भिलाई जनसंहार
उत्तम कुमारवर्षों गुजरने के बाद भिलाई जनसंहार (मजदूर आंदोलन के दौरान गोलीकांड)को दुबारा याद करने का समय है। हजारों की संख्या में मजदूर, मजदूर नेताओं के साथ अन्य सामाजिक संगठनों के लोग अपने बुनियादी मांगों के लिए न्योछावर हो चुके मजदूरों को याद करेंगे। छत्तीसगढ़ के बिगड़ते हालातों के बीच नियोगी, उनका श्रमसंगठन और आंदोलन आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। उनके नेतृत्व के बाद दसियों मजदूरों ने अपनी जान की कुर्बानी दी।

जिसमें उनका बलिदान भी जुड़ा हुआ है। हालात आज भी वैसे ही हैं। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) की नौ सूत्रीय मांगों के साथ जीने लायक वेतन के साथ 4200 मजदूरों की कारखानों में वापसी और मजदूरों के साथ नियोगी के हत्यारों को सजा का मामला आज भी शेष है। भिलाई आंदोलन के दौरान 25 मई 1992 को छमुमो द्वारा प्रस्तावित भिलाई महाबंद को राज्य के उद्योग मंत्री कैलाश जोशी के हस्तक्षेप एवं मजदूरों की मांगें पूरा करवाने के आश्वासन के कारण स्थगित किया गया था। अगले 36 दिनों में समस्या हल करने के सारे प्रयास उद्योगपतियों के अड़ियल रवैये के फलस्वरूप विफल रहा।
अंतत: जनकलाल ठाकुर के नेतृत्व में पांच हजार से अधिक पुरूष महिला मजदूरों व बच्चों ने 01 जुलाई 1992 को भिलाई पावर हाऊस रेल मार्ग पर शांतिपूर्वक बैठकर दिनभर चक्का जाम किया। शाम को रेलमार्ग खाली कराने के लिए पुलिस द्वारा पहले सत्याग्रही मजदूरों एवं बच्चों पर अंधाधुंध गोली चालन एवं बाद में मजदूरों को खदेड़ते हुए 5 किमी दूर तक के इलाके में लाठी चार्ज, गोली चालन एवं आतंक का माहौल तैयार किया गया।
रेल लाइन के पास इकट्ठी आम नागरिकों की भीड़ ने पुलिस कार्रवाई पर क्रुद्ध होकर पुलिस पर पथराव किया जिसमें एक पुलिस सब इंस्पेक्टर टीके सिंह मारे गए। इस जनसंहार के दौरान 13 छमुमो के मजदूरों सहित 3 नागरिकों की मौत हो गई।भिलाई आंदोलन शुरू होने के बाद नियोगी ने 13 दिसम्बर 1990 को दिल्ली में एक प्रेस सम्मेलन में भिलाई की परिस्थितियों के बारे में एक विस्तृत नोट में बताया था कि छमुमो के भिलाई में उदय के पहले तक इन औद्योगिक इकाइयों में कोई भी ट्रेड यूनियन नहीं थी।
दल्ली राजहरा के 15,000 मजदूरों के बीच ट्रेड यूनियन गतिविधियों के साथ समाजिक सुधार आंदोलन का तालमेल स्थापित करने के अपने अनुभवों के चलते भिलाई के मजदूरों की बीच छमुमो के प्रति काफी आकर्षण पैदा हुआ था। सीटू ने सिम्पलेक्स में ट्रेड यूनियन बनाने की कोशिश की थी, लेकिन जब उसके अगुआ कार्यकर्ता पीके मोइत्रा को कारखाने के भीतर बम विस्फोट के एक मामले में झूठा फंसा दिया गया तो उन्हें पीछे हटना पड़ा था।
वर्षों की चुप्पी के बाद भिलाई के मजदूरों ने छमुमो के नेतृत्व में प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ का निर्माण किया था। एक ही साथ भिलाई की 50 औद्योगिक इकाइयों के हजारों मजदूरों ने ट्रेड यूनियन का गठन किया। समय-समय पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए उनके द्वारा आयोजित जुलूसों व हड़तालों ने इन उद्योगपतियों के भीतर कंपकपी पैदा कर दी थी। इस यूनियन के उपाध्यक्ष रवीन्द्र शुक्ल और एक अन्य पदाधिकारी जगदीश वर्मा पर लाठी व चाकू से हमला किया गया था। इस एक महीने के दौरान यूनियन के अन्य चार सदस्यों पर भी घातक हमला किया गया।
हिंसा का दौर उस समय इतना तेज था कि स्थानीय सांध्य दैनिक ‘भिलाई टाइम्स’ के सम्पादक डॉ. देवी दास पर 11 दिसम्बर को उद्योगपतियों के गुंडों ने लाठी व चाकू से हमला कर दिया था। उनका दोष यही था कि उन्होंने आरके इंडस्ट्रीज में लगी आग की धोखाधड़ी का जिसमें इस यूनियन के 15 सदस्यों को पुलिस ने झूठ-मूठ फंसा दिया था, पर्दाफाश किया था। इस यूनियन के निर्माण के बाद इससे जुड़े पहले 700 मजदूरों की छंटनी कर दी गई थी। छमुमो द्वारा सहायक श्रम आयुक्त रायपुर को दी गई जानकारी के अनुसार यह संख्या दिसम्बर 1991 तक बढ़कर 3 हजार हो गई और जून 1992 तक 4200 तक पहुंच गई।
आज दिनांक तक भी ये सारे मजदूर और उनके परिवार के लोग उद्योगों से बाहर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। राकेश दीवान लिखते हैं कि इससे पूर्व मार्च 1990 में एसीसी के कोयला जिप्सम की ढुलाई करने वाले 77 ठेका मजदूरों ने सुरक्षा के साधनों, काम की बेहतर परिस्थितियों और अन्य सुविधाओं को लेकर हड़ताल की शुरूआत की थी। प्रबंधकों ने मान्यता प्राप्त इंटक यूनियन और गुंडों को साथ लेकर हड़ताल को तोड़ने की भरसक कोशिशें कीं।
लेकिन हड़ताल मजदूरों के साथ छमुमो के मजदूर संगठनों की एकजुटता और शंकर गुहा नियोगी की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के कारण अंतत: प्रबंधकों को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा 26 जुलाई 1990 को समझौता हुआ और हड़ताल समाप्त की गई। इस संघर्ष के फलस्वरूप ठेका मजदूरों को महीने में कम से कम 20 दिन के काम की गारंटी, साल 1989 के मुनाफे का 20 प्रतिशत, सरकार द्वारा निर्धारित वेतन, स्वास्थ्य, सुरक्षा और बच्चों की शिक्षा की सुविधाएं प्राप्त हुई।
यह वह जीत है जिसने भिलाई में मजदूर आंदोलन को पैर के बल खड़ा किया।दमन थमा नहीं। 4 फरवरी 1991 को 5 से 9 साल तक पुराने मामलों का बहाना लेकर शंकर गुहा नियोगी को गिरफ्तार कर लिया गया। परंतु 3 अप्रैल 1991 को हाईकोर्ट के आदेश पर नियोगी को रिहा करना पड़ा। जब यह चाल भी विफल हो गई तो जुलाई 1991 में दुर्ग जिला कलेक्टर ने नियोगी को दुर्ग और सीमावर्ती चार जिलों से जिलाबदर करने का नोटिस जारी कर दिया मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने इस नोटिस के क्रियान्वयन पर भी रोक लगा दी।
सितम्बर 1991 में नियोगी लगभग 250 मजदूर साथियों के साथ दिल्ली गए। यह उनका भारतीय संविधान में दिए गए लोकतांत्रिक अधिकारों और न्यायपूर्ण समाज बनाने के वायदों की सीमाओं को भली-भांति परख लेने का फिर एक प्रयास था। उन्होंने लगभग 50 हजार हस्ताक्षरों वाला एक ज्ञापन राष्ट्रपति को सौंपकर उद्योगपतियों की गैर कानूनी हरकतों एवं हिंसक गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग की। इसका कोई प्रतिफल नहीं निकला। 27 सितम्बर की सुबह नियोगी दो अक्टूबर की रैली की तैयारी के सिलसिले में रायपुर गए। वहां अपने तीन मित्रों के साथ उन्होंने रात्रि का भोजन भी लिया। रात 12 बजे नियोगी रायपुर से भिलाई के यूनियन की गाड़ी में रवाना हुए।
अपने कमरे में किताब पढ़ते-पढ़ते उनकी आंख लग गई। बिजली भी जलती रह गई। उस समय घर में उनके अलावा केवल यूनियन का ड्रायवर बहलराम साहू था। तड़के लगभग पौने चार बजे खुली खिड़की से उन पर एक-के-बाद एक छह गालियां चलाई गई। उनकी चीख पुकार को सुनकर बहलराम दौड़कर आया तो नियोगी को खून से लथपथ पाया। उनके सिरहाने रूस के निर्माता ब्लादीमिर इलिच लेनिन की ‘ऑन ट्रेड यूनियन्स’ नामक किताब खुली हुई पड़ी थी। कुछ ही देर बाद नजदीक के सेक्टर-9 अस्पताल में इस प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन नेता को मृत घोषित कर दिया गया।
जामुल में मिले सफलता के बाद 15 अक्टूबर 1990 को सिम्पलेक्स स्टील कास्टिंगस लिमिटेड को एक मांगपत्र दिया गया। जिसमें उल्लेख था कि गैर कानूनी ठेका मजदूरी प्रथा को समाप्त कर सभी ठेका मजदूरों को स्थायी रोजगार और उसके साथ अन्य सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। स्टैंडर्ड स्टैंडिंग आर्डर में टिकट, कार्ड, सर्विस बुक आदि के जो भी प्रावधान हैं, वे उन्हें उपलब्ध कराये जाने चाहिए। वेतन और सीपीएफ पर्ची भी उन्हें दी जानी चाहिए।
दूसरा, पूर्व प्रभावी उचित वेतन और अन्य सुविधाएं भी उन्हें उपलब्ध कराई जानी चाहिए। तीसरा सभी मजदूरों को मकान बनाने तथा पाने के लिए ऋण की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए। चौथा वार्षिक बोनस 20 प्रतिशत की दर से दिया जाना चाहिए। पांचवा सीपीएफ और ग्रेच्युइटी भुगतान की व्यवस्था कर सभी श्रमिकों के हित में इसे पूर्व प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिए। छठवां छुट्टी और धार्मिक पर्वों पर अवकाश की सुविधा दी जानी चाहिए। सातवां काम के स्थान पर किसी भी दुर्घटना से बचने के सभी उपाय किए जाने चाहिए।
आठवा कानून के अनुसार केवल आठ घंटे काम लिया जाना चाहिए तथा नौवां सभी मजदूरों को पूर्व प्रभावी ढंग से नौकरी पर बहाल किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि यही मांग पत्र बाद में भिलाई के विभिन्न उद्योगों को दिए गए मांग पत्रों का आधार बना। भिलाई गोलीकांड के दौर में जिस नौ सूत्रीय मांग पत्र की सर्वाधिक चर्चा हो रही थी उसका आधार पर यही मांग पत्र है।
छमुमो की कार्यकर्ता राजिम तांडी अपनी संस्मरण में कहती है कि 01 जुलाई 1992 की सुबह 9:15 बजे जनकलाल ठाकुर, भीमराव बागड़े और अनूप सिंह के नेतृत्व में उद्योगपतियों के अड़ियल रवैये के खिलाफ करो या मरो आंदोलन का आगाज करते हुए मजदूर लाल मैदान छोड़कर रेल पटरी पर शांतिपूर्वक बैठ गए। करीब दो बजे कलेक्टर व एसपी पटरी पर पहुंचे और बोले कि बीस मिनट के अंदर पटरी छोड़ों नहीं तो लाठी चार्ज होगा। इस दौरान ठाकुर ने कहा कि इन बाईस महीनों के दौरान हमने बहुत बात की है, ज्ञापन दिए हैं, रैली व भूख हड़ताल की है, राष्ट्रपति के पास गये हैं, सभी मंत्रियों को अपना दु:ख सुनाया है।
फिर भी आज तक कोई समझौता नहीं हुआ। उन्होंने आगे कहा कि हम आधा घंटा भी रेल लाइन पर नहीं बैठना चाहते। आप स्वयं सरकार द्वारा प्रस्तावित समझौते के प्रारूप पर उद्योगपतियों को बुलाकर समझौता करवा दें। तत्काल धरना वापस ले लेंगे। लेकिन ऐसा मुनासिब नहीं हो सका। उसके बाद चार बजे के आस पास पुलिस ने अश्रुगैस शुरू कर दी। फिर भी मजदूर आंख में गीला कपड़ा डालकर बैठे रहे।
जब देखा कि अश्रुगैस के बाद भी मजदूरों ने पटरी नहीं छोड़ी तो पुलिस ने चारों तरफ से पथराव शुरू कर दिया और बागड़े सहित सामने बैठीं 25 महिलाएं और 3 पुरूष आंदोलनकारी बुरी तरह से घायल हो गए। आंदोलनरत श्रमिकों को घायल देखकर भिलाई की आम जनता ने पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया। उसी समय बिना वर्दीधारी पुलिस ने सामने जीई रोड पर खड़ी एक बस को आग के हवाले कर दिया। ये सब पुलिस की साजिश थी। आधे घंटे तक भिलाई की जनता और पुलिस में संघर्ष के बाद पटरी पर बैठे लोगों पर पत्थर, लाठी और अश्रुगैस और बिना चेतावनी के गोली से हमला किया गया।
इस झड़प तक लगभग 6-7 लोग बंदूक का निशाना बन चुके थे। नेताओं के कहने से मजदूर भिलाई शहर में रैली निकालने के लिए रेल पटरी छोड़ चुके थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार पुलिसवाले घायल लोगों को घसीट-घसीट कर गाड़ी में भर रहे थे। वे लाशों को सफेद एम्बुलेंस में रखते जा रहे थे। जो थोड़ा बहुत जिंदा होता था उसे बूट से सिर में कुचल कर मारते थे। रात भर 28 महिलाओं और उनके साथ 9 बच्चों को बिना खिलाये पिलाये भिलाई की पुलिस चौकियों में घूमाया गया तथा 2 जुलाई की सुबह 7 बजे दुर्ग जेल में डाला गया था। अश्रुगैस, लाठी चार्ज और गोली चालन के दौरान महिला पुलिस का इस्तेमाल नहीं हुआ। वे डंडा पकड़कर खड़ी खड़ी चुपचाप देखती रहीं।
अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि छमुमो की जीने लायक वेतन की इस मांग को उद्योपतियों, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने नियोगी की उद्योगविरोधी और बेतुकी राजनीति करार देकर हाशिये में धकेलने की कोशिश की है। जहां एक ओर, इस मांग को फोकस में रखकर छमुमो ने मजदूरों की समझ को दिशा देने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर, व्यवाहारिक स्तर पर हमेशा यही तैयारी दिखायी कि तात्कालिक परिस्थितियों और अपनी ताकत का यथार्थवादी आकलन करते हुए वेतन का निर्धारण बातचीत के जरिये हो।
छमुमो मानता है कि वेतन की अवधारणा बदलते सामाजिक आर्थिक हालात एवं मजदूर वर्ग की ताकत व राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की पाशविक शक्ति के बदलते संतुलन के आधार पर बदलती रहेगी।’ नियोगी के शब्दों में मजदूर वर्ग मजदूरी की ऐसी कोई स्थिर परिभाषा नहीं दे सकता, जो संघर्षों की प्रक्रिया से विमुख हो इसी समझ के तहत जीने लायक वेतन का मुद्दा भिलाई के मजदूरों की इज्जतदार जीवने जीने की दीर्घकालीन लड़ाई का अभिन्न अंग बन चुका है।
इस बीच यह आंदोलन दमन और अत्याचार के बाद कई टुकड़ों में बंट गया है। हालातों के साथ सभी ने कुछ न कुछ समझौता कर ही लिया है। जिन कसमों के साथ उनके अस्थियों को रखा गया था उसे समय के बदलाव के साथ विसर्जित कर दिया गया है। हां नियोगी के नाम के साथ यश और पेट भरने की लड़ाई ही कुछ कथित नेताओं का कार्य बनकर रह गया है।
जो नहीं हो पाई वह यह कि हत्यारों और दोषियों की पहचान नहीं हो सकी। भिलाई के इंजीनियरिंग कारखानों के बड़े उद्योगपतियों द्वारा जो उत्पादन किया जाता है उसका अस्सी प्रतिशत अंश का खरीददार भिलाई स्टील प्लांट है। अत: इन उद्योगपतियों द्वारा श्रम एवं औद्योगिक कानूनों का खुल्लम-खुल्ला किए जा रहे उल्लंघन की नैतिक जिम्मेदारी केन्द्रीय सरकार की है। इस लूट की पड़ताल भी आज तक पूरा नहीं हो सका है। संविधान और उस पर आधारित इस लड़ाई का हश्र यह हुआ कि सत्ता, राज्य व केन्द्र सरकार के साथ उद्योगपतियों और न्यायालय की सांठगांठ साफ नजर आई।
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