सूरजपाल चौहान का यूं ही चले जाना...
संतोष कुमारपहली बार सूरजपाल चौहान की आत्मकथा 'संतप्त' पढ़ कर उन की वेदना से दुखी हुआ था। दूसरी बार उन का नियति के अधीन हो जाने पर शोक संतप्त हूँ! 15 जून, 2021 को कैलाश दाहिया जी के मार्फ़त अरुण आजीवक को यह दुखद खबर मिली, उस के उपरांत उन्होंने मुझे अवगत कराया। यह दुखद खबर सुन कर मैं नि:शब्द हो गया!

वे लम्बे समय से मौत को मात दे रहे थे। उन की दोनों किडनी फेल हो चुकी थी, नियमित डायलिसिस की बदौलत वे जिंदा थे। और निरंतर साहित्यिक रचना में निरत थे। दलित यानी आजीवक साहित्य में पत्र साहित्य के पुरोधा डा. धर्मवीर हैं। उन से प्रेरणा लेकर सूरजपाल चौहान जी अपने पत्र को तलवार बना कर आजीवक साहित्य से फैले बनैलों को काट कर साफ कर रहे थे। यह खत दर्जनों की संख्या में है। इससे पहले उन्होंने पत्र साहित्य पर एक किताब भी प्रकाशित करा ली थी, उस की एक प्रति खत सहित मुझे प्रेषित किये थे।
सरल व सहज स्वभाव के सूरजपाल चौहान जी से मेरी एक ही मुलाकात दिल्ली में 'विश्व पुस्तक मेला 2020' में हुई थी। उन्होंने अपनी पुस्तक 'चला गया साहित्यिक अपराधियों की खबर लेने वाला' मुझे भेंट की थी। अक्सर वे ही फोन कर लिया करते थे। दलित साहित्य की दिशा और दशा पर प्राय: हमेशा चिंतित रहते थे। वे सीखने वाले साहित्यिक विद्यार्थियों में अग्रणी थे। उन में अपार संभावनाएं थीं। इसीलिए विभिन्न घटकों से होते हुए अपनी असल आजीवक परंपरा में आ गये थे। इस कोटि में एक और साहित्यकार मूलचंद सोनकर भी थे।
डा. धर्मवीर अपनी पुस्तक 'दलित आत्मलोचन प्रक्रिया' में सूरजपाल चौहान जी के बारे में लिखते हैं - "हर दलित विचारक हिन्दू-धर्म को लेकर अपनी वैचारिक यात्रा तय करता है। नुकसान की बात यह है कि वह यात्रा निजी होती है। दलितों ने हिन्दू धर्म को लेकर अभी तक अपनी सामूहिक सोच विकसित नहीं की है। सब के अनुभव एक से होते हैं और उन अनुभवों के परिणाम भी एक से होते हैं लेकिन उन्हें कोई जोड़ने वाला नहीं है।
हर कोई हिन्दुओं से प्रयोग करने में अपना मंहगा समय लेता है। कभी-कभी इस प्रयोग करने में पूरी जिंदगी गुजर जाती है। सूरजपाल चौहान ने भी ये प्रयोग किये हैं। अच्छा यह है कि उन्हें सही परिणाम तक आने में ज्यादा समय नहीं लगा।"(दलित आत्मलोचन प्रक्रिया, डा. धर्मवीर, नवाक्षर प्रकाशन हापुड़ - 245101,पृष्ठ 66)
इस क्रम में कैलाश दाहिया जी की फेसबुक टिप्पणी गौरतलब है। उन्होंने सूरजपाल चौहान के बारे लिखा है -" सूरजपाल चौहान जी ने वैचारिक यात्रा पूरी की है। माता के जागरण की भेंट से शुरू कर, बुद्ध वंदना से होते हुए आजीवक तक पहुंचे हैं। इस से दलितों को सीख लेने की जरूरत है।" लेकिन दलितों में तरह-तरह के नमूने हैं। इसी तरह के एक द्विज चिन्तन, परंपरा और भाषा से अभिशप्त दशरथ रत्न 'रावण' नाम के जीव ने सूरजपाल चौहान को 'वाल्मीकि धर्म' में आस्था बता रहे हैं।
उनकी बेटी के साथ अस्थी बटोरने उनके कुछ लोग गये थे। जबकि सूरजपाल चौहान कहीं भी उनके और उनके धर्म के बारे में जिक्र नहीं किये हैं इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि दशरथ रत्न रावण गलत कह रहे हैं। इधर पूरा देश और साहित्य जगत जानता है कि - सूरजपाल चौहान आजीवक परंपरा में चिन्तन और लेखन कर रहे थे! ऐसे में सवाल बनता है कि - यह वाल्मीकि ब्राह्मण के प्रतीक का क्या रायता है? यदि सूरजपाल चौहान जीवित होते तो अपनी साहित्यिक तलवार से उन की खाल उतार लेते, इस का उदाहरण उन के खत हैं।
इसी से तिलमिलाए गैर - साहित्यिक लेखक कंवल भारती सूरजपाल चौहान जी के मृत्यु पर अपनी कुंठा का विषवमन करते हुए 16 जून, 2021 को अपने फेसबुक वाल पर लिखते हैं - "सूरजपाल चौहान की मौत दलित साहित्य के लिए एक शुभ घटना है। केवल धर्मवीर के चेलों की मंडली के लिए यह शोक का दिन है।" किसी की मौत पर सब से पहले उसका परिवार, दोस्त, रिश्तेदार और समाज दुखी होता है! जबकि सूरजपाल चौहान एक सजग साहित्यकार थे।
ऐसे में पूरा साहित्य जगत शोक संतप्त है। सारे लेखक इस घड़ी में शोक संवेदना प्रकट कर रहे हैं, लेकिन ये महोदय न जाने किस नशे मे हैं? सूरजपाल चौहान जी सच ही इन के बारे में लिखते हैं कि - शराब की तलब में दिल्ली के सार्वजनिक शौचालय में जाकर इन्होंने पिया था। इनकी एक महिला मित्र रजनी तिलक (कुछ वर्ष पहले दिवंगत हो चुकी हैं) ने यैसी ही ओछी संवेदना विहिन टिप्पणी महान आजीवक दार्शनिक डॉ धर्मवीर के मृत्यु पर की थीं।
परंपरा और चिन्तक को ध्यान में रख कर इन पर प्रो. भूरेलाल सर ने उचित ही टिप्पणी किया है - "कम्युनिस्ट खेमे के चेलों को हर जगह चेले ही नज़र आते हैं।कँवल भारती की श्रद्धांजलि प्रकट करने की उक्त शैली और भाषा से उन के दम्भ, अहंकार और कुत्सित मानसिकता का पता चलता है। सूरजपाल चौहान एक वरिष्ठ दलित साहित्यकार व चिंतक थे और दलित साहित्य और चिंतन के इतिहास में रहेंगे।उन की जगह को कोई छीन नहीं सकता।
वह जब तक जिंदा रहे लिखते रहे और साहित्य व चिंतन में अद्यतन रहे।कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर लिखे उन के 'पत्रों' का ऐतिहासिक ही नहीं, साहित्यिक महत्व है, क्यों कि इन से दलित साहित्य आंदोलन की आंतरिक सच्चाई उजागर होती है।दलित लेखकों की आंतरिक राजनीति व उन के वास्तविक चरित्र का पता चलता है।
चौहान के लिखे 'पत्र' कथित 'झूठे गल्प' या 'मनगढंत कहानी' नहीं हैं। इन 'पत्रों' से दलित साहित्य आंदोलन की आंतरिक राजनीति और भीतरघात कर ने वाले प्रतिकूल /अवांछित तत्वों का पता चलता है। जार - जारिणियों के काले - कारनामों को उजागर करना 'गन्दगी फैलाना' नहीं, बल्कि उस गन्दगी को फैलाने वाले लोगों के प्रति समाज को आगाह और सचेत करना है।
दलित साहित्य आंदोलन के भीतर भी ऐसे बहुत से लेखक-लेखिकाएँ उपलब्ध हैं, जो जारकर्म में लिप्त रहे हैं।इन के वास्तविक चरित्र से दलित समाज को सचेत करना कोई 'गन्दगी' फैलाना नहीं, बल्कि गन्दगी को साफ़ करना है। दलित साहित्य और समाज की सफ़ाई अभियान में बहुत से लेखक व लेखिकाएँ उघड़ गए हैं और उन के अंदर की तिलमिलाहट देखते ही बनती है।दलित साहित्य से जारकर्म की गंदगी दूर होनी अनिवार्य है तभी दलित समाज, साहित्य और चिंतन समृद्ध होंगे।
अब दलित समाज के बाहर या भीतर का व्यक्ति दलित साहित्य के अंदर जारकर्म की सँस्कृति की वकालत नहीं कर सकेगा।दलित समाज के हर व्यक्ति के जाने से समाज दुःखी होता है और शोक करता है,लेकिन आगे से दलित समाज को जार-जारिणियों के मरने पर शोक नहीं करेगा।"
आशा है, इससे कंवल भारती के मंडली के लोग सबक लेंगे! सूरजपाल चौहान 'जारकर्म' की समस्या से जुझे थे। घर के अंदर उनकी जारणी पत्नी उन का शोषण करती रही और घर के बाहर रमणिका गुप्ता। वे जब आजीवक चिन्तन से वाकिफ हुए तब उन की चेतना सजग हुई और वे मुक्ति के लिए संघर्ष किये। रमणिका गुप्ता द्वारा हुए उपयोग का उन्होंने खुलासा अपने एक खत में किया है। जिस को मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं -
आदरणीय डॉ. धर्मवीर जी को उनकी मृत्यु के बाद अठाहरवां पत्र
आदरणीय डॉ. धर्मवीर जी,
सादर जय भीम!
सर,
रमणिका गुप्ता ने वर्ष 2007 में अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी' का एक अंक 'स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण' विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया था। इसकी भूमिका 'खरी-खरी बात' में उसने मेरे दो दोहों से अपनी शुरुआत की थी, दोहे इस प्रकार से हैं :
छली प्रपंची तू बड़ा, है कपटी मक्कार।
महायुद्ध के नाम पे, अपनों से ही रार।।
दूसरा दोहा है-
पावन 'बुधिया' चरित को, ठीक-ठीक तू जांच।
जारकर्म की आड़ में, नंगा हो मत नाच।।
सर, यह दोनों दोहे मैंने अन्य दोस्तों के साथ रमणिका फाउंडेशन में हुई गोष्ठी में पढ़े थे, लेकिन रमणिका गुप्ता की धूर्तता देखिए, उसने इन दोनों दोहों को एक साथ मिला दिया और यह अफवाह उड़ा दी कि मैंने यह दोहे डॉ. धर्मवीर के संदर्भ में पढ़े थे।
यह सरासर गलत है, इसमें से पहला दोहा मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि के संदर्भ में पढ़ा गया था, जिस से चिढ़कर हेमलता महिश्वर ने मुझसे यह कहकर संवाद बंद कर दिया था कि 'इतने बड़े दलित साहित्यकार के विरोध में आपने यह दोहा क्यों लिखा।' उन दिनों मेरा ओमप्रकाश वाल्मीकि जी से मोहभंग हो चुका था।
मेरी आत्मकथा 'तिरस्कृत' को लेकर वह जगह-जगह विरोध करने में लगे थे। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन से उनका यह कहना कि 'तिरस्कृत' का कहीं वह किसी पत्रिका या समाचार पत्र में जिक्र ना करे, इससे उनकी आत्मकथा 'जूठन' पर विपरीत असर पड़ सकता है। उन्हीं दिनों प्रो. वीर भारत तलवार जी द्वारा 'युद्धरत आम आदमी' के एक अंक में इतना भर लिख देने से कि ''तिरस्कृत' आत्मकथा 'जूठन' से एक कदम आगे बढ़ कर बात करती है।' इसी से बौखला कर वाल्मीकि जी देहरादून से नई दिल्ली, जेएनयू मैं प्रो. तलवार जी से विरोध करने पहुंच गए थे।
इन सभी कारणों की वजह से मेरा ओमप्रकाश वाल्मीकि से मोह भंग हो चुका था। उन्हीं दिनों वह मुझे आपके व्यक्तित्व और कृतित्व के विरोध में भड़काने में भी लगे हुए थे। वह मुझे जब भी मिलते तभी आपको अंबेडकर विरोधी व स्त्री विरोधी बताते। आपके और आपके विचारों की लड़ाई की तनातनी में उन्होंने मुझे दो लाइन का पोस्ट कार्ड भी लिखा था, 'चौहान जी, मैं डॉ. धर्मवीर और उनकी विचारधारा के विरुद्ध एक महायुद्ध लड़ रहा हूं, आपको इस युद्ध में मेरा साथ देना चाहिए।'
मैं उनका पोस्टकार्ड पढ़कर हैरान रह गया था। उसी समय यह दोहा बन पड़ा था, 'छली प्रपंची तू बड़ा, है कपटी मक्कार। महायुद्ध के नाम पे, अपनों से ही रार।।' लेकिन रमणिका गुप्ता ने अपने संपादकीय में इस का पाठ से कुपाठ कर डाला।
इसी प्रकार रत्न कुमार सांभरिया द्वारा भेजे गए पोस्टकार्ड दिनांक 25 अप्रैल, 2005 के साथ ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने दो पंक्तियों की टिप्पणी 6 जून, 2005 को मुझे भेजी थी, इस संदर्भ में 'सूरजपाल चौहान का पत्र साहित्य' के पृष्ठों 66-67 पर विस्तार से चर्चा की गई है।
ऐसे ही दूसरा दूसरा दोहा 'पावन 'बुधिया' चरित को, ठीक-ठीक तू जांच। जारकर्म की आड़ में, नंगा हो मत नाच।।' मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' की पात्रा बुधिया पर सामंत के मुंशी की मनोदशा को लेकर लिखा गया है, लेकिन अब रमणिका गुप्ता की सोच पर क्या कहा जा सकता है। उसने दोनों दोनों के पाठ का कुपाठ ही कर डाला। वैसे यह दोनों दोहे 'बहुरि नहीं आवना' पत्रिका के एक अंक में भी प्रकाशित किए हैं। तो अब इन दोहों को लेकर किसी की भी बेचैनी समझ से परे है!
दरअसल मेरे पत्रों से बौखला कर कुछ दलित लेखक- लेखिकाएं उल- जुलूल हरकतों पर उतर आए हैं, कवि दिनकर जी की यह पंक्तियां इस संदर्भ में प्रासंगिक हो उठती हैं, 'जब नाश मनुष्य पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।' यही हाल इस समय डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन का है। गुरु का अनादर करना किसी विनाश से कम नहीं है। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि इन्हें सद्बुद्धि प्रदान करे।
यह भी देखने और सुनने में आ रहा है कि 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव जी को मेरा लिखा एक पत्र, जो कि मैंने उन्हीं दिनों मूल रूप में यादव जी को भेज दिया था, जिसे मैंने 'हंस' के दलित विशेषांक के अतिथि संपादक डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन का विरोध प्रकट करते हुए लिखा था। यह पत्र भी 'हंस' के एक अंक में पहले ही प्रकाशित हो चुका है। सद्य प्रकाशित पुस्तक 'सूरजपाल चौहान का पत्र साहित्य' में पृष्ठ 78-79 पर इस के संदर्भ में विस्तार से चर्चा की गई है।
बेचैन को पहले यह पत्र पढ़ लेना चाहिए था। ऐसे ही आपका 12 जून 2007 का मुझे लिखा पत्र और मेरा 15 जून 2007 का आपको लिखा पत्र भी मैंने 'युद्धरत आम आदमी' में मूल रूप में ही भेज दिया था। उसकी कापी रखना मुझे ध्यान नहीं रहा। इन पत्रों को अपनी फेसबुक पर लगा कर बेचैन पता नहीं क्या कहना चाहते हैं! रमणिका गुप्ता से मेरा संवाद रहा है, लेकिन वह किसी से चोरी-छुपे नहीं किया गया है, यह आप भी जानते हैं। सर, अभी इतना ही, शेष फिर।
धन्यवाद।
'जय भंगी जय चमार'
सूरजपाल चौहान
15.9. 2020
मोबाइल : 97111 96855
आजीवक परंपरा में जन्म और मृत्यु 'नियति' के अधीन है। इसपर मनुष्य का नियंत्रण नहीं है। जो जन्म लिये हैं उनको एक न एक दिन मरना ही है। इस बात को हमारे संत महापुरुष पहले ही कह गये हैं।
आजीवक धर्म के महापुरुष रैदास कहते हैं -
"रैदास संसा जीव में, साखी सों विलगाय।
जीवन मरण रहस कूं, साखी कहे समझाया।।"
सूरजपाल चौहान जी, बाबा साहब के बौद्ध धर्मान्तरण से मुक्त हो गये थे। उन्होंने अपनी एक कविता में इसे बड़ी ही बेबाकी के साथ वर्णन किया है। जहाँ धर्मांतरण और अन्तर्जातीय विवाह को वे पहचान का खो जाना मानते हैं।
भगवान बुद्ध की कृपा हो गई है
हिंदुओं की
ऊंच - नीच
और
छुआछूत से
तंग आकर
मैंने -
बौद्ध धर्म अपनाया,
अपनी -
बेटी और बेटे को
खूब पढ़ाया -लिखाया
कर्जा लेकर
उन्हें -
डॉक्टर और इंजीनियर बनाया।
अब
बेटे ने ब्राह्मणी से
और बेटी ने
ठाकुर से ब्याह
रचा लिया है
धीरे-धीरे
खो बैठा हूं, मैं
अपनी -
पहचान और अस्तित्व
सचमुच मुझ पर -
भगवान बुद्ध की कृपा हो गई है।
सूरजपाल चौहान
20.10. 2020
उक्त पत्र और कविता से सूरजपाल चौहान जी के साहित्यिक विकास का मूल्यांकन किया जा सकता है कि - वे क्या थे और उनमें कितनी तड़प थी, अपने समाज और साहित्य के प्रति।
इन्हीं सब बातों के साथ सूरजपाल चौहान जी को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजलि!
18 जून, 2021
संतोष कुमार
लेखक गोरखपुर विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं।
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18/06/2021
कैलाश दहिया
सूरजपाल चौहान जी को याद करते हुए बेहतर लेख।
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