कश्मीर पर वार्ता
धारा 370 नियम - कानूनों की अवहेलना कर के हटाया गया
प्रेमकुमार मणिआज 24 जून को कश्मीर मामले पर बातचीत केलिए प्रधानमंत्री ने कश्मीरी नेताओं को आमंत्रित किया था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उम्मीद भरे अंदाज़ में बैठक के समाप्त होने की खबर आई है। उमर अब्दुला और महबूबा मुफ़्ती के बयान मैंने सुने। गृहमंत्री अमित शाह का ट्वीट भी देखा। कुल मिला कर एक उम्मीद हुई है कि कश्मीर में एक बार फिर अमन- चैन और लोकतंत्र कायम हो सकेगा। इसलिए प्रधानमंत्री के इस पहल का मैं स्वागत करूँगा। कश्मीरी नेताओं ने इस बैठक में भाग लेकर अपनी बात रख कर जो पहल की है, यह और भी स्वागतयोग्य है।

5 अगस्त 2019 को जिस तरह से संसद में कश्मीर मामले को लिया गया, उसका मैंने विरोध किया था। ऐसा नहीं है कि मैं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की तरह वहाँ धारा 370 बहाल करने वालों में हूँ। लेकिन, जिस तरह उसे ख़त्म किया गया, उसका विभाजन हुआ, वह बिलकुल गलत था।
धारा 370 पर आज महबूबा मुफ्ती ने जो बात की है, वह मुझे अधिक समझपूर्ण लगी। उमर अब्दुल्ला तो राजनेता नहीं, राजकुमारों जैसी अदा में कुछ बोल रहे थे। लेकिन वह भी पहले के अपेक्षाकृत अधिक समझदारी की बात कर रहे थे।
महबूबा मुफ़्ती ने बहुत स्पष्ट कहा कि धारा 370 नियम - कानूनों की अवहेलना कर के हटाया गया। यह गलत था। यदि उसे हटाना था, तो संवैधानिक तरीकों से हटाना था। इसके लिए उसे संसद के पहले कश्मीर की विधानसभा में पारित कराना था। वह इस मामले में क़ानूनी लड़ाई लड़ने की बात करती हैं, और निःसंदेह यह उनका लोकतान्त्रिक अधिकार है।
मुफ्ती ने कश्मीर से डर का वातावरण ख़त्म करने पर जोर दिया। उनके अनुसार वहाँ के लोग जोर से सांस भी लेते हैं तो पकड़ लिए जाते हैं। व्यापार, खेती और दूसरे रोजगार ख़त्म हो गए हैं, इसलिए प्रभावित लोगों को अविलम्ब पैकेज मिलना चाहिए। मैं सुश्री मुफ्ती की इस बात का पुरजोर समर्थन करना चाहूँगा।
उमर अब्दुल्ला की इस बात में दम है कि एक बैठक से मामला हल नहीं हो जाएगा। बातचीत का सिलसिला चलना चाहिए। सबसे जरूरी है, वहाँ चुनाव और एक चुनी गई विश्वसनीय सरकार की बहाली। गृहमंत्री ने कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की बात की है, जिसकी सराहना कश्मीरी नेताओं ने भी की है।
कश्मीर मामले पर संसद में केवल भाजपा ने ही गैरजिम्मेदाराना बात नहीं की थी, बल्कि कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने भी की थी। सोनिया गांधी ने संसद में ही उन्हें घुड़का भी था। कुछ समय पहले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी यूँ ही बेसिर पैर की बात की थी। इसलिए जरुरी यह है कि कश्मीर मामले पर कोई भी बोले सोच - समझ कर बोले, वह चाहे जिस भी पक्ष का हो। हमें वहाँ समस्याएं सुलझानी हैं, उलझानी नहीं है।
कश्मीर आज भारत का अविभाज्य हिस्सा है। आज़ादी के समय वह ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं था। अनेक देशी रियासतों की तरह वह भी शामिल हुआ, लेकिन थोड़े अंतर के साथ और एक संघर्ष के बाद। ऐसे अनेक इलाके थे,जो बाद में भारत में शामिल हुए। गोवा तो बहुत बाद में शामिल हुआ।
कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा आज भी पाकिस्तान के अधिकार में है। विघटित कश्मीर विधानसभा में उसकी बाईस सीटें खाली दिखाई जाती रही थीं। उस मामले को भी कश्मीर समस्या के साथ जोड़ कर देखना है। कश्मीर के नेताओं को हर हाल में उसके सेकुलर ढाँचे को भी देखना होगा। कश्मीरी पंडितों ने एक समय वहाँ बहुत ज्यादतियां की थीं। यह सच है कि उनमें से अधिकांश आलादिमाग थे, लेकिन यह भी सच है कि वे लोग जमीन और दौलत हड़प कर बैठे हुए थे।
शेख अब्दुल्ला से उनका बैर इसलिए था कि उन्होंने ज़मींदारी ख़त्म कर दी थी। लेकिन ऐसा तो मुल्क के दूसरे हिस्सों में भी हुआ। लोकतंत्र आने पर प्रश्रयप्राप्त लोगों ने दलित - पिछड़ी जातियों के साथ दुर्व्यवहार किए। लेकिन यह सब एक दौर तक ही चलना चाहिए। आखिर में भाईचारा और अमन - चैन ही लक्ष्य होना चाहिए।
मुस्लिम उग्रवादियों ने 1990 में जिस तरह पंडितों के साथ घिनौनी हरकतें की और उन्हें भागने के लिए मजबूर किया इसकी भर्त्सना से काम नहीं चलेगा। उन्हें वहाँ बसाने की जिम्मेदारी कश्मीरी नेताओं को लेनी होगी। कश्मीर की धर्मनिरपेक्षता पूरे देश के लिए मिसाल होगी। इसलिए कश्मीरी नेताओं को इन सब बातों पर ध्यान देना चाहिए।
मैंने 5 अगस्त 2019 को भी लिखा था कि मैं कश्मीर की जनता के साथ हूँ। हमेशा रहूँगा। कश्मीर या देश के किसी भी हिस्से को उसकी मर्ज़ी के बगैर हम डील नहीं कर सकते। लोकतंत्र का रिवाज़ यही है। कश्मीर में लोकतंत्र और अमन - चैन बहाल हो इसकी कामना करता हूँ।
Add Comment