अपार खुशी का घराना : अरुंधति रॉय
जीतेश्वरी साहूमैं एक बेहद आलसी किस्म की छात्रा हूं और मेरे आदरणीय गुरु रमेश अनुपम ऊर्जा से दीप्त हर वक्त केवल और केवल किताबों में डूबे रहने वाले शख्स हैं। आज तक मैंने जितनी किताबें पढ़ी हैं, वह सिर्फ उनके डांट और डर से। अब यह अलग बात है कि इन दिनों कुछ अपने मन से भी पढ़ लेती हूं। अब मैं जिस किताब का जिक्र यहां करना चाहती हूं , उसके बारे में कुछ भी कहने से पहले इस किताब की समीक्षा किस तरह अनुपम सर के खाते में आई और इसकी चश्मदीद गवाह बनी, इसकी भी एक मजेदार कथा है जिसे मैं यहां शेयर करना चाहती हूं।

बारिश किस भाषा में गिरती है
यातनाग्रस्त शहरों के ऊपर ?
पाब्लो नेरुदा
तो हुआ यूं कि अनुपम सर ने हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार और हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका ' पहल ' के संपादक ज्ञानरंजन जी को यह कहने के लिए फोन किया कि क्या आपने अभी अरुंधति राय का नया उपन्यास ' अपार खुशी का घराना '( The Ministry Of Utmost Happiness ) पढ़ लिया है ज्ञान जी ने कहा कि उन्हें अभी यह किताब मिली नहीं है।
फिर अनुपम सर ने कहा कि आप इस किताब पर ' पहल ' के लिए किसी से समीक्षा लिखवाइए। इस किताब की एक लंबी समीक्षा ' पहल ' में प्रकाशित होनी चाहिए।
उधर से ज्ञान जी ने कहा तुम किताब पढ़ चुके हो तो क्यों न तुम ही इस किताब की समीक्षा लिख देते।
जल्दी बताओ लिखोगे। अनुपम सर ने कुछ देर सोचने के बाद डरे सहमे से हां कर दी।
अब ज्ञान जी ने अनुपम सर को समीक्षा लिखकर भेजने हेतु पूरे बीस दिन का वक्त दिया। मैं उन्हें इस बीच याद भी दिलाती थी कि आप इस किताब पर कब लिखेंगे। पर सर हमेशा टालते रहते थे। कहते हां लिख लूंगा, हो जायेगा। इसी तरह एक महीने बीत गए। एक महीने बाद ज्ञान जी का फोन आया कि समीक्षा का क्या हुआ ? अनुपम सर बस भाई साहब कुछ दिनों में भेज दूंगा, यही कहते रहे।
फोन में बातचीत होने के बाद अनुपम सर ने एक सप्ताह और बिता दिया। फिर ज्ञान जी का फोन कि अब ' पहल ' का पूरा मैटर तैयार है, तुम दो, तीन दिन में समीक्षा भेज दो।
इसके बाद अनुपम सर की चिंता बढ़ी अब तो लिखना ही पड़ेगा और वक्त भी बहुत कम है। बावजूद इसके उन्होंने दो दिन और बिता दिए। मैं अनुपम सर के लिए काफी चिंतित और डरी रही। साथ में यह भी कहती कि सर आप लिख क्यों नहीं रहे और आपको कोई चिंता भी नहीं, आपसे ज्यादा तो मुझे फिक्र हो रही है।
इसके दूसरे दिन उन्होंने लिखना शुरू किया। टाइप का काम मेरा था। उधर से ज्ञान जी ने तीन दिन बीतने के बाद फिर फोन किया कि अभी तक रमेश समीक्षा तुमने भेजी नहीं। इधर से अनुपम सर ने कहा कि भाई साहब मैं अपनी इस समीक्षा से संतुष्ट नहीं इसलिए मुझे दो, चार दिन का और वक्त दें। ज्ञान जी ने कहा कि तुम जो लिखे हो वह सब भेजो और यह तुम कैसे तय करोगे कि उस लिखे में तुम संतुष्ट नहीं। पर अनुपम सर ने किसी तरह ज्ञान जी से वक्त मांग लिया। अब उल्टी गिनती शुरू हुई।
पहले का जो भी लिखा गया था वह सब उन्होंने डिलीट करवा दिया और नए सिरे से लिखना शुरू किया। उस चार दिन जिसकी गवाह मैं बनी। उन्होंने पूरी शिद्दत और मेहनत से ' अपार खुशी का घराना ' पर काम किया। उनके पास उन चार दिनों तक किसी दूसरे काम के लिए फुरसत नहीं थी और न उस दरम्यान वे ठीक से सो सके और न ही खाने-पीने में उनका ध्यान था। दिन-रात उन्होंने उस किताब की समीक्षा में लगा दी और आखिर में पांचवें दिन मैंने ज्ञान जी को पूरा मैटर टाइप कर मेल कर दिया।
मेल पर भेजने के बाद मैंने अनुपम सर से कहा कि वे ज्ञान जी से पूछ तो लें कि उन्हें समीक्षा कैसे लगी ? अनुपम सर भीतर से डरे हुए थे, कहा कि मेरी हिम्मत नहीं कि मैं उनसे पूछूं। अब जाने दो छपे न छपे हमने अपना काम कर दिया। इसके बाद दूसरे दिन मैं और अनुपम सर शाम को रायपुर के बैजनाथ पारा में स्कूटर की सीट कवर बदलने के लिए भटक रहे थे। अचानक अनुपम सर की फोन की घंटी बजी।
ज्ञान जी का फोन था। सर डरे हुए थे उन्होंने मुझे देखा और कहा ज्ञान जी का फोन है और डरते हुए उन्होंने फोन उठाया। उधर से ज्ञान रंजन जी की आवाज थी उन्होंने कहा उन्होंने समीक्षा पढ़ ली है और उसे छपने के लिए भेज भी दिया है। फिर उन्होंने कहा कि ' रमेश यार तुमने तो अरुंधति रॉय के इस उपन्यास की आत्मा को ही पकड़ लिया। ' आगे ज्ञानरंजन बोल रहे थे रमेश तुमने अपार खुशी का घराना पर सुंदर समीक्षा लिखी है। यह सुनते ही अनुपम सर का चेहरा दमकने लगा। पांच दिन और रात की मेहनत उनकी सफल हो गई थी।
यह एक लंबे समय बाद समीक्षा के क्षेत्र में अनुपम सर की वापसी थी। वे आज भी ज्ञान जी को इसके लिए शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने फिर से एक बार लेखन के क्षेत्र में उन्हें जिंदा कर दिया। ज्ञान जी ने इसके बाद अनुपम सर की लगातार चार समीक्षाएं प्रकाशित की और अब जब ' पहल ' के बंद होने की घोषणा हो गई तब ' पहल ' के आखरी अंक में रणेंद्र के उपन्यास ' गूंगी रुलाई का कोरस ' पर अनुपम सर की समीक्षा प्रकाशित हुई है।
मैं इस कथा को कहे बिना भी अपने असल मुद्दे की बात कर सकती थी। पर इस कथा को कहना इसलिए जरूरी था क्योंकि इस किताब से मेरा परिचय इस घटना के दरम्यान ही हुआ। यह साल २०१९ की बात है। अनुपम सर ने बार-बार मुझे यह किताब पढ़ने को कहा और वह साल बीत गया मैंने किताब पढ़ी ही नहीं।
मार्च 2021 में रायपुर में पुस्तक मेला का आयोजन हुआ। मैं इस बार अनुपम सर के साथ किताब खरीदने गई। वहां राजकमल ,वाणी और सेतु का स्टॉल लगा था। राजकमल वाले स्टॉल पर हम पहले गए जहां अनुपम सर के एक मित्र उन्हें मिल गए। मेरी नजर जिस पहली किताब पर पड़ी वह अरुंधति रॉय का उपन्यास ' अपार खुशी का घराना ' था। अनुपम सर ने कहा चलो मैं यह किताब तुम्हें भेंट करता हूं। अनुपम सर ने किताब खरीदी और मुझे भेंट की। मैं जानती थी कि अनुपम सर की यह बेहद प्रिय किताब है।
अब जब वे पांच दिन पहले ही मेरे रूम पर अपना एक आलेख टाइप में देने के लिए आए तो मेरी टेबिल पर यह किताब रखी हुई थी। उन्होंने इस किताब को देखने के बाद मेरी ओर देखा फिर कहा इसे मैं वापस ले जाता हूं तुम तो पढ़ने से रही। किताब मैं पढ़ू न पढ़ू पर किताब को अपने से दूर होते नहीं देख सकती थी। इसलिए अनुपम सर को मैंने कहा कि अब इसे तीन दिन में पढ़कर ही आपसे बात करूंगी और आज वह तीन दिन पूरा हुआ।
इन तीन दिनों में मैं एक ऐसी दुनिया के सफर में थी जो दुनिया सुंदर भी है और खतरनाक भी। जहां बर्बरता भी है और मोहब्बत भी। अपने देश के बीस साल के इतिहास को अरुंधति रॉय के इस उपन्यास के माध्यम से बखूबी जाना एवं समझा जा सकता है। आज जिस तरह से हमारे देश में एक सोची-समझी रणनीति के तहत एक विशेष धर्म के लोगों को जिस तरह से प्रताड़ित और अपमानित करने की कोशिश की जा रही है, यह हममें से किसी से छिपा नहीं है।
अरुंधति रॉय ने अपने इस उपन्यास की शुरुआत दिल्ली के शाहजहानाबाद से करने के पश्चात कश्मीर और बस्तर का जो मार्मिक चित्रण खींचा है वह आश्चर्यजनक है।
उपन्यास का केंद्रीय पात्र अंजुम थर्ड जेंडर है जो एक मुस्लिम घराने से ताल्लुख रखता है। उसकी अम्मी को यह बात उसके पैदा होने के कुछ साल बाद ही पता लग जाता है। अम्मी जिस बच्चे को एक लड़का समझकर उसका नाम आफताब रखना पसंद करती थी वह बच्चा तो कुछ और ही निकला, जिससे अम्मी को बहुत दुख हुआ। अम्मी ने यह बात अपने शौहर से कुछ सालों तक छिपाए रखा, लेकिन वह कब तक छिपाती। और यह भला कैसे छिप सकता था? आखिर अब्बू को पता चल ही गया।
अब्बू और अम्मी आफताब को पूरी तरह एक लड़के के रूप में पाने के लिए हकीम के पास ले जाना मुनासिब समझते हैं पर वहां से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगती है।
चौदह, पंद्रह साल के उम्र में आफताब को अपने शरीर की बारीकियों का अहसास हुआ। इसके कुछ ही दिनों के बाद आफताब ने अपना घर छोड़ अपने जैसे लोगों के बीच ख्वाबगाह जैसी एक नई दुनिया में आश्रय लिया। ख्वाबगाह को उस्ताद कुलसूम बी. नाम की एक थर्ड जेंडर ने बसाया था। इस ख्वाबगाह में एक ईसाई, दो हिंदू और मुस्लिम समुदाय जैसे अलग-अलग जाति और धर्म के लोग रहते हैं और एक-दूसरे का सहारा बनते हैं।
आफताब ने ख्वाबगाह में आने के बाद अपना नाम अंजुम रख लिया। इस उपन्यास में केवल एक अंजुम भर की कथा नहीं है बल्कि एस. तिल्लोतमा और बस्तर की मासे रेवती के साथ-साथ देश की अनेक घटनाओं की भी कथा है जिससे हम वाकिफ नहीं है।
इस उपन्यास में अरुंधति रॉय ने हमारे देश की राजनीति और समाज में व्याप्त षड्यंत्र, सांप्रदायिकता , नव्य पूंजीवाद, माबलिंचिंग जैसी ऐसी अनेक घटनाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है जो मनुष्य की हत्या करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रही है।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी घृणा और नफरत के जिस दौर में हम जी रहे हैं उसमें हमें तो खबर ही नहीं कि कब हमारे लिए मनुष्य से बढ़कर जाति-धर्म हो गया है। जाति और धर्म के नाम पर जो बर्बरता हो रही है, वह इस देश को सैकड़ों वर्ष पीछे ले जाने का काम कर रही है ।
इक्कीसवीं शताब्दी के इस वैज्ञानिक दौर में भी हम धर्म के अफीम के नशे में मदमस्त हैं।
अरुंधति रॉय का यह उपन्यास हमें सबसे ज्यादा विचलित तब करता है जब हम किसी स्त्री को उसकी पूरी आजादी के साथ न जीने देते हैं और न मरने। एक स्त्री के लिए सबसे बड़ा सुख मां बनने का होता है। लेकिन जब उसके बच्चे का पिता उस समय उसका साथ न दे तो उसे उस बच्चे को समाज के डर से अपने सीने से अलग कहीं रख देने या मार देने के लिए विवश होना पड़ता है। इस उपन्यास में जैनब और मिस जबीन ऐसी बच्चियां है जिसे उनकी मांओं ने समाज के ऐसे ही डर से छोड़ दिया था। जैनब और मिस जबीन को अंजुम अपने जन्नत में पनाह देती है और इस तरह पालती है जैसे वो दोनों बच्चियां उसकी अपनी कोख से पैदा हुई हों ।
उपन्यास में तथाकथित हिंदू रक्षकों का भी भयावह चित्रण है जो अपने धर्म की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। गोधरा काण्ड में जब मुस्लिमों को नाम पूछ-पूछ कर मारा जा रहा था तब अंजुम को केवल इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि वे हिजड़ा है और हिजड़ों को मारने से पाप लगता है। हिंदू भक्तों को किसी मनुष्य की हत्या से पाप नहीं लगता लेकिन हिजड़ों से वे डरते हैं। अंजुम ने इस दर्द को जब महसूस किया तब उसने जैनब को गायत्री मंत्र सिखाया। इसलिए गायंत्री मंत्र की सहायता से वह स्वयं को हिंदू सिद्ध कर अपनी जान बचा सके ।
अरुंधति रॉय हमारे समय की सबसे बड़ी लेखिका है। उनके पास एक गंभीर दृष्टि भी है और एक बेहद गंभीर विजन भी। अपने समय, समाज और राजनीति को वे जिस तरह से अपने इस उपन्यास में दर्ज करती है, वह उनकी गंभीर अध्ययनशीलता को भी दर्शाता है। अरुंधति रॉय ने इस उपन्यास में जिस कथ्य और शिल्प को गढ़ा है वह उनकी अपनी कथ्य और शिल्प है जो उन्हें अन्य लेखकों से अलग करती है।
उपन्यास में प्रत्येक अध्याय की शुरुआत में सुंदर और जरूरी काव्य पंक्तियों को उद्धृत किया गया है। जिसमें नाजिम हिकमत की काव्य पंक्तियों से लेकर ओसिप
मांदेलस्ताम और पाब्लो नेरुदा तक की काव्य पंक्तियां शामिल है। इस उपन्यास में अरुंधति रॉय की भाषा की जादूगरी को भी देखा जा सकता है। भाषा ऐसी जो नदी की तरह शांत तो है पर कई जगह वे अपने उद्दाम लहरों के शोर से भी भरी हुई दिखाई देती है।
अरुंधति रॉय ने अपने इस उपन्यास की शुरुआत जिस दुख और निराशा से किया है उसका अंत उतनी ही आशा और उम्मीद के साथ किया है। अंजुम ख्वाबगाह को छोड़कर कब्रिस्तान को अपना जन्नत गेस्ट हाउस बनाती है।
जहां मजलूम और दुनिया से सताए हुए लोग अपने दुखों को भूलकर वहां की आबोहवा में अपने को खुश महसूस करते हैं। जन्नत गेस्ट हाउस में किसी को मनाही नहीं, सभी के लिए हमेशा वहां के दरवाजे खुले रहते हैं। इस जन्नत गेस्ट हाउस में जाति धर्म की कोई संकुचित दीवार नहीं है। यहां केवल मनुष्यता का वास है जहां मनुष्यों के साथ गाय, घोड़े, बकरे और चिड़ियों तक के लिए जगह है।
कब्रिस्तान में जन्नत जो मनुष्य की खुशियों का खयाल रखती हो की कल्पना भी अरुंधति रॉय ही संभव कर सकती है।
आज मनुष्यता को बचाए रखने के लिए हमें ऐसे ही उपन्यासों की जरूरत है जो हमारी आंखें खोलती हो। इस उपन्यास में अनेक कथा है जो आपकी संवेदना को आहत कर सकती है। आप इस उपन्यास को पढ़ते हुए अनेक सवालों में उलझ सकते है जिसके जवाब भी आपको इसी उपन्यास के अंत में मिल सकता है।
मुहब्बत, आशिकी और उम्मीद से लबरेज अपार खुशी का घराना ' ( The Ministry Of Utmost Happiness ) का बहुत सुंदर अनुवाद मंगलेश डबराल ने किया है। उपन्यास को पढ़ते हुए कहीं से भी नहीं लगता कि हम अनूदित उपन्यास पढ़ रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे हम कोई मूलकृति पढ़ रहे हैं। मंगलेश डबराल ने उपन्यास के देशकाल, ध्वनि, दृश्य और भाषा को कहीं से भी बाधित होने नहीं दिया है। मंगलेश डबराल ने उपन्यास की आत्मा में जैसे अपनी आत्मा को मिला दिया है।
अंत में उपन्यास को लेकर रोन चार्ल्स, वॉशिंगटन
पोस्ट की यह पंक्तियां बेहद मानीखेज है ' यह ऐसी कहानी है जो इतने सम्मोहक ढंग से बहती है कि कागज़ पर शब्दों से ज्यादा पानी पर स्याही की तरह लगती है। यह विशाल उपन्यास अपने गुस्से के ताप को करुणा की गहराई से चकित करता है । '
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