लोकसुर लक्ष्मण मस्तुरिया 

छत्तीसगढ़ महतारी के दुलरवा रतन बेटा लक्ष्मण मस्तुरिया से लंबी बातचीत

उत्तम कुमार

 

कला और साहित्य को उनके व्यापकतम अर्थों और संदर्भों में लेते हुए यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मण मस्तुरिया, खुमान साव, भैया लाल हेड़ाऊ, कविता वासनिक, बालकी बाई, किस्मत बाई, ममता चंद्राकर, छाया चंद्राकर, अलका चंद्रकार, बसंती देवार, सीमा कौशक, गोरेलाल बर्मन, केदार यादव, पंचराम मिर्धा, बैतलराम साहू, रामेश्वर वैष्णव, प्रेम साइमन, तिजन बाई, नेलसन, कोदूराम दलित, पवन दीवान, ओंकारदास मानिकपुरी, हरि ठाकुर का जीवन और उनके कार्य छत्तीसगढ़ और उनमें भी छत्तीसगढ़ी-हिंदी कवियों के जीवन और सहित्य से एक ऐसा संबंध बनाता है जिसे अघतन सांस्कृतिक मोर्चा कहा जा सकता है, उनके कार्यों को व्यापकतम अर्थों में कहा जा सकता है कि ये ‘चंदैनी गोंदा’ और ‘सोहना बिहान’ के फूल हैं।

लक्ष्मण मस्तुरिया व खुमान साव उन कवि, साहित्यकारों, गीतकारो व संगीतकारों में शुमार हैं जो वर्तमान देशीय संकट को समझते हैं

चंदैनी गोंदा हो या सोहना बिहान छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। इन मंचों के माध्यम से लोकगीतों पर एक नया प्रयोग किया गया। दृश्यों, प्रतीकों और संवादों के बीच-खाद  देकर छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के माध्यम से यहां के वृहद सांस्कृतिक धरोहरों पर कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण किया गया, जिसने इसे नाटक, नौटंकी या नाचा समझकर देखा होगा वे अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने इसे लोकगीतों का एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वे अवश्य ही हर्षित हुए होंगे। विशेषकर लक्ष्मण मस्तुरिया व खुमान साव उन कवि, साहित्यकारों, गीतकारो व संगीतकारों में शुमार हैं जो वर्तमान देशीय संकट को समझते और इसे भारतीय समाज और व्यवस्था की वृहत्तर विसंगतियों और भयावह समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में देख पाते हैं।

लक्ष्मण मस्तुरिया गुमशुदगी के हासिए में खड़े होकर कहते हैं कि देश वर्तमान समय में सांस्कृतिक अध:पतन के दौर से गुजर रहा है काफी निराशा होती है अब कार्यक्रमों में पहले जैसे कलाप्रेमी नहीं होते हैं। कार्यक्रम में फरमाइशी गीतों को सुनने का क्रेज ज्यादा रहता है। लोग गरीबी में भी पैसे लूटा कर गाने सुनने की तलब रखते हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति का वर्चस्व तेज गति से बढ़ता जा रहा है। ऐसे अंधकार भरे समय से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ में लोक कला व संस्कृति का समृद्ध भंडार मौजूद है, जो न जाने कई पीढिय़ों तक हमें कला व साहित्य को जीवित रखने का दमखम मुहैया करवाते रहेगी। इसी क्रम में गीतों के एक बेसकीमती विधा का नाम है गीत, इस शिखर में विराजमान है छत्तीसगढ़ के लोकसुर लक्ष्मण मस्तुरिया।

बिना खुमान के लोकगीतों की कल्पना नहीं कर सकते

लक्ष्मण अपने बारे में कम लेकिन अपने समय के जाने माने संगीत के पुरोधा खुमान साव के कार्यों पर बताते हैं कि खुमान जैसा काम किसी ने नहीं किया। चंदैनी गोंदा का जो सांस्कृतिक स्वरूप यहां अस्तित्व में है। जहां ताल सूर था ही नहीं, राऊत बेसुरा था, गौरा बेसुरा था। जहां शादी में मुदरूम, गौरा बाजा सब बेसूरा था डफरा में कितने मात्रा हैं उसे समझ कर ऐसे समय में  ताल, सूर में तारतम्य बैठाकर खुमान ने बिगड़े गीतों को सूर ताल में पिरोकर छत्तीसगढ़ी संगीत (सूर व ताल)की एक समृद्ध परंपरा हमको सौंपा है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी कला के लिए नए आयामों का सृजन किया है। बेढंगे व बेसुरे ताल व साज को सुधारकर गीतों को संगीत में पिरोकर लोगों के कानों में माधुर्यता के साथ स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का काम खुमान साव व महेश ठाकुर ने बखूबी के साथ पूरा किया। डफरा में कितने मात्रा हैं उसे परिमार्जित करने का काम हो या अब जो बज रहा है सब खुमान का कला विधा ही तो है।

बिना खुमान के लोकगीतों की कल्पना नहीं कर सकते हैं। लेकिन खुमान की नई संगीत भी रूक सा गया है। कविता वासनिक ने अलग से पार्टी बना लिया है। जितना उसने हासिल किया उसी को गा रही है। इन सब में उनकी कुछ भी रचनात्मक नजर नहीं आती है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद जो बदलाव होना था। आज के कलाकार छत्तीसगढ़ की माटी जैसे विषयों से आगे निकलना नहीं चाहते हैं। विकास किसे कहते है उसकी समझ का अभाव है नए विचारों व बदलावों के साथ हमें आगे चलना होगा। 

भ्रष्टाचार ने सम्मानजनक ढंग से कुछ करने के लिए छोड़ा ही नहीं

सत्तापक्ष के तरफ से हम ठगे गए। उसने भी लोक संस्कृति के संवर्धन के लिए ठोस कदम नहीं उठाए। छत्तीसगढ़ बनने के बाद सत्ता छत्तीसगढिय़ों के हाथ नहीं आया। मतदाता बेवकूफ हैं कि एक दिन के दारू व अन्य प्रलोभनों से प्रभावित होकर नेताओं को चुनकर ले आते है। बड़ें विश्वास के साथ ‘आप’ पार्टी से चुनाव लड़ा था कि गीतों के साथ लोगों की सेवा करूंगा ऐसा संभव नहीं हो सका चुनाव में भ्रष्टाचार ने सम्मानजनक ढंग से कुछ करने के लिए छोड़ा ही नहीं। चुनाव के बाद ठगा सा रह गया गया। मेरे खुद लाखों रुपए डूब गए, प्रचार के दौरान गांवों में उतर गया, हजारों की भीड़ में गाना भी सुना रहे हैं भावना से पे्ररित होकर भाषण भी सुना रहे है एक समय जनसैलाब को देखकर ऐसा लगा जैसे जीत सुनिश्वित है पता चला भीड़ का वास्तव में बुद्धि नहीं होती। 

वोट के लिए बिक चुके लोगों का कहना था कि खड़ा नहीं होना था ‘भाई! तोर गीत ल कंधा में टांजिस्टर ल टांग कर मोर ददा ह सुनिश।’ तूने गलत किया भाई तूझे गाते रहना था। आजादी के बाद यह स्थिति होगी कल्पना से बाहर है। गांव की स्थिति यह है कि शिक्षा पहुंची ही नहीं है लेकिन अब गांवों में मम्मी-डैडी पहुंच गया है। देश का सम्मान कैसे करना है। देश का प्रधानमंत्री मोदी बच्चों से अंग्रेजी में बात करता है। सोच सकते हैं कि हिंदी की पक्षपोषण करने वालों की जब यह स्थिति है तो अपनी भाषा में शिक्षा का क्या हश्र होगा। अब यह जाहिर हो गया कि पैसे से या बाजार से कोई भी व्यक्ति पद को प्राप्त कर सकता है चुनाव को जीत सकता है। अब सत्ता में देखना यह बाकी रह गया है कि मोदी के बाद अंबानी व टाटा जैसे पूंजीपति कब बैठेंगे!  उस दिन हमें आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि एक बड़ा फंड बड़े नामधारी पार्टियों को इनके द्वारा पहुंचाया जाता है।

अब वह भी लचीला रूख अपनाने लगा है

अब त्याग, तपस्या व बलिदान के लिए कोई बात नहीं करेगा। कोई भी  राष्ट्रभक्त नहीं बनेगा। फीस पटा रहा है तो पढ़ रहा है। अब सोच सोच कर मरो यानी ‘गुनय्या के मरन हे।’ मैं भी गीत के साथ जनसेवा के लिए मासिक पत्रिका ‘लोकसुर’ प्रारंभ किया था सोचा था लोग हाथों-हाथ उठा लेंगे लेकिन बोलने लगे कि क्या मस्तुरिया जी आप साहित्यकार होकर क्या क्या अनाप-शनाप काम-काज कर रहे हैं? ठीक है आपकी पत्रिका को विज्ञापन देंगे बदले में आप कितना कमीशन दोगे? विज्ञापन मायने लेन-देन। नहीं, ऐसा नहीं, तो विज्ञापन देना संभव नहीं? नहीं? तो मत करो पत्रिका का धंधा। दो साल ही चला पाया। क्या पत्रिकारिता करें? पहले जब रायपुर से राजस्थान से प्रकाशित  दैनिक ‘पत्रिका’ की शुरूआत हुई तब उसका तेवर बड़ा आक्रमक था अब वह भी लचीला रूख अपनाने लगा है जनता के आवाज को सूर देते-देते जनविरोधी आवाजों को भी बल दे रहा है। अब लगता है उसे भी  5'0 एकड़ जमीन उपलब्ध हो जाएगा! बड़ा अखबार के नाम से उसे विज्ञापन मिलने लगा है। 

समय के साथ अब बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देख कर दंग रह जाता हूं। अपने आप से पूछता हूं लोकरंग कौन करवाएगा? जवाब मिलता है जो चंदा दे रहा है यानी दारू वाला तो कार्यक्रम के उस रात उसी का दारू बिकेगा। विडंबना देखिए कि सांस्कृतिक आयोजन दारू वाला करवाएगा। अब कोई कार्यक्रम देखने नहीं पहुंचता है आप बजाओ हम नाचेंगे की रीत चल रही है। अब समय बदल रहा है अब तो हो यह रहा है कि कलाकारों को कार्यक्रम देखना होगा और दर्शक कार्यक्रम देंगे अजीब सा स्थिति उत्पन्न हो गई है। अब भजन में मनोरंजन का पुट आ गया है। महिलाएं कृष्ण व गोपियां बनेंगे और लोग लुत्फ उठाएंगे। समाज को जिसने रास्ता दिखाया उसे ही भगवान बना दिया गया है। लोग सुख-सुविधाओं के नाम से अब पिकनिक मनाने प्राकृतिक सौंदर्य नहीं बल्कि सिर्डी वाले सांई बाबा के दरबार जाने लगे हंै। जनता की स्थिति लात खाओ हो गया है। 

मुख्यमंत्री का कोई नहीं सुनता है। सुने भी तो कैसे सरकार जनता को ‘कार्ड बनाओ अभियान’ में उलझा कर रख दिया है। मतदाता परिचय पत्र व्यक्ति के परिचय के लिए काफी नहीं कभी राशन कार्ड तो कभी आधार कार्ड का महत्व को लोगों में महिमामंडित किया जा रहा है। हालात ऐसी बना दी गई है कि लोगों को जीने भी न दिया जाए और न ही मरने ही दिया जाए। जहां पहले गांवों में लोग कृषि कार्य करते नजर आते थे आज काम करते लोग नहीं दिखते दारू पीकर उंघते हुए लोग नजर आते हैं।

रामायण सुनो या फिर गोलवरकर की कहानी सुनो

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि शुरू में हमारे यहां रासलीला-रामलीला हुआ करता था देखकर आश्चर्य होता था। जैसे रामायण में काल्पनिक किस्सा को सुनो और उसे सच मानो!  हनुमान सूर्य को निगल गया हम उस पर आंख बंद कर विश्वास करते हैं। सभी जानने लगे हैं कि इन पुराणिक दंतकथाओं में कितनी सच्चाई है? जब जाति व्यवस्था चरम पर थी तो हमारे यहां सतनामी सूर्यवंशी जातियां अस्तित्व में थी। जो गुरू घासीदास को नहीं जानते थे। सब राम नाम का जाप करते थे उनके सामने ब्राह्मण फेल। गांव सतनामी व गैर सतनामी में बंटा हुआ था। इस बस्ती के लोग वहां के कार्यक्रम में वहां के लोग यहां के कार्यक्रम देखते थे। हिन्दुओं और सतनामियों का अलग-अलग बस्ती हुआ करता था। दोनों बस्तियों में कार्यक्रम की होड़ को लेकर द्वंद्व चलता था। उनको देखकर विचार मन में कौंधता था कि लोगों के हित में छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने के लिए गीत व संगीत की रचना कैसे हो? हमारे बस्ती में आरएसएस वाला विधायक बद्रीधर दीवान का आना जाना होता था। हमारे गांव में शाखा लगता था।

हमारा आकर्षण था लेजीम-डम्बेल व लाठी सीखने में। बचपन में या तो रामायण सुनो या फिर गोलवरकर की कहानी सुनो। गांव में विचारमेला लगता था गोलवरकर को साक्षात सुना हूं। रामायण व आरएसएस के विचारों को सुनने के साथ हमारे अंदर ठेठ छत्तीसगढ़ी बोलने व सुनने को लेकर विचार कौंधा। आज छत्तीसगढिय़ां छत्तीसगढ़ी बोलने में हीन भावना से ग्रसित है हम लोग वैसे नहीं थे कि आप बोले और हमने मान लिया। हनुमान का सूर्य निगल जाना हमें कभी नहीं पचा। 

कोशिश रहती थी कि स्वाभिमान जगाने वाले गीत लिखूं

पढ़ाई हम लोगों ने लालटेन की रोशनी से हासिल की थी। हमारे शिक्षक आनंद श्रीवास्तव हमें छत्तीसगढिय़ा में बोलने प्रोत्साहित करते थे।  आठवीं के बाद गुरूजी द्वारा सिखाए गए छत्तीसगढिय़ा में शिक्षा हासिल करने के बाद रेडियो में गाना सुनने के बाद शर्म महसूस होता था। तोला भालू कुदावे रे...। ऐसे गीतों के सुनने के बाद रेडियो को बंद कर देता था। वहीं से ही अच्छा गीत व संगीत रचने की इच्छा मन में होने लगी थी। मन में विचार आता था कि अच्छी गीत रचे जाते तो सुनने को भी अच्छे गीत-संगीत मिलता बदले में लोग अच्छी छत्तीसगढिय़ा भी बोलते।

बिलासपुर में विनय पाठक को जानने को मिला। मोर धरती मइया। ‘झन होवे मोर भुंईया उदास’ पहला गीत है। मेरे सहपाठी नहीं जानते थे कि मैं गीत लिखता हूं। मेरी कोशिश रहती थी कि स्वाभिमान जगाने वाले गीत लिखूं साथ ही छत्तीसगढ़ी को सुनने लायक बनाने का जुनून मन में आया। स्कूल में पहला गीत मोर धरती मइया... सुनाया। मिशन स्कूल में अध्ययन के साथ मैं नरेद्र श्रीवास्तव, विधाभूषण का कवि सम्मेलन में जाता था। वहां मेरा गाया हुआ मेरे द्वारा रचित ‘मोर धरती मैया जय होवे तोर’ मुझे बदल कर रख दिया। यही गीत मेरा टर्निंग पाइंट है। यह मेरा पहला गीत है। इसे मैंने जांजगीर में प्रथम कवि सम्मेलन में गाया। उसके बाद कृष्णा रंजन, पवन दिवान जैसे चर्चित लोगों के साथ कवि सम्मेलनों में जाने लगा। धीरे धीरे वहीं से लिखना व गाना शुरू हो गया। भाव आया तो लिखने लगा।

मुझे कौन लिखवाता मैं नहीं जानता। यह कवि को पूछना खतरनाक है। मन में नहीं होगा तो सामान्य आदमी चिट्ठी नहीं लिख सकता। कोई न कोई अज्ञात शक्ति मुझसे लिखवाता है। मैं जान बूझ कर नहीं लिख पाता हूं। मैं कोशिश करने के बाद भी नहीं लिख सकता। एकदम से ऊर्जा आने के बाद मैं 4-5 मिनट में गीत लिख डालता हूं। कल्पना व संवेदना मुझसे ज्यादा लिखाता है। गीतों को सुधारने की जुनून ने गीतकार बनाया। चंदैनी गोंदा नहीं जाता तो गीत सुधारने का मौका नहीं मिलता, तो हो सकता है कि संभवत: आज गीतकार नहीं होता और न ही गीत विधा को लिखने की समझ ही मुझमें होती।

सामाजिक परिस्थितियां मुझे लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहे हैं

विषय वस्तु और शिल्प में विषय वस्तु पहले महत्व रखता है। जैसे खेत में जाते हैं सबसे पहले किसानों का सुबह 4 बजे जाना व 8 बजे हल के साथ जाना, उनके दुख दर्द को देख कर महसूस किया और जाना कि उनका जीवन घोर तपस्वी जैसे है वे खुशी मनाते ही नहीं है शायद यही आधार बना गीत लिखने का। दुख-दर्द मन में बैठने लगा, लोगों का बदहाल जीवन रचना के लिए विषय बनना शुरू किया। चंदैनी गोंदा में आने के पहले रेडियो में चर्चित हो गया था। बदलते सामाजिक परिस्थितियां मुझे लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहे हैं। मैं गीतों को गाने से पहले रिहर्सल (अभ्यास) भी नहीं करता था। शुरू के दिनों में आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले गीत के कार्यक्रमों में लाल राम कुमार ने मेरे गीतों का प्रसारण शुरू किया मेरे सारे गीतों को रेडियो में लोग सुनने लगे। ऐसे ही श्रोताओं में रामचंद्र देशमुख ने भी मेरे गीतों को सुना।

गीतों में बनावट कतई काम नहीं करता है

वे तब तक निंदया कुरया...व देवारों द्वारा गाए जाने वाले गीतों को रिकॉर्ड के कार्य को पूरे कर चुके थे जो सुनने के लायक नहीं था उस बंद को यानी जिसेे ददरिया में गाया जाता था ‘चंदर छबीला रे बघली ल...।’ को सुधारते हुए ‘मंगनी म रे, मया नही मिले मंगनी म’ जैसे कई गीतों को जिसमें एक अन्य गीत जिसे बालकी बाई के धुन पर किस्मत बाई ने गाना शुरू किया ‘दोऊना में गोंदा केजुआ बारी में आबे काल रे’ उसे सुधार कर किस्मत ने कुछ ऐसा गाया कि खुशी के मारे मन झूमने लगा था यानी ‘चऊरा म गोंदा...’ पुराने गीतों को बालकी बाई ने बखूबी गाई थी। जिन देवार गीतों को लोग भूलने लगे थे, लोकगीतों के ट्रेक से उतर के फुहड़ आधुनिक गीतों को गाने लगे थे उसे ‘देवार डेरा’ के गीतों के रूप में चंदैनी गोंदा ने नए आयाम प्रदान किए। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि नए अर्थ, आमंत्रण व लक्षणात्मक ने गीतों को नवजीवन प्रदान किया। 

गीत में बिम्ब, प्रतीक और मिथकों का उपयोग करते नहीं अनायस ही बन जाते हैं, जान बूझ कर कुछ होता नहीं है। अलग से कुछ डालूं तो समझो गीत बनेगा कम बिगड़ जाएगा। हां गीतों में बनावट कतई काम नहीं करता है। मैं मूलत: नैसर्गिक कवि हूं उसके बाद बन गया चंदैनी गोंदा का गीतकार। ‘चौरा म गोंदा ... गीत को सुधारा उसके बाद उसमें खुमान साव का जादू चल निकला। लोकगीतों में आंचलिक संस्कृति की खुशबू आनी चाहिए। यह वास्तव में स्त्री पक्षीय गीत है। एक चर्चित ददरिया गीत ‘तोर बबा ला मारे... बटखी म बासी...’  को हमने नया सूर व रूप देते हुए ‘ते का नाम लेबे संगी रे बखरी म तुमा नार बरोबर.... बन गया जो कालांतर में जाकर काफी चर्चित हुआ।

महासिंह चंद्राकर के हठ कहूं या महत्वाकांक्षा ने चंदैनी से सोनहा बिहान बना दिया

जहां तक गीतों में भाषा का सवाल है मधुर होनी चाहिए हर हालत में। चाहे गद्य हो या पद्य हो। कह रहा है तो बोलना, बोल रहा है तो गाना बन जाए यही अभिव्यक्ति व भाषा है। रामचंद्र देशमुख एकमात्र चैतन्य आदमी थे जिन्होंने बिगड़े हुए छत्तीसगढ़ी कला व साहित्य को सुधारा व संवारा था। विस्तार से जाना नहीं चाहूंगा लेकिन महासिंह चंद्राकर के हठ कहूं या महत्वाकांक्षा ने चंदैनी से सोनहा बिहान बना दिया केदार यादव व साधना जैसे कलाकार वहां चले गए। उस पर टिप्पणी यही करूंगा कि वहां चंदैनी गोंदा की वास्तविकता नजर नहीं आती। किसी भी मंच के लिए वैचारिकता महत्वपूर्ण पहलू है।

हमने ‘अरपा पैरी...‘ जैसे गीतों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया मैंने जो गाया वह काफी चर्चित हुआ। चलते चलते यह भी बता दूं कि केदार व साधना सोनहा बिहान अवश्य चले गए लेकिन उनमें चंदैनी गोंदा जैसे सांस्कृतिक स्वरूप उनके गीत व डॉयलाग व उनके दर्शन में गायब थे। उसमें वास्तव में उज्जड़पना आ गया था। जहां तक केदार का सवाल है वह डोलक बजाते हुए गीतकार बन गया। भैया लाल हेड़ाऊ सुमधुर गायक हैं उनकी जितनी तारीफ करो कम है जिन्हें रविशंकर ने अपने साथ हमेशा रखा। 

जहां तक मुझसे पूछा जाएगा तो मैं यही बताऊंगा कि छत्तीसगढ़ी साहित्य में छत्तीसगढ़ी भाषा है हां व्याकरण पर काम करना बाकी है। गीत के छंद व्यक्ति और समाज के बीच मूलरूप में आत्मा की अभिव्यक्ति है। जिसका आत्मा पवित्र होता है वह हर दृष्टि से आनंद व शांत रहेगा वही गीत की रचना कर सकेगा। कई लोग सामान्य प्रयासों से गीत बना डालते हैं लेकिन ऐसे प्रयासों से रचे गीतों में अंतरकथा नहीं होती है। प्राणतत्व, संवेदना व जीवंतता के बिना गीत की रचना अधूरी है। अभ्यास से गीत बना लिए जाते हैं लेकिन मौलिक तौर पर बने गीतों की भांति उनमें काव्यतत्व नहीं रहेगी, तो रचना के बाद सुनने में भी यह असरकार नहीं रहेगी। सही मायने में जिस गीतकार में काव्य तत्व भरा है वहीं मूल भावनाओं के रूप में अभव्यक्ति प्रदान कर सकता है सभी गीतकारों में यह जरूरी है कि वह समाज से संवेदना को आत्मसात करे यही कार्य गीतकार के लिए आगे बढऩे की सीढ़ी है। स्वभाविक रूप से किसी भी व्यक्ति में गरीबी को देख पीड़ा होगी या धिक्कार!

लेकिन संवेदना के साथ गरीबी की वास्तविकता को जो उजागर कर सकता है वही वास्तव में नए पथ के गीत रच सकते हैं याने कि जिसमें समाज के प्रति संवेदना रहेगा वहीं गीत रचेगा। आज बेवकूफी का दायरा बढ़ता जा रहा है। बड़े-बड़े घर लेते हैं लेकिन घर में पुस्तक नजर नहीं आता है और न ही  पुस्तक रखने की आलमारी ही उस घर में मौजूद होती है। ऐसे घरों में जूता रखने के रैक बनाए जाते है ऊपर ऐसे घरों की तारिफ वे आगंतुकों से सुनना पसंद करेंगे।

रचनाकार के लिए वैचारिक प्रतिद्धता बाध्यता नहीं होनी चाहिए

रचनाकार के लिए वैचारिक प्रतिद्धता बाध्यता नहीं होनी चाहिए यदि वह किसी विचार से बंधा होगा तो स्वतंत्र विचार अभिव्यक्ति में उसे बंधन महसूस होगा वास्तव में यही यह बाध्यता ही बंधन है। सच झूठ सभी को कहना आना चाहिए। हम सबसे सर्वश्रेष्ठ विचारक के रूप में कबीर को ठीक मान सकते हैं। कबीर प्रखर कैसे हो गया यह खोज का विषय है हम देख रहे हैं कि उनके के बाद अज्ञानता आ गया है। हमारे देश में मनुव्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण ऊंचा हो गया। मां-बाप का कोई चरण नहीं छूता सभी ब्राह्मण के चरण छूते हैं। यह क्या है यही तो सांस्कृतिक पतन है। विचार के साथ काव्य कहां बसता है कहने का मतलब यह है कि कांशी के संस्कृत पुरोहितों के बीच साहस के साथ कबीर का कहना महत्व का था। उन्होंने दबे कुचले समाज को अपने गंगा-जमुनी तहजीब के आधार पर एक सूत्र में बांधने का तरीका लोगों को दिखाया। यही दलित लोगों में जातिवादी दंश के बाद हासिए में खड़े लोगों को संबल दिया। कालांतर में जो हुआ वह आश्र्यजनक परिवर्तन का है भक्तिकाल में वेद-पुराण व तुलसी के रामायण को छोड़ व्यापक जनमानस ने कबीर को अपना मार्गदाता के रूप में देखने लगे। 

गीत से सामाजिक-आर्थिक बदलाव तो नहीं बल्कि इससे विचार फैलता है बाकी प्रत्यक्ष कुछ होने वाला नहीं है। जैसे सतीश जैन ने ‘छइया भूइया’ फिल्म  बनाया वे एक बड़े इंजीनियर थे बंबई में रहते थे। उनके दिमाग में अगर छइया भूइया पर फिल्म बनाने का सोच आया तो निश्चत तौर पर ‘मोर छइया भूइया जय होवे तोर...’ जैसे गीतों का असर उनमें किसी रूप में रहा होगा। यही वह विचार बिंदु है जहां से उनके मस्तिष्क में छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाने की कल्पना मूर्तरूप ले ली जो साकार रूप में फिल्म के रूप में उभर कर आया। इससे सामाजिक-आर्थिक बदलाव तुरंत होगा असंभव है। हां साहित्य ही सब कुछ बदलता है वास्तव में परिवर्तन तो कला व साहित्य से ही होता है। 

उसमें सबकुछ है पर खुमान साव का जादू उसमें नहीं है

समाज में परिवर्तन चाहने के कारण ही वर्तमान के कवि व गीतकार में सुंदरलाल शर्मा से मैं ज्यादा प्रभावित हूं। मेरा मानना है कि वे ही एकमात्र कवि है छत्तीसगढ़ में उनके जैसा कवि वास्तव में कोई नहीं है। समाज के साथ जुड़ कर काम कर समाज को ‘दानलीला’ दिया। छग को परिभाषित करने उसके समरसता को समझने शर्मा के दानलीला को पढऩा जरूरी है। वैसे ही छत्तीसगढ़ को परिभाषित करने के लिए कृष्ण व राऊत को समझना जरूरी है। राऊत संस्कृति में राऊत सभी के गाय को चराता, सबके घर में दूध दुहने जाता है, सबके घर दूध दही लाने वाला उससे विकृति नहीं आती है। राऊत व कृष्ण के जीवन में तारतम्य है। तुलसी जिंदा है तो बाल्मिकी के कारण। वैसे ही छत्तीसगढ़ी कला व साहित्य जिंदा है तो रामचन्द्र देशमुख के कारण उन्होंने पुराने जनकवियों को घर-घर तक पहुंचाया। हाल ही में भोला स्टूडियो के सहयोग से दानलीला सीडी के रूप में तैयार होकर हमारे बीच पहुंचा है। उसमें सबकुछ है पर खुमान साव का जादू उसमें नहीं है। खुमान के पेटी का लहरा ताल, जो लोगों को मदहोश कर देता है वह उसमें नहीं है। उसी तरह जीवन राऊत को अंतिम कवि समझता हूं जिन्होंने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। 

अपने पूर्वजों को स्थापित किए बिना कुछ भी संभव नहीं है। रामचंद्र ने पुराने रचनाकारों को जीवित किया। बाजार में हजारों प्रकार के रीमिक बिकने के लिए तैयार है लेकिन उसमें वास्तव में वह सारे तत्व जो संगीत के लिए आवश्यक है निश्चित रूप से खुमान के बिना अधूरा है। जब पहली बार मैंने गीतों को आध्यात्मिक ढंग से रचने के प्रयास में जुटा और  ‘गाड़ी वाला.......’ बनाया तो समझ यह थी कि वह ऊपर वाला ही है। उसमें खुमान ने जान फूंक कर  सच्चाई के धरातल पर नीचे जमीन पर उतारा जैसे ‘पता ले जा रे पता दे जा रे  गाड़ी वाला रे....’। गाड़ी वाड़ी व रीदम देवार डेरा का है जैसे  खन... खन... खन...रीदम को गढऩा अप्रतिम है। देवार डेरा का ‘नाच बेंदरा...’। जैसे 100'50  देवार गीतों को मैंने सुधारा। अब देखिए इस गीत को सार्थक करना है तो नाच बेंदरा को नचा कर देवार डेरा ने इसे कैसे जमीनी बनाया ‘बड़े-बड़े साहेब सिपहिया... ’ अप्रतिम। देवार डेरा में अच्छे-अच्छे गीत हैं। देवार डेरा में जिसे किसी ने नहीं गाया उसे मैंने गाया। दिल्ली में अशोका होटल में पुरषोत्तम कौशिक सूचना एवं प्रसारण मंत्री के माध्यम से वहां गए थे। वह दिन याद है जब पूरा रीदम में गीत को उठा नहीं पाया था, वहां मैंने गाना को पकड़ नहीं पाया। ऐसे भी क्षण जीवन में आए।

रविशंकर अच्छे गीतकार थे धुन में नहीं लिख पाते थे

अपने समकालीनों में मेरे सहयात्री रामेश्वर वैष्णव थे। गीतकार अच्छे थे। अब ट्रेक बदल कर हास्य कवि हो गए। पवन दीवान भी कवि थे दो-चार रचनाओं के बाद सब छोड़ छाड़ दिए। विमल पाठक व दानेश्वर के मजा देने वाले गीतों से बदलाव नहीं आएगा उसमें विचार नहीं है वहीं रविशंकर अच्छे गीतकार थे धुन में नहीं लिख पाते थे। ‘तोर दुनिया करही कमाल... व बेंदरा नचाने जैसे गीतों को मैंने देवार डेरा में भोजन करते हुए रचना किया था जिसमें रामचंद्र देशमुख ने कीर्तन दिया दाऊ देशमुख ऐसे निर्माता थे जिन्होंने कला को नई ऊंचाइयां दी। कला को कैसे प्रस्तुत करें यह विचार उनमें ही था। उस समय भारी भरकम 6 गुना 15 का स्टेज हुआ करता था।

कला व साहित्य उन्होंने प्रतिष्ठित किया था उन्होंने दीनता व हीनता को भुना दिया था। उनके सामने कलाकार मात्र कलाकार हुआ करते थे ऊंच नीच का भेदभाव नहीं रहता था सभी को अपने घर में स्थान देते थे जो रसोई में जाकर दाल व दुबराज का चावल खाते थे। सैलजी, पदमा व माया जैसे युवतियों को कला के लिए तैयार किया व संवारा। उस समय कलाकारों के अभिनय के दौरान सीटी नहीं बजता था। दर्शकों के बीच स्टेज मानो टीवी स्क्रीन नजर आता था। 

हबीब तनवीर की जहां तक बात है वे मेहनत नहीं करते थे सब कुछ रेडिमेड ले लिया करते थे। मदन निषाद जैसे कलाकार अकेला मंच को हिला दिया करते थे ऐसे कलाकारों को भुनाया गया। फिदा बाई को कपड़ा धोते व लालू गोड़ को कपड़ा धोते देखा है। गीत के विकास और उसके सार्थक फैलाव में आकाशवाणी के माध्यम से हुआ। उस जमाने में अच्छी गीत नहीं थे। जो भी चंदैनी गोंदा के गीत था छा गया। तोर पैरी बाजे रूमझूम... जैसे गीत आज भी लोगों के जुबान पर है। ‘मोर संग चलव से लेकर....’  गीत तक की दूरी को इस गीत की सार्थकता ने अमर कर दिया। मोर रग रग में ......छत्तीसगढ़ी माटी यह एक घंटे की रचना है। यदि इस गीत को आप गुनगाएंगे आप ऊंचा हो जाएंगे। जो गाता है उसको ऊर्जा देता है।

कृष्णा कहते थे यह क्रांति गीत है। लोग इकट्ठे हो जाते थे ऐसा लगता मानो हमें आह्वान किया जा रहा है यह वास्तव में  नए समाज के नवनिर्माण के लिए सार्थक गीत हैं!

गीत के अलावा पत्रकारिता भी मैंने की है

गीत के अलावा पत्रकारिता भी मैंने की है ‘लोकसुर’ के कालम ‘पीरा ल तो कहिबो साहेब मारौ चाहे बांधौ जी...’, व्यंग्य लिखना, निंबंध लिखना पसंदीदा कामों में से एक है। मैंने छत्तीसगढ़ी में लिखना उचित समझा आदत से कहीं भी ‘मटमटाता’ नहीं था हरदम  जमीन से जुड़े रहा। सुरेन्द्र दुबे विदूषक है। उनका मुंगा ल चुचर कबरा पहाड़ ल चढ़...जैसे गीतों के साथ मधुप पांडेय, सुरेश उपाध्याय, मानिक उपाध्याय के साथ मंचों में सहभागिता करने का अवसर मिला उनके आधुनिक कला व साहित्य को जवाब देने के लिए राजहरा के मंच से मैंने कहा था कि -‘डंडे को बेलन कहोगे क्या, टुनटुन को हेलन कहोगे क्या, चुटकुले सुनाने वाले को कवि सम्मेलन कहोगे क्या?’  मेरा मानना है कि कवि युग का स्वर होता है। हृदय से मंथर होता है।

कवि तो ईश्वर होता है। तुम्हारे पास कुछ है नहीं तो क्या मतलब? जनता क्या समझती है? लिखते क्या हो? क्या समझते हो? तुम्हारा जादू चल गया इसका मतलब क्या है? नंदू लाल चोटिया ने जिस मंच को उठाया उस पर बात होनी चाहिए, उन्होंने वास्तव में साहित्य व कला जगत को एक बेतहरीन माहौल मुहैया किया था। जिसे हम बौद्धिक, कला व साहित्य से लबरेज माहौल कह सकते हैं। गीत की आलोचना होनी चाहिए इसका मतलब यह नहीं कि लिखने नहीं आता तो अनाप-शनाप आलोचना करते रहे जो कवि नहीं होता व कतई नहीं लिख सकता। गीत मरने वाली नहीं है यह जीवन की धडक़न है। 

छत्तीसगढ़ी गीतों में एक व्यक्ति शिखर पर नहीं होता है गीत जो है सामूहिक है इसे जन तक पहुंचाने के लिए टीम वर्क मेहनत करने वाली टीम वर्क की जरूरत होती है। संगीतकार, प्रस्तुतकर्ता के बिना नहीं फैलेगा। मुझे खुमान जैसा संगीतकार व रामचंद्र जैसे प्रस्तुतकारक नहीं मिला होता तो मैं अकेले में कुछ भी नहीं हूं उनका धन्यवाद कि उन जैसे सजाने संवारने वालों ने मुझे सम्हाला है। मेरे अपने व्यक्तित्व में कमियों या दुर्गुर्णों को दुरस्त करते हुए ‘मैं छत्तीसगढिय़ा हों गा......। जैसे संगीत व गीत के साथ गीत रसीकों के दिलों में धडक़न बन सका। 

नौकरी छोडक़र कुछ कर गुजरने की जहमत से चंदैनी गोंदा में आया

मैंने कभी भी बदहाल परिस्थिति को महत्व नहीं दिया। पहले मैं जहां से चला था वहां वापस आकर खड़ा हूं। राजिम में एक सामान्य सा मास्टर था नौकरी छोडक़र कुछ कर गुजरने की जहमत से चंदैनी गोंदा में आया। सुनने लायक व पढऩे लायक बन गया। लोग मुझे रामचंद्र देशमुख व चंदैनी गोंदा का बंधुआ मजदूर कहा करते थे, किसी चीज का ख्याल नहीं किया, आलोचनाओं को झेला उसके बाद दंडकारण्य चला गया फिर वापस लाखेनगर स्कूल में मास्टर बन गया। आजाद होने के बाद देश के संबंध में सोचने समझने लगा अगर पढ़ा लिखा नहीं होता तो केदार यादव जैसा मरता, वह सम्हल नहीं पाया। उसके बाद बैतल राम साहू को मैंने एक मुलाकात के दौरान सार्थक गाने कहा था उल्टे उसने सुनाया कि -‘अरे दाऊ तहूं लगे हस। का हे तोर चंदैनी गोंदा और तोर गाना म।’

आज उन सबको जवाब बनकर खड़ा हूं रग-रग में धरती मां के प्रति कुछ कर गुजरने की जज्बा  ऊर्जा समाहित है वैचारिक रूप से मजबूत होता चला गया। अब तो राजकुमार कालेज से रिटायर्ड के बाद पेंशन के रूप में 1200 रुपया मिलता है इसके अलावा आज भी देश में छत्तीसगढ़ के अलावा झारखंड व उत्तरप्रदेश में कवि सम्मेलनों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति के बाद जीवन जीने लायक कमाई कर ही लेता हूं। बाजारू हास्य से ऊपर उठ कर उमदा कार्यक्रम प्रस्तुत करने में विश्वास करता हूं।

कविता वासनिक समर्पित गायिका है। उसके मन में अहंकार नहीं आया। समर्थ हो गई है। सरकार ने 15 साल के बाद एक कार्यक्रम भी मुझे नहीं दिया। तीन मिनट गायन राज्योत्सव में किया था। योगेश ने फिल्म बना दिया। मैंने कलाकारों को गवाया। कुलेश्वर को बाद में जोड़ा। बैतल को भी बोला कि अच्छा गाओ भैया लाल फिल्मी आवाज के गायक व जबरदस्त अभिनेता हैं गोरेलाल वर्मन उन पर कुछ नहीं बोलूंगा। तिजन छत्तीसगढ़ पंडवानी  विधा की परिपक्व गायिका है। उसे सभी ने भुनाया। 18 दिनों को पंडवानी को 10 दिनों में गाकर सुनाया। सुंदरानी बंधुओं के बारे में मत बोलवाओं रे भाई? ऋतु वर्मा रामायण महाभारत को गाकर आगे जाने में तत्पर है। नरेन्द्र वर्मा कवि साहित्यकार थे उदार मना नहीं थे। बसंती नर्तक थी। किस्मत गायिका। पद्मा, माया, बसंती श्यामाचरण को राखी बांधती थी  उसने घोषणा किया था कि सिकोलाभठा की बस्तियों को पक्की कर देंगे। अब तक नहीं हुआ। 

बचपन ग्रामीण संस्कार की रही है मैं गीतकार व छोटा भाई मोहन गोस्वामी कलाकार के रूप में जीवन व्यतित कर रहे हैं। आज जैसे गड़बड़ी तब नहीं थी जहां तक परिवेश की बात है कलात्मक रूझान घर में नहीं थी किसान थे घर के गुजर बसर के लिए छोटा सा खेत हुआ करता था। कालांतर में कवि कैसे बन गया मालूम ही नहीं चला इतना और जोड़ दूं कि सत्संग अच्छा मिला। पवन दीवान ने मुझे पहचान कर अपने साथ ले आएं वहां से कृष्णरंजन व रवि श्रीवास्तव की संगत में गीत मंजने लगे थे। सारे गीत छन कर लोगों तक संप्रेषित होने लगा।

शब्दों का कटाव अच्छा हो गया कवि सम्मेलन में चलने लगा था। उसके बाद छत्तीसगढ़  व अखिल भारतीय स्तर पर कवि सम्मेलनों में जाने लगा। सोने में सोहागा रामचंद्र देशमुख के साथ मेरा उज्जवल पक्ष शुरू हुआ। साथ ही साथ राजेन्द्र शर्मा बघेरा वाले का साथ मिल गया। कालांतर में वे अभुद्य से जुड़ गए। मेरे जीवन जैसा शायद ही किसी के जीवन में ऐसे नामचीन शख्सियतों का साथ मिला होगा।

मुझे गीतकारों में प्रदीप व शैलेन्द्र ने प्रभावित किया। उनके गीतों को सुनता था। पहला छत्तीसगढ़ी गीतों के लेखकों को, तो नहीं जानता हां धरमदास की प्रस्तुति कमजोर लगने लगा था, उस समय विमल पाठक को बहुत सुना जाता था कोदूराम दलित का नाम सुना था। छग गीतों को अच्छे से रखने वाले विप्र जी की भी प्रस्तुति कमजोर थी, पवन दीवान की ‘अहो शिनेना दीनानाथ.....’ हरि ठाकुर द्वारा रचित ‘गोंदा फूल गे...’ जिसे रफी ने गाया अब फिल्मों में आने लगा है। मुझे गाने से ज्यादा गंवाने में मजा आता है मैंने ही केदार को गवाया। ‘मोर झुलतरी सेमन खिल गे....अच्छा गा सकता था इसे मैं भूल जाता था केदार मेरे कारण गायक बना मैं मौका नहीं देता तो तबला बजाते रहता। इस पूरे दौर में विदेश तो नहीं गया न ही मैंने कभी अपने आप को कभी कवि माना न गायक माना।

आप पूछेंगे कितने गीत गाए तो कहूंगा कि 8 - 10 गीत गाया

जीवकोपार्जन के लिए मास्टरी को चुना। जितने भी गीतों का रिकार्ड हुआ उसके बदले में मैंने कुछ नहीं कमाया। सरकार ने भी मेरे तेवर के कारण कभी गाने के लिए कोई नहीं बुलाया। आप पूछेंगे कितने गीत गाए तो कहूंगा कि 8 - 10 गीत गाया। लेकिन आश्चर्य होगा कि 400 - 500 गीत सुना जाता है। अलग-अलग ट्रेक में गाने के कारण संख्या में बढ़ोतरी हो गई है। दिलीप षढंगी ने अपने फिल्म में मेरे गीत को 45 हजार में सुरेश वाडेकर से गवाया। आज तक सारे गीतों को मैंने डर-डर कर ही गाया। अगर अब बम्बई में काम मिला तो जोरदार गा लूंगा। 

कुछ कवि सम्मेलनों में आज भी चला जाता हूं ज्यादातर समय बाहर घूम लेता हूं। वाराणसी में चले जाता हूं। झारखंड के आसपास मेरे मित्र बुला लेते हैं। इस समय मेरी कोई योजना नहीं है। सामथ्र्यवान नहीं हूं। मैं जरा तल्खी बोलने वाला हूं, हट कर बोल देता हूं इससे कलाकार दुखी हो जाते है। अब के कलाकार तीखा नहीं सुनते यदि मैं यह कहूं कि नाभि से गाना कहूं तो कलाकार गले पर जोर आजमाने लगते हैं। ऐसे वाक्यों से वे जुड़ नहीं पाते है हां अब भोलाराम साहू ने टीसी म्यूजिक के माध्यम से रचनाकार पं. सुंदरलाल शर्मा द्वारा रचित ‘दानलीला’ को पूरा गवा दिया। दानलीला को गाया हूं इसमें मेरे अलावा छाया चन्द्राकर, तीजन पटेल का स्वर है संगीत गोविन्द कार्तिक साहू ने दिया है। यह कृष्ण के जीवन पर आधारित है।

इस आपाधापी के जिंदगी में जब लोग मेरे गीतों को सुनकर सुकून महसूस करते हैं। ऐसे स्थिति में जब मैं अपने गाए, लिखे रचनाओं को पढ़ता व पलटता हूं तो आश्चर्य होता कि इन सब को कैसे लिख डाला। कभी-कभी अपने ही लिखे गीतों  जैसे ‘मया न छिने न देशी परदेशी...ये शब्द कहां से आ गया रे में मया के परिभाषा को गुनगुनाते रहता हूं। किसी तरह के चिंता में नहीं बहता हूं। स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। दो से ज्यादा तीन रोटी भी नहीं चाहिए। अभी तक सब ठीक ही चला रहा है। हां जिंदगी को राजकुमार कालेज ने व्यवस्थित कर दिया जिसका शुक्रगुजार हूं किसी तरह के नशा का सेवन नहीं करने से अनुशासित भी हूं। 

चंदैनी गोंदा के खुशबू की वास्तविकता व रचनात्मकता किसी में नहीं है

गीत के साथ नाटक, प्रहसन, नाचा व वादन में जहां तक वरदहस्तता की बात है इतना तो जरूर कहूंगा कि सूर का मास्टर हो गया हूं। गीत लिखने से पहले सूर का सृजन कर लेता हूं महत्वपूर्ण विधाओं में नाचा को परिष्कृत करना चाहता था। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला। अब लोग पीछे चले जा रहे हैं। सुनने लायक रचनाएं नहीं बना रहे हैं। मंच में दो जोकर अवतरित हो जाते हैं कार्यक्रम के प्रारंभ में गणेश वंदना को भी तरीके से प्रस्तुत नहीं करते उसमें भी जोकराई या हास्य का पुट उभार लाते हैं। चंदैनी गोंदा, सोहना बिहान जैसे मंचों के साथ अन्य छोटे-छोटे ग्रामीण मंचों की सार्थकता की जहां तक सवाल है चंदैनी गोंदा के खुशबू की वास्तविकता व रचनात्मकता किसी में नहीं है। वह तो अकल्पनीय थी। देशमुख विकृत संस्कृति को सम्हालने के लिए चंदैनी गोंदा की स्थापना की थी। उस समय लोकगीत गाने वाला मिलता था। ‘घरभर के मंगहिया रे लाला.... भर भादो के अवईया रे लाला....। अब तो टनाटन टूरी रे....जैसे गीत लोगों को मजा तो दे रहे हैं लेकिन एक बेहतरीन छत्तीसगढ़ी संस्कार नहीं दे पा रहे हैं। 

अपने पुराने समय को याद करते हुए बताते हैं कि  मैं मस्त रहता था कोई दोस्त यार नहीं था कोई कमी महसूस नहीं की थी समन्वय बना कर चलता था लिखता गाता चलता गया। जब खुमान बोलता था कि इसे ऐसा गा तो तत्क्षण गा देता था। सही अर्थों में कहा जाए तो कला व साहित्य के परिपेक्ष्य में राज्य बनने का श्रेय रामचंद्र देशमुख को जाता है। यहां हम सांस्कृतिक दृष्टि से जुड़ते चले जाते हैं। एक वाक्या याद करते हुए सार्थकता के सवाल पर बताते हैं कि दिल्ली में विज्ञान भवन में चंदैनी गोंदा कार्यक्रम तो हो गया लेकिन जैसा आउटपुट आना था नहीं आया। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में उसका गौरवपूर्ण अर्थ निकलकर नहीं आया। 

लोक संस्कृति व कला की शुद्धता के हिसाब से देशमुख ने ही इस क्षेत्र में काम किया

छत्तीसगढ़ी गीत को सिद्दत के साथ महिला गायिकाओं के साथ कविता वासनिक के बाद सीमा कौशिक गा सकती है लेकिन वह शोषण की शिकार हो गई है। पुष्पलता कौशिक अच्छी गाती थी। सीमा का ‘टूरा नहीं जाने रे...’ चर्चित हो गई। उसमें उन्होंने खूब कमाया। अब मेरा समय जा रहा है ऐसे समय में लोकहित में संस्कृति के संवर्धन में मेरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। फिर देशमुख जैसे मर्मज्ञ भी नहीं रहे। छग की छवि कुछ लोगों के कारण अच्छा नहीं बन रहा है। हबीब तनवीर का विरोध करता था उनके द्वारा प्रस्तुति का विरोध करता था। किसी भी सूरत में नंगापन का विरोध होना चाहिए। छग की गौरव के रूप में एक गायक व गायिका अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकी। गीत यहां स्थापित नहीं हुए। लोक संस्कृति व कला की शुद्धता के हिसाब से देशमुख ने ही इस क्षेत्र में काम किया है।

किसी भी तरह के संस्कृति को कैसे समृद्ध व सुरक्षित रखेंगे इस सवाल पर वहां चल रही नीति महत्वपूर्ण होता है। राज्य सहित पूरे देशभर में भारतीयता को नष्ट करने का षडय़ंत्र हावी हो गया है। यहां आपको मुख्यमंत्री के साथ सरकार क्या मिला इसका अर्थ यह नहीं कि गांव के अस्तित्व को खत्म कर स्मार्ट सिटी बना दो। क्या गांव को सेक्टर 1 व 2 बना दोगे। गांव को मत उजाड़ो। यदि ऐसा हो रहा है तो यहां का नीति निर्धारण गलत है। हमारा सोचने का ढंग अलग होते जा रहा है। विडंबना यह कि अंग्रेजी माध्यम हो गया है अपनी भाषा में कुछ भी नहीं है। जब तक चुनी हुई सरकार में तपस्वी लोग नहीं होंगे देश सम्हल नहीं सकता। आदिवासी ही नहीं सारे लोग नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे। राज्य बनने के बाद कौन बोला था कि रायपुर को बम्बई व दिल्ली बनाओगे। होना यह चाहिए था कि गांव को स्मार्ट गांव बनाओ। यहां पानी की कमी थी अब तो चिडिय़ा चूक गई खेत हो गया सूखा से किसी को कोई मतलब नहीं।

बदलते समय के साथ लोक कलाओं में सहज परिवर्तन को कोई नहीं रोक सकता। अच्छे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से विकृत होते संस्कृति को  सजाया संवारा जा सकता है। सुंदरानीबंधु यही कर रहे हैं। संस्कृति को विकृत कर रहे हैं। लोककला माध्यम आधुनिकतम चिंताओं और समस्याओं को संप्रेषित करने का सशक्त माध्यम है। गीत, संगीतकला व नृत्य यही मनुष्य को परिष्कृत करने के साधन है। उड़ीसा में ओडिसी भगवान को भोग लगाने का नृत्य था। वह उड़ीसा का पहचान व कृष्ण का चरित्र को प्रस्तुति का आधार बनाया। इस माध्यम से वास्तव में लोकसंस्कृति को बांध कर रखा गया है। हम अब ऐसे ही काम ‘दानलीला’ के माध्यम से कर रहे हैं यहां रासलीला होता था।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति वास्तव में बाजारवादी हो गया है

लोग ओडिसी को शांत होकर सुनते हैं सुनने वाला व्यक्ति अपने आप को सम्हाल कर जाएगा वहां फुहड़ता नहीं रहेगा। दिलीप लहरिया को ही लीजिए ‘धीरे धीरे डाल पीराथे...’ जैसे गीतों के माध्यम से अश्लील संस्कृति को परोस रहा है और अब ऐसे लोग मस्तुरी विधानसभा के लिए विधायक भी चुन कर आ रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ी संस्कृति वास्तव में बाजारवादी हो गया है। कला मर्मज्ञों का मानना है कि लोक से शास्त्र बनता है। शास्त्र ही दुबारा लोक रूप को धारण करता है। चंदैनी गोंदा के गीत ‘कोनो सुर बनाओ.....’ लोकसुर का रूप लेकर शास्त्र बन गया। 

सांस्कृतिक पतन का दौर देखिए अनुज शर्मा का हीरोपन खत्म हो गया तो अब गायक हो गया। महानंद जोकर लोकगायक हो गया। नकली लोग छत्तीसगढ़ के गीत को गाकर गायक बन गए। राज बनने के 15 साल के बाद भी सरकार ने एक भी गीत नहीं गवाया। जहां तक लोकगीतों के इतिहास के बारे में कला की प्रक्रिया संवदेनशील नजर नहीं आती। फुहड़ता को बनाए रखने का काम हो रहा है।  गीत तो बनेगा लेकिन 100 में खत्म। अच्छे हृदय के गीत सालों साल चलेगा।

तुलसीदास के ‘बन निकल चले भाई...’ ये जीवित रहेंगे। बिलई काटे मुसऊवा छानी में झपट गे.... क्या ये जीवित रहेंगे। मेरे गीतों को इसीलिए जीवित मानता हूं कि उसे कविता वासनिक व भैया लाल हेडाऊ ने जीवित रखा है। उनके गीतों को आगे जब नई पीढ़ी नहीं गाएगी तो कैसे जीवित रहेगा। फिर गीत में वे सारे तत्व भी होने चाहिए जिसके लिए उसकी सार्थकता है। इसलिए गीतों में करूणा सास्वत कहलाती है। चाहे व्यंग्य में ही क्यों न हो, वह भावनाओं को संवदेनाओं के रूप में जागृत रखता है। यदि साहित्य से करूणा को हटा लिया जाए तो सृजन अधूरा ही माना जाएगा। 

आदिवासी मर रहा है और बदले में मार रहा है

निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण गीतों के लिहाज से खतरनाक शब्द हैं। जो समर्थ है पूरे दुनिया को बाजार समझते हैं। कोई चिंतक राजा नहीं हुआ। कोई समूह ऐसा नहीं हुआ कि लोगों की नहीं सुनी तो व्यवस्था को उखाड़ दिया हो। यहां पहले बेईमानी होता है फिर भ्रष्टाचार होता है। रोड का पैसा क्यों खाओगे। वैश्वीकरण के नाम पर आम जनमानस को बेवकूफ बनाया जा रहा है। मेरे समय में सलवा जुडूम पर गीत बनाया है उसने मुझे प्रभावित किया। उस दौरान सभी को बंदूक देकर दुश्मन बना लिया गया था आज भी स्थिति क्या है आदिवासी मर रहा है और बदले में मार रहा है। 

गीत नहीं गा सके ऐसा कभी नहीं हुआ और लोगों ने पत्थरों को फेंक कर मारा हो? ऐसा भी कभी नहीं हुआ नम्रता के साथ कहा और जहां भी जाता हूं लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम से माहौल बन जाता है। फुहड़ लोग हर जगह मिलते हैं। कार्यक्रमों में 10 पर 10 हावी हो जाते है। मैं फोकट वाला गीत नहीं गाता। अब काफी महंगा हो गया हूं। आज बेकार के कला को कोई नहीं सुनता है। पैसा देकर लाए गए कलकारों का गांवों में भी मान सम्मान होता है। साहित्यिक सवालों पर बताया कि विनोद कुमार शुक्ल कविता पल्ले नहीं पड़ता। छंद कविताओं को पढ़ता हूं।

मैंने लोगों के पसंद को पकड़ा

मुक्तिबोध की कविताओं से वास्ता रखते हैं। अच्छी रचना के सवाल पर बताया कि माता-पिता भाई बहनों का ध्यान रखकर लिखा गया रचना व्यर्थ नहीं होता। इसे दिमाग से देखने की जरूरत है। अपने गीतों का कॉपी के संबंध में बताते हैं कि बिल्कुल नहीं जानता। नए कलाकारों में मेरे शब्द उनके आसपास घूम रहे हैं। कोई भी विचार हो घूमता है मरता नहीं। जो अन्याय को देखकर गरम नहीं हुआ पशु तुल्य है। सुन्दरलाल शर्मा के समय में यानी युवा अवस्था में बुद्धि आई होती तो अलग प्रतिष्ठा होती। रामचन्द्र देशमुख नाम इसलिए बार-बार लेता हूं कि उन्होंने साहित्यकारों को लिया। भुले भुलाए लोग को स्थापित किया। मैंने लोगों के पसंद को पकड़ा। मैं गांव से जुड़ा रहा। छत्तीसगढ़ को प्रतिष्ठित करने का जुनून दिमाग में घूस गया। ‘सोनाखान के आगी’ रोंगटे खड़े हो जाएंगे।

मैं राष्ट्रवादी हूं

मैं राष्ट्रवादी हूं। लेकिन राष्ट्र से बंधा हुआ नहीं हूं। कुल मिलाकर यह विचार शिक्षा व राजनीति में ही ठीक लगती है राजनीति से सुविधा को खत्म करना था। सम्पत्ति को खत्म कर देना था। व्यक्तिगत सुविधा नहीं होना था। व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि 25 साले पहले ‘जब तक चाऊर दाल महंगी तोर चकाचौंध बेकार है’ रोजमर्रा के जरूरत के लिए परेशान होते लोगों के लिए सरकार को कोसते हुए गीत लिखा था।      नकली चुने हुए जब तक सामने होंगे तब तक कुछ संभव नहीं है। विवेकानंद ने कहा है कि जिसके पास विचार रहेगा मतभेद रहेगा। जातिवाद से बीआर अंबेडकर कुंठित थे। मनु का विचार उन्हें पसंद नहीं था। कुंठा से लेखन होता है। कुंठा ही लिखाती है। 

प्रदीप द्वारा लिखित ‘मेरे वतन के लोगों....’ को असरकारक गीत नहीं मानते हैं। ‘दे दी तूने खडक़ बिना डाल...’ इस गीत के पहले जितना कुछ कुर्बानी दिया गया क्या सारी कुर्बानी नष्ट होकर रह गया। देश की मर्यादा को बनाए रखना है। कहना कि हमारे गीत संगीत हमारे आसपास नहीं रहेगा इसे गलत मानता हूं। चंदैनी गोंदा के गीत लोगों को ज्यादा सांस्कृतिक आनंद पहुंचाता है। लेकिन आज गीत हमारे सेंटीमेंट को लूटने का माध्यम बन गया है। 

हमारी गीत व संगीत शुद्र वर्ग से लिए गाये गये हैं 

हमारी गीत व संगीत शुद्र वर्ग से लिए गाये गये हैं। तिजन बाई व देवारिन गीत सभी निम्न वर्ग का समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। डाकू डाका डाल कर लोगों के सहानुभूति को प्राप्त करने के लिए देवी का मंदिर बनाता है। डाकुओं द्वारा स्थापित राम मंदिर अब बिरला मंदिर बन गया है। इस पर कोई विवाद क्यों नहीं करता? बर्बर काल से आज तक सब कुछ ऐसा है, डाकू का स्थापित देवी मंदिर हमारा कल्याण कैसे करेगी? अच्छे चीजों को राजाश्रय मिलना चाहिए। पूरा चमन खुशबूविहीन हो गया है। टीवी चैनलों के नीचे सबकुछ दब गया है। जनता में जागृति से ही सफल राजनीति का जन्म होता है। हो क्या रहा है! क्या बस्ती उजाडऩे के लिए हमने वोट दिया था।

बाजार, मेला हमारा नष्ट कर दिया गया है। मेला उजाड़ दिया गया है बदले में माल बना लिया गया। केरल में बताओ कौन महंगा महल बनाता है?  लघुताबोध से हम ग्रसित है। हम आशावादी लोग हैं दो चार लोग नए छत्तीसगढ़ के संबंध में सोचते थे। अब इसे हमने कल्पना के रूप में साकार होते देख रहे हैं। यही तथ्य व सोच हमें नए परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं। सरकार ने जनता में जागृति लाने के बदले उनमें आलस्य ला दिया है। राज्य में राजनीति व्यापारिक व गड़बडिय़ों का जंजाल बन कर रह गया है। यह सब भी बदल जाएगा वह दिन भी आएगी जिसकी कल्पना हम लोगों ने ‘चंदैनी गोंदा’ के रूप में देखा था। 


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  • 20/11/2022 रामेश्वर साहू

    लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे कालजयी रचनाकार के हृदय की गुंजन से उत्पन्न हुआ गीत खुमान साव के संगीत के आलोक से गुंजित गीत और दो रामचंद देशमुख के त्याग तपस्या,पीड़ा और धरती महतारी को समर्पित चंदैनी गोंदा आह्लाद से भर जाता है।

    Reply on 31/12/2022
    जी, शुक्रिया