवाही की धमकी देकर बार बार लिखित में आंदोलन समाप्ति की शपथ मांगी। मूलवासी बचाओ मंच के सदस्य जो आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रहे थे ने स्पष्टता से कहा कि पहले उनके आम सभा में सामाजिक कार्यकर्ताओं व पत्रकारों को आने दिया जाए, उसके बाद जनता से बात करके वे महामारी को देखते हुए धरना पर बैठे लोगों की संख्या कम करके कोरोना के नियमों का पालन करने को तैयार थे मगर उनके कुछ शर्त यह भी थे कि -परलागट्टा से पकडे गए 7 लोगों को तुरंत छोड़ा जाए।  अस्पताल में घायल लोग जिनका डिसचार्ज हो चुका था उनको तुरंत अस्पताल से छोड़ा जाए।

जब अस्पताल में डिस्चार्ज हो जाने कि बात कही गई तो बीजापुर कलेक्टर ने गुस्से में बात खारिज करते हुए कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता, उनका ईलाज चल रहा होगा इसीलिये उनको घर नहीं भेजा होगा। लेकिन उन्होंने कहा कि वो पता करेंगे और यदि डिस्चार्ज हो चुका है तो उन्हें घर ज़रूर भेजा जाएगा। एसपी ने भी 7 लोगों को छोडऩे का पूरा आश्वासन दिया। अंत में तय हुआ कि अगले दिन जनता से बात करके वे वापस लौटेंगे, और अगले धरना व अपने शर्तों को आगे कैसे ले जाया जाये वो बात करेंगे और लिखित में अपना मांगपत्र देंगे। 

8 जून को बातचीत करने के बाद जब लौटे तो मंच के सदस्यों को पता चला कि मुख्यमंत्री व राज्यपाल उनसे मिलने को तैयार थे - जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुलाकात की थी उनसे यह जानकारी मिली कि बीजापुर के विधायक के साथ अगर आते तो मुख्यमंत्री उनसे मिलने को तैयार थे। उनकी राय यह थी कि वे जल्द से जल्द उसी दिन रायपुर के लिये रवाना हो।

मंच के सदस्य का कहना था कि वे तुरंत नहीं निकल पाएंगे। जनता से बात करके ही जाएंगे व आम सभा करके ही, परलगट्टा के 7 लोगों को व अस्पताल में भरती लोगों को छुड़वाकर ही निकलने का सोच सकते हैं। उस रात जब जनता से बात हुई तो लोग भी यही चाह रहे थे कि सभा के बाद कुछ समय के लिये वे घर लौटे व छोटे समूह में बारी बारी में लौटकर धरना दें। बारिश शुरू हो गई थी और कुछ लोगों को नदी पार करके अपने गांव लौटना पड़ता। कुछ लोग बीमार भी थे व कईयों को खेती की भी चिंता थी। इसके अलावा परलगट्टा के लोग, मंच के सदस्य व अस्पताल में भरती घायलों के परिवार वाले चाह रहे थे कि जो भी हो जाए सबसे प्रमुख काम हाल का है उन सब को छुड़वाकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना। 

9 जून को कुछ पत्रकार सभा स्थल पहुंचे व आम सभा की गई। सभा को मूलवासी बचाओ मंच के सदस्यों ने संचालित किया। उन्होंने अपने मांगपत्र को पढ़ा और उस पर जनता की सहमति ली। इसके बाद मंच के कुछ सदस्य एक बार फिर बहुत दबाव व कोशिश के बाद पुलिस-प्रशासन से बात करने तर्रेम पहुंचे। उन्होंने कलेक्टर को अपना मांगपत्र सौंपा व एक बार फिर से एसपी ने भी 7 लोगों को छोडऩे का पूरा आश्वासन दिया और कलेक्टर ने अस्पताल में घायलों के डिस्चार्ज का आश्वासन दिया।

मंच के सदस्यों पर फिर से आंदोलन खात्मा का दबाव डाला मगर वे अपने निर्णय पर डटे रहे - सभा समाप्त हुई है, धरना कम संख्या में सडक़ को खाली कर महामारी के नियमों का पालन करते हुए जारी रहेगा व उनको मुख्यमंत्री से मिलने का आश्वासन मिला है तो वो मिलकर आएंगे यदि मुख्यमंत्री से कुछ ठोस पहल नहीं की जाती तब वे एक बार फिर से भारी संख्या में सडक़ पर उतरेंगे। उन्होंने रायपुर तक के लिये सुरक्षा की मांग भी की। 

जब तक वे सभा स्थल वापस लौटे काफी जनता निकल चुकी थी, व ट्रैक्टर में बैठ गये थे पर ट्रैक्टर में डीजल की ज़रूरत थी। मंच के सदस्य अंत तक जनता के साथ थी उनका कहना था कि मुख्यमंत्री व विधायक से बाद में ही बात कर पाएंगे पहले उनकी जिम्मेदारी थी कि सभी लौटते हुए जनता को सुरक्षित रवानगी करना।

9 जून के शाम को यह सब करने के बाद मंच के सदस्य बीजापुर के लिये रवाना हुए ताकि वे उन 7 पकड़े गए गांववालों व घायल लोगों को अस्पताल से छुड़वाकर मुख्यमंत्री व राज्यपाल से मिलने रायपुर के लिए रवाना हो सकें।

9 जून के देर रात तक बासागुडा थाने में इंतज़ार करने के बावजूद उन 7 लोगों से नहीं मिल पाए। अगले दिन बीजापुर में ही उनको छोड़ा गया। बाद में पता चला कि पुलिस ने उनसे ज़बर्दस्ती यह बुलवाया कि माओवादियों ने उनको कहा कि अगर वे आंदोलन में नहीं जाते तो उनको 500 रुपये जुर्माना भरना होगा और उन्हें खेती नहीं करने दिया जाएगा। और इसका पुलिस ने ज़बर्दस्ती बुलवाकर वीडियो रिकोर्डिंग किया जबकि सभी लडक़ों ने साफ़ साफ़ कहा है कि यह पूरी झूठ है और वे अपने से ऐसा नहीं कहना चाहते थे कि वे आंदोलन में अपने मन से ही स्वतंत्र रूप से आ रहे थे।

इस पर मंच के सदस्यों का कहना था कि ‘बार बार पुलिस व प्रशासन इसे माओवादी आंदोलन बताने की कोशिश कर रहा है। आंदोलन को गलत साबित करने के लिए पुलिस का ऐसा गैरकानूनी तरीक़ों का इस्तेमाल करने की कड़ी निंदा करते हैं। इस लोकतांत्रिक आंदोलन को माओवादी आंदोलन का नाम देने की जो लगातार प्रयास है पुलिस प्रशासन का वो बहुत ग़लत है।’

8 व 9 जून को मीडिया में आंदोलन समाप्ति के झूठे खबरें आने लगे जिससे मूलवासी बचाओ मंच के सदस्य बहुत निराश थे। साथ में आदिवासी सामजिक कार्यकर्ता व नेत्री पर आंदोलन खात्मा के गलत आरोप मीडिया में आने लगे जिसकी निंदा मूलवासी मंच के सदस्यों ने किया। 

10 मई को मंच के कुछ सदस्य समाज के लोग व सामाजिक कार्यकर्ता के साथ बीजापुर अस्पताल गये व घायलों से मुलाक़ात की। पता चला कि उनको ठीक से खाना नहीं मिल रहा था व कुछ दिन पहले ही उनको डिस्चार्ज के लिए घोषित किया गया। वहां के एक डाक्टर ने भी सामाजिक कार्यकर्ता से इस बात की पुष्टी की और कहा कि प्रशासनिक कार्यवाही के कारण नहीं छोड रहे हैं। 

इसी बीच विधायक से भी बात करके मुख्यमंत्री से मुलाकात की बात हो रही थी। विधायक तैयार थे व कई प्रयास के बाद भी उनको मुख्यमंत्री के कार्यालय से रायपुर आने का आदेश नहीं मिला। सामाजिक कार्यकर्ताओं, जिन्होंने मुख्यमंत्री से मिलकर समय लिया था, उनसे भी संपर्क व निवेदन के बावजूद आखिर में मंच के सदस्यों को खबर मिली कि 12 जून को मुख्यमंत्री उनसे वीडियो कोनफरेंस से मिलेंगे। इस पर मंच ने बयान दिया कि मुख्यमंत्री ने मंच के सदस्य व पीडि़त परिवार और प्रभावित किसान से मिलने का आश्वासन दिया है लेकिन अभी अचानक से कहा गया है कि कोरोना के चलते वे हमें केवल वीडिओ कॉन्फ्रेन्स पर मिलेंगे कलेक्टर ऑफिस में एक टीवी पर।

हम इस खबर से बहुत ही निराश है और हमारे मन में यह सवाल है कि जब वो सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिल सकते थे तो हम आदिवासी जिनकी ज़मीन जा रही है, पीडि़त परिवार जिन्होंने अपनों को पुलिस के गोलिकांड में खोया है हमसे आमने - सामने क्यों नहीं मिलना चाहते हैं?

12 जून को विडियो कानफ्रेंस में मंच के 7 सदस्य, गोलीकांड के पीडि़त परिवारों से 2 सदस्य, 2 भूमिमालिक जिनके निजी ज़मीन पर कैंप डाला गया, समाज के प्रतिनिधि, बीजापुर व सुकमा दोनों जिलों के कलेक्टर व एसपी, बीजापुर के विधायक विक्रम मंडावी, सांसद दीपक बैंज, बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी व बेला भाटिया उपस्थित थे। पीडितों ने भी संक्षिप्त में अपनी बात रखी व मंच के 2 ही सदस्यों को बोलने का मौका मिला, उन्होंने अपनी मांगपत्र पढक़र भी सुनाई।

मुलाकात लगभग डेढ़ घंटे की थी जिसमें ज्यादा समय मुख्यमंत्री ने अपने योजना व विकास के लिये किये गये पहल को पढक़र सुनाया। उन्होंने मौखिक वादा दोबारा दिया है कि वे मंच के सदस्यों से रायपुर में भी मिलने को तैयार है लेकिन अब तक यह संभव नहीं हो सका है। 

रिपोर्ट में बताया गया है कि इन गलत आरोपों को भूमकाल समाचार के कई वीडियो में प्रकाशित की गई हैं। इनमें से एक वीडियो में स्मारक तक लोगों की रैली का तस्वीर इस्तेमाल कर लिखा गया कि लोग घर वापस लौट रहे हैं। जब यह बात उनसे कही गयी तो उनका कहना था कि वो फोटो केवल प्रतीकात्मक था, उसको वो बाद में बदल देंगे। 

मीटिंग में गोलीकांड पर अपनी सहानुभूति व दुख जताने के बाद भी, व लोगों की कैंप से होने वाले तमाम परेशानियों को सुनने के बावजूद, मुलाक़ात के ठीक 3 दिन बाद राज्य सरकार ने दावा किया कि वह नक्सलियों का गढ़ माने जाने वाले तेलंगाना बॉर्डर की ओर जाने वाली बीजापुर जगरगुंडा रोड के आखिरी 15 किलोमीटर के छोर में तीन नए पुलिस कैंप स्थापित करने की अपनी योजना पर आगे बढ़ रही है। शायद आंदोलनकर्ता हमेशा जानते थे कि उनके समस्या का समाधान मुख्यमंत्री से मिलने से मिटने वाली नहीं  है। शायद इसीलिये उन्होंने उन दिनों में भी बाकी चीज़ों को और प्राथमिकता दी।

इस वीडियो कोन्फरेंस के बाद ‘मूलवासी बचाओ मंच’ ने अपना प्रेस विज्ञप्ति जारी किया जिसमें उन्होंने कहा कि - ‘मीटिंग में बहुत लोग बैठे थे और सिलगेर के बारे में थोड़ी ही बात करके बात बस्तर के विकास का बन गया। मुख्यमंत्री ने खुद अपने योजनाओं को काफ़ी देर तक पढ़ के सुनाया। हम बिलकुल विकास के खि़लाफ़ नहीं है। मगर विकास के नाम पर हम अपने अधिकार, अपने जल जंगल ज़मीन व अपने जान को नहीं खोने देंगे। हम मुख्यमंत्री से सुविधाओं के बारे में नहीं बल्कि सिलगेर आंदोलन की मांगों को लेकर व पुलिस द्वारा मारे गए ग्रामीणों के लिए न्याय के बारे में मिलकर बातें रखना चाहते हैं।’

इस प्रेस विज्ञप्ति का फैलाव को कुछ सामीजिक कार्यकर्ताओ द्वारा मीडिया व अन्य वौट्सएप गु्रस में रोका गया। उनको मंच के एक सदस्य ने फोन पर कहा था कि इसको फैलाने से थोड़ी देर रुक जाओ। मंच के उसी सदस्य ने जांच टीम को बताया कि उन्होंने कुछ घंटो के लिये विज्ञप्ति रोकने को कहा था व अगले दिन उन्होंने वापस फोन लगाकर कहा कि अब इस प्रेस विज्ञप्ति को फैलाया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि नेटवर्क ना होने के कारण से वे उनको और पहले फोन नहीं लगा पाए। लेकिन इस दूसरे फोन काल की जानकारी उन वाट्सएप गु्रप में नहीं डाला गया जहां पिछले दिन फैलाव से रोकने की बात डाला गया। इस कारण से इस विज्ञप्ति को लेकर मीडिया व सामाजिक संगठनों में भ्रम पैदा हुआ।

मंच के सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी के तमाम कोशिशों के बावजूद 12 जून तक घायल लोगों को छुड़वाया नही जा सका। बीजापुर व सुकमा के पुलिस प्रशासन ने एक दूसरे को जिम्मेदारी ठहराने की कोशिश की। मंच के सदस्यों ने कहा -‘हमने दोनों दिन कलेक्टर व एसपी से कहा की उनके परिवार वाले ने उनसे बात की है और उन्होंने साफ़ कहा की इलाज ख़त्म हो चुका है व कोई दवाई भी नहीं चल रही है और उनसे डाक्टरों ने कहा है कि वे घर जा सकते हैं। हमारी बात को ख़ारिज करके कलेक्टर ने कहा ऐसा हो ही नहीं सकता। 12 जून को दिन भर से कोशिश के बावजूद भी उनको डिस्चार्ज नहीं किया गया। एसपी आईजी, कलेक्टर सब से बात हुई।

कलेक्टर का कहना था कि- ‘3 दिन लगेंगे। जब उनका इलाज हो चुका है और डाक्टर भी यह कह रहे हैं तो उन्हें क्यों नहीं छोड़ा जा रहा है?’ उसी बीजापुर कलेक्टर ने 12 जून तक भी कहा कि 3 और दिन लगेंगे। मंच के सदस्यों ने कहा उन्होंने तय कर लिया था -‘हम उनके बिना बीजापुर नहीं छोड़ेंगे। पुलिस प्रशासन व सरकार से शांतिपूर्वक वार्ता करके पूरी तरह सहयोग व आपसी समझ के साथ जब हम चल रहे हैं तो ऐसा धोखा क्यों दे रहें हैं? विधायक व सांसद सदस्यों तक भी मदद के फोन काल गये आखिर में 13 जून को उनकी डिस्चार्ज की प्रक्रिया शुरू हुई।

डिस्चार्ज के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने हवा से उढ़ते एक कागज़ को देखा जिसपर कुछ लिखा नहीं था मगर उसपर अंगूठा का निशान था, फिर घायलों से पता चला कि उनके दस्तखत को कोरा कागज पर लिया गया था। उनके व मंच के सदस्यों के दबाव से बीजापुर के टीआई व एसडीएम ने घायलों का लिखित बयान तत्काल वहां पर ही लिया व पढक़र सुनाने के बाद ही उनके दस्तखत करवाए गए। मगर चूंकि कोरा कागज पर पहले से ही चुपचाप दस्तखत लिया गया था। मंच के सदस्य व सोनी सोनी को आशंका है कि ऐसे और दस्तखत किये गये कोरे कागज हो सकते हैं जो वो नहीं देख पाए। 

जाँच दल का विश्लेषण

बस्तर के आदिवासियों के लिये विशालकाय चौड़े सडक़ व सुरक्षा कैंप के मायने 11 मई के बीच रात को खड़ा किया गया सुरक्षा कैंप का विरोध करने 1 या 2 ही दिन में हज़ारों के संख्या में लोग क्यों  इकट्ठा हो गये? ऐसे स्थिति में सरकार व प्रशासन की तुरंत प्रतिक्रिया होती है कि आंदोलन के पीछे माओवादियों का हाथ है। मगर सिलगेर का आंदोलन एक अकेला किस्सा नहीं है सिलगेर आंदोलन का मुद्दा बस्तर में बढ़ते सुरक्षा कैंप और सैन्यीकरण का परिणाम है और वहां के आदिवासियों पर बढ़ते दमन से जुड़ा है। बस्तर में इस सैन्यीकरण का एक लंबा व हिंसात्मक इतिहास है। हालांकि इस हिंसा के प्रतिरोध में बस्तरीया आदिवासी जनता के संघर्षर का इतिहास भी उतना ही मुखर है।

आम तौर से प्रचलित है कि सुरक्षाबलों को बस्तर में नक्सलवाद से निपटने के लिए लगाया गया है। इसके विपरीत काफी समय से व काफी सबूत के साथ वामपंथी आदोलन व सिविल सोसाईटी समूह व संगठन ने इस तर्क को पेश किया है कि सैन्यीकरण खनिज सम्पदा और औद्योगीकरण से ज़्यादा सरोकार रखता है। बताया जाता है कि अभी भी सरकार को बस्तर के खनिज सम्पदा के खनन के लिये भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करना होता है तब वहाँ सेना का दबदबा और फैलाव बढ़ता नजऱ आता है।

साल 2005 में जब छत्तीसगढ़ सरकार ने टाटा स्टील के साथ समझौता किया और लोहांडीगुड़ा में कंपनी को बड़ा इलाका कारखाना लगाने के लिए देना तय किया, व लगभग उसी समय एस्सार समूह के साथ भी छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले से आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जिले तक लौह अयस्क का घोल ले जाने केलिये 267 किलोमीटर की पाइपलाइन बिछाने का एक करार किया तब तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विश्व रंजन ने पत्रकारों से कहा था कि -‘इस पाइपलाइन को नक्सलियों से बचाकर रखने के लिए कंपनी के सुरक्षा अधिकारी ने कहा है कि पाइपलाइन की सुरक्षा के लिए हम एक बटालियन खड़ी करें जिसका खर्च कंपनी उठाएगी’।

उस समय शायद यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया पर पुलिस की बजाय एक निजी स्वयम्भू सुरक्षा दल सलवा जुडूम खड़ा किया गया। बताते हैं कि इसका खर्च उठाने में टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों ने सहायता दी थी। सलवा जुडूम ने साल भर के भीतर ही हत्या, लूटपाट, यौन हिंसा, आगजनी जैसे ने आपराधिक तरीकों से ढाई लाख आदिवासियों को अपनी ज़मीन और गांवों से खदेड़ दिया। इसके तुरंत बाद राज्य सरकार ने ‘सलवा जुडूम से उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए 2006 में 7 से 10 अतिरिक्त बटालियनों की मांग की।’

साल 2010 तक छत्तीसगढ़ में 19 सीआरपीएफ बटालियन, कोबरा कमांडो की बढ़ी हुई संख्या, नागा व मिज़ो बटालियन तैनात हो चुकी थीं जिनमें से अधिकतर दक्षिण छत्तीसगढ़ में लगाई गई थीं। 2009 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) और भिलाई स्टील प्लांट को कांकेर और नारायणपुर जिलों में रावघाट खदानों के लिए 2028.797 हेक्टेयर भूमि लीज़ पर दी गई थी। 2011 में सेल के आला अफसरों ने रावघाट पहाड़ी पर पेड़ों के काटे जाने से उपजे नक्सली विरोध से निपटने की योजना बनाई जिसे आगे चलकर गृह मंत्रालय की सहमति मिल गई।

सेल के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि भिलाई स्टील प्लांट 250 करोड़ रुपयों से अधिक राशि ‘22 बैरकों के निर्माण पर खर्च कर रहा है जहां 5 या अधिक अर्धसैनिक बटालियनें रखी जाएंगी। इनमें से 6 बैरक ब्लॉक एफ के इर्द-गिर्द होंगी जो भिलाई स्टील प्लांट को आवंटित किया गया है। 

2001 की जनगणना के अनुसार अंतागढ़ ब्लॉक की कुल आबादी 64,820 थी, अर्थात सेल के 4 हज़ार सैनिकों के इस प्रस्ताव से प्रत्येक 16 नागरिकों पर एक सिपाही नियुक्त किया जाना था। द हिन्दू में छपी खबर के अनुसार बीएसएफ के वरिष्ठ अधिकारियों ने स्वीकार किया कि ‘उनकी 24 वीं बटालियन को कांकेर जिले के कोरर में अयस्क के खनन में सहायता के लिए लाया गया था।’

पीयूसीएल का दावा है कि वैसे ही दंतेवाड़ा के बैलाडिला पहाडिय़ों में मौजूद 130 करोड़ टन लोह अयस्क पर दशकों से कई कंपनियों का नजऱ रहा है। साल 2006 में यहां से 1 करोड़ टन के खनन का अधिकार सरकारी कंपनी एनएमडीसी को ही दी गई। 2017 में एनएमडीसी ने अपने इन अधिकारों को छत्तीसगढ़ खनन विकास कोरपोरेशन को सौंप दिये। 2018 में इन्होंने खदान का निर्माण करने व चलाने का ठेका अडानी एनटरप्राइजेज को दे दिया। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक पेसा कानून के तहत जुलाई 2014 में 106 लोगों की ग्राम सभा में खनन के लिये प्रस्ताव पारित किया गया।

गांववालों का कहना था कि ऐसा कोई ग्राम सभा नहीं हुई और पता चला फर्ज़ी दस्तखत से दस्तावेज बनाया गया। जब बाद में ग्राम सभा आयोजित किया गया तो सभा ने प्रस्ताव को पूरी तरह से खारिज कर दिया। इसके बावजूद जब खनन पर कोई रोक नहीं लगाई गई, खदान के खिलाफ एक जोरदार आंदोलन शुरु हुआ। जून 2019 में 10000 से अधिक ग्रामीण विरोध में उतरे थे. जिस पहाड़ पर खनन होना था, हर साल वहाँ के अदिवासी जनता उस पहाड़ पर चढक़र अपने देवता नंदराज की पूजा करते हैं।

2019 में दंतेवाड़ा के पोटाली गांव जो निलावाया की तरह अरनपुर थाना के अंतर्गत पड़ता है में भी रातों-रात बिना - किसी कानूनी प्रक्रिया के एक सुरक्षा कैंप खड़ा कर दिया गया। इसके विरोध में भी भारी संख्या में लोगों ने आंदोलन खड़ा किया। मार्च 2020 में मानवाधिकार रक्षक हिड़मे मरकाम के इसी आंदोलन में सक्रीय भागिदारी के चलते गैर कानूनी रूप में गिरफतार किया गया। 

2016 के आंकड़े बताते हैं कि बस्तर में हर 40 नागरिकों पर एक सुरक्षाकर्मी तैनात है, जिसके चलते बस्तर दुनिया के सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत इलाकों में शामिल हो गया है। 2013 में चुनाव के समय यह अनुपात 1:31 बताया गया।

सीआरपीएफ अधिकारियों के मुताबिक, सितंबर 2020 में छत्तीसगढ़ में 33 अर्धसैनिक बल के बटालियन तैनात थे। सत्ता में आने के तुरंत बाद जिस भूपेश बघेल ने एनसीएल को शो-काज नोटिस भेजते हुए गर्व से ऐलान किय था कि उनके सरकार में नियम नहीं बदले जाएंगे अडानी जैसे बड़े नाम के लिये भी नहीं उसी भूपेश बघेल ने केंद्र सरकार के गृहमंत्री अमित शाह से 7 अधिक बटालियन तैनात करने की मांग रखी। भूपेश बघेल के सरकार के केवल पिछले 2 साल में बस्तर में 28 नए सुरक्षा कैंप बनाए गए हैं। 

मगर क्या बस्तर की खनिज सम्पदा का बड़े कोर्पोरेट घरानों द्वारा खनन एक मात्र कारण है ऐसे सैन्यीकरण की? छत्तीसगढ़ कि मानचित्र में सिलगेर के आसपास ऐसे विशेष खनिज पदार्थ नहीं नजऱ आते और बात यह भी है कि कई जगहों में, करार होने के सालों बाद भी खनन तो नहीं किया जा रहा था। कई बड़े बड़े इलाकों में रेकोन्नैसंस परमिट के बाद दशक भर तक कोई खनन नहीं हुआ है। दूसरी ओर, लोगों के बयान और पुलिस व सुरक्षाबलों के व्यवहार से पता चलता है कि शायद खनन के अलावा कई और मकसद हैं ऐसे सैन्यीकरण के। 

पीयूसीएल के सूत्रों के अनुसार अक्टूबर 2020 से लेकर अब तक बस्तर के 7 जिलों में कम से कम 12 ऐसे कैंप व सडक़ के विरोध में आंदोलन हुए हैं। इनमें से कुछ प्रमुख उदाहरण यह है दिसंबर में पखांजूर व कोयलीबेड़ा में बन रहे कैंप के विरोध में कांकेर के 38 गांव के सरपंचों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। नवंबर में नरायणपुर में हज़ारों ग्रामीण अमदेड़ घाटी के बचाव के नाम पर कैंप व सडक़ का विरोध करने  इकट्ठा हुए, और उसी महिने में बीजापुर जिले के गंगलूर क्षेत्र में बड़े रैलियां निकाले। बेचापाल के कैंप व सडक़ के खिलाफ जिसमें लाठी चार्ज के चलते कई ग्रामीण घायल व एक पुलिसकर्मी घायल हुए। 16 लोग गिरफ्तार किये गए जो आज भी जेल में हैं।

सिलगेर आंदोलन में जारी की गई मांगपत्र में एक मांग इनकी रिहाई की थी। पुलिस का कहना है कि सडक़ बनाने के लिये ही कैंप की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि माओवादी सडक़ निर्माण कार्य में बाधा डालते हैं। मगर फिर सवाल यह है कि यदि ऐसा है तो सडक़ बनने के बाद कैंपो को हटाया क्यों नहीं जाता है? बासागुड़ा व सिलगेर के बीच की सडक़ कई साल पहले बन चुकी है मगर फिर भी उस बीच में बने 5 सुरक्षा कैंप अभी भी वैसे के वैसे हैं। अक्टूबर 2015 व जनवरी 2016 के बीच इन्हीं कैंप से निकले पुलिस व सुरक्षाबलों के गश्त के दौरान, कई गांव में समूहों और मीडिया द्वारा जारी की गई रपटें बयान करती हैं कि यहां 20 से ज़्यादा सामूहिक बलात्कार और यौन हिंसा की वारदातें हुई हैं। 

पीडि़त महिलाओं ने अपने बयानों में कई बाते कहीं जगह जगह महिलाओं के स्तनों को दबाया गया यह जांचने के लिये कि वे माओवादी थे या नहीं (यदि वे बच्चे पैदा करने के उम्र के थे और स्तनों से दूध नहीं निकलता तो उनको माओवादी माना जाता), बलात्कार ज़्यादातर उन्हीं महिलाओं का हुआ। जिन्होंने पुलिस व सुरक्षाबलों के लूट पाट व मारपीट के खिलाफ आवाज़ उठाया। कई अलग गांव के महिलाओं ने कहा कि गश्त पर आए फोर्सवाले उनको बोरिंग (हैण्ड पंप) से पानी लेने से मना करते थे, यह कहकर कि ‘यह बोरिंग हमारे सरकार की है। तुम्हारे सरकार की नहीं। दफ़ा हो जाओ।’ पुलिस में सलवा जुडूम के पूर्व सदस्य व आत्मसमर्पित नक्सली होने के कारण कई पुलिस गोंडी भाषीय भी है। एक पुलिसवाले ने एक महिला से कहा ‘तुम्हारे आदमी एक-एक करके ज़मीन पर गिर जाएंगे, महुआ के पेड़ के पत्तों की तरह, उसी औरत ने आगे यह बताया, ‘जैसे हम जंगल में जानवरों का शिकार करते हैं, ये लोग हमारा शिकार करते हैं।’

इस कू्ररता को हम कैसे समझें क्या इसे भी पूंजी के निवेश के नाम से समझा जा सकता है? 

पीयूसीएल की इस जांच में भी गांव वालों ने बताया की उन्हें कैंप नहीं चाहिए। बच्चे-बूढ़े, युवक, महिला-पुरुष सब की मांग एक थी- हमें बस्तर में और कैंप नहीं चाहिए। जब कैंप हटाने की मांग के पीछे कारण पूछा गया तो मूलवासी बचाओ मंच के एक युवक ने कहा -‘जब भी हम खेत में जाते हैं, या जंगल में गाय चराने जाते हैं या जंगल में जब भी वनोपज संग्रह के लिए जाते हैं तो कैंप वाले हमको रोक कर पूछताछ करते हैं- ‘कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कहां से आये हो? हम अपने ही ज़मीन पर घूमने के लिये किसी और से अनुमति क्यों लें? क्या हम किसी और के ज़मीन पर जाकर उनको ऐसे टोकते हैं? मंच के एक और युवा सदस्य ने कहा- ‘सरकार कहती है यह सडक़ हमारे बन रही है. हमको इतने बड़े सडक़ की क्या जरूरत है? हमारे पास बड़े गाड़ी नहीं है।

हम पैदल चलके अपना काम कर लेते हैं. सरकार को हमारी इतनी परवाह है तो क्यौं न वो हमारी माँग सुनकर गाँव-गाँव में छोटे छोटे सडक़ बना लें? हम इनसे कम से कम स्कूल व अस्पताल व राशन तक बारिश में भी पहुँच पाएँगे. एक ग्रामीण ने कहा- ‘फोर्सवाले हमेशा हमसे बतमीज़ी से बात करते हैं. मारने व मार डालने की धमकी देते हैं।’ एक और ग्रामीण ने कहा ‘यही फोर्सवाले हम जैसे अदिवासियों पर फर्जी केस बनाकर गिरफतार करते हैं, फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर देते हैं, मार-पीट करते हैं भूमि मालिक (जिनकी निजी ज़मीन पर सिलगेर कैंप को बिना अनुमति गैर कानूनी रूप में बनाया जा रहा है) ने कहा कि वे दादा के जमाने से भूमि पर खेती करके गुजर बसर कर रही है। अन्य ग्रामीण ने बताया कि जिस जमीन पद्भ कैंप बनाया वह से वो तेन्दुपत्ता, महुआ, आम पेड़ का इस्तेमाल करते थे।

उन्होंने कहा कि ‘हम क्यों दूसरे जगह जाएंगे खेती करने? यह कहते हुए उन्होंने यह भी कहा जनता जो कहेगी हम वही करेंगे। हम जनता के बीच में रहते हैं और रहेंगे। सरकार ने हमारे लिये क्या किया है? हम उनके कहने पर दूसरी ज़मीन पर क्यों जाएं?’

इस कौंधते हुए सवाल कि कैंप का विरोध आखिर क्यों? का जवाब शायद इन्हीं के प्रत्युत्तर में ही मिलता है। उन्होंने इस सवाल के जवाब के रूप में उलटा यह पूछा कि कोई अन्य पक्ष भूमि मालिक की इजाजत के बगैर कैसे उसकी जमीन पर घर डाल सकता है?’

इन प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि शायद बात केवल जल, जंगल ज़मीन का नहीं है या फिर सरकार ने किन कंपनियों से कितने करार किये। बात यह है कि बस्तर के आदिवासियों से केवल उनकी ज़मीन ही नहीं बल्कि उनकी अस्मिता भी छीनी जा रही हैं।

यह हर जगह कई तरीकों में नजऱ आता है फोर्सवालों के तानों व व्यवहार से लेकर लोगों के विरोध के तरीकों व निरंतरता में शायद नीलावाया में इस बात में भी यह नजऱ आता है कि जिनको पुलिस ने मारकर संतोष मरकाम नामक 5 लाख इनामी नक्सली घोषित कर दिया, वो असल में हड़मा मरकाम नाम का एक कृषक था जब वो कुछ ही महिनों के लिये स्कूल में भरती हुआ था, तब स्कूल में उसका नाम संतोष रखा गया, जिससे वहां के गैर-आदिवासी टीचरों को नाम कहने में आसानी हो। हड़मा ने कभी स्कूल पूरा नहीं किया और उनका संतोष के नाम से कोई दस्तावेज कभी नहीं बना। 

आश्रम शालाओं में आदिवासी बच्च्चों को शिक्षित व सभ्य बनाने के नाम पर, उनको अलग नाम देकर अपने पहचान को मिटाया जाता है। कैनडा जैसे देशों में ऐसे ही आदिवासी सभ्यताओं को खत्म किया गया है। शायद इसीलिये सभी ग्रामीण एकमत थे की उन्हें अपने गांव में ही स्कूल व स्वास्थ सेवाएं चाहिये कैंप व बड़े सडक़ नहीं। पूंजी के खिलाफ व जल जंगल जमीन बचाने की लड़ाई तो है ही मगर साथ में बड़े सडक़ व सुरक्षा कैंप के खिलाफ आंदोलन अपने अस्तित्व व असमिता, अपने जीवन जीने के तरीके, अपने गरिमा को बचाने का भी लडाई है; संसाधनों पर कब्ज़ा के साथ-साथ संस्कृति पर कब्ज़ा के खिलाफ की लड़ाई है।

बस्तर में सैन्यीकरण का स्वरूप गैर कानूनी प्रणालियां व असंवैधानिक पुलिस व सुरक्षाबल दलों का गठन -फर्जी मुठभेड़ बस्तर में राज्य द्वारा ‘माओवाद से निपटने’ के नाम पर की जा रही विभिन्न गैर कानूनी कार्यप्रणाली में से एक है। इस प्रक्रिया में पुलिस के पास एकाधिकार होता है कि वह यह पहचान करे की कौन सा ग्रामीण  गतिविधियों में संलिप्त है। यह पहचान करने के बाद उसकी हत्या कर दी जाती है और इस हत्या को सुरक्षा बल व पुलिस और नक्सली में आपसी मुठभेड़ में हुई मौत की तरह प्रस्तुत किया जाता है। इससे पुलिस किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से मुक्त हो जाती है। कई बार तो मृतक के परिजनों को मुठभेड़ के बाद पुलिस के ऐलान के बाद पता चलता है कि उनके परिजन 1 लाख या 5 लाख के इनामी नक्सल थे क्योंकि यह घोषणा पुलिस द्वारा मुठभेड़ के बाद की जाती है जैसा कि हड़मा उर्फ संतोष मरकाम के हत्या के संदर्भ में हुआ। 

पुलिस और सुरक्षा बलों को लाश गिराने के लिए नकद ईनाम या पद्दोनत्ति देने की नीति के कारण निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने में इज़ाफा होता है। हिंसा को इस प्रकार प्रोत्साहित करने के बारे में व्यापक रूप से लिखा गया है और उसकी भत्र्सना भी की गई है न सिर्फ छत्तीसगढ़ में बल्कि कश्मीर में भी।

सुप्रीम कोर्ट ने फेक एनकाउंटर्स को राज्य प्रायोजित आतंकवाद या स्टेट स्पॉन्सर्ड टेररिज्म करार देते हुए कड़ी निंदा की है और ऐसा होने की स्थिति में 16 सूत्रीय दिशा निर्देश बनाये। हमारी जानकारी में किसी भी फर्जी एनकाउंटर की घटना उठाये जाने के मुद्दे में इन दिशा निर्देशों का कभी पालन नहीं हुआ है। फेक एनकाउंटर की कार्य प्रणाली पर अन्य राज्य सरकारों द्वारा किसी भी तरह के विद्रोह को कुचलने के नाम पर यह रणनीति अपनाई गयी है। आत्मसमर्पण नीति के के नाम पर सरकार ने दावा किया की नक्सलियों द्वारा आत्मसमर्पण किया जा रहा है। यह भी फर्जी मुठभेड़ की तरह माओवाद से निपटने के नाम पर की जा रही विभिन्न गैर कानूनी कार्यप्रणाली में से एक है। 

लोन वराटु यानि कि घर वापसी योजना के नाम पर इनाम व सुविधाएं घोषित करके लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए प्रोत्साहन व धमकियां दी जा रही है। जबकि कई ग्रामीण व मानावाधिकार कार्यकर्ताओं ने इन आत्मसमर्पण को झूठा बताया और बोला की गांव वालों को ही आत्म सम्पर्पित नक्सली बनाकर पेश किया जा रहा है। इसी योजना के तहत दंतेवाड़ा की युवती कवासी पाण्डे का फर्जी आत्मसमर्पण करवाया गया। जब वो पुलिस कस्टडी में थी उन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके शव को देखकर उनके मां ने बताया कि शरीर के हालत से पता चल रहा था कि पाण्डे के साथ यौन हिंसा भी की गई। 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुडूम अभियान में आदिवासियों के हाथ में बन्दूक देने की रणनीती को असंवैधानिक ठहराने के बावजूद इसी रणनीति का उपयोग बस्तर में केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा आज भी किया जा रहा है डीआरजीएफ व बस्तरीया बटालियन जैसे पुलिस व सुरक्षाबल के दलों का गठन करके। डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड फोर्स (डीआरजीएफ) बस्तर पुलिस का एक इकाई है जिसको बस्तर पुलिस ने अपने स्थानीय रूप से गठित करके विशेष रूप से प्रशिक्षित किया। 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने जब सलवा जुडूम को भंग करने का आदेश दिया था तो अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि स्थानीय नौजवानों को माओवादी विरोधी अभियानों में इस्तेमाल न किया जाए।

फैसले के 20 वें अनुच्छेद में कहा गया है कि नक्सलवादियों के खिलाफ आदिवासी युवकों का इस्तेमाल ‘आत्महत्या के बीज बोने जैसा है जो समाज में फूट डालेगा और उसे नष्ट कर देगा।’ इसी फैसले के अनुच्छेद 17'8 में कहा गया है, ‘हाल का इतिहास निजी सशस्त्र गिरोहों से जनित खतरों से भरा पड़ा है, जो सरकार के संरक्षण में या समर्थन से काम करते हैं। ऐसी पथभ्रष्ट नीतियां जिनकी कुछ नीतिनिर्धारक दमदार तरीके से पैरवी कर हैं, हर हाल में हमारे संविधान की दृष्टि और मान्यताओं के खिलाफ हैं। फैसला यह भी कहता है कि ‘नौजवानों की इस अमानवीयता का उपयोग माओवाद के खिलाफ कर जंग में उन्हें झोंक देना गंभीर संवैधानिक चिंता खड़ी करता है और वही सबसे कड़ी संवैधानिक निंदा के योग्य है।’ 

डीआरजी का गठन ठीक वैसा कदम है जिसके विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 के फैसले में चेतावनी दी थी। फोर्स पूरी तरह से स्थानीय आदिवासी नौजवानों से बनी है जिनमें से कई लोग सलवा जुडूम के पूर्व सदस्य से भी हैं, और कई लोग आत्मसमर्पित नक्सली। डीआरजीएफ की विशेषता को लेकर बस्तर के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक कल्लूरी (जिन पर लेधा बाई नामक एक आदिवासी औरत ने बलात्कार का आरोप लगाया था जब वे सरगुजा के पुलिस अधीक्षक थे।) ने खुद अपने बयान में यह बताया कि इसके सदस्यों में शामिल हैं ‘निचले स्तर के पूर्व नक्सली कार्यकर्ता, पूर्व में माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाले, सलवा जुडूम में विस्थापित हुए गांववाले, जिन्हें प्रेम से माटी के लाल कहा जाता है जो अपनी ज़मीन विद्रोहियों से वापस हासिल करने के लिए अति उत्साहित हैं।’

राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे फैसले के बावजूद आदिवासी नौजवानों को जवाबी कार्यवाही में इस्तेमाल करके इस फैसले की अवमानना कर रही है। नीलावया गांव में फर्जी मुठभेड़ के दोनों मामले में ग्रामीणों की हत्या डीआरजी द्वारा की गयी थी। 

2018 में सीआरपीएफ ने भी बस्तर के लिये एक विशेष बल का गठन किया बस्तरीया बटालियन, जो बीजापुर-दंतेवाड़ा, सुकमा व नारायणपुर के आदिवासी युवाओं से गठित की गयी है। 

इस तरह से आदिवासियों का विभाजन करना और एक को दूसरे के विरोध में खड़ा करना आदिवासी अस्तित्व पर हमला है। एक ओर बढ़ते सैन्यिकरण से पुलिस व सुरक्षाबलों का बस्तर के जनता पर निरंतर प्रताडऩा रोज़मर्रा के जीन में रोक-टोक व ताना-बाना से लेकर बलात्कार व हत्या तक करने से आदिवासी अस्मिता पर हमला की जा रही है। उनके जीवनशैली, जीवन जीने के तरीके व संस्कृति को कुचला जा रहा है जिससे आदिवासी समाज में कई दरार खड़े हो जाती हैं।

दूसरी ओर आदिवासी युवकों को फर्जी रूप से ‘आत्मसमर्पण’ करवा के, (पुलिस में बहुत ही कम वेतन पर) भरती करके, हाथ में बन्दूक देकर अपने ही लोगों को मारने के लिये मजबूर व प्रोत्साहित किया जा रहा है। आदिवासी समाज में इन गहरे दरारों का पूरा फायदा पुलिस प्रशासन, राजनैतिक दल व गैर-आदिवासी सामाज उठाता है। सरकार व प्रशासन अपने विकास व तथाकथित मुख्यधारा के सांस्कृतिक दबदबा को फैलाता है, जबकि स्थानीय आदिवासी नेतृत्व, स्वीकार्यता, कार्यप्रणाली और बुनियादी दृष्टिकोण में ज़मीनी टकराव जिन जिनको भी आंदोलन के दौरान सिलगेर जाने का मौक़ा मिला है, सब एक बात से बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए हैं आंदोलन के युवा नेतृत्व से उनकी निडरता संगठित करने की क्षमता आंदोलन सम्भालने की काबिलियत, राजनैतिक विचार व समझ, संघर्ष की शिद्दत, कड़ी व निरंतर मेहनत के चलते कई लोगों ने उनके बारे में लेख लिखा है व खबर छापी है।

भिलाई के आदिवासी समाज के कार्यकर्ता बताते हैं कि जिस दिन वे गए थे उस दिन पहली बार बीजापुर जिलाधीश भी वहां आंदोलन स्थल के पास आंदोलनकर्मियों से बातचीत करने आए थे खोदे गए सडक़ के आर-पार खड़े होकर बातचीत होनी थी। कलेक्टर के इर्द-गिर्द कम से कम 25 हथियारबद्ध सुरक्षाबल थे। एक 17 साल का युवक सामने खड़े होकर बड़े तहज़ीब से कलेक्टर से कहते हैं ‘बात करिए कलेक्टर सर, आप सुरक्षित हैं।’

कोविड 19 महामारी के चलते पिछले 2 साल से बस्तर के स्कूल व कॉलेज में दाखिल विद्यार्थी हॉस्टल के बजाए अपने गांव में है। शायद पहली बार इतने पढ़े लिखे युवा बस्तर के गांव गंँव में मिले हो। मूलवासी बचाओ मंच जो कि 17 मई के गोलिकांड के बाद आंदोलन में शामिल ऐसे ही युवा साथियों से गठित किया गया का कहना है कि -‘हम विकास के खिलाफ नहीं है। मगर विकास के नाम पर बिना हमारी राय या भागीदारी के हमारे ही जल जंगल व ज़मीन का अधिग्रहण किया जाता है और हम आदिवासी लोग जब इसके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं तो हमें जेल भेजा जाता है व हमारी हत्या की जाती है धरना में गोलिकांड में या फर्जी मुठभेड़ द्वारा इसलिए हम संगठित होकर लोकतांत्रिक रूप से अपने मानवाधिकार व संसाधन व अस्मिता को बचाने कीलिए ये मंच बनाए हैं।’

उनके उम्र के चलते लोगों ने उनकी तारीफ तो की है, मगर एक जातिगत समाज में जहां कई तरह के गैर-बराबरी को धार्मिक दर्जा दिया जाता है व बड़ों को पूज्य माना जाता है, उनके जवान होने के चलते हर ओर से उनको सलाह, ज्ञान, व डांट भी पड़ती रहती है। बीजापुर में कलेक्टर से मुलाकात के बाद एक युवक ने हंसते हुए कहा -‘वहां तो एक दम क्लास के जैसे लग रहा था। सर भाषण देते ही गए, मैं नींद के मारे आंखों को मरोड़ते रहा!’ 

वैसे ही एक दिन उनको दिल्ली से फोन किसी सामाजिक कार्यकर्ता से आया जिन्होंने उनसे मंच के नाम को बदलकर आदिवासी किसान मंच करने को कहा! 7 जून को जिस सामाजिक कार्यकर्ताओं का दल को सिलगेर आने से रोका गया, और जिन्होंने अपना निर्णय लेकर 8 जून को मुख्यमंत्री से मिले, और फिर मंच के कहने पर मंच से मिलने के लिये समय मांगा तो कई बार इन 8 - 9 जून के बीच मंच के सदस्यों को कार्यकर्ताओं के कई बार फोन आए कई सुझावों के साथ मुख्यमंत्री से मिलने तुरंत - निकलना चाहिये, धरना में लोगों की संख्या कम नहीं होनी चाहिए आदि युवा साथी इन सब सलाहों को धैर्य से सुनते व अपने साथियों को बताते फिर मिलकर अपना निर्णय लेते देखे गय। 

सुझावों के पीछे यह तर्क बताया गया कि यदि धरना में लोगों की संख्या कम हो जाती तो मुख्यमंत्री पर कुछ ठोस कदम लेने का दबाव कम हो जाता। इसके विपरीत उनका मानना यह था कि शायद अगर दल के लोग एक रात बीजापुर में रुक जाते तो जिला पुलिस प्रशासन पर दबाव बनता उनको सिलगेर आने देने में और वे वही चाहते थे। लोगों का यहां आने से पूरे जनता के बीच बात खुलके होती। हमारे 5'0 लोगों के वहां जाने से क्या होगा - जनता को कैसे बोलेंगे कि कोई नहीं आ रहा है यहाँ? जनता के बीच अच्छी सभा करने के बाद हम मुख्यमंत्री से मिलने जा सकते हैं.।मगर आज जनता को क्या बोलें?’ मंच के एक सदस्य ने कहा।

मुख्यमंत्री के साथ वीडियो काल में जो बातें हुई व उसके 3 दिन बाद 3 नए कैंप के ऐलान से इनकी बातें सच साबित होती हैं वे शायद वो हमेशा जानते थे कि उनके समस्या का समाधान मुख्यमंत्री से मिलने से मिटने नहीं वाली है। - दबाव कहां डालना चाहिए व आंदोलन को किस दिशा में ले जाना है यह सब निर्णय एक राजनैतिक समझ से लिये जाते हैं।

यहां दो विपरीत समझदारियां नजर आते है। शायद इन पर आपसी संवाद से अलग अलग आंदोलन व संगठन के बीच एकजुटता के नए रास्ते खोजे जा सकते हैं। लेकिन बात केवल संवाद की नहीं है जब समाज में कुछ आवाजों की दबदबा हमेशा ज्यादा होती है इसीलिए आदिवासी युवा नेतृत्व की आवाज से ज़्यादा व सिलगेर गोलीकांड के पीडि़त परिवार व प्रभावित भूमिमालिक के पीड़ा से ज़्यादा रोके गए सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं के दल की परेशानी नैशनल न्यूज का मुद्दा बन गया। तो बात शायद यह भी है कि हमारे राजनैतिक कल्पना में किनके आवाज़, किनकी पीड़ा व किनकी समझ व नेतृत्व ज़्यादा मायने रखती हैं। 

जब सवाल खड़ा किया जाता है कि बाहर से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किस आधार पर निर्णय लिया कि उनको उसी दिन लौटना चाहिए व रोके जाने की घटना की शिकायत मुख्यमंत्री के पास ले जाना चाहिए, जब पूछा जाता है कि क्या इस निर्णय को लेने से पहले उन्होंने स्थानीय आंदोलनकारियों से या स्थानीय नेतृत्व से पूछ कर निर्णय लिया तो तुरंत प्रतिक्रया होती है कि वो अपने मांगों को लेकर गए थे, क्योंकि उनके लोकतांत्रिक अधिकार का हनन हुआ है उनका निर्णय सिलगेर आंदोलनकर्ताओं की तरह लोकतंत्र के हित में था और वे किसी की प्रतिनिधित्व - नहीं कर रहे थे।

और जब उन्होंने अपने योजना का आंदोलनकारियों को बताया तो उन्होंने भी मुखयमंत्री से समय मांगने को कही। पूछने व बताने में बहुत बड़ा अंतर होता है। सवाल यह है कि यदि वे अपने से निर्णय लेकर मुख्यमंत्री से मिलने नहीं गए होते तो क्या सिलगेर के लोग भी उसी समय कहते कि उनको मुख्यमंत्री से समय चाहिए? शायद नहीं। मुख्य बात यह है कि उनके ऐसे कदम का असर केवल उन पर नहीं बल्कि पूरे आंदोलन पर पड़ता है।

उनके हर कदम से ज़मीनी चुनौतियों प्रभावित होती हैं मुख्यमंत्री से मिलना या न मिलना, कब मिलना, आंदोलनकारियों से - प्राप्त कौन से जानकारी को साझा करना व कौन सा नहीं करना (जैसा कि प्रेस विज्ञप्ति के साथ हुआ), कब सिलगेर पर वेबिनार आयोजित करना व उनमें किनको वक्ता बनाना, स्थानीय नेतृत्व में किनको कब सपोर्ट करना, मीडिया में सिलगेर के बारे में कब व क्या बयान देना हम सबको स्वीकारना होगा कि इन सब का असर आंदोलन पर पड़ता ही है। बात यह नहीं है कि कुछ किया ही नहीं जाए बल्कि जब हम यह सब करते हैं तो हम किनके प्रति जवाबदार हैं व कैसे सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाने से हमारी राजनीति ज़्यादा प्रगत्तिशील या रैडिकल अपने आप में नहीं बन जाती है।

कब, किन पर, और किन मुद्दों को लेकर सवाल उठाया जा रहा है, कौन इन सवालों को उठा रहा है - इन सबसे तय होता है कि सरकार की प्रतिक्रिया कितनी दमनकारी होगी व किन पर ऐसे किसी भी आंदोलन को सपोर्ट करने में शायद हम सबको यह बात याद रखनी होगी कि एक असमानता पर टिके सामाज में खतरा भी असमान है आंदोलन में शामिल होने पर एक बैरिकेड से रोका जाना व बंदूक का सामना करने में जो फर्क है वो सबको दिखती है।

मगर जो उतनी आसानी से नहीं दिखती व यह है कि जब बड़ा मुद्दा उस बैरिकेड से रोके जाने की बन जाती है तब बंदूक के खतरे का क्या होता है? मानवाधिकार व सामाजिक संगठन होने के नाते शायद हम सबको इस बात पर खुली चर्चा व पुनर्विचार करने कि ज़रूरत है कि जब एक तबके की लोकतांत्रिक हितों की रक्षा किसी अन्य तबके का दमन पर टिकी होती है तब किन प्रक्रियाओं से संगठनात्मक निर्णय लें व जिन पर खतरा सबसे ज़्यादा होता है हम उनके प्रति संवेदनशील कैसे बनें। शायद इसे करने से पहले हम सबको यह भी स्वीकारना होगा कि सवर्ण समाज की राजनैतिक स्वतंत्रता की कीमत हमेशा किसी और को चुकानी पड़ती है। 

युवा नेतृत्व को अपने आप पर व जनता का भी उन पर बहुत विश्वास है। इसीलिए जब ऐसे आरोप लगाए जाते हैं कि आंदोलन को समाप्त करने में किसी एक व्यक्ति का हाथ है तो वो सरासर झूठ होने के साथ-साथ इन साहसी व समझदार युवा साथियों के काबिलियत व योग्यता पर सवाल खड़े करने व नकारने के बराबर हैं।

मंच के सदस्य व आंदोलन में शामिल अन्य युवा साथी दिन रात मेहनत से आंकड़े  इकट्ठा करते हैं, जनता से बात करते हैं, उनकी परेशानियां व विचार सुनते हैं। वहां हर निर्णय जनता की राय लेकर ही लिया जाता है। आपस में भी वे बहस व चर्चा करते हैं, साझा समझ बनाते हैं। यह सामूहिकता व लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं जिला प्रशासन के लिए हजम करना मुश्किल हुआ।

9 जून को जब मंच के लोग पुलिस-प्रशासन से बात करने दोबारा गए, तो हर बार जब कलेक्टर सवाल पूछते, व कोई एक युवा साथी सवाल का जवाब देने खड़े हो जाते तब वे गुस्से में कहते- यही तो समस्या है, तुम लोग बदलते रहते हो। एक बार कोई और बोलता है तो एक बार कोई और। उनको यह बात समझना बहुत ही मुश्किल था कि कोई एक मुख्य नेता या प्रतिनिधि नहीं थे। 

वैसे ही पुलिस वालों के लिये (जिनको केवल एक बहुत ही श्रेणीबद्ध व्यवस्था का अनुभव है) तो यह और भी मुश्किल था। गोलीकांड के घटना में मौजूद एक युवा साथी जो गोलीचालन का चश्मदीद गवाह है ने पीयूसीएल जांच टीम को बताया- ‘जब हम शांतिपूर्ण तरीके में कैंप को हटाने के लिये कैंप की ओर बातचीत करने जाते तो पुलिस वाले हमसे कहते देखो हम भी तो अपने से यहां नहीं आएं हैं। हमको ऊपर से आदेश मिलने पर ही हम यहां आए। तो तुम लोग भी तो किसी के कहने पर आए होंगे। कौन भेज रहा है आपको? माओवादी भेज रहे है ना? हम उनको बार-बार वही कहते कि हम अपने इच्छा से आएं हैं।’

इन बातों से यह स्पष्ट नजऱ आता है कि इस लड़ाई में दो विपरीत दृष्टिकोण में बुनियादी टकराव है। यह टकराव केवल अदिवासियों व पुलिस-प्रशासन के बीच नहीं बल्कि एक पूरे सामाज से है जो इतनी दृढ़ता से अपने गैर-बराबर समाज के ब्राह्मणवादी मूल्यों को पकड़ कर रखा है। सिलगेर के आंदोलन व खासकर के वहां के आदिवासी नेतृत्व से शायद हम सबको अपने मूल्य व तौर तरीकों को परख कर देखने को मजबूर करती है चाहे हम सामाजिक कार्यकर्ता हो या पुलिस व प्रशासन के कर्मचारी। 

सिलगेर के आंदोलनकर्ताओं को सलाम देते हुए कई लोग यह तारीफ के रूप में कहते हैं कि सिलगेर आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत है कि गोली खाने के बावजूद, लाठी खाने के बावजूद भी लोग बच्चे-बूढ़े, महिला-पुरुष सब अपने संघर्ष में डटे रहे। मगर शायद सवाल हम सबके सामने यह है कि आज़ादी के इतने साल बाद आदिवासियों के हितों में कई कानूनों के बनने के बाद, आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले कई जन संगठन व संस्थाओं के बनने के बाद, ऐसा क्यों हैं कि आज भी बस्तर के आदिवासियों को गोली खाकर मार खाकर, गाली खाकर धूप व बारिश में अपने हक व अस्मिता के लिए लडऩा पड़ रहा है? 

शायद सलाम इस बात करने की ज़रूरत है कि पुलिस प्रशासन या समाज के विभिन्न संगठन जातिगत हो या प्रगत्तिशील व भारत के बुद्धीजीवियों से बार बार धोखा खाकर भी वे आज इतने साहस से अपने संघर्ष को जारी रखकर हम सब के सामने एक आयना खड़ा कर रहें हैं। उम्मीद यह है कि हम में भी उस आयने में झांकने का साहस हो, हमको भी आदिवासी दमन में अपनी भागीदारी को स्वीकारने की क्षमता हो व उनके नेतृत्व व समझदारी से अपने समाज को बदलने की तैयारी हो।

 

पीयूसीएल का मांग व सुझाव 

1. नीलावाया में पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में ग्रामीण हड़मा उर्फ़ संतोष मरकाम और कोसा मारकम की हुई हत्या का रिपोर्ट दर्ज करना चाहिए। दोषी डीआरजी पुलिस अमित कवासी, नंदु, एवं देवे की गिरफ्तारी करते हुए भारतीय दण्ड विधान की धारा 302 के तहत अपराध पंजिबद्ध कर क़ानूनी कार्यवाही किया जाना चाहिए।

2. नीरम में पुलिस द्वारा और फर्जी मुठभेड़ में पाइके वेक्को की हुई बलात्कार व हत्या का रिपोर्ट दर्ज करना चाहिए। दोषी डीआरजी पुलिस जयो इस्ताम व मासे लेकाम की गिरफ़्तारी करते हुए भारतीय दण्ड विधान की धारा 302 के तहत अपराध पंजिबद्ध कर क़ानूनी कार्यवाही किया जाना चाहिए। 

3. सुकमा के सिलगेर में पुलिस कैंप का विरोध करने आस पास के कई गांवों के आदिवासी पुलिस कैंप की अवैधानिक स्थापना का विरोध करने हजारों की संख्या में जुटे थे जहां इन पर पुलिस द्वारा दिन के उजाले में फायरिंग की गई है। अब स्थानीय पुलिस और प्रशासन इस घटना को सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच मुठभेड़ बता रहा है। जबकि मृतकों और घायल होने वालों में सब निहत्थे आदिवासी ग्रामीण है। राज्य सरकार को इस बर्बर घटना पर तुरंत संज्ञान लेते हुए एक स्वतंत्र और उच्च स्तरीय जांच की घोषणा करनी चाहिए और इस घटना के जिम्मेदार पुलिस और प्रशासन पर तत्काल कार्यवाही सुनिश्चित किया जाना चाहिए। 

4. सुकमा जिले में शांतिपूर्ण विरोध कर रहे आदिवासी ग्रामीणों पर पुलिस द्वारा की गई अंधाधुंध फायरिंग की घटना के संबंध में पीयूसीएल विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य के मामले में सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के मुताबिक मुठभेड़ों के मामलों में पीडि़तों की ओर से भी एक काउन्टर एफआईआर पुलिस अर्धसैनिक बलों और दोषियों अधिकारियों के खिलाफ अनिवार्य रूप से दर्ज होनी चाहिए।

5. सिलगर कैम्प में भू-स्वामियों की निजी पट्टे की भूमि को बिना अधिग्रहण लिया गया है। बिना अधिग्रहण, बगैर सहमति निजी भूमि लेना राज्य द्वारा लूट है। जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्यवाही तथा भूस्वामियों से चर्चा कर विधिनुसार उचित कार्यवाही की जाये। 

6. फर्जी मुठभेड़ में डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड फोर्स (डीआरजीएफ) की विशेष भूमिका सामने आ रही है। उच्चतम न्यायालय ने नंदिनी सुंदर विरुद्ध छत्तीसगढ़ राज्य में स्पेशल पुलिस ओफिसर्ज की नियुक्ति को जिन आधार पर असंवैधानिक करार दिया है वे सभी डीआरजीएफ पर भी लागू होते हैं। राज्य सरकार को डीआरजीएफ व्यवस्था पर रोक लगनी चाहिए। 

7. यह तथ्य सामने आ रहा है की डीआरजी.एफ या अन्य सशस्त्र बल आम ग्रामीणों का फर्जी एनकाउंटर कर रही है। तथा बाद में उनके ‘ईनामी नक्सली’ होने की कहानी गढ़ रही है। इस संबंध में सुझाव है की पुलिस प्रशासन ईनामी नक्सलियों की सूची प्रकाशित करे तथा उस सूची में घोषित नक्सलियों का स्पष्ट विवरण हो इस जानकारी के साथ की उसके विरुद्ध कितने एफआईआर दर्ज हैं।  

8. पीयूसीएल का मानना है कि इन सभी घटनाओं में लोकतांत्रिक रूप से हो रहे आंदोलनों और विरोध को दबाने की कोशिश है। बस्तर में नक्सली उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों के विरोध को कुचला जा रहा है। पुलिस फायरिंग, फर्जी मुठभेड़, अवैध गिरिफ्तारियों की वारदातों को रोकने राज्य सरकार को पुख्ता कदम उठाने की मांग करता है।

9. आदिवासी अधिकारों के संघर्ष में स्थानीय नेतृत्व के सामने चुनौती खड़ा करना और लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन को दमन करने सत्ता के चरित्र के अनुरूप सवर्ण प्रतिक्रियावादी दवाब की परिस्थिति सामने आया है। छत्तीसगढ़ में ब्राह्मणवादी नेतृत्व और मूल निवासी समुदायों के बीच संघर्ष भी जोर पकड़ता जा रहा है। इन मुद्दों के प्रति जनसंगठनों को बिना देरी किये छत्तीसगढ़ स्तर पर आपसी बातचीत के जरिये समाधान के रास्ते ढूँढऩे होंगे। 

10. यह कि पूरे बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों की हत्या, बलात्कार, फर्जी मुठभेड़ों की मणगढ़ंत कहानियां, आम लोगों को नक्सली करार देते हुए फर्जी आत्मसमर्पण की अनगिनत घटनाओं की एक लंबी सूची है, जिसपर गहन जांच पड़ताल और शोध की बहुत ही आव्यश्यकता है जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर पहल कदमी - एडवोकेसी, कैंपेनिंग, इन्डिपेन्डेन्ट पीपल्ज़ ट्रिब्युनल तथा राष्ट्रीय स्तर पर फैक्ट फाइंडिंग टीम का बस्तर के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में निहायत ज़रूरी हैं।


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