नताशा, देवांगना और आसिफ रिहा हुवे

द कोरस टीम

 

सबको मालूम है कि इनके संदर्भ में ‘अपराध और आतंकी हरकत करने’ वाला आरोप महज एक शासकीय षडयंत्र था, इन युवाओं ने अपने जीवन में कभी किसी से अपमानजनक भाषा में बात भी नहीं की होगी! इनमें कोई पीएचडी करता है और कोई अभी बीए भी पूरा नहीं कर सका है.

इस उम्र के प्रतिभाशाली बच्चों की जिंदगी तबाह करने की शासकीय जिद निश्चय ही हमारे समाज, राजनीति और लोकतंत्र, सबके लिए घातक है. कल्पना कीजिए, ऐसे छात्रों को यूएपीए जैसे दमनकारी कानून में लपेटा गया था.

नताशा नरवाल के पिता दिवंगत महावीर नरवाल को अच्छी तरह मालूम था कि उनकी बेटी को हर हालत में न्याय मिलेगा और वह रिहा होगी.

लेकिन वह पिछले दिनों कोविड संक्रमण का शिकार हो गये और बेटी से मिले बगैर दुनिया से चले गये। उनके जाने के बाद कुछ दिनों के लिए कोर्ट ने नताशा को अंतरिम जमानत दी थी. आज रेगुलर जमानत बाद रिहा कर दिये गये. 

देवांगना कलिता और नताशा, दोनों एक साथ काम करती हैं. सामाजिक कामकाज के लिए उनका एक छोटा सा गु्रप है-पिंजड़ा तोड़ गु्रप जामिया में पढने वाले बीए के छात्र आसिफ को भी नताशा आदि की तरह शासकीय एजेंसियों ने दिल्ली के कुख्यात दंगों में फंसाया था. इन तीनों को जमानत देने का फैसला आज माननीय दिल्ली हाई कोर्ट ने सुनाया. 

मुझे लगता है, भीमा कोरेगाव कांड में फंसाये गये सभी विद्वान और जनपक्षी लोगों के जमानत पर छूटने की प्रक्रिया को अब बल मिलना चाहिए.

प्रख्यात मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज  लेखक गौतम नवलखा, प्रख्यात बुद्धिजीवी प्रो आनंद तेलतुमड़े  और उमर खालिद सहित देश के ऐसे सभी राजनीतिक बंदियों को जल्दी से जल्दी रिहा किया जाना चाहिए.

ऐसे सभी असहमत बुद्धिजीवियों को सिर्फ राजनीतिक कारणों से फंसाया गया और खतरनाक धाराओं के तहत जेल भेजा गया. 

ऐसे प्रतिभाशाली और जनपक्षी लोगों को तरह-तरह के मनगढ़ंत आरोपों में जेल भेजना संविधान और कानून का दुरुपयोग है.

दरअसल, ऐसे निरंकुश शासकीय कदम न सिर्फ लोकतंत्र-विरोधी हैं अपितु राष्ट्रीय छवि और उसके हितों को नुकसान पहुंचाने वाले भी हैं!


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