बस्तर में कोहराम

कनक तिवारी

 

जनप्रतिरोध का मुकाबला लोकतंत्र की कई तुनकमिजाज सरकारें जनता की छातियों को गोलियों से छलनी करती ही करती हैं, उससे कमतर कुछ नहीं। पुलिस को लाचारों पर सरकारी गोलीबार करने की खुली छूट है। जनप्रतिनिधियों, समाज और मंत्रियों का भी नैतिक दबाव उन पर नहीं होता। बंदूक के ट्रिगर पर उंगली सत्ता के अहंकार में दबा दी जाए। तो एक के बाद एक मनुष्य लाशों में तब्दील होते जाते हैं। बस्तर में वर्षों से वह हो रहा है। 

सिलगेर कथा का पोस्टमाॅर्टम 

इन्हें रूपक कथाओं के जरिए समझा जा सकता है। स्कूली बच्चे एक पागलखाना देखने गए। देखा पहला पागल रस्सी की गांठ खोल रहा है और चीख रहा है। डाॅक्टर ने कहा यह आज तक रस्सी की गांठ नहीं खोल पाया। इसीलिए पागल हो गया। दूसरे पागल को बार बार रस्सियां गांठ लगाकर दी जातीं। वह पांच सेकण्ड में ही खोल देता और हंसने लगता। डाॅक्टर ने कहा यह हर गांठ को इतनी जल्दी खोलता रहा है कि खुशी में पागल हो गया है। तीसरा पागल रस्सी में गांठें लगाकर ठहाकों में हंस रहा था। डाॅक्टर ने कहा यह हर रस्सी में गांठ लगाता कहता है और फिर हंसता रहता है।

सरकारें आदिवासी समस्या की गांठें खोल नहीं पा रहीं और दिमागी संतुलन को लेकर चीख रही हैं। नक्सली हर समस्या का हल बंदूक से तुरंत निकालते हंसते रहते हैं। काॅरपोरेटिए भारत की सभी दौलत, वन संपत्ति और आदिवासी जीवन के भविष्य पर गांठ लगाये रहते अहसास करते रहते हैं। उनके सामने सरकार और नक्सली दोनों की हिम्मत पस्त है। यही बस्तर का सच है। 

बस्तर में सिलगेर में पहला सरकारी गोलीबार नहीं है। आदिवासी तो नक्सली और सरकारी हिंसा के बीच लगातार पिस रहे हैं। हर गोली अमूमन आदिवासी की ही छाती में धंसती है। अब आदिवासी के मनुष्य के रूप में ही जीवित रहने तक पर खतरे हैं। पूरा आदिवास खतरे में है। यही हाल रहा तो कुछ दशकों के बाद भारत में न रहेंगे आदिवासी और न रह पाएगा आदिवास। वे सब चित्रों, कैलेन्डरों, किताबों में छपेंगे। आदिवासी देश के मूल निवासी हैं। उन्हें सदियों तक शहरियों से लेना देना नहीं रहा। उन्होंने अपना अर्थतंत्र, देशी इलाज, सामाजिक एका, कुदरत से लगाव और सामुदायिक जनभावना का अनोखा इंसानी संसार उगाया है।

वह अपने आपमें स्वायत्त और संपूर्ण है। धीरे धीरे सामंतवादियों, बादशाहों और बाद में क्रूर अंगरेज हुक्कामों ने आदिवासी जीवन और वन संस्कृति को बरबाद करना शुरू किया। तब भी आज की तरह की बेशर्म काॅरपोरेटी लुटेरी घुसपैठ नहीं थी। खनिज, लकड़ी, वन उपज वगैरह में अंगरेज ने अपनी व्यापारिक हैसियत पुख्ता करते यूरोपीय मार्केट में भारतीय आदिवासी जीवन बेचना शुरू किया। कानून, सरकार, पुलिस, पटवारी, जंगल साहब, कलेक्टर और न जाने कितने रुतबेदार जंगलों में पैठते गए। आदिवासी को पीछे खदेड़ा जाने लगा जिस तरह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रेड इन्डियन्स और माओरी वगैरह को नेस्तनाबूद कर किया गया है। 

उल्लास, उमंग, जद्दोजहद और प्रयोग करते भारत में आजादी और संविधान आए। उम्मीद जगी कि समाज के सबसे कमजोर तबकों दलित और आदिवासी के साथ हो चुके अन्याय की भरपाई करते अन्याय रोका जाएगा। हुआ लेकिन उल्टा। यह त्रासदायक खबर है कि शिक्षित युवा आदिवासी तक नहीं जानते कि संविधान बनाने में आदिवासी अधिकारों को लेकर धोखा हुआ है! आदिवासियों का सबसे बड़ा भरोसा नेहरू पर था। नेहरू ने जिम्मेदारी बाबा साहब अम्बेडकर को सौंपी। बाबा साहब ने दलित उत्थान को अपने निजी अनुभवों की तल्खी का इजहार करते लगातार ध्यान में रखा।

गांधी के विश्वासपात्र ठक्कर बापा को संविधान सभा में गैरआदिवासी होने पर भी आदिवासी अधिकार तय करने की उपसमिति का अध्यक्ष बनाया। ठक्कर बापा ने सबसे उद्दाम, मौलिक, बेलौस और प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मौलिक, साहसी और शोधपरक सुझावों का लगातार विरोध किया। संवैधानिक ज्ञान में निष्णात आलिम फाजिल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भी जयपाल सिंह के तर्कों को ठिकाने लगाने में शहरी भद्र वाला आचरण किया। कई और थे जिन्हें आदिवासियों के स्वाभिमानी नारों में समाजविरोधी चुनौती दिखाई देती।

जयपाल सिंह का बुनियादी तर्क आज भी संशय, ऊहापोह और नामुराद भविष्य में तैर रहा है। वे तय नहीं करा पाए कि नागर सभ्यता की पैदाइश के काफी पहले से आदिवासी जंगलों और संलग्न इलाकों में अपना पुश्तैनी हक लेकर जीवनयापन करते रहे हैं। संविधान लागू होने पर वह रिश्ता धीरे धीरे खत्म किया जाता रहा है। 

बीसवीं सदी के आखिरी दशक से अंतर्राष्ट्रीय पूंजीखोर और भारतीय काॅरपोरेटिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी संपत्ति की लूट करते अरबपति, खरबपति बनने आर्थिक बराबरी की लोकतंत्र की मूल भावना और न्याय को नेस्तनाबूद कर अट्टहास करने लगे। कहा होगा गांधी ने जाॅन रस्किन की किताब ‘अन टु दिस लास्ट‘ को पढ़कर कि कतार में सबसे आखिर में खडे़ व्यक्ति की आंखों से जब तक आंसू पोछे नहीं जा सकें, लोकतंत्र नहीं आएगा। एक के बाद एक आती जाती ज्यादातर नाकाबिल सरकारों ने आदिवासी समझ की अमानत में खयानत की है।

आदिवासियों की लूट

बस्तर जैसे अनुसूचित इलाकों की कुदरती दौलत आदिवासियों से जबरिया छीन ली गई है। आदिवासी इलाके तो धर्मशाला, सराय या होटल बने ग्राहकों के स्वागत के लिए हैं। अय्याश अमीर और पर्यटक मौज मस्ती और लूट लपेट करने आते हैं। पूरे माहौल में कचरा, मुफलिसी, गंदगी, अभिशाप बिखेरकर लौट जाते हैं। आदिवासियों से चौकीदारी, सफाईगिरी और गुलामी करने की उम्मीदें की जाती हैं। वे यह सब करने के लिए सरकारों द्वारा अभिशप्त भी बना दिए गए हैं। यही आदिवासी जीवन का सच है।

प्रमुख खनिज, गौण खनिज, जंगली उत्पाद, पानी, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी तो दूर आदिवासी की अस्मत और अस्मिता तक कानूनों ने गिरवी रख ली है। सरकारी मुलाजिम और पुलिस ने जंगलों में जाना शुरू किया। उनकी निगाहें आदिवासियों की बहू बेटी, बकरियां, खेत खलिहान और जो कुछ भी उनके साथ दिखे को लूटने की बराबर रही हैं। गांधी के लाख विरोध के बावजूद सरकारी सिस्टम में करुणा और सहानुभूति की कोई जगह नहीं रही। लोकतंत्र आखिर तंत्र लोक में तब्दील हो गया है। 

बहुत माथापच्ची करने के बाद पूर्वोत्तर इलाकों को छोड़कर, (जहां छठी अनुसूची लागू है), बाकी प्रदेशों के आदिवासी सघन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू की गई। ‘आदिवासी‘ शब्द तक बदलकर उसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति‘ कह दिया और कई आदिवासी समुदायों को बाहर कर दिया गया।

वे अपनी पहचान के लिए अब तक बेचैन हैं। आदिवासी ने नहीं चाहा लेकिन उसे संसद ने राज्यपाल की एकल संवैधानिक कही जाती हुक्मशाही के तहत कर दिया। राज्यपाल चाहें तो राज्य सरकार से बिना परामर्श किए केन्द्र और राज्य के कई कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू कराएं या नहीं लागू कराएं। राज्यपाल की नियुक्ति में नकेल डालकर। उसे प्रधानमंत्री की कलम की नोक से बांध दिया। राज्यपाल के लिए राज्य सरकार के मंत्रियों की बात मानना भी लाजिमी किया।

संविधान में राज्यपाल का पद खुद त्रिशंकु है तो आदिवासियों की रक्षा क्या खाक करेगा? संविधान ने फिर परंतुक लगाया। लाॅलीपाॅप के स्वाद जैसा नाम रखा आदिम जाति मंत्रणा परिषद। वह झुनझुना जब बजता है तो आदिवासी को वीआईपी होने का नशा होने लगता है कि उसके लिए कुछ होने वाला है। परिषद की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं। प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के त्रिभुज में आदिवासी जीवन उम्र में कैद हो गया है। उसका अंत हत्या, आत्महत्या और इच्छा मृत्यु का विकल्प ढूंढ़ रहा है। 

कुछ सक्रिय आदिवासी नेताओं ने संसद में चहलकदमी की। फिर कुछ आधिनियम और कानून बने। जैसे गैरइरादतन हत्या का अपराध होता है। ऐसे ही गैरइरादतन विधायन का संसदीय कौशल भी होता है। जंगलों से बेदखल किए गए आदिवासियों के लिए भूमि व्यवस्थापन का अधिनियम बना। राजीव गांधी जैसे इंसानियत परस्त प्रधानमंत्री ने अफसोस में कहा दिल्ली से एक रुपया भेजो तो सबसे पीछे खड़ेे आदमी के पास पंद्रह बीस पैसे ही पहुंचते हैं।      

नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में तय हुआ पंचायतों को पुरानी परंपरा के अनुसार मजबूत करना है। आदिवासी इलाकों में पंचायतों को विशेष अधिकार देने होंगे। मंत्रीशाही में ‘चाहिए‘ शब्द बहुत चटोरा है। कोरोना के कारण हर भारतीय को वैक्सीन लगनी चाहिए। हर घर बिजली का प्रकाश चाहिए। हर हाथ को काम चाहिए। हर बेटी को पढ़ना चाहिए। इतने चाहिए हैं, लेकिन ‘हो गया‘ नहीं कहते।        

ऐसे ही पेसा नाम का अधिनियम संसद ने आधे अधूरे मन से बनाया। तब भी छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में अब तक लागू और कारगर नहीं हो पाया है। मंत्रालय के एयरकण्डीशन्ड कमरों में बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों के आदिवासियों के खून, पसीने और आंसू की काॅकटेल नशा पैदा करती है। दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता वाली कमेटी ने सिफारिशें कीं। वे पेसा कानून में नहीं आईं। 

कोई नहीं बताता बस्तर में नक्सली कब आए? किसकी हुकूमत में कैसे आ गए? पंद्रह साल में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने इतने अपराधिक ठनगन किए कि पार्टी प्रदेश में नैतिक रूप से अधमरी हो गई है। कांग्रेसी महेन्द्र कर्मा के साथ भाजपाई गलबहियों के कारण सलवा जुडूम नाम की औरस संतान का जन्म हुआ। विशेष पुलिस भर्ती अभियान में सोलह वर्ष के बच्चों के हाथों नक्सलियों से लड़ने के नाम पर बंदूकें थमा दी गईं।

भला हो सुप्रीम कोर्ट के जज सुदर्शन रेड्डी का जिन्होंने नंदिनी सुंदर वगैरह की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में आादिवासी अत्याचारों का खुलासा करते सरकारी गड़बडतंत्र की धज्जियां उड़ा दीं। नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ में जनविरोधी हिटलरी कानून बना। उसमें ज़्यादातर डाॅक्टरों, दर्जियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया। अब उस कानून की हालत है जैसे बाजार से बच्चों के लिए शाम को खरीदा गया फुग्गा अगली सुबह निचुड़ जाता है। 

पेसा के तहत बुनियादी हक दिए जाने के लिए ग्राम सभाएं बनीं। बैठकों में कलेक्टर साहब और  कप्तान साहब टीम टाम के साथ या कारिंदों के जरिए दहशत का माहौल बनाते हैं। लाचार, अपढ़, कमजोर, डरे हुए आदिवासी केवल हाथ उठाते हैं। अंगूठा लगाते हैं। सब कुछ कानून सम्मत होकर आदिवासी की जमीन और अधिकार छीनने का सरकारी नाटक काॅरपोरेटी मंच पर धूमधाम से उद्घाटन पर्व मनाता है।      

 .....बस्तरिहा आादिवासी मुरिया, मारिया, गोंडी, हल्बा, भतरी बोलियों के अलावा कस्बाई छत्तीसगढ़ी तक नहीं जानते, जिसका छत्तीसगढ़ की मादरी जबान के रूप में सियासी, बौद्धिक हंगामा किया जाता है। कागज पर जबरिया दबा दिए गए उनके अंगूठे को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक उनके सच का ऐलान मानते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता उन कागजों में लिखा क्या है। सरकारी झांसा संविधान का आचरण ऐसे भी करता है। 

काॅरपोरेट डकैती और सरकार

बस्तर में आदिवासियों के पुलिसिया और उसके मुकाबिले नक्सली हत्याकांड हुए। कुछ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के कारण हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मामले पहुंचाए भी गए। इंसाफ की मशीनरी की गति से कहानियों वाला कछुआ भी शरमा रहा है। कई मामले गोदामों तहखानों में सड़ रहे होंगे। उन्हें जला दिया जाए तो बेहतर है। बस्तर में भी हो रहे अन्याय के खिलाफ हिम्मत करके कुछ लोग सामने आए हैं। ऐसे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की छत्तीसगढ़ और बाहर भी पहचान रही है।

डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा ने बस्तर कलेक्टर और बाद में भारत के अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के अध्यक्ष होने पर संवेदनात्मक पहल के जरिए अकूत सेवा की है। सांसद अरविन्द नेताम को बस्तर से ठेकेदारों और नेताओं की साजिश के चलते पुलिसिया पहरे में बस्तर से बाहर ले जाया गया।          

ब्रह्मदेव शर्मा को निर्वस्त्र कर सड़कों पर जलील किया।  बस्तर सम्भाग के मुख्यालय जगदलपुर से दोनों बड़ी पार्टियों की अनारक्षित सीट के विधायक क्रमश: वैश्य समुदाय से ही होते हैं। उत्तरप्रदेश, पंजाब, आंध्र, गुजरात, तमिलनाडु वगैरह के बड़े गैरआदिवासी ठेकेदार बस्तर की वन संपत्ति के मालिक हो गए हैं। आदिवासी सांसदों, विधायकों, मंत्रियों का मलाईदार तबका अपनों के अधिकारों के लिए लड़ने के बदले उच्चवर्णीय सत्ता संगठन का बगलगीर और पिट्ठू होता रहता है।      

कभी कभार कोई साहसी अधिकारी उनका भी पर्दाफाश करता है। तो बस्तर में मालिक मकबूजा कांड जैसा घोटाला उजागर होता है। जब आदिवासियों की वरिष्ठ नौकरशाही की कलई खुलती है तब डींग हांकते दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री उनके खिलाफ मामला चलाने की अनुमति तक नहीं देते।

लूट बदस्तूर जोर शोर से जारी रहती है। कई ईमानदार कलेक्टरों ने खुलकर अपने ही वरिष्ठों के खिलाफ मय सबूत शिकायतें की हैं। ऐसे अफसरों को तुरंत वहां से हटा दिया जाता है। बस्तर राष्ट्रीय लूट, हिंसा, और जुल्म का बड़ा अड्डा बन गया है। खनिजों और वन संपत्ति पर काॅरपोरेटी गिद्ध दृष्टि है। किसी सरकार में दम नहीं इसे रोक सके। बल्कि मुकाबला है कैसे काॅरपोरेटियों के सामने जल्दी शरणागत हो जाएं।

छत्तीसगढ़ का लोहा, कोयला, मैग्नीज, फ्लूरोस्पार, रेत, डोलोमाइट, वन उत्पाद सब काॅरपोरेटी गोडाउन में जाने के लिए सरकारों ने दहेज की तरह बांध दिया है। जितना रुपया कर्नाटक के भाजपाई मंत्री की बेटी की शादी में खर्च हुआ, उतने में बस्तर में आदिवासियों के इलाज के लिए कारगर इंतजाम किया जा सकता है।                  

वहां कोई सरकारी डाॅक्टर नहीं जाता। शिक्षक पढ़ाने नहीं जाते। ज्यादातर विधायकों, मंत्रियों के निजी सचिव बन जाते हैं। मंत्री दौरा नहीं करते। वोट फिर भी कबाड़ लिए जाते हैं। वरना लोकतंत्र का धंधा कैसे चलेगा? नक्सली अतिथि नहीं हैं और न आदिवासियों के मददगार। ईमानदार सरकारें उन्हें खदेड़ सकतीं, लेकिन अरबों रुपयों के जमा खर्च का क्या होगा? मंत्री और अफसर अमीर नहीं होंगे तो लोकतंत्र की बहाली के लिए कैसे लडे़ंगे? उस जमा खर्च का कोई पब्लिक ऑडिट भी नहीं होता और न कोई श्वेत पत्र जारी हो सकता है। 

लोकतंत्र शासन का वह तरीका है जिसमें खोपड़ियां गिनी जाती हैं तोड़ी नहीं जातीं। बस्तर में जिस्मफरोशी और जिबह हो रही है। गरीब और मध्य वर्ग के सुरक्षाकर्मी नौजवान पूरे भारत से आकर नक्सलियों द्वारा कत्ल हो जाते हैं। लाशें शहादत के बावजूद कचरा ढोने वाली गाड़ियों में भेजी गई हैं।              

दोनों तरफ गरीब हैं। पुलिस के सिपाही भी और आदिवासी भी। काॅरपोरेटी, नक्सली और राजनेता उनकी कुश्तियां देखते हैं जैसे चोंच में छुरी फंसाकर मुर्गे और तीतर लड़ाए जाते हैं। इस अय्याशगाह को भी बस्तर कहते हैं। 

कभी कभार अपवाद के रूप में कुछ अच्छे लोग आ जाते हैं। मसलन योजना आयोग का एक दल जिसने बेहतर सिफारिशें कीं। सरकारें उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल देती हैं। लोकतंत्र में ठसका इतना है कि एक तरफ आदिवासी अवाम को गोलियों से भूंजा जा रहा है। दूसरी ओर सरकारी बगलगीर ढिंढोरची प्रवक्ता जनता को लोकतंत्र का फलसफा पढ़ाते हैं। थीसिस गढ़ते हैं। कोरोना महामारी के पहले दौर में लाखों सड़कों पर तबाह हो गए।            

प्रधानमंत्री का मुंह नहीं खुला। छत्तीसगढ़ में बार बार कत्लेआम होता है लेकिन अमूमन मुख्यमंत्री देर तक खामोश रहे हैं। सरकारी संपत्ति बेचने के फैसले उनके स्तर पर ही होते हैं। सरकार की सफाई में प्यादे खड़ेे किए जाते हैं। 

केन्द्र सरकार का एक और नया विधेयक जंगलों को तबाह करते आदिवासियों को डसने संसदीय बांबी में फुफकार रहा है। कभी भी बाहर आ जाएगा। वह जंगल की पूरी संपत्ति निजीकरण करते काॅरपोरेट को दे देना चाहता है। विरोध करने पर जंगल के अधिकारियों को गोली मारने की इजाजत भी होगी। प्रबंधन का मुख्य हिस्सा कलेक्टर की मुट्ठी में होगा। कई मसलों पर केवल केन्द्र सरकार की चलेगी।

बस्तर के जंगलों में अंबानी नगर, अदानीपुर, वेदांता संकुल, एस्सारपुरी और टाटा निलयम उग जाएंगे तो आदिवासी कहां रहेंगे? बेला भाटिया, ज्यां द्रेज, हिमांशु कुमार, सोनी सोरी, सुधा भारद्वाज, संजय पराते, आलोक शुक्ला, मनीष कुंजाम, बृजेन्द्र तिवारी जैसे कई नाम हैं। वे मोर्चे पर डटते हैं।

लेकिन बस्तर इतना नामालूम पाताललोक क्यों है कि वहां की खबरें नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, अमित शाह, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, शरद पवार, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव रामचंद्र राव, जगन रेड्डी और राकेश टिकैत जैसे लोगों को सूचनातंत्र नहीं देता हो। बस्तर जल रहा हैै।

क्या आदिवास नेस्तनाबूद होगा?

दोनों बड़ी सियासी पार्टियों की सत्ता में अदल बदल जारी है। वह एक रिले रेस है। पहला धावक दौड़कर रेस खत्म करता है। दूसरा उसी की झंडी लेकर आगे दौड़ता है। लोगों को आगे बढ़ने का भ्रम होता है, लेकिन दौड़ गोल मोल होती है। कहीं नहीं पहुंचती। जैसे धानी के बैल तेल पेरकर मालिक को देते हैं और खली आदिवासियों को मिलती है। अब तो ऐसे भी राजनेता हैं।

कहते हैं देश में महंगाई कहां है? अगर है तो लोग अन्न जल त्याग दें। खाते क्यों हैं? ऐसे भी राजनेता छत्तीसगढ़ में रहे जो कहते रहे गरीब इतने बच्चे क्यों पैदा करते हैं? ऐसे भी रहे भारत में जो कहते रहे भारतीय गरीब खाते बहुत हैं। इसलिए महंगाई है। भारतीय तो अमेरिका वालों से ज्यादा खाते हैं।

एक और रूपक कथा है। दिल्ली में एक बार छुरियां बनाने वाले कसाइयों की बैठक हुई। सब इस बात पर लड़ रहे थे कि उनकी बनाई छुरी सबसे तेज है। इसलिए बकरे उससे ही काटे जाएं। इस बात में सब एकमत थे कि बकरों को तो कटना है, लेकिन काटने का अधिकार किसको मिले, यही तय करना है। बस्तर में यही हो रहा है। सरकारें काटें।

नक्सली काटें या काॅरपोरेटिए काटें। कुछ राजनीतिक और मीडियाई दलाल भ्रम पैदा करते रहते हैं। कान भरते हैं। मदद करते हैं। बस्तर को दलदल बनाते हैं। सरकार हिंसा करेगी तो सबूत कहां से आएगा? सजा किसको मिलेगी? मीडिया तो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तस्वीरें और बयान ही छापेगा। बेचारा अरबों रुपयों की मिल्कियत का गरीब मीडिया विज्ञापनखोरी के बिना जिएगा कैसे? विज्ञापन ही तो उसकी देह का खून है।

देष में कोई अखबार या टीवी चैनल नहीं है जो रोज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं लटकाता। लोकतंत्र का रथ चल रहा है। वह राम, गंगा, गीता, गाय, हनुमान, दुर्गा, कब्रिस्तान, श्मशान, बीफ, गणेष इन प्रतीकों में ज्यादा जी रहा है। उसे आदिवासी, दलित, गरीब, मुफलिस, विधवा, बेरोजगार, गन्दी बस्तियों, बजबजाती मोरियों, सडांध, गरीब लोगों के परिवेश या पर्यावरण से कोई लेना देना नहीं है।

उनकी निगाह में क्या हैसियत है बस्तर के आदिवासियों की जो दो वक्त का खाना तक अपने लिए जुटा नहीं सकते। चीटी, चीटा, कीडे़े मकोडे़े, कंद मूल महुआ कुछ भी खाकर जी लेते हैं। कपड़े तक गत के नहीं पहनते।

उनके पास भाषा, बोली और शिक्षा नहीं हैै। उन्होंने दुनिया नहीं देखी। इंटरनेट, टीवी, डिजिटल, लैपटाॅप, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर शब्दों को सदियों में भी नहीं जान पाएंगे। मच्छर, मक्खी, कीट पतंगे जबरिया पैदा होते हैं। उनको सामूहिकता में मारा जाता है। आदिवासियों को भी इसी तरह ठिकाने लगाया जा रहा है। उसमें अजूबा क्या है। जितनी उनकी हत्या हो रही हैं। उतनी सरकारी और नक्सली गोली से षहरों में क्यों नहीं होतीं? वे तो खुद अपनी हत्या करने मजबूर किए जा रहे हैं। 

सात सौ गांव खाली करा दिए गए। पड़ोस के प्रदेशों में पलायन कर गए। बंधुआ मजदूर के रूप में ले जाये जाते हैं। पुलिस उन्हें नहीं मारती तो क्या वे तो अपने आप मर रहे हैं?

ऐसी बीमारियां होती हैं कि उसे ठीक नहीं कर पाते। तब उनमें इच्छा मृत्यु का विकल्प होता होगा। अरुणा षानबाग नामक नर्स का प्रसिद्ध मुकदमा तो सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। खुद गांधी ने साबरमती आश्रम में एक बछड़े के लाइलाज दुख को देखकर डाॅक्टर को इंजेक्षन देकर मर्सी किलिंग करने की अनुमति दी थी। अंगरेजों से तो सबसे पहले और सबसे ज्यादा आदिवासी लडे़ हैं। शहरी तो बाद में आए।

छत्तीसगढ़ में भी गुंडा धूर, नारायण सिंह और रामाधीन गोंड़ का इतिहास आज तक दमक रहा है। झारखंड में बिरसा मुंडा के बाद पौरुष के कारनामे भरे पड़े हैं। युवा आदिवासी मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने हिम्मत की जो कहा प्रधानमंत्री जी मन की बात बहुत करते हैं। कभी काम की बात भी करिए। 

आदिवासियों को मर्दुमशुमारी में अंगरेजों के वक्त अलग से पहचान दी गई थी। वहां वे अपनी जाति आदिवासी लिखते थे। उसे हटाकर, मिटाकर काॅलम को हिन्दू कर दिया गया है। इस पहचान को मिटाने का भी आदिवासी विरोध कर रहे हैं। वे नहीं चाहते उनका शहरी और मशीनी विकास हो। उन्हें शहरियों के धार्मिक हथकंडों से कोई लेना देना नहीं है।

सभ्य सरकारें उनकी संस्कृति को अपनी मुट्ठी में पीसती प्रशासनिक बलात्कार कर रही हैं। फिर भी कहती हैं आदिवासी चुप रहें। यह वक्त है आदिवासी शिक्षित युवकों को अपनी पहचान, अतीत और भविष्य को लेकर वैज्ञानिक, प्रगतिशील, आर्थिक और सामाजिक बंधुता के आधारों पर आगे बढ़ना चाहिए। ‘चाहिए‘ शब्द का अर्थ है कि वे बढें। 

आदिवासियों के लगातार जन आन्दोलन सत्ता की ठसक कुचल देती है। मंत्री मियां मिट्ठू बनते होंगे कि जो उनकी दया के मोहताज हैं, उन्हें हिम्मत कैसे हुई कि सरकार को आंखें दिखाए।

आदिवासियों के पास न कोई मजबूत संगठन है, न साधन है। फिर भी उनका हौसला उनकी पूंजी है। वे टिटहरी नहीं हैं जिसे मुगालता होता है कि वह अपने पैरों पर आसमान उठा लें। शाहीन बाग, जे0एन0यू0, किसान आन्दोलन अपनी मंज़िल तक कहां पहुंच पाए। संघर्ष के तेवर के आगे निजाम खुद को बौना महसूस करेगा ही।

असेम्बली में अहिंसक बम फेंककर भगतसिंह और साथियों ने दुनिया में भूचाल ला दिया था। आदिवासी हत्यारे नहीं मृत्युंजय होते हैं। जो मौत से नहीं डरता, उसे सरकारें और नक्सली खौफजदा कब तक बनाए रख पाएंगे? यही यक्ष प्रश्न इक्कीसवीं सदी से आदिवासियों का इतिहास और भविष्य एक साथ पूछ रहे हैं।

छत्तीसगढ़ का भयावह भविष्य

भौंचक और आशंकित मौजूदा इतिहास भारतीय सत्ता के करतब देख रहा है। खेत ही बाड़ को खा रही है और खेत को कराहने का भी अधिकार नहीं देना चाहती। यह अचरज, संदेह और घबराहट का फलसफा है। जिनकी रक्षा के सियासी ठनगन किए जाएं, उनसे पूछा ही नहीं जाए।

बल्कि उन्हें प्रशासनिक तुनक में जिंदगी से बेदखल भी कर दिया जाए। सुनने में कम लेकिन सोचने में ज्यादा घबराहट होती है कि इक्कीसवीं सदी का यह दशक आगे ऐसी सामाजिक दुर्घटना की ओर बढ़ रहा है। उसकी भयावह कल्पना उन्हें भी नहीं हुई होगी, जिन्होंने इस देश को आजाद कराया है।

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा मजहब, जातियां, बोलियां, भाषाएं, सांस्कृतिक आदतें, दस्तूर, रूढ़ियां और अंधविश्वास भी हैं। यह अहंकार दो कौड़ी का है कि हमारा देश दुनिया में सबसे ज्यादा वैचारिक, प्रगतिशील और मनुष्य-समर्थक है। 

समाज के सबसे पिछडे़े अछूत कहलाते दलित वर्ग के लोग मोटे तौर पर शहरी सभ्यों के साथ दैनिक आधार पर सम्पर्क में होने से जातीय अनुकूलन की थ्योरी के तहत बहुत धीरे धीरे सही वर्गविहीनता लाए जाने का कारक बन सकते हैं। कथित उच्च वर्णों के कई गरीब भी वे व्यवसाय करते मजबूत होंगे फिलहाल जो उनके लिए खारिज माने जाते हैं। गरीबी तो मजहबी कूपमंडूकता और जातीय विषमताओं को तोड़ने का सामाजिक हथियार भी बन रही है।

बुद्धि से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय और शोषण में वैश्य वृत्ति के पंडिताऊ इतिहास को खोजने अब भी पीढ़ियां बर्बाद क्यों की जा रही हैं? इस व्यापक परिघटनात्मक संदर्भ में देश के मूल निवासी आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई वक्त के बियाबान की आखिरी खंदक में लड़ रहे हैं। 

करीब आठ दस करोड़ आदिवासी अपनी अस्मिता, पहचान, जीविका, साामजिक तथा राजनीतिक उपेक्षा और दुर्व्यवहार के शिकार रहते अपनी हैसियत ही खो बैठने के मुहाने पर ला दिए गए हैं। यह कू्रर, तटस्थ और निर्मम सच जानना जरूरी है। जो संविधान सरकारों को आदिवासियों की छाती पर पुलिसिया गोली चलाने की ताकत देता है, उसी पवित्र किताब में ही पूर्वज लेखकों ने आदिवासी की जिंदगी को कुछ हुक्कामों के भरोसे भलमनसाहत में छोड़ दिया था।

संविधान सभा में इकलौते आदिवासी सदस्य जयपालसिंह मुंडा ने अभिमन्यु के रथ के पहिए की तरह आदिवासी के अधिकारों के भविष्य को विचार के आकाश में उछाल दिया था। तर्क यह है कि आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकार विन्यस्त, परिभाषित और विकसित होने थे लेकिन उन्हें एक अव्यक्त भाषा में राज्यपालों के सुपुर्द किया गया।

राज्यपालों की कच्ची नौकरी का आदेश प्रधानमंत्री की कलम से निकलता है और उन्हें प्रदेशों के मंत्रियों की राय भी सुननी पड़ती है। यह संवैधानिक ठनगन कायम होकर बिसूर रहा है कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा हो रही है, जबकि अधिकार लगातार कम किए जा रहे हैं। 

चीख चीखकर संविधान सभा में कई सदस्यों के साथ प्रो. के टी शाह ने कहा था खासतौर पर जंगलों की संपत्ति, खनिज, नदियों का पानी, पशु पक्षी और इन सबकी हिफाजत और संपत्तियों का दोहन तथा वितरण सरकार को ही करना चाहिए। कहा था शाह ने यदि निजीकरण किया गया तो काॅरपोरेटी तो खून पीते हैं। उनकी फिर भी अनसुनी की गई। गांधी, नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी वगैरह तक ही सार्वजनिक क्षेत्र बनाकर देश के बुनियादी उद्योगों को सुरक्षित करने की कोशिश की गई थी। 

बीसवीं सदी के आखिरी दशक में वैश्वीकरण के राक्षस के अट्टहास से सभी लोकतंत्रों सहित भारत में आर्थिक सुधार के नाम पर पूंजीवाद की आर्थिक गुलामी का मौसम खिला है। अब उसके चालीस बरस हो चुके हैं।

संविधान सभा में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने सरकारी पक्ष से दो टूक कह दिया था आदिवासी इलाकों में सरकार सब कुछ उनसे पूछकर कैसे कर सकती है? उन्हें ज्ञान ही कितना है? घाव लेकिन रिस रहे हैं। मलहम मंत्रालय में पड़ा है। सरकार को फुरसत और नीयत नहीं है लेकिन लगातार गोलियों के चलने का लोकतांत्रिक रिहर्सल संवैधानिक सरकारें अचूक निशाने के साथ कर रही हैं। कोई सिलसिलेवार देखे तो वनों की पूरी संपत्ति सरकारों के जरिए काॅरपोरेटियों की मुट्ठी में चली जा रही हैं। 

तो आदिवासी कहां हैं? अचरज है आदिवासियों की नक्सलियों से रक्षा करने में सरकारें संविधान की शपथ लेकर अपने करतब इस तरह करती हैं कि फिलहाल तो नक्सली गुमशुदा की तलाश वाले काॅलम में हैं, लेकिन हर गोली पर किसी आदिवासी का नाम लिखा है, चाहे वह पुलिसिया जवान हो या बस्तर का आदिवासी। क्या दिक्कत है यदि संविधान के हुक्म के अनुसार ग्राम सभाओं से जिरह, समझाइश और मानमनौव्वल के साथ बस्तर की नक्सली समस्या के उन्मूलन का भी खाका तैयार किया जाए। 

सिलगेर सहित आदिवासियों को समझ लेना चाहिए कि ताकत, एकता और धन के अभाव में जनआंदोलन हो तो सकते हैं, लेकिन उनकी भ्रूण हत्या होती रहेगी। नृतत्वशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र वगैरह के अधुनातन रिसर्च पेपर बता रहे हैं, जिससे यह हासिल होता है।

यह समझ विकसित हो रही है कि न आदिवासी इस सदी के अंत तक रह पाएंगे और न ही आदिवास। वे एक सौ पैंतीस करोड़ भारतीयों की भीड़ में गुमनाम इकाइयों की तरह धकेले जा रहे हैं। वे पूंजीवादपरस्त हो रही सत्ता की चावल की थाली में कंकड़ों की तरह दिखते सत्ता, काॅरपोरेटी गठजोड़ की आंखों में किरकिरी की तरह हैं। 

ये लेखक का निजी विचार है। 


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment