माली पहाड़ी संघर्षगाथा
जसिंता केरकेट्टा, माली पहाड़, कोरापुट, ओड़िशासामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने महसूस किया कि शहर के बड़े कार्यक्रम, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस से भी ज्यादा जरूरी है ज़मीन के लोगों से जुड़ना, उनको सुनना और नए रास्ते तलाश करना। वह पहली बार इन इलाकों के लोगों के संघर्ष को सुनने और नियमगिरि सुरक्षा समिति की पदयात्रा को भी समझने की कोशिश कर रहीं हैं।

ओड़िशा के कोरापुट जिले में माली पहाड़ी श्रृंखला है। इसके चारों ओर कोंध, पोरजा आदिवासी रहते हैं। माली और दलित समुदाय के लोग भी हैं। यहां क़रीब 44 गांव हैं। ये पहाड़ों पर खेती करते हैं। छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के कुछ शहरों के लिए इसी माली पर्वत से ही सब्जियां जाती हैं।
माली पहाड़ के लोग 2003 से अब तक हिंडाल्को कंपनी द्वारा पहाड़ों के उत्खनन के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। यहां लोगों का संगठन "माली पर्वत सुरक्षा समिति" के नाम से है। इसकी खासियत यह है कि शुरुवात से ही बड़ी संख्या में आदिवासी और दलित युवा इस संघर्ष में शामिल रहे।
जब संगठन के चार अध्यक्ष बारी-बारी से कंपनी के हाथों बिकने लगे तो एक रात युवाओं ने संगठन के सारे सदस्य को बदल दिया। गांव-गांव इसकी सूचना भेजवाई कि क्यों यह बदलाव जरूरी है। लोगों ने सहमति दी और तब से संगठन उन लोगों के हाथ है जो स्कूली जीवन से इस संघर्ष का हिस्सा होते हुए जवान हुए हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने हमेशा संगठन के नेतृत्वकर्ताओं की गतिविधियों पर नजर रखा, उनके दलाल बनते ही उन्हें चिन्हित कर, संगठन को टूट जाने से बचाया। आज वे ही संगठन को बचाए हुए हैं।
झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ के आदिवासी कैसे उनके साथ जुड़ सके, इसके लिए आज माली पर्वत सुरक्षा समिति के लोगों को सुनना हो सका।
सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने महसूस किया कि शहर के बड़े कार्यक्रम, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस से भी ज्यादा जरूरी है ज़मीन के लोगों से जुड़ना, उनको सुनना और नए रास्ते तलाश करना। वह पहली बार इन इलाकों के लोगों के संघर्ष को सुनने और नियमगिरि सुरक्षा समिति की पदयात्रा को भी समझने की कोशिश कर रहीं हैं।
स्टेट और उसकी मशीनरी आदिवासियों के लिए कितनी बर्बर है। यह ज़मीन को करीब से जानते-जानते ही पता चलता है। कहीं भी प्रतिरोध करते लोगों के जरा से हिंसक होते ही देश उनके ख़िलाफ़ रोना धोना करता हैं। लेखक दल भी। इधर लोकडाउन के दौरान भी कई आदिवासी मारे गए हैं।
पिछले माह छत्तीसगढ़ में लोगों के हित में बोलने वाली दो लड़कियां पुलिस द्वारा घर से लोगों के सामने उठा ली गई। बुरी तरह बलात्कार कर दिए जाने के बाद गोली मार दी गई। उनकी देह को हर जगह चाकुओं से काट छांट दिया गया था। अंग-अंग अस्त-व्यस्त कर दिए गए थे। आदिवासी इलाकों में हर दिन एक हाथरस कांड होता है। इन सब बर्बरताओं की बात कौन करता है?
आदिवासियों के लिए यह एक अंतहीन संघर्ष है ।
जैसे ही सवाल उठाइए उसको झूठा साबित करने की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो जाती है। आदिवासियों के साथ जो होता रहा है उसका एक बर्बर इतिहास है। नंदनी सुंदर की किताब " द बर्निंग फॉरेस्ट" छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ होने वाली बर्बरता का एक जीवित दस्तावेज़ है। क्या वह सबकुछ फेक है ?
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