संघ सम्प्रदाय से जुड़ने और बिछुड़ने के कारणों पर बात
भंवर मेघवंशीसुना है कि ब्रूट हिंदी पर लिए गए मेरे साक्षात्कार का एक विडीयो संघी भाईजानों में आजकल अपार लोकप्रियता हासिल कर चुका है. हर दिन औसतन पाँच कॉल अपरिचित नम्बरों से आने से मुझे भी भरोसा हो गया है कि स्वयंसेवक बंधुओं तक बात पहुँच गई है.

आभार स्वयंसेवकों !
हालाँकि बात ऐसी पोशीदा भी न थी, लगभग तीन दशक से यह लिखित और मौखिक रूप से मौजूद थी, यह ज़रूर था कि एक सर्कल अथवा सीमित क्षेत्रफल में ही यह घूमती रही. सबसे पहले इस बारे ने मैने 1992 में लिखा, फिर 2002 डायमंड इंडिया का सम्पादकीय इसी विषय पर लिखा गया. इसके बाद कईं मौक़ों पर मैने संघ सम्प्रदाय से जुड़ने और बिछुड़ने के कारणों पर बात की.साल 2014 में तो मैने फेसबुक पर दो महीने लगातार इसे धारावाहिक रूप में लिखा.
संघ और संघी भाईजान ख़ामोश रहे, उनकी खामोशी का आलम तो यह था कि वर्ष 2019 में हिंदी भाषा में नवारुण प्रकाशन द्वारा उपरोक्त सारी बातें एक किताब की शक्ल में आई, जिसका नाम था “मैं एक कारसेवक था”. तब भी संघी चुप ही रहे. किताब शीघ्र ही इंग्लिश में अनूदित हो कर आई. जेएनयु की प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन ने इसका अनुवाद किया,जो “ आई कुड नॉट बी हिंदू” नाम से नवयाना से छप कर आई, तब थोड़ी बहुत हलचल हुई. इक्का दुक्का छुटपुट आलोचना के स्वर उठे और ग़ायब हो गए.
किताब का तमिल अनुवाद आए भी एक साल हो गया है और मराठी अनुवाद आने वाला है.पंजाबी अनुवाद की तैयारियाँ अंतिम दौर में हैं , अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी शीघ्र ही होने जा रहे हैं, किताब ख़ूब पढ़ी जा रही हैं. गाँव खेड़ों से लेकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक इसकी उपलब्धता हैं . एमेजोन और फ्लिपकार्ट आदि ऑनलाइन प्लेटफ़ोर्मस पर तो है ही.
किताब प्रकाशित होने के बाद मैने बहुत सारे मीडिया हाउसेज़ को इंटरव्यू दिये और किताब के कथानक और उसके लेखन की प्रासंगिकता के बारे में खुल कर बातें की, उनमें से एक है ब्रुट हिंदी का इंटरव्यू, जिसे क़रीब पच्चीस लाख लोग देख चुके हैं , हज़ारों लोग किताब भी पढ़ चुके हैं और सैंकड़ों लोग मुझसे व्यक्तिश: भी मिल चुके हैं.
मैं तो एकदम साधारण व्यक्ति हूँ, हर कहीं घूमते रहता हूँ. लॉकडाउन की वजह से आजकल गाँव , खेत और रसोई में पाया जाता हूँ, वर्ना तो सुबह यह गाँव तो शाम वो शहर, यही मेरी दिनचर्या रहती आई है और भविष्य में भी यही रहेगी.न मैं किसी से डरा, न किसी को डराया, न किसी को रोका और न ही खुद रुका. मुझे जो सही लगा, वह किया और आगे भी करुंगा , करते ही रहूँगा. ऐसा मुझे मुझ पर यक़ीन है .
अब बात संघी भाई बंधुओं की, प्राचीन परिजनों की , जो आजकल बहुत उबले हुए हैं , कॉल करके बड़ी नेगेटिव क़िस्म की बातें करते हैं, हालाँकि उनके मुखिया प. पू. मोहन जी तो पोज़िटिविटी अनलिमिटेड सिखा रहे हैं , पर मेरी तरह ही ये भी साधारण स्वयंसेवक ही होंगे बेचारे, उनकी बात समझ नहीं पा रहे होंगे इसलिए अनलिमिटेड नेगेटिविटी से भरे हुये हैं.
संभवतः यह उसी नकारात्मकता का ही परिणाम है कि वे बड़ी सौम्य और सभ्य भाषा में शुरुआत करते हैं , शीघ्र ही उनका संवाद विवाद में तब्दील हो जाता है और वे गाली गलौज और मारपीट की हिंसक शब्दावली पर पहुँच जाते हैं!
करें भी तो क्या वे ? सिखाया ही सिरमार सिद्धम ही है, ऊपर से ओढ़ी हुई विनम्रता भी कितनी देर ओढ़े रखी जा सकती है, बाहरी चौला ही तो है भले ही नारंगी है , पर शीघ्र ही उतार फेंकते है और जिन माँ बहनों को वे पूज्य और प्रातःस्मरणीय कहते हैं, उन्हीं के प्रजनन अंगों में कुछ का कुछ ठूँस देने की यौन कुंठित धमकी भरी भाषा बोलने लगते हैं .
मेरे प्राचीन परिवार के बंधु बांधवों का कहना यह होता है कि इतना बड़ा राष्ट्रवादी संगठन कभी जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता का बर्ताव कर ही नहीं सकता है . फिर वे उदाहरण देने लगते हैं कि मैं उच्च कुलोत्पन्न हो कर भी अला फ़लाँ अछूत के साथ खाता हूँ, वो मेरे यहाँ आता है , मैं उसके यहाँ जाता हूँ. ऐसा कहते हुए उनकी आवाज़ में मसीहा होने का दम्भ भरने लगता है.
मैं उनको कहता हूँ कि आप जो कर रहे हैं, उसमें अहसान जताने या गिनाने वाली महान बात क्या हैं ? यह तो सामान्य मानवीय शिष्टाचार है, यह भी आपको बताना पड़ रहा है तो सोचिए कितना सड़ चुका है आपका सोशल सिस्टम ?
मेरे जवाब से वे भड़कने लगते हैं, मुझ पर पथभ्रष्ट होने, विदेशियों के चंगुल में होने, राष्ट्रद्रोहियों की संगत में होने का आरोप लगाते हैं और संघ परिवार को बदनाम न करने की हिदायत देने लगते हैं, उनकी हिदायत शीघ्र ही धमकी में बदल जाती है कि जिस दिन लपेटे में आओगे सारी हैंकड़ी निकल जायेगी, बाहर निकलना, फिर दिखाएँगे, अपने हाथ पाँव सलामत रखना और यहाँ तक कि हम तो आपके पड़ौसी हैं , घर आ कर जवाब ले लेंगे.
मैं बिना आक्रोशित हुये और कभी कभी आक्रोशित होकर भी उनको जवाब देता हूँ कि मैं कहता हूँ कि आप हिंसा के पुजारी है , मैं जानता हूँ कि आपकी संस्कृति में हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता है और अपने विरोधियों के क़त्ल को आप वध करना कहते हो, आज़ाद भारत में गांधी से शुरू करके गौरी लंकेश से लेकर कलबुर्गी व दाभोलकर और पांनसरे तक को मारने मरवाने का रिकोर्ड हमारे सामने हैं, फिर भी मेरा बोलना लिखना जारी रहेगा.
मैने लगभग तीन दशक से प्रतिरोध की अपनी आवाज़ को क्षीण नहीं होने दिया है तो अब डर कर क्यों चुप हो जाऊँगा. मैं तब भी बोलते रहा जब मेरी किताब फासीवाद की आहटें विवादित हुई और उसकी प्रतियाँ जलाई गई तथा मेरे ख़िलाफ़ पुलिस कार्यवाही की गई. कईं साल तक मैने सामाजिक आर्थिक बहिष्कार सहा.मैं तब भी यहीं टिके रहा और अपनी यथाशक्ति आवाज़ बुलंद करते रहा.
हमारे पुरखों ने सदियों तक और मैने दशकों से नफ़रत को सहा और आज भी कदम कदम पर उपहास और घृणा सहनी पड़ती हैं. इस देश को जिन्होंने बूचड़खाना बना रखा है वो कैसे हमें शांति से जीने देंगे. उनकी संचित नफ़रतों का सामना करते करते जिस्म, जान और ज़ेहन सब फ़ौलादी हो चुके हैं , अब और कितना डरेंगे .
इसलिए डियर संघी भाईजानों इतना भी न डराओ कि हम डरना ही भूल जायें.आजकल हर दिन किए जा रहे फ़ोन कॉल्स के लिए बहुत आभार. देश इस वक्त मुझसे अधिक गम्भीर मसले से जूझ रहा है , उससे निपटने में अपनी ऊर्जा लगाओ, मुझे क्या निपटा रहे हो, मुझे क्या समझा रहे हो, मैंने तो समझ कर ही तो छोड़ा है और मेरे जैसे अत्यंत आम आदमी को क्या निपटाओगे. मैं तो धरातल पर हूँ, उससे नीचे कहाँ गिराओगे.
तो संघी भाईजान फ़ोन वोन पर अपनी ऊर्जा मत खपाओ, न मैं धमकी से डरने वाला हूँ और न ही मीठी बातों में आने वाला हूँ, जब बात बढ़ेगी तो निपटने निपटाने के वैधानिक उपाय तो है ही, उनको काम में ले लेंगे. हम तो बाबा साहब के बनाए संविधान को मानने वाले लोग हैं, संवैधानिक हथियारों से ही लड़ेंगे.
शेष कुशलम तत्रास्तु!
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01/06/2021
गुरुदास शिंपी
बहुत शानदार
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