'यूटोपिया' : स्थापित 'सच' के खिलाफ एक बगावती सच

मनीष आज़ाद

 

फिल्म देखकर यह समझ में आता है कि यह दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद से कही अधिक भयावह है। मजेदार बात यह है कि इस फ़िल्म के डायरेक्टर जॉन पिल्जर दक्षिण अफ्रीका में लंबे समय तक प्रतिबंधित रहे हैं। और इस प्रतिबंध का कारण था उनकी एक फिल्म जो उन्होने वहां के रंगभेद के खिलाफ बनायी थी।

दरअसल ‘यूटोपिया’ फिल्म जॉन पिल्जर की ही एक पुरानी फिल्म ‘दी सीक्रेट कन्ट्री’[The secret country] का विस्तार है। जॉन पिल्जर ने यह फिल्म 1985 में बनायी थी।

‘यूटोपिया’ फिल्म के प्रदर्शन के बाद एक इण्टरव्यू में जॉन पिल्जर ने कहा कि ‘दी सीक्रेट कन्ट्री’ बनाने के दौरान उन्हे बिल्कुल भी अनुमान नही था कि 25 साल बाद भी उन्हे इसी विषय पर फिल्म बनाने के लिए फिर बाध्य होना पड़ेगा, क्योकि स्थितियां तब से अब तक तनिक भी नही बदली है।

वास्तव में इस फिल्म में पुरानी फिल्म के व्यूजुअल [visuals] का भी प्रयोग किया गया है। जिन्होने पुरानी फिल्म देखी है वे इसे महसूस कर सकते है। जॉन पिल्जर उन लोगो के पास भी जाते है जिनसे वे 25 साल पहले अपनी पिछली फिल्म के दौरान मिले थे।

इन 25 सालों का उनका अनुभव यह बताता है कि स्थितियां और खराब ही हुई है। इस दौरान किसी ने पुलिस के हाथों अपना बेटा खो दिया है तो सरकारी एंजेसियों द्वारा बहुतों का बच्चा चुरा लिया गया है।

मूल निवासियों के बच्चों को चुराने की बात वहां बहुत सुनियोजित तरीके से घटित हुई। वहां के सामाजिक कार्यकर्ता इसे ‘पूरी पीढ़ी को चुरा लेने’[stealing a generation] की संज्ञा देते हैं।

यह एक तरह से उनकी कौम को छिन्न भिन्न कर देने और खत्म कर देने की साजिश थी। चोरी किये हुए बच्चों को या तो गोरे लोगों के घरो में नौकर रख लिया जाता था या उन्हे किसी को गोद दे दिया जाता था।

दरअसल फिल्म की शुरुआत ही एक स्तब्ध कर देने वाले वक्तव्य से होती है। मूल निवासियों की ‘समस्या’ के समाधान के तौर पर एक खनन माफिया कहता है कि मूल निवासियों के पीने के पानी में ऐसा केमिकल मिला देना चाहिए कि उनकी प्रजनन क्षमता खत्म हो जाये।

इस तरह कुछ समय बाद उनकी पूरी कौम ही खत्म हो जायेगी। फिल्म की शुरुआत में खनन माफिया का यह वक्तव्य बाद में और साफ हो जाता है जब यह पता चलता है कि जहां जहां ये मूल निवासी बसे हुए है कमोवेश वहीं पर युरेनियम के भंडार भी है। आस्ट्रेलिया में दुनिया का सबसे बड़ा यूरेनियम भंडार है।

फिल्म का यह हिस्सा निश्चय ही आपको भारत की याद दिलायेगा। यहां भी आदिवासियों के खिलाफ एक जंग जारी है। और वजह वही है-खनिज सम्पदा।

जॉन पिल्जर का कैमरा जब आस्ट्रेलिया के ‘वार मेमोरियल’ में आता है तो देखकर हैरानी होती है कि यहां मूल निवासियों की तस्वीरें जानवरों मसलन हाथी, कंगारु आदि के साथ लगी हैं। जबकि गोरे आस्ट्रेलियन लोगों की तस्वीरें अलग लगी हुई हैं।

यह चीज गोरे आस्ट्रेलियन लोगों की मूल निवासियों के प्रति उनकी सोच को दर्शाता है। क्या यही सोच हमारे यहां भी तमाम शहरी लोगो की अपने आदिवासी समुदाय के लोगो के प्रति नही है। इस ‘वार मेमोरियल’ में आस्ट्रेलिया द्वारा किये गये तमाम युद्धों का जिक्र है।

लेकिन यहां आने वाले पहले यूरोपियनों ने जो भीषण और क्रूर युद्ध यहां के मूल निवासियों के खिलाफ छेड़ा था, उसका कहीं कोई जिक्र नही है। जॉन पिल्जर की यह फिल्म यह बताती है कि मूल निवासियों के खिलाफ यह युद्ध कभी नही रुका और बदले रुपों में यह आज भी जारी है। इस युद्ध का एक उदाहरण फिल्म में बहुत विस्तार से बताया है।

2007-08 में वहां के प्रमुख टीवी चैनल एबीसी [ABC] की तरफ से एक रिपोर्ट जारी हुई कि एक खास जगह रहने वाले सभी मूल निवासियों में उनके बच्चे सुरक्षित नही हैं क्योकि इस कौम के वयस्क ‘पेडोफिल’ [Pedophile] रोग से पीडि़त हैं और बड़े पैमाने पर ड्रग्स का इस्तेमाल करते है। ‘पेडोफिल’ से पीडि़त व्यक्ति सेक्स एडिक्ट हो जाता है और अपने आसपास के बच्चो को अपना शिकार बनाता है।

रिपोर्ट को विश्वसनीय बनाने के लिए एक आदमी का इण्टरव्यू भी प्रसारित किया गया और दावा किया गया कि यह उसी कौम का आदमी है और सुरक्षा कारणों से इसका चेहरा और पहचान छुपायी गयी है।

यह रिपोर्ट एबीसी न्यूज चैनल पर हमारे यहा की तरह ही 24 घण्टे दिखायी जाने लगी। इस 24 घण्टे न्यूज चैनल को जान पिल्जर ने बहुत ही सटीक नाम दिया है- व्यूजुअल च्यूनगम [visual chewing gum]।

बहरहाल इस ‘व्यूजुअल च्यूनगम’ की आड़ लेकर सरकारी एंजेसियां सक्रिय हो गयी और उस एरिया के मूल निवासियों पर पुलिस का छापा पड़ने लगा और बच्चो को बचाने के नाम पर उनसे उनके अपने बच्चे छीने जाने लगे। और उन्हे 200-300 किलोमीटर दूर के किसी अनाथालय में पहुचाया जाने लगा।

बाद में कुछ साहसी व खोजी पत्रकारों ने इस पूरे अभियान का पर्दाफाश किया और पता लगा कि यह पूरी कहानी मूल निवासियों को बदनाम करने और उन्हे उस खास जगह से हटाने के लिए रची गयी थी। क्योकि उस क्षेत्र में युरेनियम होने की संभावना बतायी जा रही थी।

यह भी साफ हुआ कि इस पूरे अभियान को वहां की खनन कंपनियां प्रायोजित कर रही थी। जिस व्यक्ति को मूल निवासियों के बीच का बताकर उसका वक्तव्य लगातार प्रसारित किया जा रहा था वह सरकार का आदमी निकला और वह इस पूरे साजिश का हिस्सा था।

बाद में सरकार ने तो औपचारिक माफी मांग ली लेकिन एबीसी न्यूज चैनल ने अपनी बेहयायी बरकरार रखी और कोइ बयान नही दिया। फिल्म का यह हिस्सा बहुत ही ताकतवर और स्तब्ध कर देने वाला है।

फिल्म की खास बात यह है कि यह आस्ट्रेलिया के मूल निवासियो के दुःख और दमन की ही बात नही करती बल्कि उनके प्रतिरोध को भी बहुत शानदार तरीके से रखती है। आस्ट्रेलिया में हुए ओलम्पिक खेलो के दौरान यहां के मूल निवासियों ने सुनियोजित तरीके से स्टेडियम के अंदर प्रदर्शन करके हडकम्प मचा दिया था। और तब पहली बार दुनिया को पता चला कि आस्ट्रेलिया में गोरे ही नही काले लोग भी बसते हैं। यहां हर साल ‘आस्ट्रेलिया दिवस’ मनाया जाता है।

यह योरोपियनों द्वारा आस्ट्रेलिया और यहां के मूल निवासियों पर कब्जा करने का प्रतीक दिवस है। लेकिन इसी दिन मूल निवासी भी अपना विरोध दिवस मनाते हैं। और कभी कभी तो टकराव भी हो जाता है।

अभी 40-50 साल पहले तक यहां के काले लोगो से गुलामों जैसा काम लिया जाता था। यहा के विगत के ‘कपास उद्योग’ और ‘कैटल उद्योग’ में बहुत कम मजदूरी पर काले लोगो को रखा जाता था।

इन दोनो ही उद्योगों में काले लोगों की एतिहासिक हड़ताले हुई और फलस्वरुप स्थितियां थोड़ी बेहतर हुई। लेकिन वहां के आफिशियल इतिहास में यह सब दर्ज नहीं है।

सच तो यह है कि सुनियोजित तरीके से यहां के मूल निवासियों के प्रति हुए अत्याचारों के चिन्ह को मिटाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ‘जान हावर्ड’ के शासन काल में यह बखूबी हुआ। 51 मूल निवासियों को फांसी पर चढ़ाने से पहले जिस जगह उन्हे रखा गया था वहा एक आलीशान होटल बना दिया गया है।

उनके एक सामूहिक कब्रगाह को ‘टूरिस्ट प्लेस’ में बदल दिया गया। यह सामूहिक कब्रगाह इतिहास में हुए उनके एक सामूहिक नरसंहार का साक्षी था। उनके प्रतीक चिन्हो, उनकी संस्कृति, उनकी भाषा को सुनियोजित तरीके से नष्ट कर दिया गया है।

यह फिल्म देखकर आपको ‘हावर्ड जिन’ की याद आ सकती है। उन्होने अपनी किताब ‘पीपल्स हिस्ट्री आफ अमरीका’ में वहां के मूल निवासियों का विस्तार से वर्णन किया है। और यह सिद्ध किया है कि आज की अमरीकन सभ्यता वहां के मूल निवासियों की सभ्यता को नेस्तनाबूद करके ही खड़ी हुई है। ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जैफरसन’ की डेमोक्रैसी वहां के मूल निवासियों के लिए नही थी।

आस्ट्रेलिया की कहानी भी इससे अलग नही है। जॉन पिल्जर भी हावर्ड जिन की परम्परा से ही आते हैं। अपनी लगभग 50 बेहतरीन डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में वे ऐसे ही ‘लहुलुहान सवालों’ को उठाते हैं और ‘स्थापित सत्य’ के विरोध में ‘बगावती सत्य’ को लाकर खड़ा करते हैं।

उनकी यह फिल्म भी इसी परम्परा की मजबूत कड़ी है। ‘यूटोपिया’ सहित उनकी सभी फिल्में आप वीमियो [vimeo.com] पर देख सकते हैं। 
 


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