जी हां, धर्मवीर आजीवक धर्म के पुनर्संस्थापक हैं  

कैलाश दहिया

                                        

'डॉ. धर्मवीर का आजीवक धर्म' नाम से गुरप्रीत सिंघ जी. पी. ने 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल' ग्रंथ पर मुंह खोला है। इन की लिखत इन के ब्लॉग sikhsaakhi.com पर देखी जा सकती है। यह लेख इन्होंने 1 जून, 2021 को अपने ब्लॉग पर लगाया है।

वैसे, गुरप्रीत सिंघ महोदय ने जितना दम महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर  की आलोचना में लगाया है, अच्छा होता उतनी जान ये आजीवक चिंतन को समझने में लगाते। वैसे तो आजीवक समझ नहीं आने वाला। तो भी इन्हें सीखने की कोशिश तो करनी ही चाहिए। अगर नहीं, तो इन के लिए यही उचित रहेगा कि ये गुरुओं की वाणी पर ध्यान लगाएं। इस से इन्हें मानसिक शांति मिलेगी। इन्हें कबीर साहेब से क्या लेना-देना? इन्हें सदगुरु कबीर को भगत की गाली देने से बाज आना चाहिए। इन्हें इतनी भी समझ नहीं कि किस दबाव में सिक्ख गुरुओं ने सद्गुरु रैदास और सदगुरु कबीर की वाणियों को 'गुरु ग्रंथ साहिब' में संकलित किया था। इन महान आजीवकों की वाणियों के चलते ही हमारे लोग सिक्ख धर्म की तरफ आकर्षित होते रहे हैं।

अगली बात भगत या भक्त को ले कर है, तो इन महोदय को खबर रहनी चाहिए, जिन्हें ये भगत कह रहे हैं वे सद्गुरु हैं। सद्गुरु का अर्थ होता है 'जिन में ज्ञान की ज्योति खुद-ब-खुद प्रज्ज्वलित होती है।' ये यह भी जान लें, सदगुरु और गुरु में भी जमीन-आसमान का फर्क होता है। एक सद्गुरु के ज्ञान या प्रकाश से सैंकडों-हजारों गुरु पैदा हो सकते हैं, लेकिन सैंकड़ों- हजारों गुरु मिल कर भी एक सद्गुरु पैदा नहीं कर सकते। फिर, आज तो खुद को सद्गुरु कहने वाले भी पैदा हो गए हैं, लेकिन ऐसे लोग केवल नाटककार की श्रेणी में आते हैं। इन से पूछा जाए, ये जो बार-बार कबीर साहेब को भगत-भगत लिख रहे हैं, ऐसे ही गुरु नानक जी को भगत नानक लिखा जाए तो इन्हें कैसा लगेगा?

कितने दुख की बात है, सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब की वाणी को संकलित करने पर गुरु कहा जा रहा है और मूल वाणी देने वालों को भगत! कैसी बुद्धि है यह? इस तरह से तो गुरु बनने का बहुत ही आसान रास्ता है। फिर, "हमारे आपके हम सब के सांझें" (2) कबीर तभी हो सकते हैं जब कबीर साहेब को सिक्ख धर्म में वही स्थान दिया जाए जो गुरु नानक का है। उन्हें भगत कहना गाली देने के समान है। अगर ऐसा नहीं कर सकते तो किसी को कबीर साहेब का झूठा नाम नहीं लेना चाहिए। काश! इन्होंने अपने लेख में एक बार ही लिख दिया होता 'गुरु कबीर', तब इन्हें यह लेख लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

असल में हुआ क्या है, हुआ यह है कि जब से डॉ. धर्मवीर की किताब 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल' आई है, तभी से 'रैदास कबीर' का नाम लेने वालों के पांवों के नीचे से जमीन निकल गई है। फिर वे चाहे रविदासपंथी हो या कबीरपंथी, बाकी तो किसी गिनती में ही नहीं हैं। अपनी इस किताब में प्रखर चिंतक डॉ. धर्मवीर ने हमारे सद्गुरुओं की सच्ची वाणी सामने ला दी है। यह घोषणा करने वाली बात है कि इस महान ग्रंथ में संकलित हमारे पुरखों की वाणी के सिवाय हम किसी भी अन्य किताब में संकलित वाणी को स्वीकार नहीं करने वाले। हिंदी साहित्य जगत में दो दशकों (1997-2017) तक कबीर पर चली बहस में अच्छे-अच्छे कहीं के नहीं रहे। कबीर के नाम पर गढ़े प्रक्षिप्त को डॉ. धर्मवीर फूंक कर चले गए हैं।

जिस कबीर वाणी की यह बात कर रहे हैं, उसे ये अपने लिए सच मान लें। उस से हमें कोई मतलब नहीं। पूछना यह भी है, सिक्ख गुरु परंपरा में एक भी गुरु दलित जातियों से हो तो बताया जाए। यहां डॉ. धर्मवीर के शब्दों में बताया जा सकता है, 'दलित कबीर को ऐसे जानता है जैसे मुसलमान अपने प्यारे मौहम्मद को और एक ईसाई अपने महान ईसा को जानता है। कबीर को समझने के लिए दलित को साक्षर होने की जरूरत नहीं है। वह कबीर के दर्शन को जीता है।'(3) आगे इन्हें बताया जा सकता है, 'दलित के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि अपने कबीर को समझने के लिए उसे रामानंद ब्राह्मण को भी समझना पड़ेगा। रामानंद का दर्शन कुछ भी हो - इससे दलित को कुछ लेना देना नहीं है।' (4)

उम्मीद है इन्हें बात समझ आएगी। प्रसंगवश, यहां बताया जा सकता है, इस देश के इतिहासकारों ने सच को आंखों के सामने से ओझल रखा। यह डॉ. धर्मवीर ही हैं जो इस देश की बहुसंख्यक जनता का इतिहास सामने ले आए। इसी बात से गुरप्रीत सिंघ परेशान हो गए लगते हैं। ऐसा नहीं है कि ये अकेले परेशान हैं, बौद्धों, जैनियों और ब्राह्मण की तो नींद ही उड़ गई है। इन्हीं धर्मों के इतिहासकार ही आजीवक से मुंह चुरा रहे थे। हां, ऐसों ने चोला जरूर सेक्यूलर का ओढ़ा हुआ था। पूछा जा सकता है, डॉ. धर्मवीर के सामने कौन इतिहासकार टिकता है? उम्मीद है सिक्ख इतिहासकार इस बात से सीख लेंगे। वैसे भी इतिहास का पहिया किसी को बख्शता नहीं। अच्छे-अच्छे इस में पीस जाते हैं।

डॉ. साहब बताते हैं, 'सिक्ख धर्म क्षत्रियों का तीसरा धर्म है। इससे पहले भारत के क्षत्रिय इस देश को बौद्ध और जैन धर्म के नामों से दो धर्म दे चुके थे। क्षत्रियों के तीनों धर्मों की विशेषता यह है कि ये तीनों वर्ण-व्यवस्था और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।'(5) तभी ये अपनी तिकड़मी बुद्धि से लिख रहे हैं, 'डॉ. धर्मवीर... पुनर्जन्म को तो नहीं मानते, जो अच्छी बात है, परंतु सदियों पहले लुप्त हो चुके आजीवक धर्म को पुनर्जन्म देने की अवास्तविकता में दूसरों को भ्रमित कर रहे हैं।'(6) इस पर इतना ही कहना है ये भ्रमित ना हों। आजीवक धर्म की वास्ताविकता-अवास्तविकता  हम दलितों ने तय करनी है, किसी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र ने नहीं। ये वर्णवादी अपने वर्णों में उतरें-डूबें, इस बात से हमें कोई मतलब नहीं।

इनकी चालाकी देखी जाए, ये लिखते हैं, 'जिस आजीवक धर्म की बात डॅा. धर्मवीर कर रहे हैं, वह गोसाल का नहीं, डॅा. धर्मवीर का अपना है। डॅा. धर्मवीर ने तो गोसाल, कबीर और रैदास का बस नाम इस्त्माल(इस्तेमाल) किया है, बात उन्होंने अपनी ही की है। आजीवकों के लिए अपने धर्म को जानने के लिए गोसाल को नहीं डॅा. धर्मवीर को ही पड़ना (पढ़ना) होगा।'(7) सर्वप्रथम तो ये ही पूछा जाए, हमारे सद्गुरुओं की वाणी का किस ने इस्तेमाल किया है? अगर 'गुरु ग्रंथ साहिब' में से सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब की वाणी को निकाल लिया जाए तो इस में क्या बचेगा? फिर, जैसा डॉ. साहब ने बताया है दलित तो अपने सदगुरुओं के दर्शन को जीते हैं। तब  ये ही बताएं, अगर हम अपने पुरखों की बात कर रहे हैं तो इस में गलत क्या है?

डॉ. धर्मवीर के माध्यम से हम कबीर, रैदास और गोसाल तक पहुंच जाते हैं। अपने पूर्वजों का नाम लेने में क्या बुराई है? बुराई तब पैदा होती है जब आप गुरु किसी को मानते हैं और जिन की शिक्षाओं की बात करते हैं उन्हें 'भगत' कहते हैं। हम अपने सद्गुरुओं की बात कैसे करते हैं, इस से इन के समेत किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए। ऐसा लगता है इन्होंने हमें डॉ. अंबेडकर समझ लिया है, जो जबरन दलितों को बुद्ध के पास ले कर जाते हैं। इधर तो वर्ण, पुनर्जन्म और संन्यास का नकार हमें धर्मवीर, कबीर और रैदास के माध्यम से सीधे महान मक्खलि गोसाल के पास पहुंचा देता है। जहां सहस्त्रवीणा की तान पर आजीवक सीधे 'नियति' से एकाकार हो जाते हैं। वैसे, इन की भाषा में बात की जाए तो धर्मवीर दलितों के उद्धारक ही तो हैं। इस बात से ये क्यों परेशान हो रहे हैं?

इन से पूछा जा सकता है, इन्हें कैसे पता 'जिस आजीवक धर्म की बात डॉ. धर्मवीर कर रहे हैं वह गोसाल का नहीं, डॉ. धर्मवीर का अपना है।' बताया जा सकता है, इन जैसों ने 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल' के माध्यम से केवल गोसाल का नाम भर सुना है, बाकी ये हवा में मुक्के मार रहे हैं। इन्हें बताया जा सकता है, महान मक्खलि गोसाल इस देश के मूल निवासियों, जिन्हें आज दलित कहा जा रहा है, उन के पुरखे हैं, जिन्होंने मूल निवासियों में शुरू से चले आ रहे वर्ण विरोधी चिंतन को व्यवस्थित कर के आजीवक धर्म की नींव डाली है।

तत्कालीन जैन, बौद्ध और ब्राह्मणों ने आजीवक चिंतन से चोरी ही नहीं की है, बल्कि प्रक्षिप्त गढ़ कर अपने धर्मग्रंथों में इसे छुपाने की भरपूर कोशिश भी की है। यह डा. धर्मवीर ही हैं जिन्होंने आजीवक को पुनर्स्थापित और पुनर्व्यवस्थित किया है। इन की यह बात तो हास्यास्पद ही है कि 'आजीवकों की समझ और उत्थान डॅा. धर्मवीर की समझ से आगे नहीं बड़(बढ़) सकती।' (8) वैसे ये अपनी बताएं, इन की समझ गुरु परंपरा में किस गुरु से आगे बढ़ी है?

ये आजीवकों को शब्द (सबद) की महिमा सीखाने चले हैं! यह तो हद ही है। इन्हें बताया जाए, कबीर साहेब  ने इन जैसों लिए ही लिखा है :
 "साखी लाय बनाय के, इत उत अच्छर काट।
 कहै कबीर कब लग जिए, झूठी पत्तल चाट?" 
(9)

तो ध्यान रहे, जिस 'सबद' की बात की जा रही है, वह सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब से होता हुआ गुरु नानक तक पहुंचता है। तो, सीख देने का दंभ भरने वालों को सोच-समझ कर बोलना चाहिए।

बताइए, ये हमें नस्लवादी कह कर ब्राह्मण रामानंद का पक्ष भी ले रहे हैं। इन्हें पता होना चाहिए कि आजीवक धर्म इस देश की बहुसंख्यक जनता दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के पक्ष में आया है। इसी से इन की गुलामी कटनी है। इस के विपरीत ब्राह्मण धर्म में इन्हें नस्लवाद की बू नहीं आ रही, जो दूसरों को शूद्र की गाली देता फिरता है। लगे हाथ यहां बताया जा सकता है, यह भगत शब्द शूद्र का ही पर्यायवाची है जिस का अर्थ गुलाम भी होता है। वैसे, सिक्ख गुरु परंपरा में जाति विशेष के गुरुओं के बारे में इन का क्या विचार है? तो, बोलने से पहले दिमाग प्रयोग के लिए किसी ने मना नहीं किया है। 

इन्हें ब्राह्मण का इतना मोह है कि यह लिख बैठे, 'ब्राह्मण जाती (जाति) में पैदा होने के कारण डॅा. धर्मवीर के मन में जिन भगत रामानंद जी के लिए इतनी नफरत है, गुरु ग्रंथ साहिब जी में उनका भी एक शब्द है।' (10) अब इन की इस लिखत पर क्या कह सकते हैं, सर्वप्रथम तो ये सिक्ख धर्म का ठीक से अध्ययन कर लें। महान गुरुओं के इस धर्म की स्थापना के पीछे क्या कारण थे? कहीं ऐसा तो नहीं इस के मूल में ब्राह्मण और उस का जाति-पांति, ऊंच-नीच और छुआछूत का भेदभाव हो। दूसरे, इन्हें अकाली मूवमेंट का भी अध्ययन करना चाहिए। तीसरे, ये गुरु नानक जी की 'नानकवाणी' में किसी रामानंद का पद ढूंढ कर दिखाएं।

असल में इन्होंने जो मन आया लिख दिया है। उम्मीद है, आगे ये सोच-समझ कर लिखेंगे। जहां तक आजीवकों की बात है, तो डॉ. धर्मवीर समझा गए हैं- "आजीवकों की सफलता यह रहेगी कि किसी एक बाहरी आदमी को भी इस में न आने दिया जाए। आजीवक समाज इसे धरती पर अपनी सबसे बड़ी लड़ाई और होशियारी समझे। यदि वे बाहरी आदमियों को आजीवक दार्शनिक और धार्मिक होने से रोक सके तो फिर उन्हें किसी दूसरी अक्ल की जरूरत नहीं है।"(11) डॉ. साहब ने इन जैसों से ही तो सावधान रहने को कहा है। हम किसी गैर आजीवक को गुरु नहीं बनाने जा रहे। वैसे, इन की माने तो गुरु नानक देव जी का ब्राह्मण विरोध  'केवल मुहाना' तो नहीं था?

इन के नस्लवाद पर इतना ही कहना है, 'ऑनर किलिंग' के नाम पर इस देश में सब से ज्यादा हत्याएं कहां होती हैं, इस की ये ईमानदारी से खोज-बीन करें, तब सही में नस्लवाद इन  की आंखों के सामने आ जाएगा। वैसे, नानक देव जी को गुरु कहना और कबीर साहेब को भगत कहना किसी के नस्लवादी होने की पक्की निशानी है। यहां बताया जा सकता है, गुरु नानक के प्रति हम आजीवकों में असीम सम्मान है और यही सम्मान हम कबीर साहेब के प्रति गुरु शिष्यों से चाहते हैं।

गुरप्रीत सिंघ की ना जाने कैसी समझ है! ये लिख रहे हैं, 'आजीवक धर्म के मूल सिद्धांत को समझने के लिए आजीवकों को दूसरे धर्मों के ग्रंथ ही पड़ने (पढ़ने) होंगे।' (12) पूछा जा सकता है, इस में गलत क्या है? विरोधी को हमारे बारे में लिखने पर मजबूर होना पड़ रहा है। हमारे बगैर विरोधी का अस्तित्व ही नहीं है। वे हमारे बारे में मिथ्या और अनाप-शनाप लिखते हैं। बावजूद इस के बड़े व्यक्ति सही बात को जान जाते हैं। हमारी इस बात के समर्थन में इन्होंने खुद ही लिख दिया, 'यह ऐसे है जैसे कि इसाई धर्म की जानकारी आप कुरान या हदीस से लें।'(13) क्या इन से पूछा जा सकता है, अगर कल को किसी वजह से ईसाई धर्म खो जाता है, तो कुरान या हदीस से उस के बारे में जानकारी मिले तो उसे लेने में बुराई क्या है?

इस बात की ही तो संभावना है कि विरोधी की किताबों में झूठ, प्रक्षिप्त और गलत-शलत ही लिखा मिलेगा। हां, निकालने वाले तो यहां से भी अपना पूरा धर्म निकाल सकते हैं। फिर, जैनियों, बौद्धों और ब्राह्मणों ने महान मक्खलि गोसाल को जी भर कर कोसा और गालियां दी हैं। इन की मानसिक स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1981 में महावीर पर लिखें एक उपन्यास के मात्र दो अध्यायों में एक जैन उपन्यासकार ने गोसाल को जी भर कर कोसा ही नहीं, बल्कि इन अध्यायों के कुल 54 पृष्ठों में 70 से अधिक नामों से संबोधित किया है।

जिन में गोशालक, भगवान गोशालक, जिनेन्द्र, मंखेश्वर, भद्रमुख, जिनघाती, अर्हतघाती, आत्म-हन्ता, विदूषक, भोगवादी, अघोरी और न जाने कैसे-कैसे गलत नामों से पुकारा गया है। इन से सीधे सीधे मक्खलि गोसाल नहीं लिखा गया। इन का पेट तब तक नहीं भरा जब तक  इन्होंने महान गोसाल को महावीर का शिष्य नहीं बना दिया। अब इस बात से एक निष्कर्ष तो यह निकाला ही जा सकता है कि महावीर के शिष्य और उन्हें मानने वाले ऐसे ही 'विदूषक और भोगवादी' होते हैं। असली बात यह है जब तक गोसाल को महावीर का शिष्य नहीं बना दिया जाता तब तक इस देश में इन की पूछ कहां होनी है। ऐसे ही, ब्राह्मण को महान मक्खलि गोसाल को ब्राह्मण बताए बिना नींद नहीं आती।

दरअसल, इन की समस्या यह हो गई है कि इन के पास सिक्ख धर्म का कोई प्रामाणिक इतिहास तो है नहीं, तब ये क्या लिखें क्या पढ़ें? सारी दुनिया जानती है कि महान गुरु नानक की लड़ाई वर्णवादियों से थी। उधर, ब्राह्मण ने प्रक्षिप्त गढ़ रखा है कि हिंदुओं (?) की रक्षा के लिए सिक्खों ने कुर्बानियां दीं। अब ये क्या करेंगे? इन्हें एक काम दिया जा सकता है, ये 'गुरु नानक पर कबीर साहेब के चिंतन का प्रभाव' विषय पर एक लेख लिखें। इस से इन्हें सिक्ख इतिहास की गुत्थी सुलझाने में मदद ही नहीं मिलेगी साथ ही ये कबीर साहेब को भगत-भगत लिखना भी भूल जाएंगे। फिर, यह जो कह रहे हैं, 'डॉ. धर्मवीर के पास प्रमाणिकता की कसौटी तो नहीं है..'(14) तो इस बात का मतलब ही यही होता है कि प्रामाणिकता की कसौटी केवल और केवल हमारे पास है। इस कसौटी पर कबीर के नाम पर विभिन्न पुस्तकों में रचे गए प्रक्षिप्त हवा हो गए हैं।

इन्होंने पैगंबर-पैगंबर की रट भी लगा रखी है।  इस पर बताया जा सकता है, आजीवकों अर्थात दलितों में कोई पैगंबर या ईश्वर का दूत नहीं होता। महान मक्खलि गोसाल से ले कर डॉ. धर्मवीर तक हमारे ऐतिहासिक महापुरुष हैं, जो समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लड़े हैं। हमारे सभी महापुरुष वर्ण-व्यवस्था से तो लड़े ही हैं, पुनर्जन्म और संन्यास से निकली बुराइयों की भी इन्होंने धज्जियां उड़ाई हैं। इधर, डॉ. धर्मवीर ने जारकर्म के खिलाफ जैसा महासंग्राम लड़ा है उस से दुनिया भर के पैगंबर नतमस्तक हुए जाते हैं। ये कहां पैगंबर ढूंढने में लगे हैं! जहां तक डॉ. अंबेडकर की बात है तो दलित जानते हैं कि वे जड़ों से कितनी दूर जा चुके हैं। जिसे बोधिसत्व अंबेडकर चाहिए वह अपने घर के द्वार पर स्थापित कर सकता है।

ऐसे लगता है ब्राह्मण को लेकर ये किसी गफलत में हैं, तभी ये ब्राह्मण रामानंद और उन के लिखे का समर्थन कर रहे हैं। तब इन से पूछना है, अगर ऐसी ही बात है तो गुरु नानक देव जी को 'नानकवाणी' लिखने की क्या जरूरत थी? ब्राह्मण ने पहले ही वेद, पुराण, उपनिषद, आरण्यक और न जाने क्या-क्या लिख रखा है। यह तो दलित साहित्य का ठेका लेने को भी तैयार है, जिस पर महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने सख्ती से रोक लगाई है। 

इन्होंने तथ्यात्मक रूप से यह भी गलत लिखा है कि 'महान आजीवक : कबीर रैदास और गोसाल' इन शब्दों से समाप्त होती है- ''निष्कर्ष यह है कि रैदास और कबीर आदि अपने किसी भी आजीवक महापुरुष के बारे में किसी भी ब्राह्मण की लिखी कोई भी पुस्तक न पढ़ी जाए तो उस से आजीवकों को अपने आजीवक धर्म को समझने में सदैव आसानी रहेगी।"(15) पूछा जा सकता है, इस में गलत क्या लिखा है? ब्राह्मण के लिखे को ब्राह्मण पढ़े। वैसे भी कल तक ब्राह्मण ने अपने धर्म-ग्रंथों के पढ़ने पर रोक लगाई ही हुई थी। ये देखने से कैसे चूक गए कि यह महाग्रंथ सद्गुरु रैदास की पवित्र वाणी के साथ पूर्ण होता है, जिस में लिखा गया है :
"कहै रैदास राम भज भाई, संत साखि दे बहुरि न आऊं।।"(16 )

ऐसे लगता है ये 'बहुरि न आऊं' सिद्धांत से भयभीत हो गए हैं। यह बहुरि न आऊं ही पुनर्जन्म का निषेध है। यह एक सूत्र वाक्य है जो सदगुरु रैदास और कबीर साहेब को महान मक्खलि गोसाल के पीछे पंक्तिबद्ध कर देता है। फिर, धर्मवीर तो आज के कबीर हैं। इस के आगे भी कुछ बताने को है? ऐसा लगता है इन से यह लेख  इन के भीतर छुपे बैठे ब्राह्मण ने लिखवाया है। 

यह अच्छी बात है कि इन्होंने सिक्ख धर्म में आजीवक सद्गुरुओं के योगदान को स्वीकार किया है। लेकिन, इस में दलितों की क्या स्थिति है, इस के बारे में भी इन्हें लिखना चाहिए। इस के लिए इन्हें बाबा मंगू राम के नेतृत्व में चले 'आदि-धर्म आंदोलन' को देखना-समझना चाहिए। हो सके तो वरिष्ठ पंजाबी दलित साहित्यकार बलबीर माधोपुरी जी की आत्मकथा छांग्या रुक्ख का अध्ययन भी कर लें।

और, ये जिस 'निर्भय' और 'निरवैर' की बात लिख रहे हैं, तो इन्हें बताया जा सकता है कबीर साहेब से बड़ा निर्भय इस जगत में कौन है? वे गा रहे हैं :
"हम न मरैं, मरिहै संसारा। 
हमको मिला जिवावन हारा।। 
साकत मरिहिं सन्त जन जीवहिं। 
भर-भर राम रसायन पीवहिं।।
हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं। 
हरि न मरैं हम काहे को मरिहैं?
कहै कबीर मन मनहिं मिलावा। 
अमर भए सुख सागर पावा।।"(17) उम्मीद है, इस सबद की व्याख्या इन्हें पता होगी। जहां तक निरवैर की बात है, तो इन्हें सद्गुरु रैदास की कही याद रखनी चाहिए :
"उपजइ सब इक बूंद ते, का बाम्मण, का सूद?
मूरख जन नहीं जानइ, सब में राम मजूद।।"(18)

और, जहां तक 'नियति' की बात है, यह महावीर, बुद्ध और ब्राह्मण को ही समझ नहीं आई तब किस की बात की जाए? आखरी बात जो इस में पूछनी है, अगर आजीवक चिंतन के माध्यम से दलित अपनी समस्याओं के समाधान ढूंढ रहे हैं, तो इस से किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। सिक्खों को तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि गुरु नानक महान आजीवक सदगुरुओं रैदास और कबीर के रास्ते ही बढ़े हैं। बेशक उन्होंने खत्री, खत्तिय या क्षत्रिय होने के नाते अपना अलग रास्ता चुना है। इस से किसी को किसी भी तरह का एतराज नहीं होना चाहिए। उम्मीद है बात समझ में आएगी। वैसे इन के माध्यम से बताया जा सकता है, आजीवक तर्क का पीछा वहां तक करते हैं जहां तर्क विलीन हो जाता है और सद्गुरु कबीर साहेब की पवित्र वाणी गूंजती सुनाई पड़ती है :
"मन, तू पार उतर कहं जैहै?
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच मुकाम न पैहै।।
नहिं तहं नीर, नाव नहिं खेवट, ना गुन खेंचनहारा। धरनी गगन कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।।" ( 19)
आजीवक अपने सदगुरुओं की इसी पवित्र वाणी से आज तक बचे रह पाए, अन्यथा इन जैसी सामंती सोच वालों ने तो प्रक्षिप्त के ढूह खड़े कर ही रखे हैं।


संदर्भ :

1, 2, 6, 7, 8, 10, 12, 13, 14, 15
डॉ. धर्मवीर का आजीवक धर्म, गुरप्रीत सिंघ जी. पी. के ब्लॉग sikhsaakhi.com, 1 जून, 2021

3, 4
सूत न कपास, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली'10 002, प्रथम संकरण : 2003, पृष्ठ-86

5. कबीर के कुछ और आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110 002, प्रथम संकरण : 2002, पृष्ठ-54

9, 11, 16, 17, 18,19
महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली'10 002, प्रथम संकरण : 2017, 
पृष्ठ- 442, 6, 536, 399, 497, 383


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  • 08/06/2021 Arun Aajeevak

    तर्कपूर्ण और चिंतनपरक लेख। यह ऐतिहासिक सच है दलितों का धर्म स्थापित होने की स्थिति में द्विजों के पेट में मरोड़ें उठने लगती हैं। इन्हीं मरोड़ों के चलते द्विजों की तरफ से बौद्ध, जैन, सिख उभर कर सामने आये हैं। इस लेख के बहाने आजीवकों की ओर से गुरप्रीत सिंघ जैसों को उन की बुनियाद दिखा दी गयी है। कैलाश दहिया सर को बधाई और आभार!

    Reply on 12/06/2021
    Arun Aajeevak
  • 07/06/2021 Gurpreet Singh

    Kindly discard my earlier message as there was some copy-paste error.मुझे उम्मीद थी कि मेरे लेख में से किसे सिधांतक प्रश्न का उत्तर मिल पाएगा और मैं अपने लेख में अपनी आने वाली किताब का हिस्सा बनने से पहले कोई सुधार कर पाऊं। अब मैं अपना लेख फाईनल मान सकता हूं। सिधांतक प्रश्नों का जवाब देने की बजाए सिख समाज पे प्रचारित संदेहों को ही उभारा गया है। मेरे डा. धर्मवीर के बारे में प्रश्न थे:1) क्या ब्राह्मणवाद और डा. धर्मवीर दोनो जन्म के अधार पर नस्लवादी नफरत नहीं सिखाते?2) विरोधाभास- बाहरियों के ग्रंथों से खोजा सिधांत बाहरियों से बचाने की बात? इस का जवाब केवल गोसाल के मूल ग्रंथ का नाम लिख कर दिया जा सकता था, अगर कोई हो। नहीं तो फिर मेरी बात सही है- “एक ऐतिहासकार का दूसरे से भिन्न परिणाम निकालना समान्य है। ऐतिहासिक खोज पे खड़ा धर्म पैगंबर का नहीं बल्कि खोजकर्ता की सीमत समझ पे अधारित रहेगा। ऐसे धर्म के अनुयायी पैगंबर को समझने के भ्रम में खोजकर्ता के चिंतन तक सीमत रह जाते हैं। इसलिए जिस आजीवक धर्म की बात डॅा. धर्मवीर कर रहे हैं, वह गोसाल का नहीं, डॅा. धर्मवीर का अपना है। डॅा. धर्मवीर ने तो गोसाल, कबीर और रैदास का बस नाम इस्त्माल किया है, बात उन्होंने अपनी ही की है। आजीवकों के लिए अपने धर्म को जानने के लिए गोसाल को नहीं डॅा. धर्मवीर को ही पड़ना होगा।“3) बईमानी और 4) नासमझी के भी उदाहरण दिए। इन सब के अधार पर ही पथभ्रषट लिखा है। वैसे मेरे सब प्रश्नों का एक उत्तर है-

    Reply on 12/06/2021
    Md. Hasnain Ansari
  • 07/06/2021 Gurpreet Singh

    मुझे उम्मीद थी कि मेरे लेख में से किसे सिधांतक प्रश्न का उत्तर मिल पाएगा और मैं अपने लेख में अपनी आने वाली किताब का हिस्सा बनने से पहले कोई सुधार कर पाऊं​। अब मैं अपना लेख फाईनल मान सकता हूं। सिधांतक प्रश्नों का जवाब देने की बजाए सिख समाज पे प्रचारित संदेहों को ही उभारा गया है। मेरे डा. धर्मवीर के बारे में प्रश्न थे:1) क्या ब्राह्मणवाद और डा. धर्मवीर दोनो जन्म के अधार के नस्लवादी नफरत नहीं सिखाते?2) विरोधाभास- बाहरियों के ग्रंथों से खोजा सिधांत बाहरियों से बचाने की बात? इस का जवाब केवल गोसाल के मूल ग्रंथ का नाम लिख कर किया जा सकता था, अगर कोई हो। नहीं तो फिर मेरी बात सही है- एक ऐतिहासकार का दूसरे से भिन्न परिणाम निकालना समान्य है। ऐतिहासिक खोज पे खड़ा धर्म पैगंबर का नहीं बल्कि खोजकर्ता की सीमत समझ पे अधारित रहेगा। ऐसे धर्म के अनुयायी पैगंबर को समझने के भ्रम में खोजकर्ता के चिंतन तक सीमत रह जाते हैं। इसलिए जिस आजीवक धर्म की बात डॅा. धर्मवीर कर रहे हैं, वह गोसाल का नहीं, डॅा. धर्मवीर का अपना है। डॅा. धर्मवीर ने तो गोसाल, कबीर और रैदास का बस नाम इस्त्माल किया है, बात उन्होंने अपनी ही की है। आजीवकों के लिए अपने धर्म को जानने के लिए गोसाल को नहीं डॅा. धर्मवीर को ही पड़ना होगा।3) बईमानी और 4) नासमझी के भी उदाहरण दिए। इन सब के अधार पर ही पथभ्रषट लिखा है। वैसे मेरे सब प्रश्नों का एक उत्तर है-

    Reply on 15/06/2021
    Gurpreet Singh