कहानी: एफआईआर
इलिका प्रिय, कथाकारअलका शांति की एक अच्छी दोस्त बन गयी थी। वह शांति से न ही अब सिर्फ खबर के सिलसिले में मिलती थी, बल्कि उससे कुछ नया जानने, कुछ बताने, नया सिखाने, देश-दुनिया की खबरों से रूबरू कराने और कभी-कभी मनू को प्यार करने के लिए भी मिलती थी। वह हफ्तों उसके घर रह भी जाती थी। पहली बार अलका को देखकर शांति ने नहीं सोचा था कि उसके साथ उसका ऐसा दोस्ताना रिश्ता बनेगा। कहां वह एक पत्रिका की रिपोर्टर, कहां वह एक मारे गये ग्रामीण की पत्नी।

सुरीन की हत्या के बाद तो उसकी जिंदगी ही उजड़ गयी थी, पर अलका के साथ ने एक नयी रौशनी दिखाई थी सच में अब वह जिंदगी जीने लगी थी। उसने सोचा भी नहीं था कि सुरीन की हत्या के महज दो महीने बाद ही वे इतनी संजिदगी से जी सकेगी। पर यह सब अलका की देन थी। बस बीते कुछ दिनों से अलका थोड़ी उदास-सी दिख रही थी क्योंकि लाख समझाने के बाद भी शांति अब तक एफआईआर करने को राजी नहीं हुई थी।
‘‘बिना एफआईआर के न्याय कैसे मिलेगा?’’- सवाल पर वह चुप्पी साध लेती। शांति के मन मे क्या चल रहा था, क्या वह डर गयी थी, अलका को कुछ पता न था। आज जब फिर एक घटना बगल के गांव में वैसी ही घटी, तो अखबार का कतरन लेकर अलका फिर शांति के पास आई और अबकि उसने शंाति के हाथ में वह कतरन थमा दिये-‘‘ पढ़ो इसे! कब तक चलेगा यह?’’
कतरन पर नजर पड़ते ही एक बार फिर शांति के आंखों के सामने अंधेरा छा गया और बीते दिन एक-एक कर आंखों के सामने नाचने लगे।
‘‘कहां जा रहे हो?’’-उस दिन उसने सुरीन को टोका था।
‘‘शिकार करने! बड़े साल बाद आज मन कर रहा है।’’-सुरीन ने मचलते बच्चे की तरह कहा था और अपना भरटुआ देशी बंदूक खूंटे से उतार कर कंधे पर टांग ली थी।
‘‘क्यों लग रहा हूं न शिकारी?’’-उसके पूछने पर शांति हंस पड़ी थी।
‘‘कहीं कोई तुम्हें लड़ाकू न समझ ले!’’
‘‘अच्छा! मतलब लड़ाकू यह खिलौना बंदूक लेकर जाते हैं क्या?
‘‘ क्यों इसमें गोली नहीं होती क्या?’’
‘‘एक वह उन बंदूकों वाली नहीं! बस जानवर मारने वाली।
हर कोई जानता है कि यह बाबा जमाने की बंदूक है, जिसमें एक गोली होती है और कोई भी लड़ाकू एक गोली वाली बंदूक लेकर यु़द्ध पर नहीं जाते।’’-सुरीन कहता हुआ निकल गया था। सुरीन की वह बात ‘‘हर कोई जानता है कि यह बाबा जमाने की बंदूक है, जिसमें एक गोली होती है और कोई भी लड़ाकू एक गोली वाली बंदूक लेकर यु़द्ध पर नहीं जाते।’’ शांति की बौखलाहट बढ़ा देते थे।
क्या इस बात से वे पुलिस वाले अंजान होंगे, नहीं! फिर सुरीन की मौत कोई शक या संदेह का कारण हो ही नहीं सकती थी। मतलब साफ था जो अलका ने भी कहा था ‘‘ वह पुलिस वालों का अहम् और ग्रामीण आदिवासियों को हिन भावना से देखने का नजरिया ही था, जिसके कारण वारदात हुई थी।
शांति की आंखे भर आई जैसे कतरन पर किसी और की नहीं सुरीन की खबर छपी हो।
सुरीन पहला व्यक्ति नहीं था, इन इलाकों का जो शिकार करने निकला था। पहले तो हर कोई इस पर्व में मजे से शिकार करने जाते थे। किसी खरगोश का, चिडिय़ा का, सूअर का या किसी और जानवर का...। शिकार का यह सिलसिला चूंकि सिर्फ गिने चुने पर्वों का ही था इसलिए इससे प्रकृति के विनाश का भी कोई सवाल नहीं था। इन प्रकृतिरक्षकों के हाथों।
अपनी जरूरतों की चीजें लकड़ी काटना, शिकार करना, जंगल साफ कर खेती करना के बावजूद लोगों का रवैया कभी विनाशकारी नहीं था ये प्रकृति के साथ ही खेलते-कूदते बड़े होते थे।
पर जब से इन इलाकों में सुरक्षाबलों का कैंप लगना शुरू हुआ, कहीं विनाशकारी हालत में जंगलों की कटाई, खनन और कहीं जंगलों को रिजर्व फोरेस्ट रेंज में रखना तब से कम ही लोग जंगलों में शिकार करने या जरूरत का सामान लाने जाने लगे थे क्योंकि सूट-बूट में हथियार से सुसज्जित तैनात सुरक्षा बलों की सोच लोगों को हिन नजरों से देख बेवजह पीटाई, गाली-गलौज कर इनके आत्मसम्मान पर चोट करने से कभी बाज न आती थी।
उस दिन सुरीन और उसके पांचो दोस्त रमादीन, आसू, रमेश, विप्पल और गारो पर्व के उत्साह में बिना कुछ आकलन किये ही अपना भरटुआ लेकर चल पड़े थे जंगल किसी खरगोश या चिडिय़ां का शिकार करने। आसू तो बाहर रहता था, पर्व में घर आया था। उन्हें क्या मालूम था मौत पुलिस की शक्ल में जंगल में वह भी उस जगह पर जो मैदानी हो, उनका इंतजार कर रही है।
सुरीन की बातें सोच कर मुस्कराती शांति जब अपने बेटे मनू को सुला रही थी, गोलियों की धांय-धांय की आवाज उसके कानों में पड़ी। एक पल को वह चौंकी। ‘‘नहीं! यह उनके बंदूक की आवाज नहीं हो सकती! फिर क्या हो रहा है? ...मुठभेड़...यहां....।’’ वह भी बाकी लोगों की तरह घबराकर घर से बाहर निकली थी।
‘‘घर के अंदर जाओ! लगता है, मुठभेड़ हो रहा है... यहीं पास में...आवाज पास से ही है.....रूको पता लगाकर आता हूं।
सुरीन कहां हैं? - ‘‘कहकर दिना काका चल पड़े थे पता लगाने। और फिर पूरे गांव में हो हल्ला मचा। ‘‘अरे ...हमारे बच्चों को मार रहे हैं...कोई शिकार करने गया था उसे...।’’
‘‘सुरीन भी तो शिकार करने गये थे।’’-शांति चिख पड़ी। वह घटनास्थल को दौड़ी। और भी लोग दौड़े जा रहे थे।
‘‘एक को जंगल ले गये उठाकर... गोली मारे हैं...एक गिरा पड़ा है वहां...।’’ कई बातें सुनाई पड़ रही थी कानों में।
सुुरीन कहां हैं?...उसके बाद उसे होश कहां था, बौखलाई बस वह सुरीन को ढूंढ़ रही थी। सुरीन! सुरीन!
वह जो मारा गया सुरीन है...। सहसा किसी की बात कानों में पड़ी। तब उन्होंने देखा खून से लथपथ आसू को और अचेत पड़े खून से नहाए सुरीन को...।
शांति की आंखों से आंसू की झड़ी फूट पड़ी। कितना भयावह था वह दिन। चिल्ला-चिल्ला कर शांति का गला फटा जा रहा था। काका और काकी भी माथा पटक पटककर रो रहे थे। लाश भी उन्हें नहीं मिली थी उस दिन...।
बेशर्म पुलिस वाले बंदूक तानें गालियों की बौछार कर रहे थे, धमका रहे थे, मारने की धमकी दे रहे थे, उनके पास कौन जा सकता था...उनके हाथ में बंदूक थी उसमें अब भी गोलियां थी...वह भी लाइसेंसी बंदूक ...।
उन्होंने सूरीन की लाश को बेरहमी से खींचा और घसीटते हुए गाड़ी तक ले गये... बाकि पांचों को बंदूक वहीं शिकार वाली बंदूक के साथ गिरफ्तार कर लिया... जानवरों की तरह उन्हें भी जीप में ठूंस दिया। जख्मी आसू को भी...‘‘बिना लाइसेंस के बंदूक देशी बंदूक को भी...।
ये हमारे बच्चे हैं...नक्सली नहीं हैं... इन्हें मत पकड़ो...छोड़ दो...गांव वालों की गूंजती चित्कार उस वातारवण में विलीन हो गयी, उस दिन।
शांति ने अलका के दिये कतरनों पर नजर दौड़ाई-‘‘पुलिस कहती है कि नक्सली मारा गया, ग्रामीण इनकार करते हैं...।’’ शांति फिर खो गई। उस समय भी तो यही हुआ था। उसे याद है।
दूसरे दिन अखबार में खबर भी छप गयी थी। एक नक्सली मुठभेड़ में ढेर। वह भोला भाला सुरीन कुख्यात बना दिया गया था। उसकी मौत को तब तक पीठ थपथपाने लायक बना दिया गया था जबतक सारा सच चीख-चीख कर अखबारों तक न पहुंच गये थे बड़ी मेहनत से उस इलाके के पत्रकार ने खूब भाग दौड़ कर सारे सच को सामने लाया था, तब दूसरे दिन अखबारों की हेडलाइन बदली।
‘‘ सुरक्षा बलों द्वारा एक ग्रामीण की हत्या, पुलिस वालों ने भी इसे स्वीकार किया।’’ तीसरे दिन तक सच पूरी तरह साफ हो गया था।
उसके बाद गांव में हलचल मची थी शांति खुद न्याय के लिए खड़ी थी, गांव के लोग थाने घेराव के लिये। क्योंकि अब भी वहां उनके निर्दोष बच्चे कैद थे। थाने में वे पहुंचे तो सही बच्चों को छोड़ देने की गुहार के साथ, पर थानेदार ने जो कागज उन्हें थमाया उन्हें पढऩे में वे बिल्कूल अक्षम थे।
क्या लिखा है वे जानना चाहते थे, पर कैसे कहे जब पुलिस वाले उनके बच्चों को छोडऩे को तैयार हो तो बस एक अंगूठे की ही तो जरूरत थी। जब यह अंगूठे का निशान उनके बच्चों को आजाद कर सकता है तब सवाल पूछकर बवाल क्यों खड़ा करते।
इन पुलिसवालों से इतनी रहमी की उम्मीद भी न थी। थानेदार का एक ही तो कहना था ‘‘अंगूठा लगाओ और लडक़ों को ले जाओ।’’ शांति क्या करती आवेदन लेकर गई थी थानेदार को देकर आई।
थाने का घेराव न हुआ। अंगूठा लगा दिया गया और बड़ी ही नर्मी से बताया गया कि चार दिन के बाद उन पांचों को छोड़ दिया जाएगा। पर चार दिनों बाद भी पांचों न छोड़े गये। इन्हीं दिनों अलका भी शांति को मिली थी। वह पहली महिला थी जो दूसरी जगह से उस खबर को देखने यहां आई थी।
वरना अखबारों तक छपकर वह खबर अब मर चुका था। उसने ही शांति को बताया कि जिन लोगों से अंगूठे का निशान लिया गया था, उन्हें घटना का चश्मदीद गवाह बना लिया गया है।
उसका मानना था कि गांव वालों को आंदोलन करना चाहिए और शांति को एफआईआर। वे मान भी गये थे। पर जिस दिन आंदोलन की योजना बनी। थाने से फिर लोग आए।
पर आते ही उन्होंने अपनी भूल को स्वीकारा-‘‘यह हमसे गलती हो गयी है। हम नक्सली समझकर उसे मार डाले। पर वे भी हथियार के साथ थे, हम क्या करते?’’
हथियारों से सजे जब पुलिस वाले गांव पहुंचे तो एक भय ने सभी को घेर लिया था, मगर जैसे ही पुलिस वाले अपनी गलतियां स्वीकारने लगे, नर्मी से अपनी बात रखने लगे, लोगों का दिल पिघलता गया।
दो दिनों बाद उन पांचों को छोडऩे की बात की गयी और इसके लिए किसी भी तरह का आंदोलन नहीं करने की बात कही गयी। कुछ अच्छे वादों के साथ वे लोग वापस लौट गये थे।
गांव की वह एकजुटता दो गुटों में बंट गयी थी। एक तरफ वे लोग जो सुरीन को न्याय दिलाने के लिए लडऩा चाहते थे और दूसरी तरफ वे लोग जो कुछ और बूरा होना टल जाने का शुक्र मनाते हुए बात यहीं खत्म कर देना चाहते थे।
वैसे भी कौन सी यह पहली घटना थी, इसके पहले भी कई वारादात ऐसी ही हो चुकी थी। जब से कैंप लगने लगे हैं ऐसी वारदातें महिने-दो महिने में घट ही जाया करती थी। दो दिनों बाद पांचों छोड़ दिये गये थे। और आंदोलन की हवा ठंडी पड़ गयी। जैसे उन्होंने पुलिसवालों को पूरी तरह माफ कर दिया हो।
‘‘गांव वाले तो सुरीन को भूल गये! पर तुम्हारी लड़ाई्’’-अलका ने भावावेश में कहा। अतीत में खोई शांति वर्तमान में आ गयी। और एक पल को सन्नाटा छाया रहा।
‘‘ तुम्हे पता है। गांववालों के साथ फिर धोखा हुआ है, पुलिस ने एफआईआर में उन पांचों का नाम अपराध लिस्ट में दर्ज कर लिया है। भविष्य में कभी भी वे गिरफ्तार किये जा सकते हैं। अखबारों में खबर भले ही छपी हो, ग्रामीण के मरने की। पर सरकारी कागजों में कहीं इस घटना का जिक्र नहीं है।
जो मारा गया है, वह नक्सली ही है, जो पकड़े गये थे, वे भी नक्सली ही है। जिन्होंने निर्दोष बच्चों को छुड़ाने की गुहार लगाई, वे चश्मदीद गवाह ही है। यह पूरी परिघटना उन ग्रामीणों के खिलाफ है जिन्हें आज भी किसी कागज पर साइन करने के लिए अंगूठे लगाने की जरूरत पड़ती है।
अक्षरों से कोसों दूर ये अपने खिलाफ हर प्रकरण को समझते तो हैं पर कानूनी दांवपेच में बिल्कुल ही असमर्थ हैं। क्या तुम इस असमर्थता को तोडऩा नहीं चाहती हो?’’-अलका ने कड़े शब्दों में कहा।
‘‘तुम एफआईआर क्यों नहीं करती, क्या तुम नहीं चाहती तुम्हारे सुरीन को न्याय मिले?’’
‘‘ न्याय के लिए लडऩा मतलब हम तब तक लड़ते रहते हैं, जब तक न्याय न मिल जाए। तुमने ही बताया है न! मुझे! देश भर में कितने लोग न्याय की गुहार लगा रहे हैैं और उसका क्या परिणाम मिला है अब तक कितना न्याय मिला हैं? हम आवेदन करते हैं, आवेदन नहीं सुनी जाती?
हम एफआईआर करते हैं उस पर काम नहीं होता, हम आंदोलन करते हैं? हमारी कोई बात नहीं सुनी जाती, बल्कि हमें लाठी-डंडे से पीटा जाता है, हम इसका मुकाबला करते हैं तो हमें भी नक्सली, खालीस्थानी, उग्रवादी, आतंकवादी बताया जाता है।
अब बताओ अंत तक न्याय के लड़ाई कैसे लड़ा जाए? तुमने ही बताया न कि उनके एफआईआर में हमारा सुरीन आज भी नक्सली है और बाकि के लोग संदिग्ध है। फिर भी हमारे गांव के लोग शांति से अब जी रहे हैं। आंदोलन की मंशा तुरंत खत्म हो गयी। पता है क्यों’’
‘‘क्योंकि बहुत दिनों से हम भारी उत्पीडऩ झेल रहे हैं। हमें इसमें रहने की आदत पड़ गयी है। और इस असमर्थता को उन्होंने सच मान लिया है। इसलिए जब पुलिस वाले मुस्काए तो हम भी मुस्कराए भले ही हमारे आंगन में किसी अपने की लाश पड़ी थी।
हम इतने उत्पीडऩ के आदि हो गये हैं कि उसमें थोड़ी-सी भी छूट हमें पूरी आजादी लगती है। और बाकि लोगों को भी हमारे लिए ऐसे ही जिंदगी जीते देखने की आदत पड़ी हुई है इसलिए एक पन्ने पर हमारी ऐसी खबर पढक़र वे पलट देते हैं, अपने पुलिस-प्रशासन से कोई सवाल नहीं करते, उन्होंने ऐसा क्यों किया?
हमारे मानवाधिकार की हत्या हुई है जब हम गुहार लगाएं तब कोई हमारी ओर देखेगा, और हम अगर सक्षम न हो तब क्या होगा, वही जो हो रहा है। चारों ओर इस अमानवीय घटना पर भी शांति। हमारी जिंदगी इतनी बदतर स्थिति में बितती है अलका! कि हमें खुद नहीं पता रहता हमारे किस अधिकार का कहां तक हनन हो रहा है।
बंदूक के साए में हमारी जिंदगी बितती है, मारपीट आम घटना है, कैसे ऐसे लोगों से उम्मीद करोगी अपने अधिकार के हनन पर न्याय की गुहार लगाए। जब जीना एकदम मुश्किल हो जाता है तभी कोई खड़ा भी होता है। यह हमारी अज्ञानता नहीं है, यह हमारी स्थिति है। भयानक स्थिति।
पर गांवो वालों की चुप्पी के बाद भी मैं एफआईआर लिखवाती अगर अखबार पढऩे वाले बाहर से लोग इस खबर को पढक़र ही उठ खड़े होते कि ऐसा अन्याय क्यों?’’
‘‘तो क्या तुम इस कारण शांत हो जाओगी कि कोई और तुम्हारे लिए नहीं बोल रहा।’’
‘‘नहीं मैं ऐसा नहीं कहती, मैं न्याय लूंगी पर एफआईआर के नाटक के साथ नहीं। मैं लोगों के अंदर का डर भगाकर न्याय लूंगी, मैं अपने गांव वालों को जगाकर न्याय लूंगी। अपनी पहचान बदलकर न्याय लूंगी।
मेरे सुरीन ने मुझे पढऩा सिखाया, तुमने मुझे उठना सिखाया, मैं यह दोनों चीज अपने लोगों को सीखाउंगी ताकि कोई भी गोली यूं ही हमे न छू ले। मैं सस्ते अंगूठे के निशान की पहचान मिटाकर अपना न्याय लूंगीं। ’’
आज पहली बार शांति ने अपनी चुप्पी तोड़ी थी। अलका के पास कोई जवाब न था। पर वह शांति के जवाब से सहमत ही न थी गर्व भी महसूस कर रही थी। न्याय के लिए वर्षों तक गुहार लगाने की जगह न्याय का अच्छा तरीका शांति ने ढूंढ लिया था। यह भी एक दिन का काम न था पर इसमें गति थी निष्क्रियता नहीं।
कथाकार बोकारो में रहती हैं और कानून की पढ़ाई कर रही हैं।
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