'ब्लैक लाइक मी'

मनीष आज़ाद

 

उनके दोस्त मित्रों ने उन्हे इसके सामाजिक और शारीरिक खतरों से आगाह कराया। लेकिन वे अपनी जिद पर अड़े रहे।

अंततः उन्होने कालों के बीच कालों की तरह रहकर उस जलालत और अपमान को सीधे महसूस किया जो काले लोग सदियों से सहते आ रहे थे।

इसके बाद अपने इसी अनुभव के आधार पर उन्होने बहुत ही मर्मस्पर्शी किताब लिखी- ‘ब्लैक लाइक मी’।

इस किताब के माध्यम से दुनिया को जब लेखक के इस ‘प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चला तो गोरे लोगों और काले लोगों के बीच उनके समान रुप से दुश्मन पैदा हो गये।

गोरो को लगा कि कालो के बीच काले के रुप में रहकर ग्रीफिन ने सभी गोरों का अपमान किया है।

दूसरी ओर कुछ काले लोगो को लगा कि ग्रीफिन ने अपना रंग छुपा कर उन्हे धोखा दिया है और उन्हे अपमानित किया है।

इसी किताब पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी है। इस फिल्म के अंतिम दृश्य में इस बहस के दौरान लेखक कहता है कि उसने यह ‘प्रोजक्ट’ सिर्फ अपने लिए किया है।

उसे हक है यह जानने का कि देश की इतनी बड़ी आबादी आखिर किन स्थितियों में अपना जीवन गुजारती है।

भारत में जाति समस्या की तुलना अक्सर अमरीका के इस नस्लवाद से की जाती है। वहां के ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज पर यहां ‘दलित पैंथर’ भी बन चुका है।

लेकिन उपरोक्त घटना के संदर्भ में मै सोच रहा था कि क्या यहां कोई यह प्रयोग कर सकता है।

यहां तो आपकी पहचान आपकी जाति से है। चमड़ी का रंग तो बदला जा सकता है लेकिन जाति कैसे बदली जायेगी। यहां तक कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जाति का साथ नही छूटता।

यानी जाति तो आप इस जनम में तो क्या सात जनम में भी नही बदल सकते। इस सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ में आया है।

भिखारी ठाकुर सपना देखते हैं कि अगले जन्म में वे ब्राहमण हो गये है और उनका खूब आदर सत्कार हो रहा है।

एक जजमान के यहां से जब वे दान दक्षिणा लेकर निकल रहे थे, तभी दरवाजे तक छोड़ने आये जजमान ने भिखारी ठाकुर के कान में कुछ कहा और उस वाक्य को सुनते ही भिखारी ठाकुर की नींद खुल गयी।

जजमान ने उनके कान में कहा था – ‘का हो पिछले जनम में त तू नाई रहलअ न!’


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