छत्तीसगढ़ी फिल्में और जबरिया सलाहकार

गुलाम हैदर मंसूरी, लेखक/निर्देशक/अभिनेता

 

हर फिल्मकार का फिल्म बनाने का अपना नज़रिया होता है। जो उसकी अपनी प्रेरणाओं और अनुभवों पर आधारित होता है। कौन किस उद्देश्य से फिल्म बना रहा है ये उसकी अपनी स्वतंत्रता है। हां ये ज़रूर है कि एक फिल्मकार की ये भी ज़िम्मेदारी होती है कि वह पैसे के लिए कुछ भी ना परोसे।

कलात्मक फिल्में बनेंगी

जब से छत्तीसगढ़ी फिल्में बनना शुरू हुईं हैं। उसके कुछ दिनों बाद से ही कुछ लोगों के द्वारा साहित्यिक या कलात्मक फिल्मों के निर्माण को लेकर ज़ोर दिया जा रहा है। यहां का निर्देशक बहुत मुश्किल से एक निर्माता ढूंढता है और हर निर्माता चाहता है कि उसका पैसा रिटर्न आए।

हिंदी या अन्य इंडस्ट्री की बात करें तो उन सभी जगहों पर इतना स्कोप है कि वहां कलात्मक फिल्में तीन दिन भी चल गईं तो सम्मान जनक कमाई कर ले जाती हैं अगर इसी तरह का दौर यहां भी आया तो बेशक यहां भी कलात्मक फिल्में बनेंगी। 

वक्त के साथ बदलाव

कोमल नाहटा को इंटरव्यू देते समय हिंदी फिल्मों के एक युवा निर्देशक ने कहा था कि अगर हम निर्माता को पैसे नही लौटाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे। हिंदी फिल्मों के दो और ऐसे कलात्मक फिल्म बनाने वाले निर्देशक हुए हैं जिन्होने वक्त के साथ अपने कार्य में बदलाव लाया और उनमें से एक ने तो अपनी फिल्म में आईटम साँग भी रखा और चॉकलेटी हीरो तथा जीरो फिगर हिरोइन और स्टारों का मेला भी लगाया। मैं ये नही कह रहा की इन्होने कुछ ग़लत किया।

मैं बस इस ओर ध्यान दिलवाना चाह रहा हूँ कि ये सभी हिंदुस्तान की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री के फिल्मकार हैं सभी के ख़ुद के कामयाब प्रोडक्शन हाऊसेस हैं। बड़े-बड़े सम्मानों से नवाजे़ जा चुके हैं। बावजूद इसके जब इन्हें फिल्मों की व्यवसायिकता के आधार पर फिल्म निर्माण करना पड़ रहा है तो हम तो शुरू ही हुए हैं अभी और यहां के फिल्मकारों के पास व्यवसायिक लाभ के इतने साधन भी नही हैं। मैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के फिल्मकारों की श्रेष्ठता पर कोई सवाल नही खड़ा कर रहा बस इस बात को समझना होगा की फिल्म एक व्यवसायिक मामला है।

जिसके लिए अगर फिल्मकारों को किसी की जेब से पैसे निकलवाने है तो अपनी अभिव्यिक्त इस ढंग से परोसनी पड़ती है जिससे दर्शकों को फिल्म देखने में आनंद मिले पर बिजनेस प्वाइंट को लेकर मेरा समर्थन किसी भी तरह की फूहड़ता, अंग-प्रदर्शन, डबल-मीनिंग डायलॉग्स, महिलाओं को नीचा दिखाना जैसी गतिविधियों को  मेरा समर्थन किसी भी तरह से नही है और मैं स्वयं भी इन गतिविधियों के फिल्मी, सामाजिक या किसी भी तरह की गतिविधियों  के ख़िलाफ हूं। 

बेचैनी और बेताबी 

पर इस बात पर हमें ध्यान देना होगा कि 100'00 बरस पूरी कर चुकी इंडस्ट्री से 20-21 साल की इंडस्ट्री से तुलना करना कहां तक जायज़ है। बिना फिल्मकार की परेशानियों को जाने टीका-टिप्पणी करना बहुत आसान होता है। बहरहाल सबको बोलने की आज़ादी है पर आज़ादी की भी अपनी कुछ पाबंदियां होती हैं।

समीक्षा करना और किसी को नीचा दिखाना दोनो में अंतर होता है। यहां की इंडस्ट्री का व्यवसायिक स्तर बांकी जगह के जैसा सामान्य होने दो फिर ज़रूर वो फिल्में भी देखने को मिलेंगी जिसके लिए लोगो के अंदर बहुत ही ज्यादा बेचैनी और बेताबी है। 


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