ताकि लोकतंत्र को बड़ी जेल बनने से बचाया जा सके
प्रियदर्शन'ऐसा लगता है जैसे असहमति को दबाने की अपनी फ़िक्र में, राज्य के दिमाग में वह रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है जो विरोध के संविधान प्रदत्त अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच होती है। अगर इस मानसिकता को बल मिलता है तो यह लोकतंत्र के लिए उदास करने वाला दिन होगा।'

जेएनयू और जामिया के छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं नताशा नरवाल, देवांगना कलीता और आसिफ़ इक़बाल तनहा को ज़मानत देते हुए दिल्ली हाइकोर्ट ने यह जो टिप्पणी की है, वह निश्चय ही कुछ तसल्ली देने वाली है।
अदालत के पूरे फ़ैसले में ऐसी कई टिप्पणियां हैं जिनसे पता चलता है कि इस देश की संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा का दायित्व जिन लोगों पर है, उनमें से कुछ को अब भी अपना संविधान और अपना लोकतंत्र याद है।
लेकिन यह राहत कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकती है? इन तीनों छात्रों का लगभग एक साल जेल में कट गया। वे छात्र और सामाजिक कार्यकर्ता भर नहीं रह गए हैं, एक लापरवाह और सांप्रदायिक मीडिया की निगाह में दंगों के आरोपी हो गए हैं।
दिल्ली पुलिस यह तर्क दे सकती है कि वे अब भी आरोपी हैं, अदालत ने उन्हें बस ज़मानत दी है, आरोपमुक्त नहीं किया है। इसके पहले सफ़ूरा जरगर के भी कई महीने ऐसे ही जेल में कटे- जबकि उनके गर्भ में एक शिशु पल रहा था।
ये लोग कैसे दंगाई हैं? दिल्ली पुलिस ने इन्हें लाठी चलाते, आग लगाते, किसी को मारते नहीं देखा। उसने इनके कुछ भाषण देखे जिनमें विरोध प्रदर्शन की बात थी, हिंसा भडकाने की भी नहीं।
अदालत ने कहा कि पुलिस ने जो 'सबूत' पेश किए हैं, उनमें कहीं भी हिंसा भड़काने की बात नहीं आ रही, ज़्यादा से ज़्यादा विरोध प्रदर्शन और चक्का जाम की आ रही है जिसे आतंकवादी या हिंसक या राष्ट्रविरोधी कार्रवाई नहीं माना जा सकता।
लेकिन दिल्ली पुलिस अपना काम कर चुकी है। उसे मालूम है, केस से जुडे़ इतने ब्योरे किसी को याद नहीं रह जाएंगे, अदालत की ये टिप्पणियां ज़्यादातर लोगों तक पहुंचेंगी ही नहीं, लेकिन सबको यह याद रह जाएगा कि ये लड़कियां आतंकवादी हैं - या कम से कम दंगाई हैं - आरोपी होना या न होना एक तकनीकी बात है जिसे भुला दिया जाएगा।
इसके पहले कभी कन्हैया कुमार और कभी उमर ख़ालिद पर देशद्रोही होने का ऐसा आरोप मढ़ दिया गया कि वह आज तक उनकी पीठ पर कोई भी आता-जाता चस्पां कर सकता है।
यह चुपचाप लोगों की पहचान बदलने का खेल है। सरकार ने अपने नागरिकों को अपराधियों में बदल डाला है। यह काम बिल्कुल सुचिंतित ढंग से किया जा रहा है। जो भी सरकार का विरोध कर रहे हैं, वे अपराधी हैं।
दिल्ली दंगों के मामले को सुविचारित ढंग से नागरिकता संशोधन क़ानून विरोधी आंदोलन से जोड़ा गया। जिन लोगों ने इस क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया, उन्हें दंगाई, नक्सली, अपराधी बना दिया गया।
महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव केस में कई लेखक-बुद्धिजीवी जेल के भीतर हैं। इनमें 80 पार के ऐसे बुज़ुर्ग भी हैं जिनके लिए दैनिक कामकाज निबटाना भी आसान नहीं है, इनमें ऐसी महिलाएं हैं जो गरीबों और आदिवासियों के बीच काम करती रही हैं।
यह एक तरह से डराने-धमकाने का पैटर्न है। स्तब्ध करने वाली बात यह है कि इसमें सिर्फ़ राज्य के तंत्र को ही इस्तेमाल नहीं किया जा रहा, नागरिकों के एक समूह को भी दूसरे समूह के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा रहा है।
भारत में सांप्रदायिक-जातिगत टकरावों का अतीत बहुत पुराना है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान इन टकरावों को पाट कर एक बड़ा भारत गढ़ने की कोशिश की गई। हमारा संविधान हर तरह की पुरानी गैरबराबरी के विरुद्ध एक राष्ट्रीय शपथ पत्र जैसा है।
वह सबके लिए समानता और स्वतंत्रता की गारंटी है क्योंकि संविधाननिर्माताओं को पता था कि अगर यह स्वतंत्रता-समानता आएगी तभी लोकतंत्र जीवित रह पाएगा। लेकिन मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान इस संविधान की भावना को जैसे अंगूठा दिखाने पर तुला है।
यह बहुसंख्यकवादी वर्चस्व वाले एक नए और आक्रामक भारत की रचना कर रहा है जिसमें संविधान और क़ानून महज धार्मिक पुस्तकों जैसे रह जाएं जिनकी पूजा की जानी है, जिन पर अमल नहीं होना है।
जाहिर है, यह काम लोकतांत्रिक और क़ानूनसम्मत दिखते हुए किया जाना है जिसमें लोकतंत्र के लिए ज़रूरी दूसरी संस्थाओं की मदद भी ली जानी है या उन्हें इतना महत्वहीन बना दिया जाना है कि उनकी जगह लोगों को सरकार ही ठीक लगे।
यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में हमने कई संस्थाओं का औपचारिक-अनौपचारिक अवमूल्यन होते देखा है। चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका तक से हमारी शिकायतें बढ़ी हैं।
मीडिया के बडे हिस्से में वह बौद्धिक क्षमता या अपनी स्वतंत्रकता का गुमान ही नहीं बचा है जिसमें वह निर्भीक होकर अपनी बात रख सके। पुलिस तंत्र तो एक तरफ़ बरसों नहीं, दशकों की जड़ता का शिकार है और दूसरी तरफ़ राजनीतिक नेतृत्व के लठैतों की तरह बरताव करने को अपना कर्तव्य मानता है।
और राजनैतिक नेतृत्व को भी संवैधानिक तरीक़ों से ज़्यादा सामंती तरीक़े रास आते हैं- इससे क़ानून-व्यवस्था पर ही नहीं, विरोधियों पर भी अंकुश रखने का भरोसा बना रहता है। यूपी में पिछले चार वर्षों में जैसे पुलिस-मुठभेड़ की एक संस्कृति सी बन गई है और इसके बावजूद एक भयावह अफ़रातफ़री जारी है।
इसी व्यवस्था या अव्यवस्था की कोख से वह न्याय या अन्याय निकलता है जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता और छात्र दंगाई और अपराधी घोषित कर दिए जाते हैं। वे महीनों तक जेलों में पड़े रहते हैं, उनकी सुनवाई तक नहीं होती।
ऐसे में एक अदालत अगर याद दिलाती है कि इस देश के क़ानूनों का कोई मतलब है, कि हर किसी पर आप यूएपीए नहीं लगा सकते, कि चक्का जाम या विरोध प्रदर्शन का मतलब हिंसा या आतंकवादी गतिविधि नहीं है तो बेशक वह नागरिक समाज के लिए एक बड़ी उम्मीद बनती है।
लेकिन इस उम्मीद के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं- यह भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदलने में लगी ताकतें बता रही हैं और फिलहाल वे सत्ता में हैं। इसलिए देवांगना कलीता या नताशा नरवाल या आसिफ़ इक़बाल तनहा की लड़ाई अभी बहुत लंबी है। वह इस देश के लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई भी है। ये छोटी-छोटी जेलें तब खड़ी होती हैं जब लोकतंत्र को बड़ी जेल बनाने की कोशिश होती है।
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