शेरनी : जंगल के संकट की कहानी

अंजन कुमार

 

वस्तुतः यह फिल्म गावं वालों और उनके जानवरों का शिकार करने वाली शेरनी टी'2 के माध्यम से वन विभाग की स्थिति, अफसरों के चरित्र, जोड़-तोड़ की राजनीति की वास्तविकता को बहुत बेहतर ढंग से उजागर करती है। इसके साथ ही जंगल और जानवर के संरक्षण से जुड़े कई जरूरी और गंभीर सवालों को भी उठाती है।

विकास के नाम पर कारपोरेट घरानों द्वारा जल, जंगल, जमीन की व्यापक लूट और प्रकृति के विनाश का जो खेल जोरो पर जारी है। फिल्म में नांगिया (नीरज कबी) का यह संवाद ‘‘अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।’’ से बखूबी समझा जा सकता है।

निर्देशक ने इस फिल्म की कहानी को ही प्रमुखता से सामने रखने के कोशिश की है। यही कारण है कि कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के बावजूद उस तरह से कोई कलाकार फिल्म के केन्द्र में उभरकर नहीं आ पाता है। कहानी ही प्रमुख हो जाती है। ऐसा होना ही इस फिल्म की सार्थकता भी है। ख़ैर फिल्म की कहानी कुछ इस तरह से है -

विद्या विंसेन्ट (विद्या बालन) एक ईमानदार और संजीदा महिला फाॅरेस्ट अफसर है। जिसे नौ साल से प्रमोशन नहीं मिला है। जिसकी डीएफओ के पद पर बिजासपुर के जंगलों में पोस्टिंग होती है। महिला होने के कारण उसकी चुनोतियाँ भी बढ़ जाती है। वह अपने इस काम से खुश नहीं है। वह इस नौकरी से रिजाइन देना चाहती है। लेकिन उसके पति पवन (मुकुल छाबड़ा) की नौकरी कारोना के कारण संकट में है। इसलिए वह विद्या को रिजाइन देने से मना करता हैं।

जंगल से लगे गांव के मवेशियों के चारागाह में सागौन के पेड़ लगा दिये जाने के कारण चारागाह की जगह खत्म हो गई है। अब उन्हें मजबूरी मेें अपने गाय, भैंस, बकरियों को चराने जंगल जाना पड़ता है। जिसके कारण आये दिन कोई न कोई शेरनी का शिकार हो जाता है। इस पूरी घटना को राजनीतिक ढंग से अपने पक्ष मेें भुनाने की कोशिश वहां के पक्ष और विपक्ष के विधायक जीके (अमर सिंह परिहार) और पीके (सत्यकाम आनंद) करने में लग जाते हैं।

शेरनी को मारकर वहां के विधायक गांव वालों को अपने पक्ष में करना चाहता है तो वहीं विपक्ष के विधायक अपनी राजनीतिक स्वार्थ में जनता को भड़काने में लगा रहता है। वहीं बसंल से लेकर नांगिया जैसे कई अफसर अपने प्रमोशन के लिए भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा बनकर अपने स्वार्थ सिद्धि में संलिप्त नजर आते हैं। अपने लाभ में डूबे हुए ईमानदार होने का छद्म लिए ये चरित्र शेरनी को बचाने की जगह उसे मारने वालों के साथ अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लग जाते हैं।

वहीं दूसरी तरफ विद्या विंसेन्ट (विद्या बालन) अफसर और हसन नूरानी (विजयराज) जैसे जूलाॅजी के प्रोफेसर हैं। जो जंगल, जानवर और पर्यावरण को बचाने और लोगों को जागरूक करने में लगे हुए हैं। तो वहीं राजन राजहंस पिन्टू (शरत सक्सेना) जैसे शिकारी विधायक के कहने पर शेरनी और उसके दो नन्हें शावकों को आदमखोर बताकर उनका शिकार कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। इस सबके बीच जंगल के भीतर तांबे के उत्खनन का काम जोरों पर जारी है। जिसने हरे-भरे जंगल को धीरे-धीरे खाई में बदल दिया है।

जानवर अपने जीवन को बचाने के लिए गांव की ओर जाने के लिए मजबूर हो गये हैं। जिसके कारण अब उनके जान पर बन आई है। इस पूरी कहानी में शेरनी और उसके बच्चों के जीवन की चिंता विद्या विंसेन्ट, हसन नूरानी और गांव के कुछ जागरूक लोगों के अलावा किसी के भीतर नहीं दिखती। राजन राजहंस पिन्टू (शरत सक्सेना) शेरनी को मारने के बाद उसके नन्हें बच्चों को भी आदमखोर बताकर उनका शिकार करना चाहता है। लेकिन गांव के कुछ लोगों के द्वारा उन्हें किसी तरह से बचा लिया जाता है।

वन अफसर बंसल (बिजेन्द्र काला) नहीं चाहता है कि विद्या वहां रहे इसलिए उसका ट्रांसफर कर दिया जाता है। उसके स्थान पर एक भ्रष्ट अफसर सांई प्रसाद को पोस्टिंग दे दी जाती है। सांई प्रसाद के एक महत्वपूर्ण संवाद के माध्यम से वन विभाग और उसके अफसरों की वास्तविकता और उनके चरित्र को बखूबी से समझा जा सकता है।

वह विद्या से कहता है - ’’फाॅरेस्ट डिपार्टमेंट अंग्रेजों की देन है, तो अंग्रेजों की तरह काम करो, रेवन्यू लाओ और ऑफिसर खुश तो प्रमोशन पक्का। बाकी तो तुम खुद समझदार हो।’’ वन विभाग के व्यापक भ्रष्टाचार को इस एक संवाद के माध्यम से समझा जा सकता है।

जंगल और जानवर किस तरह नष्ट किये जा रहें। यह फिल्म इस समस्या और संकट को सामने लाने की कोशिश करती है। क्योंकि मनुष्य, अन्य जीव-जंतु, वनस्पतियां और संपूर्ण प्रकृति एक दूसरे पर निर्भर है। जिसकी रक्षा करना बेहद जरूरी है।

फिल्म के अंत में वन विभाग के संग्रहालय का दृश्य दिखाया गया है। जो प्राकृतिक प्राणियों की विविधता से समृद्ध सौन्दर्य के साथ उसके विनाश की कहानी को भी दिखाती है।

इस तरह यह फिल्म अंधाधुन विकास, भ्रष्ट अफसर शाही और राजनीतिक स्वार्थ के पीछे छिपे हुए प्रकृति के विनाश के भयावह यथार्थ को प्रस्तुत करती है। फिल्म में सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग पर और काम किया जा सकता था।

संगीत पक्ष पर भी ध्यान कम दिया गया है। लेकिन इन सबकेे बावजूद फिल्म अपने कंटेंट में सशक्त और रोचक है।

लेखक पेशे से शिक्षक हैं और कविता और लेखन में रूचि रखते हैं।


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