माधवराव सप्रे
रमेश अनुपमआज 19 जून 2021 को माधवराव सप्रे की 150 वीं जयंती के अवसर पर आलोचक रमेश अनुपम द्वारा खड़ी बोली, हिंदी कहानी और हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने वाले माधवराव सप्रे पर पुस्तक का प्रकाशन किया है। सप्रे का हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि माधवराव सप्रे जैसे मनीषी एक लंबी अवधि तक हिंदी साहित्य में उपेक्षित तथा अलक्षित रहे, जब कि खड़ी बोली, हिंदी कहानी एवम हिंदी पत्रकारिता के विकास में उनके अमूल्य योगदान को भूला पाना सदैव मुश्किल रहा है। हिंदी में जिस नवजागरण की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्य के माध्यम से हुई थी, उसे माधवराव सप्रे ने अपनी पत्रिकाओं तथा महत्वपूर्ण निबंधों के द्वारा एक नई ऊंचाई प्रदान की है। हिंदी नवजागरण के क्षेत्र में उनके असाधारण कार्यों का मूल्यांकन होना अभी शेष है। सन 1900 में छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव पेंड्रा से ' छत्तीसगढ़ मित्र ' जैसी पत्रिका का प्रकाशन, सन 1906 में नागपुर से ' हिंदी ग्रंथ माला ', ' हिंदी केसरी ' और सन 1920 में जबलपुर से ' कर्मवीर ' जैसी पत्रिका का प्रकाशन माधवराव सप्रे जैसे मनीषी के लिए ही संभव था। सन 1901 में हिंदी की पहली कहानी ’एक टोकरी भर मिट्टी ’ की रचना करने वाले तथा सन 1907 में ’ स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट ’ जैसा महत्वपूर्ण निबंध लिखने वाले माधव राव सप्रे का हिंदी साहित्य में एक असाधारण महत्व है।

यह मेरे लिए एक अत्यंत सुखद और दुर्लभ संयोग ही है कि जब मैं माधव राव सप्रे पर केंद्रित इक्कीसवीं कड़ी का शुभारंभ करने जा रहा हूं, इसके ठीक छः दिन बाद ही 19 जून को उनकी एक सौ पचासवीं जयंती पूरे देश भर में मनाई जाएगी।
निश्चित ही छत्तीसगढ़ प्रदेश भी इस अवसर पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेगा क्योंकि उसके इस सपूत ने इस प्रदेश का नाम पूरे देश में रौशन किया है। माखन लाल चतुर्वेदी, द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविंद दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसी विभूतियां जिनसे अनुप्रेरित होने में अपना सौभाग्य मानती रही हैं, ठाकुर जगमोहन सिंह, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ जैसे लेखक जिसकी मित्रता पर गर्वित होते रहे हों, ऐसे महामानव माधव राव सप्रे को एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर नमन करना हम सबका परम कर्तव्य बनता है।
मात्र चार वर्ष की उम्र से ही अपने पिता तुल्य भाई बाबूराव की उंगली थामकर छत्तीसगढ़ की भूमि पर पांव धरने वाले मा राव सप्रे आजीवन छत्तीसगढ़ के होकर ही रह गए। छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में धड़कता था, रायपुर उनके हृदय में बसता था।
माधव राव सप्रे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे कोई साधारण मानव नहीं, अपितु एक महामानव थे, जिन्होंने इस देश के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। जिन्होंने कभी अपने लिए फूलों भरे पथ की चाह नहीं की, बल्कि कांटों भरे मार्ग का चुनाव किया। उन्हें कांटों भरे मार्ग पर चलना ही जीवनपर्यंत प्रिय रहा।
'एकला चलो रे ' जैसे उनके जीवन का सबसे प्रिय मंत्र था। यही कारण है कि वे जीवन भर अपने मार्ग पर एकाकी चलते रहे, उन्होंने कभी अपने लाभ या हानि की परवाह नहीं की, कभी अपने व्यक्तिगत सुख को महत्व नहीं दिया।
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बे पेंड्रा रोड से सन 1900 में ' छत्तीसगढ़ मित्र ” जैसा एक मासिक पत्र निकालने का दुस्साहस केवल माधव राव सप्रे ही कर सकते थे। सन 1900 में पेंड्रा रोड से किसी मासिक पत्र का प्रकाशन ही अपने आप में किसी असाधारण घटना से कम नहीं है। छत्तीसगढ़ मित्र " का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का आज एक स्वर्णिम अध्याय बन चुका है।
एक परतंत्र देश में स्वतंत्रता का अलख जगाने के उद्देश्य से किए गए इस महान कार्य को शब्दों में बयान करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
सन 1900 से लेकर सन 1902 तक पेंड्रा रोड से लगातार तीन वर्षों तक एक मासिक पत्र का प्रकाशन केवल एक व्यक्ति की जिद और जुनून का ही परिणाम था और वह व्यक्ति थे माधव राव सप्रे ।
'छत्तीसगढ़ मित्र" में पंडित रामराव चिंचोलकर के साथ संपादक के रूप में माधव राव सप्रे बी. ए. का नाम प्रकाशित होता था। पर सच कहा जाए तो संपादक का भार अकेले माधव राव सप्रे के कंधों पर ही टिका हुआ था। प्रोप्राइटर के रूप में वामन बलि राव लाखे बी ए का नाम जाता था। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया रखा गया था। पहले वर्ष के मुद्रक थे कय्यूमी प्रेस रायपुर।
आज ” छत्तीसगढ़ मित्र ” अपने आप में एक इतिहास बन चुका है। पेंड्रा रोड को पूरे देश में इसी मासिक पत्र के चलते ही जाना जाता है। माधव राव सप्रे पेंड्रा रोड कैसे पहुंचे ? इसकी भी अपनी एक अलग कहानी है।
पेंड्रा रोड के राजकुमार को अंग्रेजी सीखने के लिए एक अच्छे शिक्षक की जरूरत थी। जिन दिनों राजकुमार रायपुर के राजकुमार कॉलेज में पढ़ रहे थे उस समय माधव राव सप्रे उनके हिंदी ट्यूटर हुआ करते थे, इस तरह वे पूर्व से ही एक दूसरे से भली-भांति परिचित थे। पचास रुपए मासिक पर माधव राव सप्रे ने यह कार्य स्वीकार कर लिया और पेंड्रा रोड जाकर राजकुमार को अंग्रेजी सीखाने का मन बना लिया।
माधव राव सप्रे का उद्देश्य था इस पैसे से एक मासिक पत्र का प्रकाशन कर देश को जगाने का । माधव राव सप्रे जैसे मनीषी यह जानते थे कि हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की बेड़ियों में जकड़े हुए इस महादेश को जगाया जा सकता है। इस तरह ” छत्तीसगढ़ मित्र " के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त हुआ। तीन वर्षों तक वे इस मासिक पत्र का नियमित प्रकाशन करते रहे। ” छत्तीसगढ़ मित्र" के इन छत्तीस अंकों के माध्यम से माधव राव सप्रे ने छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण देश को जिस तरह से जागृत करने का प्रयास किया, उसे यह देश कभी भूला नहीं सकता है।
पेंड्रा रोड जाने से पहले ही माधव राव सप्रे का विवाह रायपुर के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर लक्ष्मी राव शेवडे की सुपुत्री से सन 1889 में संपन्न हो चुका था। माधव राव सप्रे के ससुर ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने दामाद के लिए नायब तहसीलदार की सरकारी नौकरी का प्रबंध भी कर लिया था। वे चाहते थे कि उनका दामाद भी उनकी तरह ही सरकारी नौकरी में आ जाए | पर माधव राव सप्रे अंग्रेजों की चाकरी करने के लिए नहीं बने थे। उनकी मंजिल अलग थी और रास्ते भी अलग थे।
देश के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून जिसके भीतर अंगड़ाई ले रहा हो, उस नवयुवक को सरकारी नौकरी का प्रलोभन भला कैसे डिगा सकता था। उन्होंने इस सरकारी नौकरी के लिए अपने ससुर को साफ-साफ मना कर दिया। सन 1898 में माधव राव सप्रे की पत्नी का निधन हो गया। माधव राव सप्रे अपनी पत्नी के निधन के पश्चात अकेले रह गए थे। पत्नी के निधन के आघात को झेलते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और हिसलाप कॉलेज नागपुर से बी ए की . परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन 1898 में माधव राव सप्रे की पत्नी का निधन हो गया। माधव राव सप्रे अपनी पत्नी के निधन के पश्चात अकेले रह गए थे। पत्नी के निधन के आघात को झेलते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और हिसलाप कॉलेज नागपुर से बी .ए. परीक्षा उत्तीर्ण की ।
पिता तुल्य भाई बाबूराव के दबाव के चलते सन 1899 में माधव राव सप्रे को भंडारा के पंडित गोविंद राव भाटवडेकर की सुपुत्री पार्वती से विवाह करने के लिए बाध्य होना पड़ा। पेंड्रा रोड जाने से पहले वे पुनः विवाह सूत्र में बंध चुके थे। सन 1902 के पश्चात ” छत्तीसगढ़ मित्र " का प्रकाशन बंद हो जाने से माधव राव सप्रे बहुत आहत हुए पर उन्होंने थक कर चुपचाप बैठ जाना कभी स्वीकार नहीं किया।
उनके जीवन का मिशन तो पत्रकारिता के माध्यम से देश को जागृत करना था। सो सन 1905 में माधव राव सप्रे नागपुर चले गए। वहां जाकर उन्होंने हिंदी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की। सन 1906 से ” हिंदी ग्रंथ माला ” मासिक पत्रिका के रूप में नागपुर से प्रकाशित होने लगा। ” छत्तीसगढ़ मित्र ” की जगह अब ” हिंदी ग्रंथ माला ” ने ले लिया था।
यह अद्भुत संयोग है कि ठाकुर जगमोहन सिंह के पश्चात जब मैंने माधवराव सप्रे पर इक्कीसवीं कड़ी की शुरुआत की तो 19 जून समीप ही था। यह मेरे लिए दुर्लभ और सुखद संयोग है कि आज जब 19 जून को मैं माधवराव सप्रे की दूसरी कड़ी पूरी कर रहा हूं, उनकी 150 वीं जयंती संपूर्ण देश में मनाई जा रही है।
खड़ी बोली, हिंदी पत्रकारिता, हिंदी कहानी और छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से माधवराव सप्रे को उनकी 150 वीं जयंती पर सादर नमन करते हुए मैं उन पर केंद्रित बाईसवीं कड़ी प्रारंभ कर रहा हूं।
विश्वास कर पाना मुश्किल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब खड़ी बोली और हिंदी पत्रकारिता दोनों ही अपने पावों पर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाई थी, ऐसे विकट समय में माधवराव सप्रे किस तरह से कभी ' छत्तीसगढ़ मित्र ’ के माध्यम से तो कभी ' हिंदी ग्रंथ माला ’,' हिंदी केसरी ’ तथा ' कर्मवीर ’ के माध्यम से ब्रितानवी हुकूमत को ललकारने का साहस कर रहे थे। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से गहरी नींद में सोये हुए हिंदी समाज को जागृत करने का प्रयत्न कर रहे थे।
माधवराव सप्रे सरकारी नौकरी का प्रलोभन पहले ही ठुकरा चुके थे। जिसके भीतर स्वराज्य की अग्नि प्रज्वलित हो रही हो, जिसकी आंखों में देश की स्वतंत्रता की चाह ज्वालामुखी की तरह धधक रही हो, उसे कैसे कोई प्रलोभन लुभा सकता है।
सन 1900 में ' छत्तीसगढ़ मित्र ’ के माध्यम से जो नवजागरण का कार्य उन्होंने प्रारंभ किया था, उसके बंद होने के मात्र तीन वर्ष उपरांत ही एक नई जगह नागपुर से ' हिंदी ग्रंथ माला ’ का शंखनाद कर देना कोई साधारण घटना नहीं है।
अपना घर द्वार छोड़कर पेंड्रा और रायपुर से कोसों दूर विदर्भ की धरती से एक बार फिर से स्वराज्य का अलख जगाने का सपना माधवराव सप्रे जैसे क्रांतिवीर ही देख सकते थे।
नागपुर से ' हिंदी ग्रंथ माला ' का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक युगांतकारी घटना है। इस पत्रिका में सबसे पहले जान स्टुअर्ट मिल का सुप्रसिद्ध लेख ' On Liberty ' का महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ' स्वाधीनता ' के नाम से प्रकाशित किया गया, जिसके चलते माधवराव सप्रे अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गए।
इसके बाद सन 1907 में माधवराव सप्रे का बहुचर्चित लेख ' स्वदेशी आंदोलन ' और बायकॉट ' का प्रकाशन हुआ जिसके फलस्वरूप ' हिंदी ग्रंथ माला ' देश की स्वाधीनता के लिए मर मिटने वालों की प्रिय पत्रिका बन गई।
सन 1908 में ' स्वदेशी आंदोलन ' और ' बायकॉट ' को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते ही यह अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गई।
अंग्रेजों ने न केवल इसे जब्त किया वरन ' हिंदी ग्रंथ माला ' के प्रकाशन पर भी प्रेस एक्ट की धाराओं के तहत रोक लगवा दी।
सन 1908 में ही ' हिंदी ग्रंथ माला ' द्वारा दो और किताबों का भी प्रकाशन किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित ' स्वाधीनता ’ और ' महारानी लक्ष्मीबाई ’। ये दोनों ही किताबें अंग्रेज सरकार को खतरनाक प्रतीत हुई। सो ' हिंदी ग्रंथ माला ' पर अंग्रेज सरकार का गाज गिरना स्वाभाविक ही था।
' हिंदी ग्रंथ माला ' पत्रिका तब तक हिंदी समाज में काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। यह उस समय स्वाधीनता की अलख जगाने वाली एक निर्भीक पत्रिका साबित हुई। इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपया रखा गया था तथा उस समय इसके नियमित ग्राहकों की संख्या लगभग तीन सौ के आसपास थी।
इस पत्रिका के चाहने वालों में अयोध्या सिंह उपाध्याय, पंडित श्रीधर पाठक, पद्य सिंह शर्मा तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार प्रमुख थे।
लेखक जाने माने हिन्दी के आलोचक, लेखक और पत्रकार हैं।
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