कांग्रेस की कहानी 

कॉंग्रेस पर विवेचना कर रहे हैं जाने माने राजनीतज्ञ और लेखक प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि 

 

2014 से वह केंद्रीय स्तर पर सत्ता से तो बाहर है ही, प्रांतों में भी उसकी सरकारें एक -एक कर टूट - बिखर रही हैं। पिछले दिनों पांच राज्यों में विधानसभाई चुनाव हुए। कहीं भी कांग्रेस ने उल्लेखनीय नहीं किया। यदि किया भी तो नकारात्मक। जैसे बंगाल में शून्य हो जाना। 
ऐसे में मुझ जैसे भारत के आम लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कांग्रेस धीरे - धीरे सचमुच  विनष्ट हो जाएगी? मुझे अनुभव होता है - नहीं।  

मैंने इस पर अपने तरीकों से सोचा है।  संभव है मेरी सोच और मेरा अनुमान गलत हो। लेकिन इसे साझा करना गलत नहीं होना चाहिए। 
कांग्रेस के इतिहास पर हम एक विहंगम यानि उड़ती नजर ही डालें।

1883 में एक अंग्रेज अधिकारी Allan Octavian Hume कोलकाता के स्नातकों के नाम एक खुला - पत्र लिखता है, जिसमें वह  एक ऐसे संगठन की जरुरत बतलाता है, जो अंग्रेजी राज और भारत के प्रतिनिधि तबके के बीच संवाद का माध्यम बन सके। दो वर्ष बाद 1885 में मुंबई में 28 से 31 दिसम्बर के बीच कुल बहत्तर (72 ) प्रतिनिधियों की एक सभा होती है और इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना  का निर्णय ले लिया जाता है।

उमेश चंद्र बनर्जी  इसके प्रथम अध्यक्ष चुने जाते हैं। दादा  भाई नवरोजी और दिनेश वाचा  जैसे लोग इसके संस्थापक सदस्य थे। अगली दफा के सालाना जलसे में बाल गंगाधर तिलक और महादेव गोविन्द  रानाडे भी जुड़ते   हैं। 

दस साल के भीतर ही इस संगठन में वर्चस्व को लेकर झगड़ा शुरू गया था। आंबेडकर ने अपनी प्रसिद्ध किताब What Congress  and Gandhi  have  done  to  the  untouchables का आरम्भ ही 1895 के पुणे कांग्रेस  के उस वाकये से किया है, जिसमें पिछड़े तबकों की समस्याओं  पर विमर्श करने वाली  संस्था सोशल  कॉन्फ्रेंस  की बैठक कांग्रेस - मंच से करने पर तिलक द्वारा पाबंदी लगा दी गयी।

बीसवीं सदी के आरंभिक दशक में नरम पंथ और गरम पंथ का झगड़ा चला और 1906 में जूतम - पैजार के बाद गरम पंथियों को कांग्रेस से निकाल दिया गया। इसके नेता तिलक थे। हालांकि,  कई वर्षों के बाद एक बार फिर दोनों पंथ मिलते हैं। 

1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत आते हैं और कांग्रेस से जुड़ते हैं। 1909 में लिखी उनकी किताब "हिन्द स्वराज"  में उस समय  के भारतीय लोकमानस की एक झलक मिलती है। 1917 में गांधी चम्पारण के किसान आंदोलन को संयोजित करते हैं और 1920 से कांग्रेस उनके नेतृत्व में आ जाती है।

गाँधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस किसानों, कामगारों और जनसामान्य से पहली दफा जुड़ती है।  इसके पहले वह कायदे से इस्तरी किये पहनावे पहने वकीलों की एक ऐसी पार्टी थी, जो निष्प्राण थी। कांग्रेस मुख्यतः वकीलों और ज़मींदारों की एक महासभा थी, जिसके सालाना अधिवेशन बड़े लोगों की पिकनिक पार्टियों की तरह होते थे। इसका अनुभव जवाहरलाल नेहरू ने  1912 के बांकीपुर (पटना ) अधिवेशन में किया था।

अपनी आत्मकथा में इस अनुभव को उन्होंने तल्खी के साथ व्यक्त किया है । 1917 में गाँधी जब चम्पारण आए, तब भी कांग्रेस के बारे में कुछ ऐसा ही अनुभव किया था। गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस का मेटामॉर्फोसिस अथवा  कायाकल्प हुआ। उन्होंने उसे जमीन पर उतारने की संभव कोशिश की। इस कोशिश में कुछ दकियानूसी फैसले भी लिए गए। रामराज का सपना और खिलाफत आंदोलन का समर्थन कुछ ऐसे ही फैसले थे।

लेकिन कांग्रेस को अहदियों - आलसियों और गपोड़ों  - बहसबाजों की दुनिया से कुछ हद तक वह बाहर ला सके। कांग्रेस सदस्यों के लिए सूत कातना आवश्यक कर के गाँधी ने कांग्रेस में शामिल बड़े लोगों को भी आंशिक ही सही, मिहनतक़श बना दिया था। मार्क्सवादी अर्थों में यह उनका डिक्लास होना था। मोतीलाल  नेहरू, पटेल, राजा जी सब के सब एकबारगी बुनकर -जुलाहा  बन गए।

खादी का सूत राष्ट्रीयता की नयी पहचान बन गयी। यह मिहनत की संस्कृति का पुनर्निर्माण था, जिस पर मध्ययुगीन  भक्ति आंदोलन ने जोर दिया था। लेकिन इसी वक़्त खिलाफत आंदोलन के चक्कर में पड़ना गाँधी और उससे अधिक देश के लिए आत्मघाती हुआ। कई दूसरे मुद्दों पर भी कांग्रेस के भीतर मतभेद थे। नतीजतन 1923 में मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास और एनी बेसेंट कांग्रेस से टूट कर स्वराज पार्टी बनाते हैं।  

लेकिन फिर सब वापस आते हैं। 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू बनते हैं।  तब वह चालीस की उम्र के थे। 1930 के 26 जनवरी को पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को अपनाया जाता है और औपनिवेशिक सत्ता के होते स्वशासन की जगह पूरी आज़ादी कांग्रेस का लक्ष्य हो जाता है। 1934 में युवा समाजवादियों का एक मोर्चा या मंच कांग्रेस के भीतर ही बन जाता है। 1938 आते - आते कांग्रेस के भीतर उस तरह की खींच - तान एक दफा फिर दिखती है, जैसी 1906 में नरम और गरम ( मॉडरेट और रेडिकल ) के बीच हुई थी।  

इस बार मुकाबला जोरदार होता है। 1939 में दक्षिणपंथी ग्रुप को वामपंथी ग्रुप तगड़े बहुमत से पराजित करता है। यह लड़ाई सुभाष बोस और पट्टाभि सीतारमैय्या के बीच में हुई थी। सीतारमैय्या को गाँधी का खुला समर्थन था।  इस लड़ाई के बाद क्या हुआ, सार्वजिक हो चुका है। गाँधी कांग्रेस के मेंबर भी नहीं थे, लेकिन कांग्रेस में उनकी ही चलती थी। सुभाष बोस चुनाव जीत कर भी कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर हो गए थे। आज़ादी के पहले तक कांग्रेस की मुख्य उठा - पटक यही थी।  

कांग्रेस के आरंभिक इतिहास के दो - तीन तथ्यों पर हमें ध्यान देना चाहिए। 1920 से पूर्व कांग्रेस के कद्दावर नेता तिलक थे। वे जीतें या हारें; और उनके विचार चाहे जो हों, कांग्रेस का मतलब तिलक था। 1920 से कांग्रेस गाँधी की हो गयी और वह तब तक रही, जब तक नेहरू प्रधानमंत्री नहीं हो गए। नेहरू के प्रधानमंत्री होने के बाद कांग्रेस का मतलब था नेहरू। जो नेहरू के साथ नहीं था, वह कांग्रेस में भी नहीं टिक सका।  फिर इंदिरा गाँधी का जमाना आया। दो बार इंदिरा को कांग्रेस से लगभग बहिष्कृत ही कर दिया गया।  

पहली दफा जुलाई 1970 में जब उनके राष्ट्रपति उम्मीदवार के प्रस्ताव को उनकी ही पार्टी ने निरस्त कर दिया।  ( इंदिरा ने जगजीवन राम का प्रस्ताव किया था, सिंडिकेट ने संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बना दिया )। दूसरी दफा 1978 - 79  में देवराज अर्स के नेतृत्व में कांग्रेस दो फाड़ हो गयी। इन दोनों बार कांग्रेस कमजोर स्थिति में थी।

1978 - 79 में तो कांग्रेस सत्ता में भी नहीं थी। इंदिरा गाँधी मुकदमे, गिरफ्तारी और संसद की सदस्यता गँवाने जैसी कार्रवाइयों से परेशान - हाल थी। लेकिन कांग्रेस वहाँ रही, जहां इंदिरा रही। इन सब का राज आखिर क्या है? 

1990 के दशक पर अब एक नजर डालें।  मई 1991  में राजीव गाँधी की हत्या हो चुकी थी। चुनाव के बाद नरसिंह राव कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री थे। इनके नेतृत्व में आर्थिक क्षेत्र में नेहरूयुगीन मिश्रित व्यवस्था की सोच को हटा कर उदारवादी नीतियां अपनाई गईं। साल भर बाद अयोध्या में विवादित मस्जिद के ढाँचे को चरमपंथियों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया। इस मामले  में भाजपा की तो हुई ही; कांग्रेस की भी चौतरफा बदनामी हुई।

कहा जाता है, प्रधानमंत्री राव उस रोज दिन में तब तक सोते रहे जब तक मस्जिद ध्वस्त नहीं कर दी गई। इन सब के कारण कांग्रेस कमजोर होती गयी। 1991 तक 244 सीटें लाने वाली कांग्रेस 1996 और 1998  में 140 और 141 पर अटकी रह गयी। ऐसे में एक बार फिर एक करिश्माई नेता की बात उठी और लौट कर लोग एक बार फिर उस पुराने घराने के पास आये।

सोनिया से राजीव की मौत के बाद ही कांग्रेस की कमान संभालने का आग्रह किया गया था; लेकिन उन्होंने मजबूती से मना कर दिया था। लेकिन इस बार उन्हें तैयार किया गया। सोनिया ने कोई सत्ता नहीं हासिल की थी, काँटों का ताज संभाला था। कांग्रेस निष्प्राण थी। लोग उसकी आखिरी सांसें गिन रहे थे। मरने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। एक मृतप्राय पार्टी का नेतृत्व उन्होंने लिया था।  

1999 के लोकसभा चुनाव में तो पारा और नीचे उत्तर गया जब कांग्रेस को सिर्फ 114 सीटें मिली। सोनिया के नेतृत्व में यह पहला चुनाव था। लेकिन सोनिया ने सधे कदमों से अपनी राजनीति कायम रखी। उन्होंने क्षेत्रीय दलों और वामपक्ष से कांग्रेस का एक समन्वय किया। 2004 में सोनिया के समन्वय  का थोड़ा कमाल जरूर दिखा।  

सीटें तो भाजपा से केवल सात अधिक थी  (145 सीटें कांग्रेस की थी और 138 भाजपा की ),  लेकिन तालमेल और कूटनीति के तहत अटल बिहारी सरकार को हटा देना एक बड़ी बात थी, जो सोनिया ने कर दिखाया था। इससे यह पता चलता है कि इस देश का राजनीतिक चरित्र क्या है। जनतांत्रिक ढाँचे के बीच एक देवत्व (करिश्माई व्यक्तित्व या आस्था) इसे शायद चाहिए। यह न केवल कांग्रेस बल्कि किसी भी भारतीय राजनीतिक दल को चाहिए। जब यह नहीं होता है,  तब उसका सत्ता में आना असंभव हो जाता है।  

जनता अपने इन देवताओं को हटाना भी जानती है। जैसे इंदिरा और राजीव, वीपी, अटल या फिर सोनिया को हटाया। लेकिन उसे हर हाल में एक देवता चाहिए। उसे हाथ जोड़ने के लिए एक गोबर का गणेश ही सही लेकिन चाहिए। 2009 में कांग्रेस 206 और भाजपा 116 पर आ गयी। सात सीटों का फासला बढ़ कर नब्बे का हो गया। कांग्रेस को और आगे बढ़ना था, लेकिन अचानक  वह फिसल गयी। उसे नए विचारों और खून की जरुरत थी।  

उस पर दलाल हावी होने लगे। कांग्रेस चौतरफा सुस्त हो गयी थी और भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्रीय कमान सौंप दी। यह एक प्रयोग था, जो आरएसएस  कर रहा था।  दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे चलने की राजनीति। अपनी रणनीति के मामले में मोदी ने जाने -अनजाने 1970  - 71के इंदिरा गाँधी की नकल की, फिर अपनी ही पार्टी के उस कल्याण सिंह का भी अनुसरण किया, जिसे अटलबिहारी ने घर बैठा दिया था।

नतीजा हुआ 2014 में मोदी ने आश्चर्यजनक रूप से दिल्ली की सत्ता हासिल कर ली।  भाजपा का पूर्ण बहुमत के साथ आना कांग्रेस की नाकामी का नतीजा था। यह क्यों हुआ? कांग्रेस 206 से अचानक 44 पर क्यों चली आई? कांग्रेस इस वक्त कुछ गरूर में चली गयी।  राहुल गांधी को नेता के रूप में खड़ा किया गया। उन्होंने अपने इर्द - गिर्द जो टीम बनाई, वह राजसी किस्म का था।  

अंग्रेजीदां, चिकने - चुपड़े चेहरे और खानदानी पृष्ठभूमि। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, गुलाम नवी आज़ाद, कपिल सिब्बल, सचिन, जितिन प्रसाद जैसे चेहरे कांग्रेस के लिए भार के सिवा कुछ नहीं हैं। इसमें ज्योतिरादित्य और जितिन तो अलग हो चुके और सचिन भी हो सकते हैं।  

हम यह कहने की स्थिति में है कि राजस्थान में गहलोत ,कर्णाटक में सिद्धारमैय्या या छत्तीसगढ़ में बघेल जैसे नेता उन सब के मुकाबले कहीं उपयुक्त हैं। ज्योतिरादित्य, जितिन और सचिन के उदाहरण कुछ और संकेत करते हैं। राजनीति में सत्ता हासिल करना उद्देश्य अवश्य होता है।  लेकिन वह तो पावर है, ताकत है, इसलिए उसे हासिल करना है। असली मकसद तो वे उसूल और विचार या कार्यक्रम हैं, जिनके पूरा करने के लिए सत्ता चाहिए। ये कैसे कॉंग्रेसी हैं, जो सत्ता के लिए कांग्रेस से सीधे भाजपा में मिल रहे हैं।  

इसका मतलब उनकी कोई विचारधारा नहीं थी। पार्टी छोड़ना कोई गलत नहीं है। लोकतंत्र में इस प्रवृति का न होना ही गलत है। पार्टी की स्थिति से रंज हो कर पहले भी नेताओं ने पार्टी छोड़ी है । सुभाष बोस अध्यक्ष पद का चुनाव भारी बहुमत से जीत कर भी पार्टी छोड़ने केलिए मजबूर हुए थे। लेकिन वह हिन्दू महासभा में नहीं चले गए थे। 1948  में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने इकट्ठे पार्टी छोड़ी। उनलोगों ने सोशलिस्ट पार्टी बनाई ।

चरण सिंह, चंद्रशेखर जैसे जाने कितने लोगों ने कांग्रेस छोड़ी; लेकिन उनमें से शायद ही कोई जनसंघ में गया। समान विचारों के दलों में उनका जाना हुआ, अथवा उन्होंने अपनी पार्टी बनाई। शरद पवार, ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी ने भी पार्टी छोड़ी, लेकिन उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वाई एस आर कांग्रेस बनाई, वे भाजपा में नहीं गए।

ज्योतिरादित्य और जितिन भाजपा में गए हैं। इन्होने पार्टी तो छोड़ी ही है, विचार का भी परित्याग किया है। मेरे हिसाब से  उनका जाना अधिक अच्छा है। सुना है, ये जितिन कुछ समय पूर्व से उत्तरप्रदेश में ब्रह्म चेतना फैला रहे थे। इस आदमी को उसी वक्त पार्टी से निकाल देना था। लेकिन निकालेगा कौन? राहुल भी तो कभी-कभार ब्राह्मण बनने की कोशिश करते दिखते हैं ।
 

ज्योतिरादित्य, जितिन  या सचिन की राजनीति क्या है? सत्ता और पद? ये हैं क्या? कोई माधव राव के बेटे, कोई जितेंद्र प्रसाद और राजेश पायलट के। कम उम्र में इन्हे अवसर मिल गए। जो लोग नेहरू परिवार पर या राहुल गाँधी पर सवाल उठाते हैं, वही इन दोनों के खानदानी स्वरुप को भूल जाते हैं। वह वरुण गाँधी और मेनका गाँधी को भी भूल जाते हैं, जिनका भाजपा अपने लिए इस्तेमाल करती है। वे भी तो उसी परिवार के हैं, जिस परिवार के राहुल हैं।

आखिर क्यों वरुण और मेनका भाजपा में हैं और राहुल और सोनिया कांग्रेस में? कुछ तो अंतर है दोनों में। मैं राहुल या किसी और की राजनीति की भविष्यवाणी नहीं कर रहा। हाँ, कांग्रेस के भविष्य का अनुमान जरूर करता हूँ। मुझे यकीन है, कांग्रेस ख़त्म नहीं होगी। क्या रूप होगा, मैं नहीं कह सकता। लेकिन मेरा अनुमान है परिस्थितियाँ कॉंग्रेस को आत्मबदलाव के लिए मजबूर कर देंगी  ।

यह प्रकृति का नियम है। उसका रूप बदल जाय, नाम बदल जाय ; लेकिन एक विचार जो कॉंग्रेस के रूप में है, मध्यमार्गी विचार, वह उसकी पूँजी है। इसी के इर्द - गिर्द एकबार मेला फिर जुटेगा। जिस तरह कांग्रेस की नाकामियों का लाभ भाजपा को मिला, उसी तरह भाजपा की नाकामियों का लाभ अंततः कॉंग्रेस को मिलेगा, क्योंकि कोई अन्य राष्ट्रीय पार्टी दिखाई नहीं देती। इस बीच जनतादल या जनता पार्टी की तरह की कोई पार्टी बन जाए, तो और बात है।

कांग्रेस लाभ लेने लायक जमीन बना सके, यही उसे करना है। कांग्रेस को रजवाड़ी और सामंती ताकतों के मुकाबले सभी तबकों के युवाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए। महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करे ताकि आधी आबादी को वह विश्वास में ले सके। दलितों,  आदिवासियों और अन्य पिछड़े तबकों की नई पीढ़ी क्या सोचती है, इसका उसे विशेष ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि  यही वर्ग उसका विश्वसनीय आधार बन सकेगा ।

लोकलुभावन नारों की जगह उसे ठोस आर्थिक - सामाजिक कार्यक्रम पेश करने चाहिए और उसे ही अपना आधार बनाना चाहिए। भाजपा नेता कांग्रेस की  कम सीटों के लिए व्यंग्य करने के समय भूल जाते हैं कि 1984  में उसके पास बस 2 सीटें थी। आज वह पूर्ण बहुमत में है। कांग्रेस के पास तो अभी 52 है। कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पाने केलिए सब कुछ है। भविष्य उसका हो सकता है, यदि वह चाहे।


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