सारकेगुड़ा में शहीदों के नाम बरसी
सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम, बाहर से जाने वालों पर रोक
उत्तम कुमारबीजापुर के सारकेगुड़ा में 28 जून 2012 को हुए पुलिस एनकाउंटर में 17 लोगों की मौत हुई थी। बस्तर के इस मुठभेड़ को फर्जी साबित किया गया है। 8 सालों से इस दिन एनकाउंटर में मारे गए ग्रामीणों की याद में बरसी मनाई जाती है। हर साल इस घटना के विरोध में सारकेगुड़ा निवासी धरना-प्रदर्शन करते हैं। इस साल भी मूलवासी बचाओ मंच के जारी किए गए पोस्टर में 28 जून को सारकेगुड़ा की बरसी पर विशाल जनसभा का एलान किया गया है.

गौरतलब है कि सिलगेर गोलीकांड के बाद यह बरसी त्योहार का रूप ले लिया है। हजारों आदिवासी इस कार्यक्रम में पहुंचने लगे हैं। ग्रामीणों का काफिला सारकेगुड़ा मुठभेड़ की बरसी के लिए पिछले कुछ हफ्तों से लगातार आसपास के ग्रामीण सिलगेर पहुंच रहे हैं। अब तक लगभग 2 हजार से अधिक ग्रामीण पहुंच चुके हैं। साथ ही लगातार जंगल के रास्ते हजारों ग्रामीण आज यहां पहुंच सकते हैं। इस दौरान एक बड़ा जनसैलाब देखने को मिल सकता है। बस्तर पुलिस भी अपनी तैयारी में जुट गई है। मौके पर बैरिकेडिंग भी की जा रही है। खबर है कि आज 28 जून को सिलगेर में भी होने वाले आंदोलन में 2000 से 3000 लोगों के जुटने की आशंका जताई जा रही है। सारकेगुड़ा की बरसी होने की वजह से बीजापुर के साथ ही सुकमा और उससे लगे आसपास के इलाकों से भारी संख्या में ग्रामीण इकट्ठा होने की भी जानकारी मिल रही है। खबर है कि इस कार्यक्रम को देखते हुए मौके पर बड़ी संख्या में पुलिस बल को तैनात भी किया जा रहा है, साथ ही इस इलाके में बैरिकेडिंग भी की जा रही है।
सारकेगुड़ा मुठभेड़ झूठा
दिसम्बर 2019 को छत्तीसगढ़ विधानसभा में इस कथित मुठभेड़ को लेकर गठित न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट पेश की गई थी जिसमें कहा गया था कि मारे जाने वाले लोग माओवादी नहीं थे।
जांच रिपोर्ट
जस्टिस वीके अग्रवाल की अध्यक्षता वाली एक सदस्यीय जांच आयोग ने 17 आदिवासियों के मारे जाने की इस घटना को लेकर कहा है कि पुलिस के बयान के विपरित ग्रामीण घने जंगल में नहीं, तीनों गांव से लगे खुले मैदान में बैठक कर रहे थे। आयोग ने कहा है कि फायरिंग एकतरफ़ा थी, जो केवल सीआरपीएफ और पुलिस द्वारा की गई थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस बात से भी इंकार किया है कि इस घटना में मारे गये लोगों का माओवादियों से कोई संबंध था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मृतकों और घायलों के शरीर पर गोली के अलावा चोट के भी निशान हैं, जो मारपीट के कारण हैं और सुरक्षाबलों के अलावा यह कोई और नहीं कर सकता।
निर्णय के बाद कमला काका ने कहा था कि बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा और सुकमा जिले के कोट्टागुड़ा और राजपेंटा गांव के ग्रामीण तीनों गांव से लगे एक खुले मैदान में ‘बीज पोंडूम’ त्यौहार की तैयारी के लिये बैठे थे, उसी समय सुरक्षाबलों ने चारों तरफ़ से घेर कर गोलीबारी की, जिसमें 7 नाबालिगों समेत 17 लोग मारे गये. कमला का इस मामले में कहना है कि ‘जिन लोगों ने निहत्थे, बेकसूर और भोले-भाले आदिवासियों को मारा, बच्चों को मारा, उनके ख़िलाफ़ जब तक कार्रवाई नहीं होती, ऐसी न्यायिक आयोग की रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं है।’
सारकेगुड़ा फर्जी मुठभेड़
प्राकृतिक संपत्ति व संसाधन को लूटने की हत्या
कुछ साल पहले 28-29 जून 2012 को सारकेगुड़ा मुठभेड़ की जांच से जो बातें उभर कर आ रही है, वह निहायत ही चिंताजनक है। इस मुठभेड़ के बाद सीआरपीएफ सहित सभी सुरक्षा बलों पर आरोप लग रहे हैं। जांच में सारकेगुड़ा, राजपेंटा व कोत्तागुड़ा मुठभेड़ में मारे गए सभी 17 आदिवासी निर्दोष पाए गए हैं। फोर्स ने खुले आसमान के नीचे चल रही बैठक में अंधाधुंध गोली चलाकर आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया है। उस बैठक में शामिल किसी भी आदिवासी के पास आग्रेयास्त्र नहीं था। घटना को लेकर सरकार का रवैया संदेहास्पद है। आज तक मृत आदिवासियों के पक्ष में एफआईआर दर्ज नहीं हुआ है। सरकार द्वारा एक सदस्यीय जांच दल ने दोषियों के खिलाफ किसी भी प्रकार की कार्रवाई नहीं की है। 18 से 22 जुलाई तक मारे गए लोगों में तीन गांवों व अस्पतालों का दौरा कर रिपोर्ट तैयार किया गया। रिपोर्ट में 150 बिंदुआं पर जांच केंद्रित की गई है। घटना के बाद एंबस, कांग्रेस, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा, कटमा जांच दल, सीडीआरओ व एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई संगठनों ने इस घर की सच्चाई जानने की कोशिश की।
जांच के बाद जो तथ्य उभरकर आए है वह चौंकानेवाली है। सुरक्षा बलों ने जिन लोगों को माओवादी बता रही है, वे निरीह आदिवासी ग्रामीण थे। माओवादी गतिविधियों से उनका दूर-दूर का वास्ता नहीं था। पूरे घटना को दो माह बित गए। विभिन्न वर्गों के बीच इस घटना को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई। सरकार को भी इस संबंध में न्यायिक जाच की स्वीकृति देनी पड़ी। आदिवासियों के बीच लंबे समय से कार्यरत कई संगठनों ने सरकारी, न्यायिक जांच पर भरोसा नहीं किया है। जांच के पूर्व घटना की पूर्ण स्थिति, संपूर्ण घटनाक्रम, बैठक का कारण, सुरक्षाबलों की कार्रवाई, घटना के बाद ग्रामीणों की स्थिति सरकार की भूमिका, घायलों की चिकित्सा व्यवस्था व भविष्य की रणनीति पर अपनी जांच की सुई घुमाई है।
छत्तीसगढ़ राज्य गठन से लेकर राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं पर ध्यान दिया गया। इस राज्य की सीमा के रूप में बताया गया है कि यह उत्तरप्रदेश, झारखंड, आंध्र, उड़ीसा व महाराष्ट्र को छूती है। जांच कार्य राजनांदगांव, बालोद, कांकेर, कोंडागांव, बस्तर, दंतेवाड़ा से होकर बीजापुर पहुंचती है। जांच में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए बताया कि 2007 को बीजापुर व नारायणपुर दो जिलों का गठन किया गया। बीजापुर से घटनार स्थल की दूरी 50 किमी का है। जांच में बताया गया कि राजय का 45 फीसदी भूक्ष्ेत्र वनों से ढका है। संपूर्ण भारत का 12 प्रतिशत वन संपदा अकेले छत्तीसगढ़ में है। गहरी घटियों के हरे-भेरे साल, सागौन, महुआ, साजा, सरई, बीजा, तेंदू, शीशम, इमली, टोहरा, हर्रा, बहरा, कंदमूल व नारियल जैसे हजारों प्रजातियों के पेड़-पौधे इस सुदूर जंगल में मौजूद हैं। अधिक व्यापारिक जातियां राज्य को अतिरिक्त समृद्धि प्रदान करती है।
इस क्षेत्र में इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान सहित तीन अन्य राष्ट्रीय उद्यान व 11 अभ्यारण्य पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है। प्राचीन दण्डकारण्य का यह क्षेत्र कृषि जलवायु कटिबंध क्रमांक 7 के अंतर्गत आता है। यह भू-भाग पठारी व पर्वतीय क्षेत्र कहलाता है। बस्तर के पठार में नारियल, कंदीय, मसाला और औषधीय फसलों की खेती की जाती है। अंग्रेजों ने रेल बिछाने के लिए बहुतायत में साल के पेड़ों को काटकर नदियों के माध्यम से शहरों तक पहुंचाया था। इस आदिम क्षेत्र में गौंड, हल्बा, कंवर, उड़ाव, माढिय़ा, दोरला सहित 35 जनजातियां निवास करती है। उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र की अपेक्षा बस्तर के पठार में वनसम्पदा अधिक है और उपजाऊ भूमि की बहुतायत है। हीरे की श्रेणी में आने वाले खनिजों जैसे कोयला, कोरंडम, बाक्साइड, तांबा, कच्चा लोहा, चांदी, चूना पत्थर आदि का इस राज्य में भरपूर भंडार है। इस्पात, एल्युमिनियम और सीमेंट के यहां बड़े-बड़े उद्योग हैं।
यहां के कच्चे मालों पर आधारित भिलाई इस्पात संयंत्र, राष्ट्रीय खनन कम्पनी, बैलाडीला, टाटा व एस्सार की कंपनियां खनिज समपदा की दोहन करती है। कच्चे, दल्लीराजहरा, महामाया, झरनदल्ली, पल्लामाड़ी, बैलाडीला, चारगांव, रावघाट, मावलीभाटा व लोहांडीगुड़ा की खदानें उत्तर में कवर्धा की खदान देशी-विदेशी पूंजीपतियों को विनिवेश व व्यापार के लिए अपनी दरवाजा खोलती है। इंद्रावती, शंखनी, डंकनी, महानदी, शिवनाथ, पैरी, कोतरी, पानाबरस जैसी कई नदियां यहां की जीवनरेखा है। देश के लौह अयस्क का पांचवा भाग यानि 68 प्रतिशत गुणवत्तावाला करीब 223.6 करोड़ टन लौह अयस्क दंतेवाड़ा, कांकेर, राजनांदगांव, बस्तर, दुर्ग व कवर्धा में पाया जाता है। बैलाडीला का खनन का विरोध हो रहा है। बैलाडीला में 96 औद्योगिक समूह को खनन का पट्टा दे दिया गया है। इन पहाडिय़ों में 300 करोड़ टन के अयस्क भंडार है। पूरे छग में करीब 8 हजार दो सौ पच्चीस मिलियन टन लाईमस्टोन है। जो प्रमुखत: रायपुर, दुर्ग, जांजगीर, बिलासपुर, राजनांदगांव, कवर्धा व बस्तर जिलों में है।
देश का 7 प्रतिशत बॉक्साइट करीब 198 मिलियन टन सरगुजा, जशपुर, कवर्धा, कांकेर और बस्तर जिलों में उपलब्ध है। खनिज संसाधनों का धनी राज्य 2005 में टाटा, एस्सार व टेक्सास के साथ एमओयू हस्ताक्षरित किए है। एक आंकड़ा के अनुसार 9 महीनों में 2 लाख टन से ज्यादा लौह अयस्क के खनन में औसतन 27 रुपए प्रति टन रायल्टी मिलता है। जबकि वास्तव में अयस्क का अंतराष्ट्रीय दर 210 डॉलर प्रति टन यानि 10 हजार पांच सौ रुपए है। प्राकृतिक संपत्ति व संसाधन की धरती के गर्भ से चीरकर बाहर लाने के लिए पूरी सरकारी मिशनरी को झोंक दिया जा रहा है। इन आदिवासी क्षेत्रों की कीमत उनके अस्तित्व को दांव पर रखकर किया जा रहा है। प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय के अनुसार -‘‘आज इन पहाडिय़ों को बेचा जा रहा है, क्योंकि इनमें बाक्साइट है। गौंड आदिवासियों के लिए यह ऐसे ही है जेसे देवता की बोली लगा दी गई है वे पूछते, अगर यही देवता राम या अल्लाह या ईसामसीह होता, तो उनकी कितनी कीमत लगती ?’’
जमीन कब्जे में, आदिवासी शिविरों में
सलवा जुडूम से नरसंहार तक
कू्ररतम विस्थापन, संवैधानिक प्रतिरोध
केन्द्र सरकार और खनिज धनी राज्यों के बीच, इस्पात निर्माताओं और आयरन और खनिज निर्यातकों के बीच अढ़ाई साल की खींचतान के बाद अप्रैल 2008 के पूर्वार्ध में भारत ने एक नई राष्ट्रीय खनिज नीति की घोषणा की जिसमें निजी स्वामित्व वाले, बड़े पैमाने के, मशीनीकृत खनन को प्रोत्साहित करेगी। जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वामित्व को भी स्वीकारा है। भारत में खनन केवल खनिज संपदा और साधारण रूप से ‘खोदो और बेचो’ का मामला नहीं है, बल्कि यह आदिवासियों और पिछड़ी जातियों का और उन्हें जमीन और जीवका से अलग किए जाने का मामला भी है। यह अस्मिता, गरीबी, पिछड़ेपन और नक्सलवाद से भी संबंधित है। यह अवनीकरण और जैव विविधता पर प्रभाव, जल सुरक्षा और प्रदूषण से भी संबंधित है।
जांच में लिखा गया कि जब ‘हम राजनांदगांव से निकले सूर्य ढल चुका था। पैरी-बगदई नदी को पारकर हम आगे बढ़ रहे थे। रात में रास्तों में प्रकाश व्यवस्था के न होने से हमारा चालक सडक़ में चिन्हित रेडियम की निशान को देखकर आगे बढ़ रहा था।
राजनांदगांव से 59 किमी की दूरी में कौड़ीकसा गांव मिला। जहां की पानी में आर्सेनिक की मात्रा पाई जाती है। बच्चे अपाहिज हो रहे है। कौड़ीकसा से 12 किमी में बोदाल माईंस है। जहां उच्चश्रेणी के यूरेनियम निकाला जाता था। यहां से निकलने वाली रेडियोएक्टिव किरणों की रोकथाम के लिए आवश्यक सावधनियां नहीं उठाई गई है। जिसे बाद में बंद कर दिया गया। काम बंद होने से कर्मचारी आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र में काम के लिए चले गए। उसके बाद 75 किमी की दूरी को पारकर हम मोहला-मानपुर के लिए जाते है। जहां पानाबरस नदी के उस पार आईटीबीटी का केम्प मिलता है। दमकसा, कलडबरी, कहगांव, इरागांव का क्षेत्र वनों से आच्छादित है। पूरा क्षेत्र सेंधा, कटरा, बीजा, महुआ, सागौन व तेंदू के वृक्षों से आच्छादित है। पूरा क्षेत्र सेंधा, कटरा, बीजा, महुआ, सागौन व तेंदू के बड़े-बड़े वृक्षों से हराभरा है।
संबलपुर में खूब बारिश होने से सडक़ डूब चुका था। कभी-कभी वाहन का लाईट बंद हो जाता था। लेकिन चालक की होशियारी से गाड़ी आगे निकल जाती थी। रात को 12 बजे हम भानुप्रतापपुर पहुंचे। पुलिस की बैरियर में हमें रोका गया। पूछताछ के बाद हमें छोड़ा गया। कोरर, मरकाटोला, धनेली, कन्हार में हमें बस स्टैंड दिचााई दिए। लोगबाग नींद के आगोश में सो रहे थे। भानुप्रतापपुर से 50 किमी पर कांकेर मिलता है। जहां हमें माकड़ी ढाबा मिला। आदिवासियों के जमीन को खरीदकर 1961 में इस ढाबा का निर्माण किया गया है। 170 (ख) भू-राज्य संहिता के तहत आदिवासियों ने इसका पूर्व विरोध किया था। इसी कांकेर में नक्सलियों से निपटने के लिए 22 करोड़ की लागत से जंगल वारफेयर कालेज का स्थापना किया गया है। जो देशी कुत्तेां को छापामारों को सूंघने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। यहां अमेरिका सैन्य अकादमी छापामारों से निपटने हाथ कटा रहा है।
जहां भी हमें ब्रेकर मिलता, हमें समझ आ जाता था कि कोई न कोई गांव आ चुकी है। वे कहते हैं, तेज बारिस के कारण हमें आगे बढऩे में परेशानी हो रही थी। केशकाल व हेडक़ू में ट्रकें जंगल में दुर्घटनाग्रस्त होकर फंसी पड़ी थी। सडक़ के किनारे लोग शौच के लिए जाते हुए दिखे। जिस अनुपात में लोगों के हाथों में मोबाईल आ गया है। शौच की व्यवस्था आज भी गांवों में नगण्य है। आधीरात को हम केशकाल की दुर्गम घाटी में पहुंचते है। 16 मोढ़ों से युक्त इस घाटी को चट्टानों को काटकर तैयार किया गया है। हमने देखा की कई बदहवाश गाडिय़ां इस 6 से 7 किमी लंबी घाटी के दिवारों को ढहा दिया था। केशकाल से कोंडागांव 57 किमी व जगदलपुर 130 किमी की दूरी पर स्थित है। जगदलपुर से 22 किमी पहले हमें बस्तर गांव मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यह छोटा-सा गांव दक्षिण छत्तीसगढ़ की दिल की तरह धडक़ता है। हम सभी इस सुदूर क्षेत्र को भले ही विभिन्न नामों से पुकारे लेकिन इस अमीर भू-भाग को आज भी बस्तर कहकर पुकारा जाता है।
रायपुर से निकलने वाली रोड को आज भी बस्तर रोड के नाम से जाना जाता है। इन आदिम गांवों में शहर का हिस्सा लगभग सुरक्षित है। जहां बिजली है, पानी है, सडक़ है। केशकाल, कोंडागांव, जगदलपुर शहर बस्तर की आदिवासी अंचल को शहर के रूप में तब्दील करती नजर आ रही थी। सभी आदिवासी नगरों में पुलिस थाना का निर्माण अनिवार्य रूप से हुआ है। दूसरे दिन हम जगदलपुर में ठेले-खोमचों में आदिवासियों को चाय की चुस्की लेते हुए देखे। यहां का आदिवासी अब कामकाज की तलाश में शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। कई लोगों को अपने गणतव्य स्थानों की ओर कूच करने के लिए सवारी गाडिय़ों का इंतजार करते हुए देखा गया।
वे कहते हैं, शहर में रेशमबोर्ड व आकाशवाणी की गगनचुंबी टावर को आसमान की ओर सिर उठाते देख रहे थे। आदिवासी अंचलों में बढ़ी सडक़ों में माईलस्टोन के साथ माईलबोर्ड भी लगाया गया है। चार फीट चौड़ी व पांच फीट लंबी इन दूरीनामा बोर्ड को केन्द्रीय वित्तीय सहायता से निर्मित किया गया है। इन बोर्डों को मात्र शहरी लोग ही दूरी व स्थान देखने में उपयोग में लाते है। अदंर की ओर खदेड़ दिए गए आदिवासी आज भी दिशाओं, सूर्य, चंद्रमा की स्थिति, पेड़-पौधों, पहाड़ की ऊंचाई व जमीन की उतार-चढ़ाव को दिशाज्ञान में उपयोग में लाते हैं। सुबह से ही छोटे-छोट बसों का इन दुर्गम क्षेत्रों में आना-जाना शुरू हो गया था। आदिवासी महिलाएं सिर पर भोजन की टोकरियां को रखकर बड़े भूपतियों, सेठ व साहूकारों के घरों में धान की रूपाई के लिए जा रहे थे। यहां 800 मिमी से 1700 मिमी तक वार्षिक वर्षा होती है। यहां का कृषि मानसून पर निर्भर करता है।
अधिकांश आदिवासी खेती करते है। आज भी अंदर के इलाकों में लंगोटी पर जीवन बिताने वाला आदिवासी अपनी जीविका सल्फी पीकर व पेंदा खेतीकर जीवन गुजार रहे हैं। यह क्षेत्र खनिज, पेड़ व वन सम्पदा से परिपूर्ण है। लेकिन जगदलपुर के बाद विकास आदिम युग की ओर हमें ले जाती है। केशलूर, ताकापाल, एरण्डवाल, गीदम, बारसूर, बड़े अरापुर, कावलीभाटा, डिलमिली, तिरथुम व कोड़ेनार की जमीन फख लाल नजर आता है। जगदलपुर से आगे सडक़ को बॉर्डर रोड आर्गेनाईजर (बीआरओ) की 108 आरसीसी एचआर के टुकड़ी ने बनाई है। कहा जाता है सैनिक साजो-सामान से लेकर दैनिक उपयोग की चींजे गांव तक पहुंचती है। लेकिन आदिवासी आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में बिजली नहीं है। बीजेपी सरकार ने दोबारा सत्ता में आने के बाद सबसे पहली नोटिफिकेशन छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत बोर्ड का विखंडन कर उसे 5 विभिन्न कंपनियों में विभाजित किया।
कर्मचारियों और इंजिनियरों के संगठनों ने इसका प्रतिरोध किया। सरकार के इस कदम को आमतौर पर परोक्ष रूप से निजीकरण के रूप में देखा जा रहा है। विदेशी कंपनियों का दावा है, छत्तीसगढ़ देश में सबसे सस्ती बिजली का उत्पादन करता है। इससे अधिग्रहण की गलाकाटू प्रतिद्वंद्वता बढ़ेगी। इससे बोर्ड उत्पादन से बाहर आ जाएगी। इसका प्रभाव हमें आज भी बस्तर में देखने को मिलता है। ग्रामीण विद्युतिकरण की उपेक्षा हो रही है। जहां बिजली है वहां 2-2 मिनटों में बिजली आंखमिचौली खेलती है। बिजली बोर्ड को अपने कब्जे में लेने के लिए डेवलेपर इंडियाबुल्स पॉवर जनरेशन लिमिटेड ने अपनी बिसात बिछा दी है। वह 26 फीसदी हिस्सेदारी के लिए अपना कदम इस क्षेत्र में रख रही है। राज्य का सारा कोल ब्लॉक उनके नाम से आबंटित है। जिंदल द्वारा सस्ते बिजली का दुरूपयोग सभी जानते हैं। यहां पर महिला आदिवासी भी हल चलाती है।
तोकापाल में सलवा जुडूम केम्प के मजबूर लोग पूरे परिवार के साथ खेत को जोतने जुटे हुए थे। नेलसनार, हेमलपारा, बोदली, ताकीलोड़, बेलचर, माटवाड़ा, जांगला, बरदेला, जैवारम, मिनगाचल, नेमेड़, मुसालूर, धनोरा, मांझीगुड़ा का यह क्षेत्र 50 किमी के अंतर्गत आता है। पूरा सडक़ बस्तर की बदहाली की कहानी बयां करती है। इस कहानी को समझने जून 2005 की तारीख को लौटना होगा। दिन तो ठीक मालूम नहीं लेकिन किसी एक भयानक दिन को बर्बरतम ‘सलवाजुडूम’ ने जन्म लिया था। जिसे शांतिरैली या शुद्धिकरण शिकार भी कहो जाता है। शांति तो था ही नहीं, शिकार ज्यादा हुए। बीजापुर और दंतेवाड़ा जिलों के करीब 644 गांवों, कुछ के अनुसार तो यह 700 गांवों से भी ज्यादा है, को खाली करवाया गया और करीब 3 से 5 लाख की जनसंख्या को विस्थापित किया गया। शिविरों की संख्या 24 थी। लोगों को जोर-जबरदस्ती के साथ या उनकी इच्छा के विपरीत कैम्पों में लाया गया और कई बार जब उन्होंने बचकर जाने की कोशिश की तो उन्हें पकडक़र वापस कैम्पों में ठूंसा गया।
सरकारी कैम्पों में 47 हजार लोग विस्थापित जनसंख्या का मात्र 13 फीसदी है। विस्थापित जनसंख्या का करीब 75 फीसदी या करीब 2.6 लाख लोगों ने कैम्पों में जाना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जंगल के भीतर और बाहर रहकर जीवन गुजारना मंजूर किया। इसमें उन्हें कानून के समक्ष आरोपी के रूप में चिन्हित किया गया। इस दौरान ‘स्टैटेजिक हैमलेटिंग’ यानि गांव को साफ कर दिया जाता था। इस कार्य को जंगल वारफेयर कॉलेज के बिग्रेडियर बीके पोनवार के नेतृत्व में किया गया। सीआरपीएफ की 19 बटालियनों और 2 नागा, मिजो, आईआरबी बटालियनों, एसपीओ(विशेष पुलिस अधिकारियों के नाम पर आदिवासियों को हथियार देकर)आदिवासियों के खिलाफ हर किस्म की बर्बरता के लिए झौंक दिया गया था। यह तरीका आज भी अमल में है ताकि आदिवासी जनता को दबाकर रखा जा सकें। इससे पहले कांग्रेस के विधायक महेन्द्र कर्मा के नेतृत्व में 1991 में जनजागरण अभियान प्रारंभ हुआ था, जो खत्म हो गया। जुडूम कटरेली, कुटरू व अन्य गांवों से संगठित किया गया था। जिसे देवा व महेन्द्र कर्मा ने नेतृत्व दिया। अब स्थिति यह है कि आधे से ज्यादा कैंपों के दरवाजों में ताला जड़ा हुआ है।
पानी की व्यवस्था, राशन व बिजली की व्यवस्था कैंपों में नगण्य है। बलात्कार के कारण एक ‘हराम’ पीढ़ी भी जन्म ले रही है। आज कुछ एक हजार लोगों को इन कैंपों में रखकर यातनांए दी जा रही है। पूरे कैम्प को छावनी में तब्दील कर रखा गया है। बुनियादी सुविधाएं नगण्य है। एक अनुमान के अनुसार इन गांवों की साढ़े तीन से पांच लाख आदिवासी सलवा जुडूम से प्रभावित है। लगभग 50 हजार कैम्प में है। यानि 3 लाख नक्सलियों के और करीब चले गए हैं। अबतक 50 हजार में से 13 हजार लोग ही कैम्प में मौजूद कहे जा रहे हैं। जो अबतक घटकर आधी हो गई होगी। इस पूरी घटना का मूल उद्देश्य निजी व बड़े कार्पोरेट घरानों के लिए मैदान साफ करना है। पहाड़-जंगल साफ करना है।
टाटा, एस्सार, टेक्सास पॉपर जनरेशन, आर्सलर, मित्तल, बीएचमी बिल्टन, डि-बियर्स, रियो टिन्टो, गोदावरी इस्पाल, प्रकाश इंडस्ट्रीज व निको के साथ एमओयू हस्ताक्षरित हुए हैं। उच्च क्वालिटी के लौह अयस्क, कोल ब्लॉको को व इंद्रावती के पानी इन्हें दान में दे दिया गया है। कम्पनियों के स्वार्थ इस बात में भी दिखाई देती है कि पहला सलवा जुडूम के शिविर बनाने की राशि एस्सार कम्पनी ने दी थी। एक विदेशी कंपनी ‘क्रेस्ट’ को दक्षिण बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों में खनिज भंडारों के सर्वे करने का ठेका दिया गया है। कंपनी ने तब कहा था कि वे इतना विशाल सर्वे तभी कर पाएंगे जब जमीन साफ कर दी जाए।
13 मार्च 2007 को जब नागा कटालियन और सलवा जुडूम के लोग गगनपल्ली पंचायत के नेन्दरा गांव में घुसे तो सभी भाग गए। गांव के कुछ बच्चे एक बोरिंग पर नहा रहे थे। जब नागा जवान गांव में और किसी को नहीं पकड़ सके तो उन्होंने 2 से 16 साल के बीच की उम्र के 11 बच्चों और एक युवक को गोली मार दी। ये आंकड़े नहीं है बल्कि जीते जागते इंसान थे। सोयम राजू (2), माडवी गंगा (5), मिडियम नगैया (5), पोडियम अडमा (7), वेट्टी राजू (9), वंजम रामा (11), सोयम राजू (12), सोडी अडमा (12), मडकम साइत (13),मडकम बुदरैया (14), सोयम राका (16) व सोयम नखां (20)। इस रणनीति का अहम पहलू यह है कि जो आदिवासी कैम्पों में नहीं आती हैं उन्हें गैरकानूनी बना देना और उनकी घेराबंदी कर देना। उनके लिए स्वास्थ्य सेवाएं, राशन दुकानें और स्थानीय बाजार-हाट की सुविधाओं को बंद कर देना। दूसरे शब्दों में उन्हें भूखों मारना या प्रतिबंध जारी करना। इस विषम परिस्थितियों में भी आदिवासियों ने सलवा जुडूम जैस कू्ररतम अभियानों का लगातार संवैधानिक विरोध करते आ रहे हैं।
हमें राशन नहीं न्याय चाहिए, जल-जंगल-जमीन पर अधिकार चाहिए
आदिवासियों की हत्या पर सरकार को माफी मांगनी चाहिए
आदिवासियों की धरती से फौज को वापस बुलाएं
5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैधानिक एवं असंवैधानिक घोषित कर सलवा जुडूम को समर्थन बंद कर विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के नाम पर आदिवासियों को हथियारों से लैस नहीं करने की बात कही थी। निर्णय में सहायक पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) की भर्ती को अयोग्य व अक्षम बताया गया था। यहां उनको सहायक सशस्त्र बल में तब्दील कर नियमित कर दिया गया, जो सरासर असंवैधानिक है। कारण इनके बिना सुदूर बस्तर के वादियों में जाकर आदिवासियों के गतिविधियों पर नियंत्रण संभव नहीं हैं। इस तरह कोर्ट आदेश की अवहेलना पर फिर से एक बार राज्य की रमन सिंह सरकार से 24 घंटे के भीतर जवाब मांगा गया था। कुल मिलाकर आदिवासी क्षेत्रों की स्थिति युद्ध के मैदान में बदल रहा है। जिसमें निर्दोष आदिवासियों का समूल नाश हो रहा है। जांच में स्पष्ट कहा गया है कि प्रभावित गांव बीजापुर मुख्यालय के उसूर तालूक के अंतर्गत आता है।
इसका कुल क्षेत्रफल 1131.14 वर्ग किमी है। इसकी जनसंख्या 54 हजार छत्तीस है। इस क्षेत्र में अनुसूचित जाति की संख्या 2 हजार 24 व जनजातियों की संख्या 47 हजार 179 है। इस तालूक में 132 गांव आते हैं। जिसमें से 123 गांवों में लोग निवास करते हैं। नौ गांवों की स्थिति बसावट के अंतर्गत नहीं आता है। इस क्षेत्र में एक गांव को आदिवासी गांव कहा गया है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की संख्या कुल चार है। उप स्वास्थ्य के 20 केंद्र हैं। स्वास्थ्य संबंधित स्थिति गांवों में गंभीर है। मलेरिया से पूरा क्षेत्र प्रभावित है। दवाइयों व उचित चिकित्सा के अभाव में आदिवासियों की मौत हो जाती है। 121 गांवों में विद्युतिकरण किया गया है। सलवा जुडूम को सहयोग नहीं करने के कारण सारकेगुड़ा के गांवों में बिजली के खंभों का विद्युतिकरण नहीं किया गया है। सलवा जुडूम को सहयोग नहीं करने के कारण सारकेगुड़ा के गांवों में खंभे को विद्युतिकरण से नहीं जोड़ा गया है। बदले में बिजली छिन ली गई है। आंकड़े में 132 गांवों में पानी की कोई समस्या नहीं दर्शाया गया है।
रिपोर्ट में लिखा गया है कि बीजापुर मोड़ से सारकेगुड़ा की दूरी लगभग 50 किमी का है। सारकेगुड़ा से 17 किमी पहले हमने रात होने से रूकने का फैसला किया। 50 किमी का यह क्षेत्र सैनिक छावनियों में तब्दील हो रहा है। केशलूर से लेकर सारकेगुड़ा तक सीआरपीएफ, एसटीएफ व पुलिस इस क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया है। बोदली, बरदेला, नेमेड़, मुसालूर व आवापल्ली के ग्रामीण नाम नहीं प्रकाशित करने के शर्त में बताते हंै, कि हम किसी के तरफ नहीं है, हमें सलवा जुडूम, कोया कमाण्डों या नक्सलियों से लेना देना नहीं है। यदि नक्सलियों के अधिकार क्षेत्र में हमें रहना है, तो उनकी सुननी होगी। उनकी आवश्यकताओं की सारी चीजों को गाहे-बगाहे उनतक पहुंचाना होगा। इधर फोर्स के साथ रहते हैं तब इनकी दादागिरी, तलाशी, ज्यादती को झेलना पड़ता है। जब हम इन रास्तों से गुजर रहे थे तब हमने सलवा जुडूम के दौरान जली हुई बस्तियों व गाडिय़ों को देखने को मिला।
बाजार में आज भी एसपीओ के सशस्त्र अधिकारियों को खरीददारी के लिए आते हुवे देखा। इनकी जिम्मेदारी स्थानीय गतिविधियों पर नजर रखना और मुठभेड़ की स्थिति में फोर्स का सहयोग करते हुए अग्रिम मोर्चा को संभालना होता है। पूरा क्षेत्र अघोषित आपातकाल में तब्दील कर दिया गया है। हर दो किमी की दूरी पर सीआरपीएफ, आईटीबीटी की टुकडिय़ां लगी हुई थी। थाना क्षेत्रों में पुलिस अपना काम संभाल रहा था। उनकी बटालियन सडक़ों पर लगातार सर्चिंग व आने-जाने वालों से पूछताछ कर रही थी। तेलपेरू नदी का लालपानी शांत बह रहा था, वहां कि स्थिति उतनी शांत नहीं लग रही थी। पूरे माहौल में गहमा-गहमी व लोगों के ऊपर सैनिक घेराबंदी की मनोवेज्ञानिक दबाव भी था। सडक़ों से लगे बांए-दांए जमीन में से सागौन जैसे बड़े हरे-भरे पेड़ों को फोर्स द्वारा सर्चिंग के लिए काट दिया गया था।
कुशवाहा, कांकेर रोडवेज, देव, भारत, तोमर व रायल की बसें यहां की लाईफलाईन है। हमने कुशवाहा के निजी बसों का उपयोग सीआरपीएफ के द्वारा करते देखा था। जहां-जहां फोर्स ने केम्प बैठाया है उसके पूरे गोलार्ध में बारर्बेट वायर से घेर दिया गया है। कई स्थानों में फोर्स ने सेटेलाईट टावर की स्थापना की है। मरमोडा गांव में खेती की हालात खस्ता थी। बोआई निंदाई व बियासी के कार्य आर्थिक कारणों से पूरा नहीं किए जा सके थे। जब हम बीजापुर से रवाना हो रहे थे, तब एसपी कार्यालय में एक पुलिसवाला हमें चर्चा के दौरान बताया कि ‘साहब यहां पॉवर, टॉवर और गला कब कट जाएगा उसकी ग्यारंटी नहीं है।’ हमारी टीम अंतत: 20 जुलाई को ग्यारह बजे सारकेगुड़ा पहुंच गई। गांव से बासागुड़ा थाने की दूरी डेढ़ किमी है। इस घटना के बाद गांव में ही सीआरपीएफ केम्प की स्थापना कर दी गई है।
इस घटना ने सारकेगुड़ा, कोट्टागुड़ा और राजपेंटा गांव भय, भूख व आतंक के आगोश में है। सारकेगुड़ा में कुल 35 घर हैं। राजपेंटा में कुल 15 घर व कोत्तागुड़ा में कुल 32 गांव है। राजपेंटा व सारकेगुड़ा कोरसागुदेम पंचायत में आता है। कोत्तागुड़ा चिपुरभट्टी पंचायत के अंतर्गत आता है। तीनों गांव उसूर विकासखंड में गिने जाते हैं। आवापल्ली इसका तहसील व जनपद कार्यालय है। यह क्षेत्र बासागुड़ा थाना के कार्यक्षेत्र में चिंहित है। पूरा क्षेत्र बीजापुर मुख्यालय में आता है। जांच दल जब गांवों में पहुंची चिन्नू, अबका रमेश अबका सरके आंसु अपका सुखराम, परसा मारा, कोरसा मासू, इरपा नारायण, नागेश्वर कडकम, कमला काका, रीता काका, लक्ष्मी इरपा, इरपा जानकी ने हमें एक चौपालनुमा (घोटुल) में बैठने के लिए आमंत्रित किया। तीनों गांवों के लगभग 78 घरों से 300 लोग गौंड जानजाती के हैं। घटना 28-29 जून को घटित हुई। बैठक की व्यवस्था 28 जून को सुबह रखा गया था।
लेकिन खेती-किसानी का समय होने से बैठक रात्रि 8 बजे रखा गया था। बैठक का मुख्य एजेंडा फसल बोने से पहले बीज बोने की पारंपरिक त्यौहार (बीज पुडुम), तेंदूपत्ता तोडा़ई से कमाएं गए तीन वर्ष की बचत का बंटवारा, बगैर जानवर वाले परिवारों को मदद व नए लाए गए टेक्टर के उपयोग पर किराए का निर्धारण कर चर्चा करना था। कमला काका, रीता काका, चिन्नू अबका हमें बताने के लिए प्रतिनिधि का काम किया। वे कहते हैं-सलवा जूडूम ने उनके गांवों को उजाड़ दिया। उनके घरों को जला दिया गया। तीन लोग- पुनीम शांता (30) काका कीष्टी (28) मरकम लक्ष्मी (25) जो सलवा जुडूम के दमन से दूसरे राज्यों में चले गए थे अब वे लौट आए हैं। काका रामास्वामी (28) जेल में ठूंस दिया गया है। मुक्तैया करकाम(50) इरपा गणपत(30), काका मल्ला (50) के घरों को जला दिया गया। मरकाम बालय्या (40) को मार दिया गया। बालय्या घर बनाने के लिए कील लेने कुम्हारपारा गया था। वहां उसको घेरकर हथियारों से मार दिया गया।
जुडूम लाश को थाने ले गई। एक सप्ताह तक लाश को थाने में रखा गया था। प्रतिदिन ग्रामीणों के साथ मारपीट का व्यवहार होता था। इन ज्यादितियों से बचने के लिए इन गांवों के लोग आंध्रप्रदेश के सीमाओं में चले गए। उस समय आंध्र प्रदेश के जनजाति कल्याण विभाग एक बैठक आयोजित कर यह निर्णय लिया था कि छत्तीसगढ़ में नक्सल-सलवा जुडूम हिंसा से बचने के लिए जिन जनजातियों ने आंध्रप्रदेश के जंगलों में शरण ली है, वे भूमि और वन अधिकारों के पात्र नहीं होंगे। यहां एक बात गौरतलब है कि खुद के गांवों से विस्थापित किए जाने के कारण वे छत्तीसगढ़ में अपने मूल गांवों में भी अपने अधिकारों का दावा नहीं कर पाएंगे। उनको छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश दोनों जगहों से अधिकारों से वंचित रखना, न्याय का दर्दनाक उल्लंघन था।
जुडूम मुर्गा, बकरा, सुअर, पैसा-रुपए लूट लिए। कई महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई। पटेल काका नारायण की बीमारी से मौत हो गई। उनके चले जाने से आज गांवों में पटेल नहीं है। इरपा कमला गांव की सरपंच है। जब बैठक हो रही थी तब लोगों की संख्या लगभग 60 के आसपास थी। 300 की संख्या में सीआरपीएफ, एसटीएफ, एसआईबी व पुलिस ने तीन तरफ से हमला कर दिया था। ग्रामीणों पर पहला गोलीबारी पश्चिम दिशा से हुई। मरकाम दिलीप सहित तीन आदिवासी मौके पर ही मारे गए। ये सभी फोर्स बासागुड़ा, जगरगुंडा और चिंतलनार से रवाना किए गए थे। गांव में बैठक की परंपरा रही है कि गांव के बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी बैठ कर भविष्य की रूपरेखा तैयार करते हैं। तीनों गांव पटवारी रिकार्ड में लेखबद्ध है। घटनास्थल कोत्तागुड़ा मैदानी क्षेत्र है। जहां ताड़ व महुआ के वृक्ष लगे हुए है।
आदिवासी जो इस नरसंहार में मारे गए
काका सरस्वती (12) आत्मज रामा गांव-कोत्तागुड़ा, काका राहुल (15) आत्मज नारायण, गांव-कोत्तागुड़ा, नवमीपास (इसे धारदार हथियार जो कुल्हाड़ी सरीखे था से काटा गया, उसके हाथ पैर तोड़ दिए दिए। काका समय्या (35) आत्मज दुला, गांव-कोत्तागुड़ा (विवाहित-4 बच्चे एक लडक़ी व 3 लडक़े)। मरकाम दिलीप (17) आत्मज मुक्ता, गांव - कोत्तागुड़ा, आठवीं तक पढ़ा लिखा, मरकाम रामविलास (15) आत्मज-मुतैय्या, गांव-कोत्तागुड़ा, नवमी पास, मरकाम नागेश (30) आत्मज-मल्ला, गांव-कोत्तागुड़ा, पत्नि सम्मी (गर्भवती) व्यवसाय खेती, मरकाम सुरेश (25) आत्मज-मल्ला, गांव-कोत्तागुड़ा, इरपा रमेश (28)आत्मज-राजू, गांव-कोत्तागुड़ा, आठवीं पास (जब गोली लगा जीवित था। उसे ईंट से मारकर खत्म किया गया। इरपा दिनेश(25) आत्मज राजू, पत्नि का नाम जानकी (चेहरा को फोर्स ने विकृत कर दिया था, नक्सली कहकर बासागुड़ा थाना के पीछे जला दिया गया।
लाश को ग्रामीणों को नहीं सौंपा गया। इप्पा नारायण (40) आत्मज मुत्ता, गांव-राजपेंटा, पत्नि-का नाम नरसिह (गर्भवती)(व्यवसाय-खेती), इरपा धरमय्या(40) आत्मज-भीमा, गांव-राजपेंटा, इरपा सुरेश (14) आत्मज-चन्द्रू, गांव-राजपेंटा, सारके रामन्ना(20) आत्मज-पोट्टी, गांव-सारकेगुड़ा, व्यवसाय-खेती, माडवी आयतू (40) आत्मज-भीमा, गांव-सारकेगुड़ा, व्यवसाय-खेती, (बचचे-चार), अपका मिटू (15) आत्मज-सुखराम,गांव-सारकेगुड़ा, कोरसा बिच्चेम (17) आत्मज-गुट्टा, गांव-सारकेगुड़ा, व्यवसाय-खेती, कुंजाम मल्ला (15) आत्मज-लखमा, गांव-सारकेगुड़ा, (व्यवसाय-खेती)। इसके अलावा मरकाम सोमा (30) आत्मज-भीमा, गांव-कोत्तागुड़ा, सोमा की पत्नि-कमला (25) (गर्भवती) तीन बच्चे, (एक लडक़ी दो लडक़ा) गंभीर रूप से जख्मी हालात में लापता। इनकी संपत्ति कुछ नहीं, सोमा अकेली है।
काका संटी (22) आत्मज-लक्ष्मण, गांव-कोत्तागुड़ा, संटी की पत्नि-नागमणी (18) नवविवाहिता (मां-बाप गुजर गई) एक भाई व दो बहनें, तीन भाईयों का संयुक्त परिवार, गंभीर रूप से जख्मी हालात में लापता। इनकी खेती 20 एकड़ है। गोली लगने से घायल इरपा सिनक्का पति सिनक्का, उम्र 40 वर्ष, गांव कोत्तागुड़ा (गोली कमर में लगी है। जांच के दौरान महारानी अस्पताल जगदलपुर में भर्ती। अपका छोटू (14) आत्मज- बुधराम, गांव-सारकेगुड़ा (जांघ में गोली लगी है। जांच के दौरान बीजापुर अस्पताल में भर्ती, सारके पुलय्या (22) आत्मज-किस्टया, गांव-सारकेगुड़ा, (महारानी अस्पताल जगदलपुर में भर्ती), काका रमेश (12) आत्मज-किस्टया, गांव-कोत्तागुड़ा (गोली पीठ पर लगी, अस्पताल से लौट आया),पार्वती (12) आत्मज-किस्टया, गांव-कोत्तागुड़ा (बांए हाथ में गोली लगी, अस्पताल से लौट आई)।
हत्या, लापता व घयलों की संख्या के साथ गांव में लूट भी हुई है। ललिता के घर से 10 हजार रुपए, मरकाम नागेश की पत्नि सम्मी से 2 हजार 5 सौ रुपए लूटा गया, जो बाद में मारा गया, इरपा रमेश से 5 हजार रुपए (वह मारा गया), इरपा नारायण से तीस हजार रुपए (वह मारा गया), मुक्ता से मोबाईल लूट ली गई (उसके पुत्र मरकाम दिलीप मारा गया), सारके रामन्ना से मोबाईल लूटी गई (उन्हें भी मार दिया गया), अपका मिटू से साइकल लूटी गई और उसे मौत के घाट उतार दिया गया। इन सारी घटनाओं को फोर्स ने अंजाम दिया। आदिवासियों की हत्या के साथ उनके पशुओं को भी नहीं बख्शा गया। एक गाय, एक सुअर, दो भैंस, एक बैल को गोली मार दी गई। पशुओं पर जानबूझ कर हमला किया गया। इस तरह आदिवासियों के र्आािक ताकतों को तोड़ दिया गया।
पुलिस नरसंहार में 17 लोग मारे गए। दो लोग आज भी लापता है। पांच आदिवासी घायल हुए। कुछ का आज भी इलाज चल रहा है। ग्रामीणों से संैतालीस हजार पांच सौ रुपए लूट लिए गए। दो मोबाईल एक साइकल भी लूटा गया। छह पशुओं को गोली मारकर खत्म किया गया। जो नहीं मरे उन्हें कुल्हाड़ी जैसे हथियारों से काट दिया गया। बैठक को जब फोर्स ने घेरा तब मडकाम दिलीप (जो मारा गया) ने खड़े होकर ‘हम गांव के जनता हैं, कहकर चिल्लाया। इसके बावजूद उन पर बिना पूर्व चेतावनी के अंधाधुंध गोली चलाई गई। यह गोलीबारी लगातार एक घंटे तक चलते रहा। जो घरों की तरफ बचने के लिए घूसे उन्हें जबरदस्ती निकालकर काटा गया। गोलीबारी लगभग रात के 10.30 के आसपास चलायी गई। पूरा सैन्य दल गांव पर टूट पड़ा।
इरपा रमेश जो घटना के दूसरे दिन घर पर छुपकर फोर्स को देख रहा था उस पर फोर्स ने सामने से गोली दागी। उसके बाद जब वह नहीं मरा तो उसे ईंटों से कुचलकर मारा गया। लड़कियों को लात-घूसों से मारा गया। उनके साथ छेड़छाड़ तथा बलात्कार किए गए। किसी भी लाश का पंचनामा व पोस्टमार्टम नहीं किया गया। उल्टे गैरकानूनी व आदिवासी परंपराओं का उल्लंघन कर सभी लाशों को जला दिया गय। ताकि किसी तरह के सबूत जांच के लिए न बचें। सूत्रों के अनुसार लाशों को एक के ऊपर एक थप्पी लगाकर रखा गया था। इन लाशों में से एक लाश (इरपा दिनेश) को नक्सली वर्दी पहना दिया गया था। अस्त-व्यस्त रखे गए लाशों से बदबू आ रही थी। लाशों को लेने के लिए गांव के लोगों को थाने में आने नहीं दिया गया। ग्रामीणों ने बताया कि जब हमारे रक्षक ही हमारे भक्षक बन गए तब आप बताओं कहां रिपोर्ट दर्ज करवाते?
घटना स्थल पर मारे गये शव इधर-उधर बिखरे पड़े थे। जब सुबह रमेश की हत्या की गई तब जाकर सभी लाशों को लेकर फोर्स थाने के तरफ बढ़ी। हम सभी ग्रामीणों ने हिम्मत के साथ अपने प्रियजनों के लाशों को प्राप्त करने इकट्ठे होकर थाने गए। हमने कलेक्टर व एसपी को शिकायत दर्ज करवाना उचित नहीं समझा।
सरकार व विधायक महेश गागरा ने हमारा सुध नहीं ली। इस नरसंहार की घटना को अंजाम तक पहुंचाने के बाद सरकार उनके राहत के लिए डिप्टी कलेक्टर आरए कुरूवंशी के माध्यम से गांव के लिए राशन भेजा था। लेकिन गांव के लोग राशन की खेप को लौटा दिए। जो लोग मारे गए उनमें आठ नाबालिक थे। सरपंच इरपा काका ने बताया कि खाली हाथ हमने गांव बसाने की कोशिश की थी। आज हमारे गांवों में स्कूल नहीं है, स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है, आश्रम नहीं है। प्रशासन के नाम पर नरसंहार हो रहा है। काका कमला व काका रीता ने हमें बताती है-‘हमें सलवा जुडूम से आजतक भगाने, मारने की कोशिश की जा रही है। हम राशन से संतुष्ट नहीं है। उस समय सरकार की नीतियों ने हमें गांव से भागने पर मजबूर कर दिया था। अब हमें 17 निर्दोष आदिवासियों की हत्या पर न्याय की जरूरत है।
वे कहती है-जब हम नक्सली करार दे दिए गए तो हमें राशन की राहत क्यों? काका राहुल मार दिया गया। वह बासागुड़ा में पढ़ते समय पुलिस के साथ क्रिकेट खेला करता था। उस पर किस बिना पर जेल ब्रेक का आरोप मढ़ा गया। वह कहती है-‘झूठ बोलने से सच्चाई छुप नहीं सकती।’ इस 15 वर्षीय नाबालिक को आवापल्ली के शिक्षक सौरागिरी रितेश अपने साथ ले गए थे। वह वहां एक सप्ताह गुजारकर हाल ही में लौटा था। राहुल इंजीनियर बनना चाहता था। रामविलास वकील बनना चाहता था। दोनों ही होशियार तथा अंग्रेजी व गणित में होनहार थे। सीआरपीएफ ने अपनी झूठ को छुपाने के लिए जहां-जहां लाश और खून के निशान गिरे उस जमीन को खोदकर मिट्टी को अपने साथ ले गई। सुरक्षा बल का सम्पूर्ण कृत्य अपराधियों के किस्म का था।
16 लाशों को जबरन जलवा दिया गया। जिसमें एक लाश को खानापूर्ति के लिए नक्सली जामा पहनाकर बासागुड़ा थाना के पीछे जला दिया गया। अफवाह यह फैला दिया गया कि उसकी शिनाख्त नहीं हो सकी थी। 16 जुलाई को गांव की निगरानी के लिए सीआरपीएफ कैंप लगा दिया गया है। ताकि लोग डर के मारे गांव छोडक़र चले जाएं। बासागुड़ा में पुलिस वाले नदी के पास बैठकर महिलाओं व पुरूषों को तंग करते हैं। स्कूल और अस्पताल के लिए डेढ़ किमी दूर बासागुड़ा जाना पड़ता है। चौपाल में पूछे जा रहे सवालों का जवाब बताया कि मुरकीनार केम्प में पुलिस-नक्सली मुठभेड़ के बाद हमारे गांव के लोगों को क्यों परेशान किया जा रहा है? प्रतिदिन तलाशी ली जाती है। अगर कोई बीमार है, तो अस्पताल पहुंच नहीं सकता। उल्टे बलात्कार की धमकी दी जाती है। तुम नक्सली हो.. मारना.. पीटना.. बाल खींचना.. धमकी देना.. आम बात हो गई है। सुरक्षा बल धमकी देते हुए कहती है, अभी बलात्कार कर देंगे।
मरकाम शांति के पति को सलवाजुडूम में मार दिया व बालय्या को मार दिया गया। पानके अजय, सारके पुलिया, नागेश्वर मडकम कहते हैं- ‘बासागुड़ा में वोट देने जाते हैं। वोटर लिस्ट में नाम भी है, फिर भी हमारे साथ आतंकवादी जैसे बर्ताव क्यों किया जाता है? रिपोर्ट में कहाह गया कि जब त्योहारों के बारे में उनसे पूछा गया तो उनके चेहरों की सिकन छंट गई। एक हल्की-सी मुस्कुराहट के बाद वे कहते है- जीरा पंडुम, बीजापंडुक, इकेन पंडुम जैसे त्योहार को वे धूमधाम से मनाते है। ढोल व मांदर बजाकर नाचते-गाते हैं। गांव की देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। वे कहते हैं- ‘हमारे लिए वह सुबह कब आएगी...? अब तो सुबह 4 बजे उठकर बैलों को बाहर चरने के लिए नहीं ले जा सक रहे हैं। शाम को खेत जोतते थे, वह भी नहीं हो रहा है। बैलों की ठीक से रखरखाव नहीं होने से खेती भी अच्छी नहीं हो रहा है। बैलों की ठीक ढंग से देखभाल नहीं होने से खेती भी भगवान भरोसे चल रही है। आखिरकार गांव से सुरक्षा बलों की घेराबंदी कब हटेगी? यह प्रश्र उन्हें रात-दिन परेशान करे रखती है।
28 जुलाई का खबर दिल को दहला देने वाली है। एक माह पूर्व सारकेगुड़ा मुठभेड़ में घायल सारके पुलैया की पत्नी व नवजात की प्रसव के बाद मौत हो गई। इससे गांव का एक और घर उजड़ गया। रिपोर्ट में सारके पुलैया का उल्लेख मिलता है। ग्रामीण आदिवासियों ने गर्भवती अंजली को पेट में दर्द होने से जगदलपुर अस्पताल में भर्ती करवाया था। प्रसव के बाद अधिक मात्रा में खून के बहने से महिला की मौत हो गई। नवजात के मौत से महिला सहम गई थी। गांव वालों का कहना है कि पुलैया को गोली लगने के बाद अंजली की तबियत लगातार बिगड़ रही थी। उसका रक्तचाप भी बढ़ गया था। प्रसव के दौरान कई बार उसे अटैक भी आया। जांच दल ने पुलैया से अस्पताल में मुलाकात कर पूछ-परक्ष की थी।
उन्होंने दल को बताया था कि वह फोर्स के डर से 17 दिनों तक जंगल में छिपे रहा। घटना के कई दिनों बाद जब पत्रकार गांव में आए तो वे अपने साथ अस्पताल ले आए। उनकी पत्नी ने रोते हुए उन्हें पत्रकारों के साथ रवाना किया था। जब अंजली जिंदगी और मौत से जूझ रही थी तब पुलैया का घुटनों से गोली निकालने वा आपरेशन हो राि था। अस्पताल प्रशासन ने आर्थिक रूप से अस्क्षम परिवार के रूप में टिकट बनवाकर ही परिजनों को जच्चे-बचचे का शव ले जाने दिया। इसका विरोध ग्रामीणों ने किया। विरोध के बाद शव परिजनों को दिया गया। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभव में मृत महिला को अस्पताल में पहुंचाने में काफी विलंब हो गई थी। घटना का विरोध करते हुए माओवादियों ने 7 अगस्त को राजपेंटा में विस्फोट कर दिया। दो जवान मारे गए। घटना के बाद जवानों ने गांव के युवकों की पिटाई कर अस्पताल पहुंचा दिया। बोला गया कि पूछने पर पेड़ से गिरना बताये। वरन अंजाम भुगतने तैयार रहे। घटना के बाद गांव दहशतजदा है।
एक महिला को खेत में अपने पति को खाना पहुंचाकर लौटते वक्त रोक लिया गया। उसे दो घंटो तक रोककर रखा गया। इस दौरान उसके गोद में बच्ची रो रही थी। सीआरपीएफ जवानां ने स्तन से दूध निकालकर दिखाने की शर्त पर उसे छोड़ा। जांच में यह भी उभरकर आया कि 14 से 55 वर्ष तक की महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। इस घटना व जांच रिपोर्अ पर भास्कर भूमि के सम्पादक अतुल श्रीवास्तव ने लिखा कि-‘नक्सलवाद का असर छत्तीसगढ़ और इसके सीमावर्ती राज्यों में सिर चढक़र बाल रहा है। ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता होगा, जब धरती खून से लाल न होती होगी।
....‘सुरक्षा बलों का कहना है कि मारे गए लोग माओवादी थे, जबकि आरोप यह लग रहा है कि जिस वक्त सुरक्षा बलों ने गांव में धावा बोला, गोलियां चलाई, उस वक्त गांव में कोई भी माओवादी नहीं थे, आम ग्रामीण थे और उनके पास किसी तरह का हथियार नहीं थाद्ध रिपोर्ट पर कहते हैं कि-‘प्राकृतिक संपत्ति लूटने के लिए सरकार मशीनरी ने इस घटना को अंजाम दिया है और निर्दोष लोगों की हत्या की है। यदि यह सही है तो अपने आप में यह पूरा घटनाक्रम चिंताजनक है। 9 जुलाई को भास्कर भूमि में भाषा के समाचार इनपुट के साथ कि सीआरपीएफ ने सोच समझकर इस मुठभेड़ को अंजाम दिया।’
जिस दिन हम सारकेगुड़ा की जांच कार्य को पूरा कर रहे थे उसी दिन भोपालपट्टनम में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा ने सारकेगुड़ा मुठभेड़ के विरोध में विशाल रैली आयोजित की थी। 10 हजार आदिवासी इस विरोध कार्यक्रम में जुटे थे। इस दौरान प्रख्यात आदिवासी नेता फारेट कन्हैया को संगमपल्ली-मुद्देड़ थाना में 3 घंटों तक रोकर रखा गया था। उनके पास से संगठन की बैनरों को जप्त कर लिया गया था। बाद में उन्हें छोड़ा गया। इस दौरान कार्यक्रम से लौटते समय 60 आदिवासियों से भरी ट्रेक्टर ट्राली के पलटने से 16 आदिवासी गंभीर रूप से घायल हो गए। हमने घायलों में से कुंजाम सिन्हा, कोटे राजय्या, पुढियाम नागेश, करमक्का, माढ़ी मोटक्का से बीजापुर अस्पताल में मुलाकात की। हमने देखा सरकार ने घायलों की कोई सुध नहीं ली थी। उन्हें इलाज के लिए किसी प्रकार की सहायता नहीं दी गई थी। कथित मुठभेड़ को लेकर विरोध का दौर रूकने का नाम नहीं ले रहा है। 25 जुलाई की बात है, सारकेगुड़ा के विरोध में गढ़बेंगाल में सैकड़ों की संख्या में अबुझमाडिय़ों ने विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस इन पर लाठीचार्ज कर सभी को तितर-बितर कर दिया गया था।
जांच दल ने आदिम क्षेत्रों में उत्पन्न हो रही घटनाओं से जुड़ी सभी पहलुओं पर विचार विमर्श कर इस अधिसूचित क्षेत्र की संरक्षण व सर्वांगीण विकास पर समाधान सुझााए है जो इस प्रकार है-
जांच दल की मांग/समाधान/सुझाव
1. घटना में शामिल सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन, एसआईबी, एसटीएफ, पुलिसबलों के खिलाफ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाए। उनपर हत्या की मुकदमा भी बने। सभी आरोपियों को बर्खास्त किए जाए। जिन अधिकारियों के निर्देशन पर कथित मुठभेड़ को अंजाम दिया गया उन्हें भी बर्खास्त करें।
2. जलाएं गए सभी सत्रह लाशों का पंचनामा व पोस्टमार्डम करवाएं जाएं। जांच में निष्पक्ष फारेन्सिक लेब की सेवा ली जाए।
3. महिलाओं के साथ अत्याचार, लूट, संपत्ति का नुकसान का प्रकरण दर्ज हो।
4.इस आदिम क्षेत्र में अनुच्छेद 15 (1), 15 (4), 46, 335, 332, 338, 342, 275, 243, 244, 244 (1), 275 (1) सहित 5 वीं व 6 वहीं अनुसूचि को लागू कर उन्हें मालकियत की अधिकार दिया जाए।
5. देशी-विदेशी पूंजीपतियों की खनिज पट्टे व एमओयू रद्द हो।
6. आदिवासियों की संस्कृति को सुरक्षित करने हिन्दूओं व ईशाईयों के द्वारा धर्मान्तरण पर अंकुश लगाए जाएं।
7. सलवा जुडूम व कोया कमांडो को हथियारों से लैस करना बंद हो।
8. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित बुनियादी सुविधाओं पर बल देते हुए आदिवासियों के लिए खनिज व वनोपजों से जुड़े लघु उद्योगों, कपड़ा व मकान की व्यवस्था हो। आवागमन के लिए साधनों की व्यवस्था हो।
9. आदिवासियों की रक्षा के लिए तत्क्षण फौजी टुकडिय़ों व पुलिस बलों को वापस बुलाए जाएं। जिससे वे स्वतंत्रता के साथ अपनी जिंदगी निर्वाह कर सकें।
10. माओवादी आंदोलनों को दमनात्मक तरीकों से उन्मुलन करने के बजाए उसका राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक हल ढूंढे जाए।
क्षेत्रों में शांति के लिए हरसंभव प्रयास किए जाए। जिससे आदिवासियों की नस्लों को बचाया जा सकें। दमनात्मक अभियानों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की हिदायतों का पालन करें।
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