रमन सरकार से भूपेश सरकार तक - त्राहिमाम त्राहिमाम

के आर शाह

 

20 सालो से छत्तीसगढ की राजनीति में आदिवासी एक फुटबॉल की तरह कांग्रेस से भाजपा और भाजपा से कांग्रेस के पाले में किक खा खाकर इधर उधर उछलकूद करता रहा। लेकिन गोल करने में आदिवासी खिलाड़ी कभी सफल नहीं रहे। छत्तीसगढ की राजनीति में दोनों ही दलों के स्वामी व कप्तान अपने-अपने राजनैतिक हितो के लिए खेलते है,ऐसी स्थिति में आदिवासी हितों की बलि चढ़ना स्वाभाविक है।

गौरतलब है कि फुटबॉल आदिवासी का और मैदान भी आदिवासी का लेकिन टीम के रेफरी से लेकर मैनेजर तक सब कुछ गैर आदिवासी का। आरक्षण है इसलिए फुटबॉल मैच में मजबूरी के कारण आदिवासी खिलाडियों को टीम में रखना बाध्यता है। लेकिन इस खेल में आदिवासी खिलाड़ी को सेंटर फॉरवर्ड भी नहीं खिलाया जाता। इसके बावजूद आदिवासी खिलाड़ी इसी बात पर गौरवान्वित होता रहता है कि वह खेल रहा है।

आउटर पर खेलते अपने खिलाड़ी को देख देखकर रहने का आदी हो चुका आदिवासी समुदाय भी मदमस्त है। खूब ताली थाली बजा लेता है। नाचना और झूमना तो उसकी फितरत में है ही इसलिए ढोल,झांझ व मांदर भी उनके आगमन पर अपने गले में टांग लेता है। यह खेल चलता रहा है, चल रहा है लेकिन क्या अनवरत चलता रहेगा? यह युवा पीढ़ी पर निर्भर है।

2003 में कांग्रेस की सरकार को हटाकर आदिवासियों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता का सरताज बनाया था। पंद्रह वर्षों तक भाजपा का खेल चलता रहा  इन 15 सालो में बस्तर संहार से लेकर जनसंहार की ऐसी इबारत लिखी गई जिसकी मिसाल दुसरी देखने को नहीं मिलती। भाजपा के इसी शासनकाल में नक्सलवाद की आग धधकती ज्वाला में बदल गई थी।

रमन सरकार के राज्य में बस्तरवासियो ने कभी इतने दुर्दिन पहले कभी नहीं देखे थे। नक्सलवाद के इतिहास में पहली मर्तबा इन 15 वर्षो में आदिवासियों के खून की होली खेली गई थी। धरना जुलूस,आवेदन व निवेदन कल भी होते थे व आज भी हो रहे है। फिर बदला क्या? अभी हाल की घटना है कि सिलेगर में पुलिसबल की फायरिंग में चार आदिवासी मारे गए एवं दर्जनों घायल है। कुछ भी तो नहीं बदला। हां सिर्फ सरकार बदल गई। भाजपा का शासन था अब कांग्रेस की सरकार है।

आरक्षण का बादाम पिस्ता खाकर कांग्रेस की टीम में आदिवासी खिलाड़ी को भी जगह मिली हुई है और वे आदिवासियों के नाम पर भूपेश बघेल की टीम में खेल रहे है। ये आदिवासी खिलाड़ी किस पोजिशन में खेल रहे है? यह आदिवासी समाज को समझ नहीं आया। आदिवासी समाज को आज भी खेल और खेल की धार का ज्ञान नहीं है। अविभाजित  मध्य प्रदेश से नवनिर्मित छत्तीसगढ़ के राजनीतिक खेल तक का संपूर्ण ब्यौरा हमारे सामने है, लेकिन ना तो ये कोई पढ़ना चाहता है, और ना कोई जानना चाहता और ना ही कोई समझना चाहता है। कुछ युवा, कुछ अधेड़ व कुछ बुजुर्ग बिरसा के उलगुलान का आहवान करते रहते है, वह भी तब जब कुछ अप्रिय घट जाता है। बाकी समय जंगल में मंगल चलता रहता है।

पिछ्ले 50 सालो से बस्तर के आदिवासी जीवन में लगातार व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। नक्सलवाद और पुलिसवाद ने आदिवासी जीवन को भारी संकट में डाल रखा है। पर्दे के पीछे उद्योगपतियों, कॉरपोरेट घरानों व केंद्र/राज्य सरकारों की जुगलबंदी किसी से छुपी नहीं है, जो देश भर के आदिवासी क्षेत्रों में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए लालायित है। यह कहानी बहुत पुरानी है, जो देश की आजादी के बाद से धारावाहिक की भांति निर्बाध गति से चल रही है और दुर्भाग्य भी क्या चीज है कि, इस सीरियल में कलाकार, सहकलाकार, गीतकार व संगीतकार से लेकर कैमरामैन सहित दर्शक भी आदिवासी है।

आदिवासी समाज की हालत इस गीत से समझी का सकती है -"ना तो दर्द गया, ना दवा ही मिली, मैने घूम कर देखा ज़माना"। पाठको के लिए यह भाग - एक है। दुसरा भाग (दो) के लिए कुछ दिनों का इंतजार करे। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे ताकि लिखने व बताने की हमारी क्षमता में जोश बना रह सके। यदि आप पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेगे तो कोई क्यों लिखेगा?

भावनाओ में ना बहे, समस्या और उसके इतिहास का अध्ययन करें समाधान यही से आएगा।
 


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