कोरोना का या वैक्सीन का कहर!

कनक तिवारी

 

इतिहास में किसी ज्योतिषी मसलन नास्त्रेदमस ने भी नहीं बताया कि कोरोना नाम की महामारी पूरी दुनिया को लील लेने की ठसक लिए इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रलय हो जाने का अहसास कराएगी। उसी टीसते अहसास में दुनिया जी रही है। विवाद कायम है कि वायरस चीन की वुहान फैक्टरी से जानबूझकर रासायनिक प्रयोग करते या भूलचूक में पैदा होकर दुनिया को सबसे जहरीले सांप से भी ज्यादा खतरनाक होकर डस रहा है। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में उलझन के कारण महाबली देश अमेरिका अपने मुंह मियां मिट्ठू होता रहे।

लेकिन वह चीन की साजिशी अंतड़ियों से तथाकथित सच को निकाल पाएगा। ऐसा सोचना भी मुश्किल है। चीन व्यापारिक, सामरिक और कूटनीतिक साम्राज्यशाही में अमेरिका से उन्नीस नहीं लगता। यूरोप के लोकतांत्रिक व्यवस्था के तमाम देश अमेरिका के पिछलग्गू हैं। एशिया के भी कई मुल्क भारत सहित अपने निजाम की अमेरिकापरस्ती के कारण उसी देश के फतवे में अपनी औकात ढूंढ़ रहे हैं।

कोरोना को देस परदेस, जांति पांति, मजहब, ईमान किसी से लेना देना नहीं। उसे जिंदा इंसान चाहिए जिन्हें वह लाशों में तब्दील कर दे। यह कुकर्म भी उसने राजनेताओं से ही सीखा है जो अपने से कमजोर मुल्क के इंसानी गोश्त को अपनी भूख मिटाने के लिए सबसे बड़ी डेलिकेसी इराक, पेलेस्टाइन, क्यूबा कहते रोज सुबह शाम बनाते रहते हैं।

इन भयानक हालात में दुनिया के लगभग सबसे बड़ी जनसंख्या के देश भारत की अजीबोगरीब, लचरपचर, लस्तमपस्तम हालत हो रही है। ले देकर विज्ञान आधी अधूरी समझाइश और सच्चा झूठा आश्वासन ही दे रहा है कि यदि लोग वैक्सीन की दो लगातार खुराकें जिस्म में इंजेक्ट करा लें। तो महामारी से मौत की गुंजाइश 60-70 प्रतिशत तक कम हो जाती है।

कोरोना का हमला गंभीर हो तब भी बिना अस्पताल में भर्ती हुए मुंह पर मास्क बांधे, एक दूसरे से दो गज दूर रहने और बार बार साबुन से हाथ धोने तथा दवा खाकर बचा जा सकता है।

सफेद स्याही में अलबत्ता यह भी लिखा होता है कि कोरोना भगाने छत या बालकनी में खडे़े होकर खाली, ताली, घंटी नहीं बजाना। दिया, मोमबत्ती, टार्च नहीं जलाना। ‘भाग कोरोना भाग‘ का नारा बुलंद नहीं करना। यज्ञ में कोरोना की आहुुति नहीं देना। जुलूसबंदी करके महिलाओं को किसी पूजन स्थल में नहीं जाना। न ही कोरोना वध यज्ञ की आड़ में प्रीति भोज में प्रसाद के नाम पर छककर भोजन करना।

‘मेरा भारत महान‘ के नारे वाले देश के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सैलाब में डूबे इलाकों को हेलिकाॅप्टर में मुंह पर मास्क बांधकर फोटो प्रचारित कराते हैं। चुनावों, पार्टी सम्मेलनों, कुंभ मेले, शादी ब्याह के जलसों, रैलियों, जुलूसों में मास्क की पर्दादारी से बचते खुल्लमखुल्ला कोरोना को वोट देते उसका संदेश घर घर पहुंचाते हैं।

भारत ने कोरोना पीड़ित गिनने विश्व रिकार्ड अपने नाम कर लिया है। कमी के बावजूद प्रधानमंत्री पर छवि चमकाने के लिए काफी वैक्सीन विदेश भेज देने का आरोप लगा। देश की राजधानी में पोस्टर लगाने वाले मजलूम गिरफ्तार होकर जमानत पाने से महरूम हो गए।

वैक्सीन बनाता बड़ा निर्माता नेताओं पर हिंसा का आरोप लगाकर वतन छोड़ इंग्लैंड भाग गया। उसका बाल बांका न हो, बल्कि विदेश मंत्री उससे मिलने जाएंगे की खबर छपी। कई संदिग्ध अरबपति जिंदगी बचाने देश छोड़ इंग्लैंड भाग जाएं।

देश का शासन संवैधानिक प्रावधानों के तहत केन्द्र पर निर्भर होने पर भी राज्यों पर जिम्मेदारी थोपे कि कोरोना युद्ध की वैक्सीन धनरहित होकर भी खुद मुहैया कराएं। मीडिया की विज्ञापनखोरी साल भर वसंत ऋतु का जश्न मनाती जहां से वसूलती है। वहीं की झूठी वाहवाही के कसीदे काढ़ती है।

भयानक परिदृश्य में ‘जनता‘ असुरक्षित है। उसका अस्तित्व कुचल दिया गया है। वह लाखों की संख्या में कोरोना पीड़ित है। वह हजारों लावारिस लाशों में तब्दील होकर पवित्र नदी गंगा के किनारे दफनाई जा रही है। चील, कौव्वे, कुत्ते, गिद्धों को लाशें नोचने की अनुमति और आमंत्रण है।

अस्पताल, ऑक्सीजन, वेंटिलेंटर, डाॅक्टर, नर्स, दवाइयां सिरे से गायब नहीं हो लेकिन काले बाजार में वारांगनाओं की तरह अमीरों को ही लुभाती हैं। सबसे बेगैरत हालत में गरीब हैं। रोजी रोटी से महरूम जिंदगी और मौत के बीच त्रिशंकु हो गए हैं। उनके लिए तो एक सांस तक जवाबदेह नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट कोरोना अलार्म सुनकर धूप चढ़ आने पर सही जाग गया, लगता है। कहता है एक देश, एक निशान, एक प्रधान के साथ रहो एक वैक्सीन एक खरीदार। सरकार अठारह घंटे काम करती रही। इसलिए सो गई। उसे सेन्ट्रल विस्टा, ममता बनर्जी, एलोपैथिक डाॅक्टर, रामदेव, पेलेस्टाइन, राहुल गांधी तंग करते रहते हैं।

ताउते और यास तूफान कोविड 19 की तीमारदारी को हवा हवाई करने आ गए थे। लोकतंत्र में चुनाव लाल रक्त कण हैं। कोरोना सफेद रक्त कण। इसलिए भी कोरोना को सरकार की यादध्यानी में आरक्षण कैसे मिल सकता है? प्रदेश सरकारें भी ठनगन नहीं करतीं तो कुछ हो सकता था! ऐसे वक्त वैक्सीन से ज्यादा लोकतंत्र बचा सकता है इंसानों को।

कोराना ने इतना बड़ा हमला किया है कि नेता दहल गए हैं। अधिकांश तो घर में घुसे हैं। जनता तालाबंदी के कैद घर में है। काबिले तारीफ अपवादस्वरूप कई स्वयंसेवी संस्थाएं, नौजवान और सबसे ज्यादा सिक्ख संगत लोगों की सेवा करने का माकूल काम कर रहे हैं। मुसीबत के समय साहस, अहतियात, समझदारी और धीरज सबसे बड़े चारित्रिक गुण हैं।

वे महाभारत कथा में भारतीय प्रज्ञा के प्रतीक पुरुष कृष्ण की वसीयत में हैं। कोरोना तो आखिरकार जाएगा। नहीं जाएगा तो साथ रहते नियंत्रित होगा। पहले भी वायरस आए हैं। इंसान को डराते, धमकाते रहे लेकिन नियंत्रित हुए हैं। राजनेता तो मौसमी उत्पाद हैं। कई तो पांच बरस भी नहीं जीते। भले खुद को अमर समझते रहें। कोई रहेगा तो वह देश ही है याने उसके निवासी और उनकी पीढ़ियां।

कुछ सूदखोर, कालेबाजारिए, जमाखोर, मुनाफाखोर और उन सबके सरताज लूटखसोट के बादशाह काॅरपोरेटी सबसे ऊंची पायदान पर दिखाई देते हैं। लाचार, कमजोर, अशिक्षित, निरक्षर, गुमराह नौजवानों और सठियाए बूढ़ों के मिले जुले कुंद दिमागों का आलम काॅरपोरेटियों-सरकार गठजोड़ का अंधभक्त होता पस्तहिम्मती का ज्यादा खतरनाक वायरस उगा रहा है।

जनता कमर कसकर मुकाबला करने बढ़े तो कोरोना जैसी मुसीबत पर काबू पाना भारतीय इंसानी फितरत के बाहर नहीं है। भारतीयों को अहंकार नहीं होना चाहिए कि वे ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसा होता तो सदियों गुलामी झेलनी नहीं पड़ती। इतिहास ने दरअसल बीसवीं सदी में पहली बार लोकधर्मी करवट ली है। यह महादेश अपने दमखम और विवेक पर भरोसा करते जनधर्मी होकर उठा।

इस यात्रा में कारवां चल रहा है। पाथेय झिलमिला रहा है, लेकिन पहुंच के बाहर नहीं है। कोवैक्सीन, कोविशील्ड, स्पूतनिक, माॅडर्ना, अक्ट्राजेनेका, नोवावैक्स वैक्सीन के तरह तरह के वैरियन्ट हैं। बचाते क्यों नहीं?


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