बस्तर में एक और फर्जी मुठभेड़

लिंगाराम कोडोपी 

 

गांव  के ग्रामीणों का कहना हैं कि गांव में डीआरजी (सरेंडर नक्सली,जिला सुरक्षा बल) के जवान आदिवासी वेशभूषा में आकर संतोष को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। गांव वालों का यह भी कहना है कि संतोष घर में खाना खा रहा था। संतोष को दौड़ा-दौड़ा कर मारते हुए पूरे गांव के महिला पुरुषों ने देखा हैं।

गांव के ग्रामीण चश्मदीद गवाह हैं। ग्रामीणों का यह भी कहना है कि ग्राम पंचायत निलावाया में यह कोई पहली घटना नहीं हैं, इस घटना से पहले भी इसी तरह दो लोगों को पुलिस ने गांव में दौड़ा-दौड़ा कर मारा है, और नक्सली मुठभेड़ दिखाया  हैं।

परिस्थितियों को देखते हुए ग्रामीणों ने फैसला किया कि पुलिस प्रशासन द्वारा  शव देने पर नहीं लेंगे। जिनके द्वारा हत्या हुई हैं उन पर पहले एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) पुलिस प्रशासन दर्ज कर कार्यवाही करे। यह मांग को लेकर ग्रामीण जिला दंतेवाड़ा के जिला अस्पताल में धरना पर बैठे हुए हैं।

इस धरना में आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी को ग्रामीणों ने बुलाया तो वे वहां पर पहुँची हैं और वे भी अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही की मांग को लेकर धरने पर हैं।

ग्रामीण अस्पताल के सामने जमीन पर सो रहे हैं, सोनी सोरी, संजय पंत, व अन्य साथी भी ग्रामीणों के साथ हैं। ग्रामीण करीब 150-200 हैं। 

पुलिस प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार श्रीमान पुलिस महानिरीक्षक, बस्तर रेंज पी. सुंदरराज के कुशल मार्गदर्शन में पुलिस अधीक्षक डॉ. अभिषेक पल्लव, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक यू. उदय किरण, एवं राजेन्द्र जयसवाल के निर्देश अनुसार संतोष मरकाम की हत्या करायी गई हैं। 

पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी किसी की हत्या करने का निर्देश कैसे दे सकते हैं? अगर हत्या करने का निर्देश अधिकारियों ने दिया है तो इन अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज होना चाहिए।

रहा सवाल नक्सली मुठभेड़ की तो ग्राम निलावाया से पोरदेम की दूरी 20-25 किलोमीटर हैं। बीच में तीन गांव सुकमा निलावाया, रेवाली, बुरगुम पड़ते हैं। इन गांवों के आसपास पुलिस कैम्फ हैं और प्रतिदिन पुलिस सर्चिंग होते रहता है।

फिर नक्सली कब आकर घात लगाकर बैठे और मुठभेड़ हुआ। अब सवाल उठता हैं कि आदिवासी शिकायत करने जाये तो कहाँ? मारने का निर्देश देने वाले तो पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी हैं फिर इन आदिवासियों का शिकायत लेगा कौन?

आज आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोनी, सुजित कर्मा, बल्लुभवानी इन प्रार्थियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं, पुलिस प्रशासन के उच्च अधिकारी इन्हें भी मारने का निर्देश जारी कर सकते हैं। ये बस्तर अनुसूचित जनजातियों का क्षेत्र हैं यहाँ कुछ भी हो सकता हैं। आदिवासियों को देखने वाला कौन हैं?

डीआरजी ( सरेंडर नक्सली,जिला सुरक्षा बल ) एक तरिके से पैसों के लिए सुपारी लेकर मारने वाले गुण्डे। पुलिस प्रशासन व सरकार ने इनको आदिवासियों को नक्सल के नाम पर मारने के लिए खुला लाइसेन्स दे रखा है। आये दिन आदिवासियों की हत्या पुलिस प्रशासन द्वारा नक्सल के नाम पर करवाई जा रहीं हैं।

आदिवासी संगठन पुलिस प्रशासन की गलियों को जानता हैं लेकिन विरोध नहीं करता हैं, समाज द्वारा विरोध न करने की कई मजबूरिया हो सकती हैं। वैसे भी विरोध नहीं कर सकते तो प्रशासन की गुलामी तो कर ही सकते है।
बस्तर संभाग के आदिवासियों पर हो रहे अन्याय को देखकर स्वामी विवेकानंद द्वारा बोला गया उध्दरण फिट बैठता है -

मरी हुई मछली धारा के साथ बहती है
लेकिन जीवित मछली धारा के
विपरीत तैरती है
अगर आप जीवित है तो
गलत का विरोध करना सीखें।

उध्दरण से लगता हैं, देश की न्याय व्यवस्था, लोकतंत्र, बुध्दिजीवी वर्ग, आदिवासी समाज, बस्तर के गणमान्य नागरिक, नेता सभी मृत हो गये हैं। अब बस्तर में कुछ नहीं बचा। बस्तर के आदिवासी जल,जंगल, जमीन के मालिक होकर गुलाम बन गये हैं।   


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