अब तो ठेकेदार और राजनीतिक पार्टियों के हमदर्द भी पुरस्कार बांटने लगे
द कोरस टीमइन दिनों पुरस्कार लेेने और देने की होड़ मची हुई है। अच्छी बात भी है कि इससे लोगों के काम को सही प्रतिसाद मिलते रहता है। लेकिन कई लोगों के द्वारा दिये जा रहे पुरस्कारों को लेकर देने वाले व्यक्ति अथवा संगठनों के ऊपर सवाल भी उठाये गये हैं। और लाजिमी भी है कि जनविरोधी संगठनों और उनके पुरस्कारों से हमें बचना भी चाहिए। अगर यही पुरस्कार कोई ठेकेदार और राजनीतिक संगठनों के लोग देने लगे और अपने महिमामंडन के साथ पुस्तक समीक्षा करवा लें और पुरस्कार ग्रहण करने वालों को अंधेरे में रखकर जनविरोधी गतिविधियों को संचालित करना चाह रहें हो तो हमें उनकी इस चालाकानुवर्ती साजिशों से सावधान रहने की जरूरत है।

हमने 2015 से 2019 के बीच देश कई बुद्धिजीवियों को देखा है जिन्होंने सरकार से लिये गये पुरस्कारों को सरकार के नीतियों के खिलाफ लौटाया है। प्रसिद्ध गायक रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी नाइटहुड की उपाधी को लौटा दिया था।
हाल ही में लौह नगरी दल्ली राजहरा के पास चिखलाकसा में ऐसे ही एक आयोजन में कथित लेखिका शिरोमणि माथुर द्वारा रचित किताब ‘अर्पण’ की समीक्षा गोष्ठी में बतौर कुछ पत्रकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ‘आलोक स्मृति सम्मान पत्र’ देकर सम्मानित किया गया। और ‘अर्पण’ पुस्तक की समीक्षा गोष्ठी रखी गई।
बताया गया कि हस्ताक्षर साहित्य समिति एवं माथुर परिवार के संयुक्त तत्वावधान में यह कार्यक्रम माथुर सिने फ्लेक्स में संपन्न हुआ। बताते चले कि माथुर परिवार का संबंध लंबे समय से कांग्रेस पार्टी और ठेकेदारी से रही है।
विशेषकर शिरोमणि माथुर झुमुक लाल भेडिय़ा के समय से ही राजनीति में सक्रिय रही हैं और उनके वरदहस्त में उनके पुत्र आलोक माथुर ने ठेकेदारी के बूते काफी धन का संग्रह किया है। मेरे जानकारी में उनकी कोई शुद्ध सामाजिक भूमिका कभी नहीं रही है और ना ही ठेकेदारी के बूते जनकल्याण व जनसरोकार के कामों को कभी पूरा ही किया है।
इस कथित सम्मान समारोह व पुस्तक के विमोचन को लेकर कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से चर्चा की है। नाम ना प्रकाशित करने की शर्त में सभी ने इस मुद्दे पर कुछ ना कुछ कहा है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि लोगों ने अपना नाम ना प्रकाशित करने की शर्त में हमसे बातचीत की है। यहां हम उनके नामों को प्रकाशित ना करते हुवे उनकी प्रतिक्रियाओं को हुबहू प्रकाशित कर रहे हैं।
एक चर्चित सामाजिक जनसंगठन के कार्यकर्ता का कहना है कि-‘बस ओ एक ठेकेदार हैं और चंदा देते हैं इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। और अगर देखा जाये तो जब दल्ली राजहरा में पालिका बना तो दो ही व्यक्ति पनपे हैं एक पुरोबी वर्मा दूसरा माथुर। नगर पालिका से जो टेंडर निकलता था सारा टेंडर उनको ही मिलता था और एक तरफा उनका राज था।
जो विरोध करते थे उन्हें दबा दिया जाता था। समाज के प्रति उनका काम निगेटिव ज्यादा रहा है।’ उन्होंने मेरे सवाल पर अपनी निजी प्रतिक्रिया जोड़ते हुवे कहते हैं कि 80 प्रतिशत लोग मंच और सम्मान के भूखे होते हैं।
वहीं एक चर्चित आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया आपको तो पता है कि आलोक एक कान्टेक्टर हैं। सिरोमणि माथुर कांग्रेस की पदाधिकारी हैं। समाजसेवा पुरस्कार देने का आयोजन मुझे डायजेस्ट नहीं हुआ।
अपने लोगों को अपने साथ रखने और अपने कार्यों के खिलाफ ना जाये इसलिए ऐसा कुछ बुना गया लगता है। कुछ लोग विभिन्न आयोजनों के लिऐ चंदा लेने चले जाते हैं और ईमानदारी से कहूं तो वो दे भी देते हैं। बस, इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं।
बड़े केनवास में उनका सामाजिक सरोकार जैसा कोई उपलब्धि नहीं है। वे कहते हैं कि नाम प्रकाशित किया तो कांग्रेस के मित्र मेरे खिलाफ चले जायेंगे। शिरोमणि के बच्चे जहां जहां ठेका लेते है बतौर वह (शिरोमणि माथुर) वहां उनके संरक्षक रहती है। एक समय दो नाव में सफर कर रही है और दोनों विपरित दिशा में जा रही है।
ठेके मतलब पुल, रोड तो बनते जा रहे हैं पीछे से उखड़ेते भी जा रहा है। कांग्रेस का नाम लेकर वो लोग अपने आप को सेफ रखते हैं। कोई बड़ा योगदान दल्ली के जनता के लिये कुछ भी नहीं है। पुरोबी वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुका है। एक बड़े राजनेता के समय में संरक्षण मिला हुआ था।
वे कहते हैं कि पुरोबी पीडीएस के मामले में कभी भी जेल चले जाएगी। थाना राजहरा में आरटीआई लगाकर पुरोबी वर्मा के खिलाफ में चार्जसीट वैगरह मांगिये पुरोबी वर्मा के आने के बाद नगर पालिका को चारागाह बनाया गया। उनका कोई पॉलटिकल बेकग्राउंड नहीं था। जब केआर शाह जीएम हुआ करते थे पुरोबी का पति उनका गाड़ी चलाते थे। मालूम नहीं कैसा गणित बैठा और वह पालिका अध्यक्ष बन बैठी।
जीतने के बाद आलोक माथुर के उपर निर्भर हो गई थी। जो नहीं होना था सारा निर्माण बेहिसाब - बेतरतीब खंडहर में तब्दील हो गया है। कोई साफ सुथरा छबि नहीं है। मेरा बीजेपी कांग्रेस के साथ रिलेशन है, बस। पार्टिकुलर नाम से आने से परेशानी होगी।
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक की अध्यक्ष पुरोबी वर्मा के सहयोगी हैं। उन लोगों ने टिकट दिया भ्रष्टाचार में उतर गई उस पर लगाम तक नहीं लगाया जा सका। डिवाइडर में कई लोग मर गये। उखाडऩे में कई करोड़ खर्च हो गये।
ट्रांसपोर्ट नगर बनते - बनते उखड़ गया। वहां मोर्चा के अलग गुट का जमावड़ा हो गया। पुलिस ने वहां छापा भी मारा। बाद में इस छापा को धोबेदंड का जंगल बता दिया गया। दल्ली राजहरा एक हिसाब से चारागाह बन गया। स्पष्ट साफ सुथरा कोई काम नहीं होता है।
इसी तरह एक चिकित्सक ने बताया कि वास्तव में आलोक माथुर जो है ठेकेदार है। जब छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) नगर पालिका बना पुरोबी वर्मा को उन्होंने (आलोक) खड़ा किया था। 10 वर्षों तक वह नगर पालिका अध्यक्ष रही। सभी ठेके आलोक माथुर को मिला।
कैसे मिला मुझे नहीं पता? उसके बाद दूसरे के आने से आलोक का नहीं चला। लेकिन बाद में भी कांग्रेस का ही राज रहा। उस समय वह परिवार काफी पैसा बनाया। बेमेतरा में स्कूल भी बनाया। लेकिन गरीबों के लिये कुछ भी नहीं।
वे कहते हैं कि दल्ली में कोई सामामजिक काम उनके द्वारा मेरे नजर में नहीं आता है। उनकी मां कांग्रेस का अध्यक्ष ब्लाक या जिला की थी स्पष्ट नहीं है। सामाजिक काम में उनका कोई सरोकार कभी नहीं सुना दूसरे जानते हों? लोगों को बहुत मदद किया ऐसा भी नहीं।
लास्ट चुनाव में देवलाल ठाकुर पंचायत अध्यक्ष बालोद जिला का था। उनको टिकट नहीं मिला फिर उन्होंने चुनाव लड़ा उनको आलोक मदद किया लेकिन वह हार गया। अच्छा कुछ किया नहीं दिखता। पुरोबी के समय नगर पालिका का सभी काम आलोक को मिलता था, यह सभी का कहना है।
समाज में कोई काम किया ऐसा नजर नहीं आता है। हां चिखलाकसा में पिक्चर हाल बनाया। अनाप - शनाप डिवायडर बनाया और उसको तोड़ा भी। ऐसा वह आदमी व्यक्तिगत रूप से कोई खराब नहीं था।
एक पुराने मजदूर नेता ने बताया कि देखिये मूलत: समाज सेवा तो उनका कुछ भी नहीं रहा। भेडिय़ा जी के साथ रहे हैं। उनके साथ बड़ा ठेकेदार बना, अब जरा कमजोर पड़ गये हैं। कांग्रेस के मुखिया थे। बीच में आलोक का देहांत हो गया। चीजें सामाजिक सेवा का नहीं रहा है। पंचायत में जो कांग्रेस काम के बदले पेमेंट नहीं कर सकती वह गांवों में बारिश से बचने ग्रामीणों को छाता बांट रही हैं। सुना है उन्होंने पुत्र के उपर किताब निकाला है।
पुस्तक में आबादी के खत्म होने का कारण का उल्लेख है क्या? उन्हें नगर पालिका का ठेका मिला करता था यानी इनका काम मूलत: ठेके का रहा है। लडक़े के नाम किताब निकाल कर सिद्ध करना चाहती हैं कि वे समाज के बड़े हितैषी हैं। इनके पास पैसा है। राजनीतिक प्रभाव है। अभी उनके तमाम प्रभाव भी इधर - उधर हो गया है। मुख्य रूप से अपने पुत्र के याद में कुछ करना चाहती हैं। दुनिया भर लंद - फंद कर लूट कर ले आये और बन गये समाजसेवक।
बहरहाल अब तो पुरस्कार खरीदे और बेचें जा रहे हैं। जिनमें पैसे लूटाने की कूबत हो तो वह सम्मान के साथ राशियां भी बटोर लें। चाहे वह सरकारी पुरस्कार ही क्यों न हो? एक दलित संगठन ने बकायदा पुरस्कार देने की संस्था खोल रखी है। जिन्हें सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करने की शौक हो वह रुपयों के बल पर ट्राफी, प्रमाणपत्र और अपने मुताबिक भीड़ इकट्ठे कर लें।
उनका यह पुरस्कार छत्तीसगढ़ के अलावा दिल्ली से भी दिलाया जाता है। इससे भी आगे उनको महिमामंडित करते खबरें बड़े अखबारों में मुख्य पृष्ठ पर छप जाया करता है। लिहाजा पुरस्कार और सम्मान की भूख के साथ उसे बांटने और लेने का जश्र का बाजार जोर शोर से चल रहा है। चलते चलते बताते चले कि 2002 में प्रख्यात लेखिका अरूंधति राय ने अपने पुरस्कार की राशि को 50 जनसंगठन और छोटे अखबारों के प्रकाशन के लिये वितरित कर दी थी।
Add Comment