छतीसगढ़ के बस्तर जिले के सिलगेर में आदिवासियों के आंदोलन पर किसान मोर्चे की चुप्पी
किसान आंदोलन के नेताओं को खुला पत्र
उदय चेविपरीत परिस्थितियों में बन्दूको की संगीनों के सामने वो लगातार 28 दिन मजबूती से डटे रहे। सत्ता ने उस पूरे इलाके को ही सील कर दिया बाहर के किसी भी व्यक्ति को वहां जाने की इजाजत नहीं दी गयी। 28 दिन के लंबे संघर्ष के बाद आदिवासी वापस लौट गए। जाते हुए वो ये मजबूत निर्णय लेकर साथ गए है कि वो फासीवादी सत्ता का, उसकी लुटेरी मण्डली का मुँह तोड़ जवाब देंगे। वो निर्णय लेकर गए है कि महान शहीद बिरसा मुंडा के सपनो का मुल्क बनाने के लिए वो आखिरी सांस व खून के आखिरी कतरे तक लड़ेंगे।

मेरे प्रिय किसान नेताओं,
आप सभी पिछले 8 महीनों से पंजाब में व 6 महीनों से ज्यादा दिल्ली की सरहदों पर ऐतिहासिक किसान आंदोलन फासीवादी सत्ता के खिलाफ मजबूती से चलाये हुए हो। इसके लिए आप सभी को क्रांतिकारी सलाम करता हूँ।
इन 6 महीनों में किसान आंदोलन ने बहुत से उतार-चढ़ाव, सर्दी-गर्मी, लाठी-गोली, जेल की यातनाये सब देखी है। आपको इस दौरान सत्ता व गोदी मीडिया द्वारा आंतकवादी, खालिस्तानी, माओवादी, टुकड़खोर, दारूबाज, देशद्रोही क्या-क्या नही कहा गया।
लेकिन आपकी रणनीति ने सत्ता के षड्यंत्र को दरकिनार करते हुए, आंदोलन ने दिल्ली की सरहदों पर 6 महीने सफलतापूर्वक पूरे किए। इन 6 महीनों में आंदोलन ने बहुत उपलब्धियां अर्जित की, पूरे विश्व में किसान आंदोलन ने अपनी छाप छोड़ी। पूरे विश्व को आपके आंदोलन ने दिखाया कि भारत का किसान भी लड़ सकता है।
"आपके इस आंदोलन ने भारतीय सत्ता के उस अश्मेघ यज्ञ के उस घोड़े को रोकने का काम किया जो इस देश के संविधान को रोंधते हुए हिन्दू राष्ट्र बनाने की तरफ बढ़ रहा था। आज के इस आंदोलन ने कार्पोरेट को भी नँगा करने का काम किया।"
लेकिन फिर भी जब हम 6 महीने के सफर का मूल्यांकन करते है तो बहुत सी कमियाँ हमको नजर आती है। ऐसी कमियां जिन पर सयुंक्त किसान मोर्चे ने काम करने की जरूरत थी। ऐसे मुद्दे जो किसान मोर्चे के प्राथमिकता में होने चाहिए थे। लेकिन ये गलती जाने-अनजाने में हुई या जान बूझकर हुई ये आप सब बेहतर बता सकते हो।
किसान मोर्चे की पहली गलती मजदूरों की मुख्य मांग सरकारी जमीन का मजदूरों में वितरण हो। ये मांग भुल कर भी संयुक्त मोर्चा अपनी जबान पर लेकर नहीं आया। जबकि सयुंक्त मोर्चा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिसों को लागू करने की मांग करता रहा है। ये ही स्वामीनाथन आयोग अपनी सिफारिसों में साफ-साफ कहता है कि प्रत्येक भूमिहीन को कम से कम 1 एकड़ जमीन जरूर दी जाए।
हरियाणा जैसे छोटे से राज्य में 8,44,246 एकड़ जमीन पंचायतों के पास है। 2011 की जनगणना के अनुसार खेतिहर भूमिहीनों की संख्या 12 लाख है। पंचायतों की जमीन के वितरण से भूमिहीनों के बड़े हिस्से को तुरंत एक-एक एकड़ जमीन दी जा सकती है। इसके बाद मंदिर, मठो, डेरो के पास 2015'6 की कृषि गणना के अनुशार 3,79,982 एकड़ जमीन इन संस्थानों के पास पास है। इनकी जमीनों को भी खेतिहर भूमिहीनों में बांटा जा सकता है।
इन जमीनों को भूमिहीनों में बांटने से किसी को नुकसान नहीं होता है इसलिए किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए और न ही किसी को विरोध करना चाहिये। वैसे भी हरियाणा सरकार पंचायत की जमीन को कानून बना कर पूंजीपतियों को देने जा रही है। पूंजीपतियों को मिलने की बजाए भूमिहीनों को वो जमीन मिल जाये तो किसी को क्यों आपत्ति हो। आपकी मजदूरों की इस मुख्य मांग पर चुप्पी के कारण मजदूर इस आंदोलन में शामिल नहीं हुआ। खेतिहर भूमिहीनों को भी इस आंदोलन के मंचो, धरनों, प्रदर्शनों में बिना झिझक इस मांग को मजबूती से उठाना चाहिए।
दूसरी सबसे बड़ी गलती महिलाओ की सुरक्षा के लिए इतने बड़े आंदोलन में कोई भी कमेटी नही बनाई गई। अगर किसी महिला को आंदोलन में कोई भी समस्या आ जाये तो उसके पास कोई उचित प्लेटफार्म है ही नहीं जहां वो अपनी शिकायत दर्ज करवा सके। शिकायत आने के बाद उस पर कोई जांच हो सके व समय रहते उचित कार्यवाही हो सके। लेकिन ऐसी कमेटी नहीं बनाई गई।
अगर किसान मोर्चे ने कोई उचित प्लेटफार्म बनाया होता तो बंगाल की लड़की के साथ अमानवीय घटना नही घटती और न ही खाप पंचायते आरोपियों के पक्ष में पंचायते करने की हिम्मत करती।
तीसरी गलती नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) व National Register of Citizenship (NRC) जैसे जन विरोधी, धर्मनिरपेक्षता विरोधी, मुस्लिम विरोधी कानूनों पर आपने कोई स्पष्ठ रुख अख्तियार नही किया। आपके स्पष्ठ रुख अख्तियार न करने के चलते ही एक बहुत बड़ा वर्ग जो CAA/NRC आंदोलन में सत्ता के खिलाफ मजबूती से लड़ रहा था वो किसान आंदोलन का हिस्सा नही बन सका।
होना तो ये चाहिए था कि आप मजदूरों की मुख्य मांग उठा कर व CAA/NRC पर अपना पक्ष रखकर सत्ता के खिलाफ व्यापक जन लाम्बन्धी कर सकते थे लेकिन आपने ये सब नही किया। ये किसान आंदोलन की सबसे बड़ी रणनीतिक असफलता रही है।
राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग आपने एक बार जरूर उठाई लेकिन जैसे ही सत्ता व गोदी मीडिया ने आपके इस फैसले पर सवाल उठाना शुरू किया आप डर गए। बहुत से नेता तो राजनीतिक बंदियों के खिलाफ ही बयान देने लग गए। उसके बाद कभी मोर्चे ने सपने में भी राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग नहीं उठाई।
अब मै आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं आदिवासियों के ऐतिहासिक आंदोलन की तरफ जो पिछले 28 दिन से चल रहा था। छतीसगढ़ के बस्तर जिले के सिलगेर में, भारतीय फासीवादी सत्ता ने सिलगेर में सी.आर.पी.एफ का कैम्प खोल दिया। इस कैंप के लिए स्थानीय आदिवासियों से कोई बातचीत नहीं की गई जबकि संविधान आदिवासियों को ये अधिकार देता है कि उनकी इजाजत के बिना उनके इलाके में कोई भी जमीन अधिग्रहण नहीं की जा सकती है।
लेकिन फासीवादी सत्ता जल-जंगल-जमीन को लुटेरे पूंजीपति को लूटने की खुली छूट देने व लूट का विरोध आदिवासी करे तो उनका दमन करने के लिये, उनकी विरोध की आवाज को कुचलने के लिए आदिवासी इलाकों में संविधान की परवाह किये बिना जगह-जगह सी.आर.पी.एफ कैंप बना रही है। ऐसा ही एक सी.आर.पी.एफ कैंप सिलगेर में बनाया गया जिसका विरोध वहां के आदिवासियों ने एकजुट होकर किया।
आदिवासियों ने इस कैंप के खिलाफ 12 मई से आंदोलन शुरू किया। सत्ता के इशारे पर सी.आर.पी.एफ के जवानों ने 17 मई को निहत्थे आदिवासियों पर गोलियों की बौछार की जिसमें 3 आदिवासी शहीद हो गए व अनेको घायल हुए। एक गर्भवती महिला भगदड़ में शहीद हुई। इस घटना के विरोध में पिछले 28 दिन से 40 हजार के आस-पास आदिवासी उस जगह पर धरना दिए हुए थे। इन 28 दिनों में लगातार बारिश भी आती रही।
लेकिन किसान मोर्चा इस आंदोलन व सत्ता द्वारा कत्ल किये गए आदिवासियों पर चुप्प रहा। मोर्चे की चुप्पी से साफ-साफ गैर ईमानदारी दिखती है। किसान मोर्चा बंगाल में सत्ता का विरोध करने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां करने जा सकता है। लेकिन छतीसगढ़ में जाना तो दूर उस तरफ मुँह करके भी नही सोता है। ऐसा क्यों?
"आप मजदूरों की मुख्य मांग पर चुप हो, CAA/NRC पर चुप हो, सत्ता के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक बंदियों पर चुप हो, आदिवासियों के आंदोलन पर चुप हो। 26 जनवरी किसान पैरेड के दौरान लाल किले पर जाते हुए पुलिस की गोली से शहीद हुए नौजवान किसान को शहीद मानना तो दूर उसका नाम लेने से किसान मोर्चा परहेज कर रहा है। आखिर ऐसा क्यों?
अगर आदिवासियों के 28 दिन के आंदोलन की तुलना आपके 6 महीने के आंदोलन से की जाए तो आपका किसान आंदोलन आदिवासियों के आंदोलन के सामने बौना दिखाई देता है।
आपके 6 महीने के आंदोलन में 100 करोड़ से भी ज्यादा पैसा आप खर्च कर चुके हो। आंदोलन के सभी धरना स्थलों पर आपके पास अच्छे टेंट है, कपड़े धोने की मशीन है, बड़े लंगरों में रोटी बनाने की मशीन है, खाने के लिए अच्छे से अच्छा खाना है, एक से बढ़कर एक मिठाई है।
गर्मी से बचने के लिए कूलर से लेकर एयर कंडीश्नर है। आपके तम्बुओं में सभी सुविधाएं है। सरहद से घर आने-जाने के लिए ट्रैक्टर से लेकर लग्जरी गाड़ी है। सरहद से घर तक बीच रास्ते मे जगह-जगह खाने व ठहरने की उचित व्यवस्था है।
दूसरी तरफ अगर हम आदिवासियों के 28 दिन के इस आंदोलन की संसाधनों से समीक्षा करे तो जमीन-आसमान का अंतर देखने को मिलेगा।
आदिवासियों के पास खाने के तौर पर चावल है जिनमे कंकड़ की मात्रा चावल से ज्यादा होती है। लक्जरी गाड़ी तो उन्होंने सपनो में भी नही देखी होगी। उनके पास तो साइकिल भी नही है। पांव में न चप्पल है न तन ढकने के लिए पूरा कपड़ा है। आंदोलन की जगह पर बारिस व गर्मी से बचने के लिए उन्होंने पेड़ो के नीचे आसरा लिया हुआ था या अस्थाई पत्तो-टहनियों से सर ढकने का प्रबंध किया हुआ था। उनके पास न कूलर न एयर कंडीश्नर न पंखे है।
उनके पास अगर कुछ है तो वो है सत्ता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ने का जज्बा, ईमानदारी, सच्चाई, साफगोई, एकता, सबको साथ लेकर चलने की नीति उनकी ये ही असली ताकत है। उनकी इसी एकता के कारण 40 गांव के मजदूर व किसान बराबर शामिल है। महिलाओं की संख्या आधे से ज्यादा ही है कम नहीं है।
इन सब विपरीत परिस्थितियों में बन्दूको की संगीनों के सामने वो लगातार 28 दिन मजबूती से डटे रहे। सत्ता ने उस पूरे इलाके को ही सील कर दिया बाहर के किसी भी व्यक्ति को वहां जाने की इजाजत नहीं दी गयी।
28 दिन के लंबे संघर्ष के बाद आदिवासी वापस लौट गए। जाते हुए वो ये मजबूत निर्णय लेकर साथ गए है कि वो फासीवादी सत्ता का, उसकी लुटेरी मण्डली का मुँह तोड़ जवाब देंगे। वो निर्णय लेकर गए है कि महान शहीद बिरसा मुंडा के सपनो का मुल्क बनाने के लिए वो आखिरी सांस व खून के आखिरी कतरे तक लड़ेंगे।
जिस तरह से सत्ता, विपक्षी पार्टियां, किसान आंदोलन ने आदिवासियों के इस महान आंदोलन पर चुप्पी बनाई है। अब आप कल को ये मत चिल्लाना की आदिवासियों ने हथियार उठाये हुए है। ये आरोप भी आप मत लगा देना की आदिवासियों का शांति व लोकतंत्र में विश्वास नही है। छतीसगढ़ की सत्ता सलवा झडुम 2 की शुरुआत कर चुकी है।
वो आये थे शांति से अपने अधिकारों के लिए लड़ने, लेकिन सत्ता ने उनको शांति से लड़ने का पुरस्कार उनके 4 साथियों को मार कर दिया। उसके बाद भी आदिवासियों ने धर्य नही खोया वो बैठे रहे गर्मी, बारिश, आंधी-तूफान में इंसाफ के लिए लेकिन विपक्ष चुप रहा।
छतीसगढ़ में जो विपक्ष है वो केंद्र में सत्ता में है जो केंद्र में विपक्ष है वो छतीसगढ़ की सत्ता में है।
इसलिए वो देख रहे थे किसान आंदोलन के अगुआ नेताओ की तरफ, सिविल सोसाइटी की तरफ, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, नाटककारों की तरफ की वो उनके आंदोलन के पक्ष में आवाज उठाएंगे।
उनके आंदोलन को समर्थन देने के लिए पूरे मुल्क में लड़ने का एलान करेगे। लेकिन आपकी चुप्पी ने उनकी ये उम्मीद भी तोड़ दी। सत्ता, विपक्ष व किसान आंदोलन ने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया है जैसे वो आपके मुल्क के नागरिक ही न हो।
अब वो अपना भविष्य खुद चुनेगें, अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे जैसे महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ने लड़ी थी। फासीवादी सत्ता, नकारा विपक्ष व ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने आदिवासियों को अपनी सुरक्षा, अपने जल-जंगल-जमीन, पहाड़ की सुरक्षा के लिए सायद हथियार उठाने के लिए मजबूर कर दिया है।
संयुक्त किसान मोर्चा के सभी नेताओं से मेरी अपील है कि आप लेट नहीं हुए हो अब भी आपके पास समय है। आपकी ये लड़ाई साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ है।
ये ताकते जो आपकी जमीन, आपके गांव, आपके मुल्क तक को हड़पना चाहती है। ये ही ताकते पिछले लंबे समय से मुल्क के जंगलों, पहाड़ो, खानों, जमीनों सब को हड़पने के लिए आदिवासियों का खून बहा रही है। उनके गांव के गांव को जला रही है। महिलाओं से बलात्कार कर रही है। बच्चों की तस्करी कर रही है।
आज वहां जो सब हो रहा है कल आपके यहाँ भी वो सब होगा। आपकी जमीन व गांव छीनने के लिए ऐसे ही सैनिक कैंप बनेंगे। इसलिए अब भी समय है इस लड़ाई को मजबूत करने के लिए मजदूरों, आदिवासियों, को अपने खेमे में लाने के लिए मोर्चे को ईमानदारी से प्रयास करना चाहिये।
CAA/NRC जैसे जनविरोधी कानूनों के खिलाफ मजबूत पक्ष लेकर मुल्क के बड़े तबके को साथ ले सकते है। ये लड़ाई बहुमत मेहनतकश जनता को साथ लेकर ही जीती जा सकती है।
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