राजनैतिक लोग अपनी रोटियां सेकने के लिए..
दीक्षा बर्मनफिल्मों को लेकर मेरा हमेशा से अलग टेस्ट रहा है। निर्देशक अमीत मसूरकर ने मूवी नही बल्कि मास्टरपीस बनायी है। एक्टिंग, डायरेक्शन, स्क्रीनप्ले और डायलॉग डिलीवरी पर सूक्ष्म तरीके से ध्यान दिया गया है। यूनिक लेकिन essential मुद्दे पर बनी फिल्म की शूटिंग भी सेट में न करने के बजाय गांव, जंगल, और परम्परागत सरकारी विभाग में किया है।

सो निर्देशक ने जो realstic टच देने की कोशिश की ही ,वो इन वजहो से सफल होता है।
एक जिम्मेदार अधिकारी के हाथ राजनैतिक मकड़जाल में कैसे उलझता रहता है। एक ओर ये नवाचार , नयी योजना लागू किये, अपने मिशन में डंटे रहते है वही दूसरी ओर आरोप और खिल्लियों का दौर, मीडिया का दबाव चलता रहता है। साथ ही ट्रांसफर और सस्पेंशन का तलवार भी लटकते रहता है।
उस पर पुरुष बहुल वन विभाग में विद्या विंसेट का महिला अधिकारी होना, खलता है उसके अधीनस्थों को। मूवी में सामाजिक और पारिवारिक होने के बावजूद भी अधिकारी का एकाकी जीवन भी देख सकते है।
जाने अनजाने ही छिटपुट चीज़ों से उसे humiliate करना और लोगो के मक्खनबाजी का अलग अलग लेवल भी दिखाया गया है। और आखिर में ईमानदारी का पुरुस्कार क्या मिलता है, मूवी देखकर पता चल जाएगा।
ये भी अनुभव किया कि एक नेता का भी शिक्षित और संवेदनशील होना कितना जरूरी है। मॉब ब्रैंनवाशिंग कितना खतरनाक साबित होता है। सत्ताधारी जनता की नब्ज पकड़कर हाकिम बनने का दावा करते है।
सत्ता में जमने और जमे रहने के लिए, राजनैतिक लोग अपनी रोटियां सेकने के लिए...। माइनिंग, खेती, बस्ती और बढ़ती आबादी, जंगल के घटते क्षेत्र के कारक बनते है। और शुरू होता है जानवर और जनता का संघर्ष... और उससे निपटने का तरीका ...
आखिर में, मूवी तारीफ और ताली के काबिल है। मगर तारीफ सभी करे ये जरूरी नहीं।
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