शिक्षा-व्यापार

  नेहा साहू, रंगमंच/छत्तीसगढ़ सिने-जगत कार्यकारी निर्माता

 

हमेशा हमसे सवाल किये जाते हैं/नम्बर इतने कम क्यों आते हैं/कुछ सोचे हो ज़िदगी को ले के/या फिर सिर्फ पैसे ख़र्च करने के लिए पढ़ रहे हो/कोई हमारे सवालो का जवाब देगा/जब मोतियाबिंद के ऑपरेशन में/हज़ारो लोगो को अंधा कर दिया जाता/जब नसबंदी के ऑपरेशन में/सैकड़ों महिलाओ की जान चली जाती है/जब ऑक्सीजन की कमी से/सैकड़ो बच्चे तड़प कर मर जाते हैं/तब कोई सवाल नही.../पर एडमिशन के लिए एक परसेंट कम होने पर/हमें एडमिशन नही मिलता/रीवल का फार्म भरो/तो सेप्लीमेंट्री की डेट लास्ट हो जाती है/फेल हुए तो ठीक है/अगर ग़लती से पास हो गए/तो फार्म के पैसे डूब जाते हैं/पता ही नही चलता की शिक्षा है या व्यापार/एक टेबल से दूसरे टेबल

व्यापारिक शिक्षा या शिक्षा-व्यापार। आप अपनी सहूलियत से कोई भी नाम दे सकते हैं इसे। ये शिक्षा जो एक टेबल से दूसरे टेबल और कॉलेज/यूनिवर्सिटी के विंडोज़ पर आपको क्लास-रूम से ज्यादा सबक सिखाती है।

एडमिशन फॉर्म, इक्ज़ाम फॉर्म, स्कॉलर-शिप फॉर्म, इंरोलमेंट नंबर, मार्कशीट करेशन, ट्रांसफर सर्टिफिकेट और न जाने कितनी फॉर्मेलटीज़ हैं जिसे पूरा करने के लिए कॉलेज से यूनिर्वसिटी और यूनिर्वसिटी से कॉलेज के चक्कर काटने पड़ते हैं और मज़े की बात तो ये है कि इन सब के बीच कोई भी इंसान आपको ऐसा नही मिलेगा जो एक बार में आपका काम कर दे या मार्ग-दर्शन दे दे।  

हर कोई एक टेबल से दूसरे टेबल का रास्ता नपवाते रहता है सबसे अजीब बात तो ये है की जिस स्टूडेंट के सभी सब्जेक्ट में अच्छे अंक आए होते हैं उसी स्टूडेंट को एक सब्जेक्ट में ज़ीरो किस प्रकार प्राप्त होता है पता नही। 

युवा एकजुट 

फीस लेने में किसी प्रकार की कोई त्रुटि नही होती पर परीक्षा में उपस्थित स्टूडेंट को अनुपस्थित बना देना, परीक्षा हॉल में टीचर्स की गप-शप, मार्क-शीट में गड़बड़ी, परीक्षा का सही गाइडेंस न मिलना ये सब अपराध आसानी से कैसे हो जाते हैं? शिक्षा-योजना तो बहुत सी बनाई जाती हैं पर इनका लाभ किसे मिलता है ये अब तक रहस्यमयी है। किसी कार्यालय में जाकर कोई जानकारी मांगने पर वहां का अधिकारी/कर्मचारी जिसका घर जनता के टैक्स के पैसों से ही चल रहा है।

ऐसा जवाब देते है मानो हम पर बहुत बड़ा अहसान किया जा रहा है या भीख़ दी जा रही है। इन सब चीजों को बढ़ावा देते हैं हमारे युवा। पढ़े-लिखे होकर भी सारे नियम कानून जानकर भी, उनके मन मे ये है कि हमारा काम हो जाए बात ख़तम। यदि पदस्थ लोगो को उनका फर्ज़ याद नही तो युवा एकजुट होकर चाहें तो उनको उनका कर्त्तव्य याद दिला सकते हैं। 

क्रांतियों के बल पर

हालांकि ये बात हर इंसान पर लागू नही होती। मेरा सवाल बस इतना है कि क्यों? क्यों...इतनी आसानी से लोगों का समय भविष्य और पैसे दांव पर लगा दिये जाते हैं और जिन्होने युवाओ की तकलीफों को महसूस करना तो छोड़ो देखा तक नही, वो ए.सी रूम में बैठकर इनकी शिक्षा नीतियां बनाया करते हैं। इतने आधुनिक युग में जहां कुछ ही महीनों मे कपड़ों और बालों का फैशन बदल जाता है। जहां हर सुविधा के लिए मशीन है।

क्या वहां शिक्षा आज से लगभग 30-35 साल पीछे नही चल रही हैं? पता नही कबसे सिलेबस अपडेट नही किये गए? जब हमें पुरानी चीजें ही पढ़ना है तो आधुनिक युग से कैसे तालमेल बैठा पाएंगे। लाखों रूपये तनख़्वा लेने वाले कई टीचर्स को भी कर्त्तव्य-बोध है? और अगर नही है तो सरकार क्या कर रही है और अगर सरकार द्वारा सम्भव नही हो पा रहा है।

तो इतिहास गवाह है कि क्रांति के जन्मदाता युवा ही रहे हैं। जिन्होने अपने क्रांतियों के बल पर बहुत कुछ बदला है और क्रांति के लिए ज़रूरी नही है की कोई बहुत बड़ा ही कदम उठा लिया जाए। हर वो बात जो ग़लत है उसके विरोध में एक छोटा सा भी कदम उठाना अपने आपमें एक क्रांति है।  

इन्फैक्ट

पुराने समय में कुछ ख़ास समुदाय या व्यक्ति विशेष के लिए शिक्षा हुआ करती थी पर आज नियम वैसे नही पर क्या परिस्थितियां ठीक वैसी ही नही बना दी गईं हैं? न जाने कितने ही लोग इन कठिन परिस्थितियों का सामना न कर पाने की वजह से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते होंगे और कई तो ज़िदगी भी। ऐसी परिस्थितियां सिर्फ युवाओं के लिए ही नही इन्फैक्ट देश के लिए भी ख़तरनाक है। 

ये तो अथाह सागर की एक बूंद है। इसकी गहराई तो होश उड़ा देनी वाली है। तय आपको करना है। की लहरों के साथ बहना है या लहरों को चीरकर अपना रास्ता ख़ुद बनाना है।

उद्यमेन ही सिद्धयन्तिकार्याणि न मनोरथैः

न हि सुप्तस्य सिहंस्य प्रविषन्ति मुखे मृगाः

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने इक़लाब के मायने बताए थे। क्या आप जानते हैं इंक़लाब क्या है? अगर हां तो ठीक...नही, तो खोजिये...।


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