मूलनिवासी दिवस को आदिवासियों पर राज्यहिंसा रोकने के रूप में मनाने की अपील

द कोरस टीम

 

मंच ने कहा है कि आगामी विश्व आदिवासी दिवस 9 अगस्त, 2021 काफी नजदीक है। पिछले विश्व आदिवासी दिवस से लेकर अब तक के एक साल का समय, विगत की ही तरह मूलवासियों/आदिवासियों पर राज्यहिंसा उनकी बेदम पिटाई, झूठे मुकद्दमों में जेल, आदिवासी महिलाओं पर अत्याचारों, झूठी मुठभेड़ों व नरसंहारों में उनकी जघन्य हत्या तथा उनके जल-जंगल-जमीन व संसाधनों को हड़पने की कोशिशों, उनके अस्तित्व, अस्मिता, आत्मसम्मान को मिटाने के प्रयासों का गवाह कहा है। 

इतना ही नहीं बल्कि वह अपने जल-जंगल-जमीन व संसाधनों को बचाने, अपने अस्तित्व, अस्मिता व आत्मसम्मान को बचाने, अपने पहाड़ों व अपनी आस्था के प्रतीकों को बचाने तथा खासतौर पर उनके दमन के लिए बैठाए जा रहे पुलिस, पैरा-मिलिटरी, कमांडो बलों के कैंपों के खिलाफ, बस्तर में नरसंहारों के खिलाफ आंदोलनरत आदिवासी अवाम का एवं उनकी बुलंद होती आवाज का साक्षी रहा है।

विशेषकर बस्तरिया आदिवासी पिछले डेढ़ साल से भी अधिक समय से बस्तर में पुलिस कैंपों को बंद करने की मांग को लेकर लगातार शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे हैं।

पोटाली, चीखपाल, कडियामेट्टा, बोदली, कोहकामेट्टा, आकाबेडा, तुमिरघाट, करकाघाट, टेटियम, नाहोडी, विंपा, बर्रेगुडेम आदि पुलिस कैंपों के खिलाफ दसियों हजार आदिवासी जनता उन्हीं कैंपों के सामने ‘थाना- कैंप नहीं, स्कूल अस्पताल चाहिए’, ‘बस्तर में नरसंहार बंद करो’, ‘पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए विस्थापन मंजूर नहीं’, ‘हमारा बस्तर - हमारा राज  अर्थात मावा बस्तर मावा राज, स्वायत्तशासी बस्तर, 6वीं अनुसूची के अमल की मांग’ की है। 

मंच का कहना है कि दमन जारी है और विगत 12 मई से लेकर आज पर्यंत जारी सिलगेर कैंप विरोधी आंदोलन के दौरान 17 मई के गोलीकांड में तीन आदिवासियों जिनमें एक 14 साल का नाबालिग भी शामिल है, की निर्मम हत्या की गयी एवं 18 घायल हुए जिनमें से एक गर्भवती महिला की भी मौत हुई है। इस आंदोलन में शामिल होने जा रहे तोलोवर्थी गांव के एक और आदिवासी की भी 22 मई को पुलिस ने सीधे गोली मारकर हत्या की और मुठभेड़ घोषित की।

सिलगेर आदिवासियों के नरसंहार के खून के धब्बे सूखे ही नहीं, दंतेवाड़ा के नीलावाया में आदिवासी ग्रामीण संतोष मडकाम की झूठी मुठभेड़ में पाशविक हत्या की गयी जिसके खिलाफ हजारों ग्रामीणों ने 9 दिनों तक आंदोलन किया। नारायणपुर जिले के ओरछा ब्लॉक के आदिवासी ग्रामीण मंगतु को घर से पकडक़र ले जाकर अमानवीय यातनाएं देकर इतुल गांव में उनकी हत्या की गयी और वर्दी पहनाकर माओवादी घोषित किया गया जिसके खिलाफ हजारों लोगों ने ओरछा में धरना-प्रदर्शन किया।

मूलवासी मंच का कहना है कि झूठी मुठभेड़ों, नरसंहारों, महिलाओं पर अत्याचारों व उनकी हत्याओं, अवैध गिरफ्तारियों व लंबी सजाओं का यह सिलसिला आज का नहीं है। आदिवासियों ने जब से अपने शोषण, उत्पीडऩ, दमन व विस्थापन के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया तब से यह सिलसिला जारी है।

बस्तर की धरती पर जब 2003 में सीआरपीएफ ने कदम रखा तब से लेकर 2005 - 2008 के सलवा जुडुम दमन के दौरान हो, 2009 मई 2017 तक के कथित ऑपरेशन ग्रीनहंट दमन का दौर हो या वर्तमान ‘समाधान’ दमन तक आदिवासियों के दमन का सिलसिला न सिर्फ बेरोकटोक जारी है बल्कि तेज हुआ है।

चाहे सरकार किसी की भी क्यों न हो चाहे कांग्रेस - की हो या भाजपा की। भाजपा जब 15 साल तक सत्तासीन रही तब कांग्रेस पार्टी ने झूठी मुठभेड़ों व नरसंहारों का विरोध किया था, कहीं-कहीं विस्थापन का भी। परंतु सत्तारूढ़ होने के बाद से उसी सिलसिले को स्वयं जारी रखी हुई है। कैंपों का विस्तार कर रही है। अब भाजपा विपक्ष में है और सिलगेर नरसंहार का विरोध कर रही है। कुल मिलाकर कहा जाए तो बस्तर के आदिवासियों का निर्मम शोषण, उत्पीडऩ लगातार जारी है।

यह सिर्फ बस्तर की व्यथा नहीं है। पांचवीं अनुसूची देश के जिन राज्यों में लागू है, उन सभी राज्यों छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, झारखंड, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के आदिवासियों की व्यथा यही है। इन राज्यों में रहने वाले गोंड, हलबा, धुरवा, भतरा, उरांव, भिल, भिलाल, बिरहोर, डमर, खैरिया, मांझी, मुंडा, पराही, गुज्जर, गड्डी, संताल, कोंद, कुई, गरस्ता, मीणा, सालारिया, दामोर, लहुला, स्वांगला व अन्यान्य जनजातीय लोगों की व्यथा भी यही है।

मंच का आरोप है कि सारा दमन यहां की सार्वजनिक संपत्ति, प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर ले जाने की नीयत से अमल में लाया जा रहा है। देश तथा विदेश के कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिए हम आदिवासियों की बलि चढ़ायी जा रही है। हमें हमारे जल-जंगल-जमीन जिस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, से बेदखल किया जा रहा है।

यहां यह बताना वाजिब होगा कि देश के तथाकथित विकास की जब भी बात आती है, बात खनन परियोजनाओं की हो, वृहद् औद्योगिक परियोजनाओं की हो, वृहद बांध परियोजनाओं की हो, थर्मल पावर परियोजनाओं की हो, अभ्यारण्यों की हो, टाइगर रिजर्व की हो आदिवासियों को ही विस्थापित किया जाता है, उनके अस्तित्व, पहचान, आत्मसम्मान, भाषा, संस्कृति को मिटाया जाता है।

वे कहते हैं कि यह सिलसिला अंग्रेजी शासकों से शुरू हुई जिन्होंने जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों के जन्मसिद्ध अधिकार को छीनते हुए अंग्रेजी सरकार का अधिकार घोषित करते हुए वन कानून, जमीन अधिग्रहण कानून आदि अनेकों कानून बनाए थे। वर्तमान सरकारें भी ऐसे ही कानून बनाकर आदिवासी इलाकों को लूटखसोट के अड्डों में तब्दील कर रहे हैं।

वर्तमान सरकारें विकास के नाम पर लंबी-चौड़ी सडक़ें, रेल लाइन, पाइप लाइन बिछा रही हैं, बड़ी-बड़ी खनन, बांध व औद्योगिक परियोजनाएं स्थापित कर रही हैं। विकास के ही नाम पर हजारों एकड़ जंगल काटी जा रही है, जल स्रोतों को नष्ट किया जा रहा है, पर्यावरण को बर्बाद किया जा रहा है, दसियों हजार आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है।

विकास के नाम पर संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। पर्यावरण का विध्वंस किया जा रहा है. विकास के नाम पर असल में विनाश किया जा रहा है। भारत के संविधान द्वारा आदिवासियों को दिए गए अधिकारों से उन्हें वंचित किया जा रहा है। संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है।

पांचवीं अनुसूची पेसा कानून के जरिए ग्रामसभाओं के जो अधिकार आदिवासियों को दिए गए हैं, उन्हें कूडेदान में फेंक दिया जा रहा है। ग्रामसभाओं की अनुमति तो दूर की बात, कम से कम उनसे परामर्श किए बगैर ही खनन, बांध, औद्योगिक परियोजनाओं सहित पुलिस कैंप बेरोकटोक बैठाए जा रहे हैं।

मंच का मानना है कि संसाधनों की लूट व सरकारी सशस्त्र बलों के आवागमन को सरल बनाने के लिए ही सडक़ें, पुल-पुलियाओं, मोबाइल टावरों का निर्माण किया जा रह है जिसे समझकर आदिवासी इन तमाम परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलनरत हैं। लेकिन विरोध करने पर आदिवासियों को लाठी, गोली, जेल का शिकार बनाया जा रहा है।

सिलगेर नरसंहार इसका ताजा उदाहरण है। दसियों हजार जनता के विरोध के बावजूद, बस्तर सांसद के नेतृत्व में गठित 9 विधायकों के प्रतिनिधि मंडल के आश्वासन के बावजूद, स्वयं मुख्यमंत्री द्वारा वर्चुअल कॉन्फरेंस में कैंप हटाने की बात कहने के बावजूद अब आंदोलन को पूरे दो महीने हो गए हैं।

कैंप निर्माण व उसे मजबूत करने का कार्य बेरोकटोक जारी है। सारकेगुड़ा में 28 जून को आयोजित आमसभा में सारकेगुड़ा नरसंहार के दोषियों को सख्त सजा देने की जोरदार मांग उठायी गयी।

जांच आयोग की रिपोर्ट जिसमें सरकारी सशस्त्र बलों को दोषी ठहराया गया है और सजा देने की सिफारिश की गयी, पर अब तक सरकार की न कोई प्रतिक्रिया सामने आयी है और न ही कोई घोषणा। 12 साल बाद भी एक पीडि़त आदिवासी परिवारों को न्याय नसीब नहीं हुआ है।

वे कहते हैं कि आदिवासी विकास चाहते हैं। सर्व सुविधायुक्त स्कूल आश्रम यानी जिनमें पर्याप्त संख्या में शिक्षक हों, प्रयोग शालाएं, ग्रंथालय, खेल-कूद के मैदान व सामग्री हो, हर पंचायत में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल जिनमें डॉक्टरों व दवाइयों की कोई कमी न हो, शुद्ध पेयजल, रोजगार चाहिए।

सबसे महत्वपूर्ण उनके जल-जंगल-जमीन को न छीना जाए, उनकी भाषाओं व संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन हो, ऐसा विकास चाहते हैं. आदिवासी सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों के बीच उन पर आधारित होकर उनकी सुरक्षा करते हुए अपनी आजीविका चला रहे हैं। जंगलों को तबाह करने के मकसद से ही आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है।

इन्हीं मुद्दों को लेकर मूलवासी मंच ने आगामी 9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर  चर्चा प्रारंभ करने की बात की है। वे कहते हैं कि सभी आदिवासियों पर राज्यहिंसा के विरोध स्वरूप इस बार विश्व आदिवासी दिवस मनाएंगे।

मूलवासियों की ‘बस्तर में नरसंहार बंद करने, बस्तर से पुलिस कैंपों को वापस भेजने जैसे मांगों के समर्थन में ऐलान की बात करते हुवे कहा है कि हम बस्तर के साथ खड़े हैं ‘वि स्टैंड विथ - बस्तर’. इतना ही नहीं, यह भी चर्चा करें कि 5वीं अनुसूची पेसा, ग्रामसभाओं के अधिकारों पर अमल न होने की स्थिति में 6वीं अनुसूची को लागू करने, स्वायत्तशासी बस्तर की मांग को लेकर व्यापक जन आंदोलन की बात प्रमुखता से की है।


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment