द दिलीप कुमार नॉट आउट एट नाइंटी एट

जावेद अनीस

 

फिल्मी दुनिया के लिये तो उनकी मौजूदगी एक बुजुर्ग के साये की तरह थी जिनसे इंडस्ट्री के बड़े से बड़े अभिनेता प्रेरणा लेने की बात स्वीकार करने में गर्व महसूस करते थे.

पिछली सदी के चौथे दशक में फिल्मी दुनिया में दिलीप कुमार की आमद ने अदाकारी के मायने ही बदल दिये. वे भारत ही नहीं दुनिया भर के उन शुरुआती मेथड अभिनेताओं में से एक रहे हैं जिन्हें “थेस्पियन” कहा जाता है.

उन्होंने अपने समय और बाद की पीढ़ियों के अभिनेताओं को अदाकारी का गुर सिखाया है जो उनके जाने के बाद भी जारी रहने वाला है. वैसे तो उनकी आखरी फिल्म “किला” थी जो 1998 में रिलीज हुई थी. इसके बाद से वे स्क्रीन से अनुपस्थिति रहे.

लेकिन उनकी आखिरी सफल और व्यावसायिक फिल्म “सौदागर” थी जो तीन साल पहले 1991 में रिलीज हुयी थी.

इस दौरान कई पीढ़ियाँ उनके स्क्रीन प्रभाव से अछूती रही हैं इस बीच समाज, राजनीति, तकनीकी और खुद फिल्मी दुनिया भी पूरी तरह से बदल चुकी है.

दुर्भाग्य से 80 और 90 के दशक में दूसरी पारी के दौरान उनकी अभिनय प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो सका.

1981 में आयी “क्रांति” से लेकर 1998 में रिलीज हुई “क़िला” के बीच उनकी भूमिकाओं में एक प्रकार की एकरूपता दिखाई पड़ती है. शायद इस दौरान ऐसा कोई निर्देशक नहीं था जो उन्हें विविध और चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं दे सके.

लेकिन इन सबके बावजूद दिलीप कुमार अपने आखरी सांस तक एक किवदंती बने रहे और आगे भी अदाकरों के अभिनय में बहते रहेगें. 

'दिलीप कुमार' उनका स्क्रीन नाम था जिसे उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ की मालकिन देविका रानी से मिला था. इससे पहले भी उन्होंने अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर कुमुदलाल गांगुली को “अशोक कुमार” का स्क्रीन नाम दे चुकी थी जो बाद में इंडस्ट्री के “दादा मुनि” कहलाये.

ये देविका रानी ही थीं जिनकी पारखी नजरों ने यूसुफ़ खां में छिपे 'दिलीप कुमार' को पहचाना था और उन्हें पहला मौका भी दिया था.

बॉम्बे टॉकीज़ में काम करते हुये उन्हें अशोक कुमार की सोहबत मिली.
एक अभिनेता के तौर पर दिलीप कुमार करीब सन् चालीस से लेकर नब्बे तक करीब 6 दशकों तक सक्रिय रहे लेकिन इस दौरान उन्होंने मात्र 63 के करीब फिल्में की हैं जिससे पता चलता है कि एक कलाकार के तौर पर वे कितने चूज़ी और परफेक्शनिस्ट थे.

1944 में आई अपनी पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' और 1998 में आई अंतिम फिल्म 'क़िला' के दौरान न केवल बेहतरीन अभिनय किया है बल्कि अभिनय के विभिन्न आयामों को परिभाषित भी किया है.

वे भारतीय सिनेमा में अभिनय के पहले और वास्तविक ट्रेंड सेटर थे. जब उन्होंने अपना अभिनय शुरू किया था भारत में उनके पास अभिनय कला का कोई उल्लेखनीय उदाहरण नहीं था इसलिये उन्हें अपनी राह खुद बनानी पड़ी जो बाद में दूसरे अभिनेताओं के लिये भी अभिनय का रास्ता बना. 

दिलीप कुमार सिनेमा के उन दुर्लभ अभिनेताओं में से हैं जो एक साथ “स्टार” और “अभिनेता” दोनों थे उन्होंने बॉक्स ऑफिस और फिल्म आलोचकों दोनों को सामान रूप से आकर्षित किया. उन्होंने राजकपूर और देवानंद के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को शुरुआती दौर से निकाल पर परिपक्व बनाया लेकिन जब सिर्फ अभिनय की बात आती है तो बाकी सब पीछे छूट जाते हैं और उनकी तुलना हॉलीवुड के शुरूआती मेथड एक्टर मार्लन ब्रैंडो से की जाती है.

दुर्भाग्य से दुनिया दिलीप कुमार के मुकाबले मार्लन ब्रैंडो को ज्यादा जानती और मानती है, ऐसा शायद हॉलीवुड और अंग्रेजी की वैश्विक पहुंच और औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से हैं.बेशक मार्लन ब्रैंडो महान कलाकार हैं लेकिन दिलीप कुमार को अभिनय के मामले में किसी भी तरह से उनसे उन्नीस नहीं कहा जा सकता है.

मार्लन ब्रैंडो को पहला मेथड एक्टर होने का श्रेय दिया जाता है जबकि वे अपने उम्र और अभिनय कैरियर के शुरुआत के मामले में दिलीप कुमार से करीब 6 साल जूनियर थे साथ ही ब्रैंडो के पास स्टेला एडलर जैसी शिक्षिका थीं जिन्होंने उन्हें मेथड एक्टिंग के गुर सिखाया था लेकिन दिलीप कुमार के मामले में ऐसा नहीं था.

बहरहाल उनके अभिनय कला का हिंदी ही नहीं पूरे भारतीय सिनेमा पे बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है और यह हमेशा कायम रहेगा. यह कहा भी जाता है कि भारत के हर अभिनेता के अंदर थोड़ा थोड़ा दिलीप कुमार जरूर होता है और जिसके अंदर ज्यादा होता है वह बड़ा अभिनेता बन जाता है.

अभिनेता शाहिद कपूर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुये कहा भी है "हम सभी दिलीप साब के संस्करणों के अलावा कुछ भी नहीं हैं”. दिलीप कुमार उन चुनिन्दा शख्सियतों में से हैं जिनपर भारत और पाकिस्तान दोनों सामान रूप से हक़ जताते हैं और गर्व महसूस करते हैं.

उनका नाम आने से दोनों मुल्कों की सरहदें और दुश्मनियां हवा और पानी की तरह बहने लगती थी. दोनों मुल्कों ने उन्हें भरपूर प्यार दिया, पाकिस्तान ने उन्हीं अपने सर्वोच्य नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाजा था.

भारत में भी उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था.सही मायनों में वे इस उपमहादीप के सबसे सम्मानित फिल्मी कलाकार थे. 

हॉलीवुड के निर्देशक मार्टिन स्कॉर्सेज़ ने एक बार मार्लन ब्रैंडो के बारे में कहा था, "वे मार्कर हैं, हॉलीवुड में सब कुछ 'ब्रैंडो से पहले और 'ब्रैंडो के बाद है”.

कुछ ऐसा ही हिंदी सिनेमा के दिग्गज अमिताभ बच्चन ने दिलीप कुमार के बारे में कहा है, दिलीप कुमार को श्रद्धांजलि देते हुये उन्होंने ट्विटर पर लिखा है “जब भी भारतीय सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा वो हमेशा दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद लिखा जाएगा”.

भारत ने अपने एक ऐसे रत्न को खोया है जिसकी विरासत को हम हमेशा सहेंज कर रखना चाहेगें. अलविदा “थेस्पियन” आपने एक ऐताहिसिक और नाबाद पारी खेली है.   


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment