अंधेरे आंतों को चिरने वाले योद्धा नाट्यकार हबीब तनवीर
उत्तम कुमारअसहमति के लिए भी एक शालीन गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए। राष्ट्रवाद और धर्म की आड़ में साम्प्रदायिकता और कट्टरता का माहौल बनाना बहुत खतरनाक है। राष्ट्रवाद आधुनिक अवधारणा है। इसके अपने कुछ मूल्य है जिसमें धर्मनिरपेक्षता प्रमुख है। विचार के ‘स्पेस’ को कम किया जाना लोकतंत्र का अपमान है। भय और आतंक का माहौल बनाकर किसी विचार को दबाया नहीं जा सकता। विचार की आजादी से ही हम मानवता की रक्षा कर सकते हैं। चुनांचे सभ्य समाज में सांझी संस्कृति के विकास के लिए विचार के स्पेस को हमेशा सम्मान मिलना चाहिए।

मंच की दुनिया के लीजेंड, प्रख्यात नाटककार, निर्देशक, पटकथा-लेखक ,गीतकार और शायर हबीब अहमद खान को हबीब तनवीर के नाम से जाना जाता है । वो रायपुर में पैदा हुए और अपने करियर की शुरुआत पत्रकारिता से की। आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे। इंग्लैंड में ड्रामा का तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त किया। आगरा बाजार और चरण दास चोर उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। आगरा बाजार में नज़ीर अकबर आबादी की शायरी, उनके व्यक्तित्व और उनके युग को प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रशिक्षित कलाकारों के बजाय सडक़ों और गलियों में संगीत वाद्ययंत्र और तमाशा दिखाने वालों ने अपनी कला के जौहर दिखाए हैं।
‘नया थिएटर’ के नाम से एक थिएटर कंपनी की स्थापना की थी
कहते हैं ये ड्रामा इसलिए भी यादगार है कि इसमें नया थिएटर के कलाकारों ने अपनी स्थानीय भाषा यानी छत्तीसगढ़ी में संवाद अदा किए थे। उन्होंने अपनी पत्नी मोनिका मिश्रा के साथ ‘नया थिएटर’ के नाम से एक थिएटर कंपनी की स्थापना की थी। गांधी, ब्लैक एंड व्हाइट और मंगल पांडे सहित हबीब ने नौ फिल्मों में अभिनय किया।
राज्य सभा के सदस्य भी बनाए गए। चरण दास चोर हबीब का सबसे लोकप्रिय नाटक था। ये ड्रामा तीन दशकों तक भारत और यूरोप में स्टेज किया गया। पदमश्री और पदम भूषण सहित कई सम्मान उनको दिये गए। प्रसिद्ध संगीतकार और अभिनेत्री नगीन तनवीर उन्हीं की बेटी हैं।
मिट्टी के गाड़ी, आगरा बाजार, हिरमा की अमर कहानी, देख रहे हैं नैन, चरणदास चोर, आगरा बाजार, सोन सागर, मुद्राराक्षस, कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना, गांव के नॉंव ससुराल मोर नॉंव दमाद, जिन लाहौन नई देख्या वो जन्मई नई जैसे नाटको को सच्चाई के धरातल पर उतारने वाले शख्सियत और साम्प्रदायिकता और फासीवाद पर तीखा प्रहार करते हुए कहा था कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद असहिष्णुता की जो लहर चली तो एकबारगी ऐसा लगा, जैसे पूरा समाज ही संकीर्ण और क्षयग्रस्त होकर रहा गया हो।
लेकिन तस्वीर के साफ होते ही यह स्पष्ट हो गया कि सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में सिर्फ गिनती के कुछ लोग हैं जो नैतिकता और राष्ट्रीयता के अपने मापदंड को समस्त देशवासियों पर थोपना चाहते हैं और यह भी बड़े आक्रमक ढंग से।
सोची समझी साजिश के तहत जनतांत्रिक विचारों का दमन करने की कोशिश है
वे आगे कहते हैं कि संघ परिवार और भगवा ब्रिगेड के लोग इन्हें कला, साहित्य, नाटक, फिल्म और संस्कृति की समझ नहीं है। इसलिए धर्म की आड़ लेकर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला करते हैं। विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल सहित जो भी फासिस्टवादी ताकतें यह सब करती हैं वे समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष और जाति के नाम पर फूट डालना चाहती है।
घटना बाबरी मस्जिद के ध्वंस की हो या वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर किए गए आतंकी हमले की दोनों अमानवीय और निंदनीय है। पिछले कुछ वर्षों में विश्व प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन की कलाकृतियों का, दीपा मेहता की फिल्म वाटर के साथ जो कुछ हुआ वह साझी संस्कृति का विरोध ही नहीं है वरन मैं मानता हूं कि ये काम सोची समझी साजिश के तहत जनतांत्रिक विचारों का दमन करने की कोशिश है।
असहमति के लिए भी एक शालीन गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए। राष्ट्रवाद और धर्म की आड़ में साम्प्रदायिकता और कट्टरता का माहौल बनाना बहुत खतरनाक है। राष्ट्रवाद आधुनिक अवधारणा है। इसके अपने कुछ मूल्य है जिसमें धर्मनिरपेक्षता प्रमुख है। विचार के ‘स्पेस’ को कम किया जाना लोकतंत्र का अपमान है। भय और आतंक का माहौल बनाकर किसी विचार को दबाया नहीं जा सकता।
विचार की आजादी से ही हम मानवता की रक्षा कर सकते हैं। चुनांचे सभ्य समाज में सांझी संस्कृति के विकास के लिए विचार के स्पेस को हमेशा सम्मान मिलना चाहिए। 29 जून 2003 से 22 जुलाई 2003 तक पोंगवा पंडित और जिन लाहौर नई देख्या वो जन्मई नई नाटकों का केवल विरोध ही नहीं हुआ वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं।
फासिस्टवादी ताकतों की खतरनाक सोच का परिणाम है यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय - समय पर करता रहा है। फासिस्टवादी ताकतों की खतरनाक सोच का परिणाम है यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। हमले की शुरूआत 16 अगस्त 2003 को ग्वालियर में हुई। फिर 18 अगस्त को होशंगाबाद में, 19 अगस्त को सिवनी में, 20 अगस्त को बालाघाट और 21 अगस्त को मंडला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिन्दूु परिषद, बजरंग दल और आरएसएस के लोग उपद्रव करते रहे।
मैंने उन्हें बारम्बार समझाने की कोशिश की कि पोंगवा पंडित कोई नया नाटक नहीं है। यह पिछले 70-75 वर्षों से लगातार खेला जा रहा है। 1930 के आसपास छत्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं सुखराम और सीताराम ने इसे सबसे पहले जमादारिन के नाम से प्रस्तुत किया था। पिछले 30 वर्षों से तो नया थियेटर के कलाकारों द्वारा देश-विदेश में सैकड़ों बार प्रस्तुत किया जा चुका है।
वे गंभीरता के साथ कहते हैं कि फासिज्म का ही दूसरा नाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। नाटक को देखे बिना ही उसका विरोध करने की प्रवृत्ति गलत है, यह कठमुल्लापन है। धार्मिक कट्टरता इसकी तह में बिना किसी जायज कारण के भी असलियत खोलती रहती है। हमारी पीड़ा और हमारा संकट यह है कि इस तरह के हमलों से कलाकारों का परफारमेन्स प्रभावित होता है। पोंगवा पंडित हास्य और व्यंग्य से ओतप्रोत बेहद लोकप्रिय नाटकों में से एक है। इसकी प्रस्तुति के पहले नया थियेटर के कलाकारों में एक रोमांच, एक तरंग, एक स्फूर्ति और एकजीवंतता होती है। यही जीवंतता कामेडी में जान फूंकती है।
इस बीच वे कलाकारों के बौद्धिक स्तर को भांपते हुए कहते हैं कि कलाकार भी आदमी होता है, उन्हें तब अच्छा लगा जब धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने हमारे साथ खड़े होकर संघ परिवार की चुनौतियों के खिलाफ ताल ठोक दी।
सफाई कामगारों, जमादारिनों सहित राजनीतिक पाटियों के कार्यकर्ताओं ने जुलूस निकाला
सफाई कामगारों, जमादारिनों सहित राजनीतिक पाटियों के कार्यकर्ताओं ने झंडों, बैनरों और झाडुओं के साथ नाटक के पक्ष में लम्बा जुलूस निकाला। सामाजिक उत्तरदायित्व की यह संज्ञा अपने पूरे अर्थ को साकार करने में बहुत समर्थ है। दिल्ली में बुद्धिजीवियों ने एक संयुक्त वक्तव्य में अनुठे संकल्प की घोषणा की-‘कलाकारों, लेखकों तथा साथी नागरिकों के नाते हम हबीब तनवीर पर हमला करने वालों का मुकाबला करेंगे, अपने काम में, रंगमंच पर, मीडिया में, सडक़ों पर।
और यह हम वैसी ही स्पष्ट तथा जोरदार आवाज में करेंगे जैसी आवाज हबीब तनवर के नाटकं की है। चुनांचे सारी बाधाओं और आशंकाओं के बीच रूढि़वादी विचार के खिलाफ मैं संघर्ष करता रहूंगा। मैं मानता हूं कि सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं के बीच आज भी विचार के लिए जगह बची हुई है। और विचार के इस स्पेस का हमें विस्तार करना है।
‘रंग हबीब’ प्रगतिशील भारतीय रंगकर्म की विशिष्ट पहचान है
मशहूर रंगकर्मी निसार अली लिखते हैं कि अनेक राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हबीब तनवीर और उनका ‘रंग हबीब’ प्रगतिशील भारतीय रंगकर्म की विशिष्ट पहचान है, जिसे सर्वश्रेष्ठ विश्वरंगकर्म का खिताब भी हासिल है। ‘रंग हबीब’ में आप आसानी से इप्टा के प्रगतिशील पक्षधरता का दर्शन कर सकते हैं।
पाश्चात्य रंगकर्म और अनुदित महानगरीय रंगअवशेषों से जकड़े अभिजात्य रंग - परिदृश्य, जिसमें भारी भरकम सेट्स, अतिरंजित साज-सज्जा, झमाझम रंगीनियों से नहाता प्रकाश दृश्य - संयोजन याने महंगे बैसाखियों पर टिके दृश्य - विधानों को नकारते हुए ‘रंग हबीब’ ने कम से कम आवश्यक मंचीय उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए अभिनेता के पूर्ण और स्वतंत्र उपस्थिति को महत्व दिया।
अली लिखते हैं कि नृत्य, गायन, वादन में दक्ष अभिनेता - अभिनेत्रियों को चरनदास चोर, आगरा बाजार , मिट्टी की गाड़ी, मोर नाम दामाद गांव नाम ससुराल, देख रहे हैं नैन, मोटे राम का सत्याग्रह, साजापुर की शांतिबाई, जमादारिन, राजरक्त आदि नाटकों में देखकर, हम ‘रंग हबीब’ के प्रगतिशील भारतीय रंगकर्म की अवधारणा को पुख्ता कर सकते हैं।
छत्तीसगढ़ी नाचा गम्मत के कलाकारों की सहज, स्वभाविक, स्वतंत्र अभिनय शैली के दर्शन ‘रंग हबीब’ की जीवनी शक्ति रहे हैं। आधुनिक रंगकर्म पर पैनी नजर रखते हुए , किसान - कला नाचा गम्मत को वैश्विक स्तर पर स्थापित - सम्मानित करने का भव्यतम एतिहासिक श्रेय ‘रंग हबीब’ को हासिल है ।
‘लोक’ की पृष्ठभूमि को प्रयोगधर्मिता के नाम पर विद्रूप नहीं होने दिया
जीवेश चौबे लिखते हैं कि हबीब तनवीर बुर्जुआई थिएटर परम्परा को जन सुलभ व जनवादी स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने उस दौर में उच्च व मध्यवर्गीय प्रवृत्ति और बंद रंगशालाओं के लिए हो रहे बुर्जुआ रंगकर्म को चुनौती देते हुए उसे लोक का व्यापक संदर्भ दिया। अपने रंगकर्म के ज़रिए उन्होंने इस धारणा की पुष्टि की कि जो लोकल है वही ग्लोबल भी हो सकता है।
उनकी शैली और नाटक सभी दर्शक वर्ग द्वारा देखे व सराहे गए। हबीब तनवीर के लिए नाटक खुराक और रंगमंच ही उनका घर था। उन्होंने रंगमंच को आम आदमी के लिए खोला, उस पर उन लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की। उन्होंने अपने नाटकों के लिए लोक की समृद्ध परम्परा को माध्यम बनाया। मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोक प्रेमी रंगकर्मी हबीब तनवीर ने अपने नाटकों की ‘लोक’ की पृष्ठभूमि को प्रयोगधर्मिता के नाम पर विद्रूप नहीं होने दिया, बल्कि अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहे।
चौबे आगे लिखते हैं कि भारतीय नाट्य परंपरा में लोक को प्रतिष्ठित करने के जिन उद्यमों की हम सराहना करते आए हैं, हबीब तनवीर का सम्पूर्ण रंगकर्म आधुनिक नाट्य में उसका नेतृत्व करता रहा है। लोक’ उनके यहां हाशिए पर नहीं है, बल्कि उस पूरे नाट्य प्रदर्शन का मुख्य माध्यम होने के साथ ही पूरी लोक परम्परा का उद्घोष है। इस कारण से तनवीर साहब का रंग कर्म केवल हिंदी का ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि रंग कर्म है जिसमें हमें भारतीय जन की आस्था भी दिखाई देती है तो आकांक्षा भी, संघर्ष भी दिखाई देता है तो सपना भी।
जीवेश आगे लिखते हैं -हबीब तनवीर ने भारतीय रंग कर्म को देशज चेतना तथा संस्कारों के साथ-साथ जन बोली में विकसित व समृद्ध किया। हबीब साहब यह मानते थे कि भारतीय संस्कृति के केंद्र में ‘लोक’ ही है तथा ‘लोक’ के साथ जुडक़र ही सार्थक रंगमंच की तलाश पूरी हो सकेगी।
इसीलिए अपनी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए वह भारत के केंद्र में पहुंचते हैं, वे कहते थे कि ‘आज भी गांवों में भारत की नाट्य परंपरा अपने आदिम वैभव और समर्थता के साथ ज़िंदा है।उनके पास एक गहरी लोक परंपरा है और इस परंपरा की निरंतरता आधुनिक रंगमंच के लिए आवश्यक है।’ हबीब साहब का मानना था, ‘हमें अपनी जड़ों तक गहरे जाना होगा और अपने रंगमंच की निजी शैली विकसित करनी होगी जो हमारी विशेष समस्याओं को सही तरीके से प्रतिबिंबित कर सके।’
हबीब तनवीर जैसे छत्तीसगढ़ के अनमोल रत्न के बिना हम नवा छत्तीसगढ़ कैसे गढ़ पाएंगे?
हिन्दी के पूर्व प्रोफेसर रमेश अनुपम लिखते हैं कि हबीब तनवीर ने भारतीय रंगमंच को ही नहीं, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को भी पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित करने में जो अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, उसे भूला पाना मुश्किल है।
‘आगरा बाजार’ ‘बहादुर कलारिन’, ‘मोर नाव दामाद गांव के नाव ससुराल’, ‘साजापुर की शांतिबाई’, ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘चरणदास चोर’आदि हबीब तनवीर के महत्वपूर्ण नाटक हैं।
अनुपम लिखते हैं कि भोपाल स्थित हबीब तनवीर की कब्र पर नया थियेटर के कलाकार मनहरण गंधर्व, धन्नूलाल सिन्हा, अमरसिंग गंधर्व, रामचंद्र सिंह एवं संगीता सिन्हा, हबीब तनवीर न केवल रायपुर और छत्तीसगढ़ के बल्कि देश और दुनिया के गौरव हैं। हबीब तनवीर के बिना रायपुर और छत्तीसगढ़ का इतिहास लिखा जाना कभी संभव नहीं होगा।
पर यह पीड़ा हम सभी छत्तीसगढ़वासियों को न जाने कब तक सालती रहेगी कि हमारे इस प्रदेश ने हबीब तनवीर की स्मृति में अब तक ऐसा कुछ नहीं किया है, जिस पर हम नाज कर सकें।
अनुपम लिखते हैं कि क्या हबीब तनवीर के बिना हम छत्तीसगढ़ को एक नया छत्तीसगढ़ बना सकते हैं? ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ का नारा लुभावना तो है पर हबीब तनवीर जैसे छत्तीसगढ़ के अनमोल रत्न के बिना हम नवा छत्तीसगढ़ कैसे गढ़ पाएंगे? यह हम सबके लिए सोच का विषय होना चाहिए।
बहरहाल वे नहीं होते तो पंथी नर्तक देवदास बंजारे और पंडवानी गायिका तीजन बाई भी नहीं होती। कुछ साल पहले हमने देवदास बंजारे को खो दिया है लेकिन तीजन बाई के रूप में उनकी कला को हम लगातार देख पाने में सफल हैं। वहीं राजनांदगांव की मशहूर पूणम दीपक विराट की जोड़ी आज भी हबीर तनवीर की रंगशाला को आने वाले पीढिय़ों को सौंपने का कार्य कर रही है। कुछ ही दिन पहले हमने दीपक को भी खो दिया है। ये सभी कलाकार हबीर तनवीर के मार्गदर्शन में देश ही नहीं दुनिया में अपना और छत्तीसगढ़ का नाम रेाशन किया है।
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