ना जाने क्यों कार्टर याद आ गये

उत्तम कुमार

 

वक्त रहते हम सभी समझदार अखबारनवीसों को होश में आने की जरूरत है और एक दूसरे को सम्हालने की महती आवश्यकता भी। लॉकडाउन के बाद एक एक कर सभी अखबार अपने यहां मीडियाकर्मियों को लगातार नौकरी से निकाल रहे हैं जिसकी एक लंबी फेरहिस्त है। जो छोटे मीडिया कहलाते हैं उसे खत्म कर दिया जा रहा है। 

मोदी 2.0 और छत्तीसगढ़, एमपी एवम राजस्थान से भाजपा सरकार का जाना ऐसी घटना थी जिसने मीडिया को बहुत प्रभावित किया। मोदी की अप्रत्याशित जीत से न केवल टीवी चैनल अभिभूत हो गए बल्कि अखबारों को भी केंद्र सरकार की जय जयकार करनी पड़ी। 15 वर्षों बाद सत्ता में लौटी ग्रामीणों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की सरकार के खिलाफ तो लिखे।

पुलवामा हमले के बाद जो न्यूज रूम में माहौल था वो बेहद डरावना होता जा रहा था, कहा गया कि सरकार के खिलाफ लिखना मतलब सेना के खिलाफ लिखना, मतलब राष्ट्रद्रोह।

लॉकडाउन के वक्त समझ में आ गया था हालात और बुरे होंगे। जानबूझ कर तब्लीगी जमात के बहाने मुसलमानों को अपराधी बनाया जा रहा था, यह ठीक नहीं है तो कहा गया खामोश रहें। हमने कहा देश के मजदूरों की कहानी लिखी जाएं, अस्पतालों के हालात लिखे जाएं, दवाएं और पीपीई किट की अनुपलब्धता के बारे में लिखा जाए तो पता चला कि आदरणीय मोदी जी ने संपादकों के साथ बैठक कर ली है।

वर्तमान घटनाक्रम को मात्र कांग्रेस बीजेपी के रूप में नहीं देखता हूं यह एक अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है। साजिश का एक छोटा हिस्सा कार्पोरेट मीडिया के साथ सरकार की गठजोड़ में भी लटकी उस फांसी के फंदे में भी है, जिसमें हमें बार बार लटक जाने के लिये उकसाया जा रहा है।

सवाल यह है कि सरकार के खिलाफ सवाल करने के साथ और सूचनाओं को पीडि़तों तक पहुंचाने के काम के साथ साथ अपनी जिंदगी को पत्रकारिता के लिये जीवित रखने के लिये हमें रास्ता निकालना होगा। मैंने पिछले 6 सालों से वैकल्पिक मीडिया के तौर पर कार्य करते हुये इस पीड़ा को हर दिन महसूस किया है। सावधान हो जाइये और एक दूसरे को सम्हालिये नहीं तो सबकुछ खत्म कर दिया जायेगा।

लॉकडाउन के साथ तमाम तथाकथित बड़े कार्पोरेट कहलानेवाले मीडिया समूह की हालत फांसी के फंदे के एक-एक रेशे की तरह है जो चून चूनकर हरेक छोटे क्षेत्रीय कहलानेवाले पत्रकार और सम्पदकों की जान लेने को आतुर है।

अंगुली में गिनेजाने वाले कार्पोरेट मीडिया को छोड़ सबको बंद कर दिया जा रहा है जिसकी एक लंबी फेरहिस्त है। जिनके पास मशीनेंं है वे अखबार निकाल रहे हैं और हम जैसे छोटे कहे जानेवाले लोग एक सुनियोजित साजिश के तहत बंद करवा दिये जाने के फांसी में लटका दिये जाने के लिये इंतजार कर रहे हैं।

बानगी देखिये-28 मई 2020 को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण उत्पन्न पलायन संकट पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को फोटो पत्रकार केविन कार्टर की ‘दि वल्चर एंड द लिटिल गर्ल’ नाम से मशहूर उस तस्वीर की कहानी सुनाई जिसके लिए 1994 में उन्हें पुलित्जर पुरस्कार मिला था।

पुलित्जर पाने के कुछ महीने बाद कार्टर ने इस आंखों देखी से मायूस होकर अपनी जान दे दी। मेहता यह कहानी सुना कर प्रवासी मजदूरों की मौत और उनके संघर्ष की त्रासद तस्वीरों को फ्रंट पेज पर छापने का आरोप मीडिया पर लगा रहे थे। उनके कहने का तात्पर्य था कि ऐसा करने वाला मीडिया उसी गिद्ध की तरह है।

मेहता ने कार्टर की कहानी को संदर्भ से काटकर पेश किया और ऐसा करते हुए भी उन्होंने बहुत सी तथ्यात्मक गलतियां कीं। आपने इस दौरान कई अमानवीय तस्वीरें देखी जिसमें एक तस्वीर में एक भूखा प्रवासी मजदूर मरे हुए कुत्ते को खा रहा था और दूसरी में नन्हीं बच्ची अपनी मरी मां को कपड़े से ढक रही थी।

23 साल की उसकी मां ने गर्मी, भूख और प्यास से मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन में दम तोड़ दिया था। तो कहीं बच्ची अपने पिता को साइकिल पर बिठाकर घर लौट रही थी तो कहीं मां अपने बेटे को बचाने स्कूटी से निकल पड़ी, तो हमारे बस्तर में मिर्ची तोडऩें गई बालिका घर नहीं पहुंच पाई।

पिछले साल राजनांदगांव में कोरोना वायरस से मौत के पहले मामले को लेकर सीएमओ मिथलेस चौधरी से बात कर रहा था तब अनायस ही ध्यान लॉकडायन से छत्तीसगढ़ में पहली मौत डोंगरगढ़ के उस व्यक्ति पर चले गई जहां पुलिस की पिटाई से हरेकृष्ण देवनाथ की मृत्यु हो गई थी और उसका पूरा भरापूरा परिवार अनाथ हो गया।

और अब उसके घर और दुकान पर उसका एक बड़ा भाई कब्जा देने का दावा कर रहा है। जहां सरकार की नजर नहीं गई। कहा जाना चाहिये कि पलायन संकट की इन त्रासद तस्वीरों ने सुप्रीम कोर्ट को होश में ला दिया।

26 मई को अदालत ने संज्ञान लेते हुए सभी सरकारों को नोटिस जारी किया। उसने केंद्र और राज्य सरकारों को मजदूरों को नि:शुल्क यातायात, भोजन और शेल्टर उपलब्ध कराने का आदेश दिया। लेकिन तुषार मेहता ने प्रवासी श्रमिक संकट को कवर करने पर मीडिया पर यह कह कर सवाल उठाए कि संकट को छापने वाले पत्रकार यह बताएं कि वे इस संकट की घड़ी में क्या मदद कर रहे हैं।

आप सभी को कार्टर की कहानी को विस्तार से पढऩी चाहिए और तुषार मेहता सहित सभी कार्पोरेट मीडिया को इसका मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए। मैं यह बताना चाहता हूं कि बहुत से पत्रकार प्रवासियों के लिए राहत प्रयासों में चंदे और अन्य छोटे-बड़े सहयोग, जो वे कर सकते हैं, कर रहे हैं लेकिन वे अपने इस काम को रिकॉर्ड में नहीं ले रहे हैं। कईयों ने तो अपनी जाने गवां दी। ऐसा करना उनका व्यक्तिगत फैसला है ना कि पत्रकारिता की मांग। पत्रकारिता के भी, अन्य पेशों की तरह ही, अपने नियम हैं, मूल्य हैं और काम करने का तरीका है और उसमें इस तरह के हस्तक्षेप को सही नहीं माना जाता।

सोलिसिटर जनरल जी कार्टर ने जो सुसाइड नोट पीछे छोड़ा उसमें उनके उस दर्द को समझा जा सकता है जिसका बोझ लिए वह जी रहे थे। उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘वह तनावग्रस्त हैं और उनके पास अपने बच्चे की मदद करने और अपना कर्ज चुकाने के भी पैसे नहीं हैं। वह लिखते हैं, मुझे हत्या और लाशें और गुस्से और दर्द और भूखे या घायल बच्चे और गोली चलाने वाले पागल आदमी जो अक्सर पुलिस या हत्यारे होते हैं की तस्वीरें डराती हैं।’

जो बेचैनी और गुस्सा कार्टर के भीतर था वह उस पेशे की कीमत थी जिसकी मांग है कि इससे जुड़े लोग तकलीफों के सामने भी होशोहवास में रहें। इस गुस्से को भारतीय पत्रकार ढोह रहे हैं जब वे परत दर परत खुलते देखते हैं कोरोना वायरस महामारी और उस प्रवासी संकट को जिसके सामने नरेन्द्र मोदी प्रशासन धृतराष्ट्र बना बैठा है।

समर्पित पत्रकारों ने वह देखा है जिसे मेहता बिना देखे ही 31 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में दावा करते हैं कि सडक़ में चलने वाला ऐसा कोई आदमी घर पहुंचने के लिए बेचैन नहीं है। मेहता जी जो कमिटेड पत्रकार हैं उन्हें उनके काम का दाम तक नहीं मिलता। और बेतुका बात कि पत्रकार कोई सरकार नहीं कि देश की गिरती हालातों में मज़दूरों का मदद कर सके।

मेहता का यह तर्क कि अच्छा होगा कि पत्रकार इस संकट को रिकॉर्ड ना कर लोगों की मदद करें, बहस को गलत दिशा देने का प्रयास किया है। यह हमारे काम के सामने आने वाले बुनियादी सवालों को पूछने से लोगों को रोकने का प्रयास है यानी यह कि सरकार अपना काम करने में क्यों असफल रही है?

क्यों इतने सारे प्रवासी परिवार अनजान लोगों की दया पर जिंदा रहने को मजबूर हैं? कार्टर की तरह मेरे साथी भी अपने काम से और अपनी जान को दांव पर लगा कर लोगों के सामने यह सवाल ला रहे हैं। वे लोग प्रलयंकारी घटनाओं के गवाह हैं क्योंकि यही तो हमारा काम है।

हमें कार्पोरेट मीडिया की चंगुल से बचकर रहना होगा इसलिए कि जनपक्षधर पत्रकारिता को हम जीवित रख सकें। बहरहाल यह कि कार्पोरेट मीडिया के बलबूते पत्रकारिता को जीवित रखना कतई संभव नहीं है।


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