पेगासस स्पायवेयर का खतरनाक पहलू

इलिका प्रिय, कथाकार

 

अपराध साबित करने के लिए कानून भी तो सबूत ही मांगता है। तो यह वह सच्चाई है जो सच नहीं होकर भी आपके साथ घट सकती है। आप निर्दोष होकर भी सबूत के साथ अपराधी बन सकते हो क्योंकि अब ऐसे सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जो बिना आपकी इजाजत के, बिना आपके इच्छा के, बिना जानकारी के आपके मोबाईल में, लैपटॉप में, या किसी टेक्निकल इंस्टरूमेंट में इंस्टॉल किये जा सकते हैं और जो आपने किया ही नहीं वह साबित किया जा सकता है, सबूत के आगे अब कौन बोलता, आप उस अपराध की सजा भुगत सकते हैं, जो आप कर ही नहीं सकते। 

यदि आप बड़े नामचीन चेहरे हैं, तो आप इसकी बड़े स्तर पर छानबीन करवा सकते हैं, बचने की संभावना हो भी सकती है, लेकिन यदि सेलिब्रिटी में आपका नाम दर्ज न हो, आप इसके खिलाफ  बचाव में भी असमर्थ होंगे। खासतौर पर तब जब यह सब देश की सत्ता संचालित करने वाली सरकार कर रही हो। 

सरकार की जासूसी नीति

क्योंकि अभी जो मामला प्रकाश में आया है पेगासस स्पाइवेयर का, वह एक ऐसा ही मामला है, जिसके द्वारा सरकार कई नामचीन लोगों के साथ-साथ जमीनी स्तर पर, जनता के हित में काम करने वाले लेखक, पत्रकार, एक्टिविस्ट की निगरानी इसके द्वारा करवा रही है। इसे सरकार द्वारा निगरानी इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि करोड़ों रूपये खर्च करने वाली इतनी बड़ी जासूसी प्रोजेक्ट किसी देश की सरकार जो दावा भी करती हो कि ‘‘उनकी सुरक्षा व्यवस्था एकदम अच्छी है’’ की जानकारी ही नहीं, निर्देशन के बिना मुमकिन नहीं हो सकती। 

और तब जब यह जासूसी भी सरकार की पसंदीदा किसी करोड़पति बिजनसमैन की नहीं, किसी कम्पनी मालिक की नहीं, सरकार के किसी गोपनीय योजना की नहीं, बल्कि उनकी हो रही है जो सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ काम कर रहे हंै, किसी भी रूप में वर्तमान सरकार को नुकसान पहुंचा रहे हैं या चुनावी मैदान में उसके सामने खड़ी हैं। साथ ही यह साफ्टवेयर उस देश की जासूसी कम्पनी का है जिस देश से वर्तमान सरकार के अच्छे रिश्ते हैं और जो दावा करती है कि वह यह सेवा किसी देश की सरकार को ही देती है। यह साफ  है कि यह सरकार द्वारा प्रायोजित है।

बेहद खतरनाक पहलू

इजरायली कम्पनी का यह दावा कि उनका यह ‘‘पेगासस स्पायवेयर सरकारी एजेंसियों या सरकार को आतंक और अपराध से लडऩे के लिए बेची जाती है।’’ और भी खतरनाक है क्योंकि बड़े नामों को छोड़ दें, तो उनके अलावा सरकार देश की आम जनता के पक्ष में काम करने वालों का नाम इस लिस्ट में दर्ज कर रही है, जो हो सकता है भविष्य में इन्हें इनकी वास्तविक पहचान (जनपक्षीय पक्ष) के उलट अपराधी साबित करने के लिए सहायक सिद्ध हो। हो सकता है भविष्य में एक आतंकी के तौर पर जो चेहरे टीवी में दिखाए जाते, वह इन्हीं लिस्ट में से एक हो। 

‘‘हमारे न्यूज चैनलों में जब यह खबर चलती है कि किस तरह एक आतंकी का इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा पता लगाया गया, उनकी गतिविधियों का पता लगाया गया और बाद में सुरक्षा बलों ने आतंकी को पकड़ लिया, जो एक बड़ा आतंक फैलाने के इरादे से काम कर रहा था।’’ तब चैनल देखने वाले लोग देशभक्ति से ओतप्रोत हो जाते हैं और अपने देश की इंटेलिजेंस नीति की सराहना करते नहीं थकते। इसलिए यह सर्विलांस मामला और भी खतरनाक हैं क्योंकि इससे एक सच्चे समाजसेवी को आतंकी घोषित कर दिया जाना आसान हो सकता है। 

जिस नीति की ओलाचना होनी चाहिए वह तारिफ  के काबिल बना दी जा सकती है। यह इस जासूसी मामले का दूसरा पहलू है। पहला पहलू निजता का हनन है पर कुछ लोग इसे निजता के हनन तक ही सीमित कर देख रहे हैं।

निजता के हनन के पीछे का स्वार्थ

पहला पहलू निजी जिंदगी में तांक-झांक यदि असंवैधानिक है, निजता के अधिकार का हनन है तो दूसरा पहलू बेहद ही खतरनाक है इसलिए यह सोचना कि मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया कि उसके लिए इस निजता के हनन पर उतनी चिंता व्यक्त की जाए, एक बड़ी भूल होगी। क्योंकि सरकार सिर्फ  हमारे निजी जिंदगी में झांकने के लिए हमारे निजी जिंदगी में नहीं झांक रही है, बल्कि उसके पीछे अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए एक नया टेकनिक इस्तेमाल कर रही जिसके जरिये जनपक्षीय आवाज को दबाने का काम किया जा सके। 

इसमें जनपक्षधरों का डेटा कलेक्ट करना, उसके साथ छेड़छाड़ करना और उन्हें झूठे मामलों में फंसाकर उन्हें चुप करना शामिल है। यह उन लोगों के लिए ज्यादा खतरनाक होगी, जो बिना किसी लालच व डर के जनपक्षधर कार्य कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। ऐसे जासूसी सॉफ्टवेयर उनके खिलाफ  सबूत बनाने का काम कर सकता है।

शिकार बने जनपक्षधर

यह एक कल्पना नहीं है। सच्चाई है जो पिछले कुछ सालों से जनपक्षधर लोग झेल रहे हैं। जिसमें हेम मिश्रा, प्रशांत राही और जीएन साईबाबा जैसे सजायाफ्ता जनपक्षधर हैं, जिन्हें बेल भी नहीं मिल सकती, भीमा कारेगांव में आरोपी सोमा सेन, सुधा भारद्वाज, सुरेंद्र गाडलिंग जैसे अन्य लोग हैं, जो बेल के लिए अपील कर रहे हैं और (सबूत न मिलने के कारण) छ: महीने जेल जीवन बिताने के बाद जेल से बाहर आए पत्रकार रूपेश कुमार सिंह जैसे लोग हैं जिन्हें बेल मिल चुकी है।

यहां हमारे सामने तीनों तरह के उदाहरण देखने को मिल रहे हैं जनपक्षधरों के खिलाफ कहीं सरकार आरोप साबित करने में सफल हो गयी, कहीं कोशिश में हैं और कहीं असफल है। पर जिनपर वे असफल रही है उनका संघर्ष खत्म नहीं होता क्योंकि जबतक उनका जनपक्षीय पहलू रहेगा उनके खिलाफ  साजिश भी होती रहेगी।

इसका ही उदाहरण है, पेगासस स्पाईवेयर जैसे लिस्ट में पत्रकार रूपेश कुमार सिंह का नाम शामिल रहना। सिर्फ  इनके ही नहीं, इनकी पत्नी का भी नाम। साफ है कि इनका संघर्ष आगे भी जारी रहेगा।

जल-जंगल-जमीन की लड़ाई 

जो लेखन पूरी तरह से जनपक्षीय व सरकार व कारपोरेट की दमनकारी नीति का विरोधी हो, उसका ऐसे टारगेट पर होना आश्चर्य की बात नहीं हैं। यह सवाल की जल-जंगल-जमीन के लिए लिखने वाले पत्रकार की आखिर क्यों सरकार जासूसी करवाएगी, का उत्तर बड़ा साफ  है, पक्ष-विपक्ष के चेहरे बदलते रहते हैं, पर जनहित में काम करने वाले जनहित में ही काम करते हैं, किसी सरकार के हित में नहीं।

वे जल-जंगल-जमीन की लड़ाई करने वाली जनता के साथ जब खड़े होते हैं, जब एक पत्रकार चकाचौंध दुनिया से दूर ग्रामीण इलाके की जनता पर हो रहे दमन की, उनके संघर्ष की बात को अपने लेखनी से पूरी दुनिया के सामने रखते हैं, अपने लेखों द्वारा उनकी दमन की कहानी हम, आप तक पहुंचाते हैं, तब जनता से उनकी जमीन लूटकर वहां बड़े स्तर पर खनन, उद्योग और कोई व्यवसायिक संस्थान लगाकर करोड़ों रूपये का मुनाफा कमाने का कारपोरेट जगत का सपना चकनाचूर हो जाता है। उन्हें करोड़ों का नुकसान होता है।

उनके नजर की मुनाफा की फैक्ट्रियों यानी जंगलों, पहाड़ों को उन्हें लूटना आसान नहीं रह जाता है। एक पत्रकार जब जनता के पक्ष में कलम चलाता है, तो उस लेख की सच्चाई हमें भी उस जनता की जिंदगी से जोड़ देती है, हमारी आवाज भी उनके पक्ष में उठने लगती है। और तब उनके हौंसले भी बुंलद होते हैं, वह अपनी लड़ाई और दृढ़ता से करती है इसलिए वे पत्रकार कारपोरेट हित में काम करने वाली सरकार के आंख की किरकिरी होते हैं। बस यह सारांश है कि झारखंड जैसे ग्राामीण इलाके की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार यानी रूपेश कुमार सिंह का नाम और उनके रिलेटिव का नाम इस लिस्ट में शामिल किया गया है। 

इस जासूसी का दूसरा पहलू वैसे लोगों की आवाज जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता, डराया भी नहीं जा सकता, उन्हें भविष्य में गलत तरीके से फंसाकर दबाने के लिए है। यह उनके लेखन की धार पर हमला करने के लिए है, जिससे उनका अक्सर वक्त अपने को निर्दोष बताने में व्यर्थ हो जाए और इतने बड़े जासूसी जाल के बीच उनके लिए काम करना मुश्किल हो जाए। पर ऐसे डेटा का लीक हो जाना उनकी पूरी योजना पर गहरा प्रहार है और यदि हम इन नीतियों से न डरे और जमकर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करें, अपने अधिकार की रक्षा के लिए आवाज उठाएं तो संभव है कि यह सिलसिला टूटेगा। 

यहां पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की बातें बेहद ही हिम्मती और सराहनीय है और हमारे समाज के लिए एक मिशाल भी कि इन सब खतरनाक संभावनाओं के बाद भी वे दृढ़ता से कहते हैं कि ‘‘मैं जनपक्षीय पत्रकारिता करता रहूंगा।’’ 


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