महामारी के बीच जनसंहार की चर्चा 

प्रेमकुमार मणि 

 

उस बार की तरह ही इस बार भी राज्य सरकार ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का निर्णय किया है. लक्ष्मणपुर बाथे मामले में सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ आज तक किसी को कुछ पता नहीं है. जो लोग हाई कोर्ट के उस बार के फैसले से उछल रहे थे, इस बार के फैसले से मायूस हैं. गौरतलब है कि बाथे - संहार   के अभियुक्त सवर्ण थे और सेनारी - संहार के अभियुक्त दलित. 

हम चाहते हैं कि बिहार की जनता इन जनसंहारों के पीछे के सामाजिक - आर्थिक कारणों और तत्जनित राजनीति को समझे. इसलिए इस पर एक सार्वजानिक - विमर्श की जरुरत भी समझता हूँ. निश्चित रूप से सामाजिक - राजनीतिक स्थितियां अब वह नहीं हैं जो उस ज़माने में थी. आर्थिक - स्थितियां भी बहुत हद तक बदल गई हैं. नए शक्ति - संतुलन बने हैं.

गाँवों की आर्थिक - सामाजिक स्थिति कई कारणों से तेजी से बदल रही है. जो बड़े जमींदार थे, उन्होंने गाँव को कब का आखिरी सलाम कर दिया. धनी किसानों की जमीनें बँटते - बँटाते अब बहुत कम हो गई है. सरअंजामों के तेजी से विकास हो रहे हैं और जीवन स्तर एक जबरदस्त उछाल की माँग कर रहा है. संचार साधनों ,खासकर सेलफोन ने सूचनातंत्र के नए परकोटे सृजित कर दिए हैं. अख़बार - पत्रिकाओं की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है.

जातिवाद  ख़त्म नहीं हुआ है, लेकिन उसके रूप बदल गए हैं.  एक दलित और सवर्ण नौजवान के सपने निकट हुए हैं. लड़कियां तेजी से आधुनिक हो रही है. गाँव में दबंग जातियों की पकड़ और अकड़  कमजोर हो गई है. संचार माध्यमों के विकास और चुनाव सुधारों ने जैसे ही बूथ कब्जे और बाहुबलियों के दबदबे  को ख़त्म किया, कमजोर तबकों का राजनीतिक महत्व बढ़ गया. इन्ही के वोट लूट लिए जाते थे. अब वे लोग राजनीति के निर्णायक तत्व हो गए हैं. यह सब एक मौन क्रांति थी. जो धीरे - धीरे हुई. 

इस परिप्रेक्ष्य में हमें पिछली सदी के उन नरसंहारों की विवेचना करनी चाहिए. शांत दिल और स्थिर  भाव से. किसी उत्तेजना से नहीं. यह मान कर चलना है कि वे पुराने दिन उस रूप में अब लौटने वाले नहीं हैं. वर्चस्व और सत्ता के पुराने ठौर जब ध्वस्त हो रहे हैं, तो उसी तरह कोई नया ठौर विकसित होगा, यह उम्मीद करना मूर्खता ही है. सवर्णवाद की जगह कोई दलित - बहुजन वाद विकसित होगा इसकी कोई गुंजायश नहीं है. जातिवादी समूहवाद की जगह व्यक्तिस्वातंत्र्य की भावना प्रबल होगी और एक नागरिक अपने बूते कोई निर्णय लेने की स्थिति में होगा.

कमजोर तबके के लोग और नई पीढ़ी की स्त्रियाँ ही जातिवाद के आधारतत्वों को ध्वस्त कर सकेंगी, लोहिया की यह मान्यता अब साकार होने के निकट है. नौजवान अपने भविष्य को नए अंदाज़ में देख रहा है. खुर्राट - बुढ़भस जातिवादी नेताओं से वह नफरत करना चाहता है. वह जानता है पूरा समाज एक ही नाव पर सवार हैं . ज्यादा उछल- कूद की तब पूरी नाव डूबेगी. पुरानी पीढ़ी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के सवालों को नजरअंदाज किया. इस महामारी में उसकी पर्याप्त सजा सब भुगत चुके हैं. इस सीख का अपनी राजनीति में भी इस्तेमाल करें तो अच्छी बात होगी. अन्यथा जातपात की पुरानी लड़ाई तो अपनी जगह है ही. इसी तरह के खुले मन से हम इस पुराने मामले को एकबार देखें. 

सेनारी जनसंहार 18 मार्च 1999 को हुआ था. तब जहानाबाद जिले के सेनारी गाँव में सैंकड़ों लोगों ने आधी रात को उक्त गाँव पर हमला किया. एक जाति विशेष के कोई चालीस लोगों को पकड़ कर ठाकुरवाड़ी के पास ले आए और फिर उन्हें गाजर - मूली की तरह काटने लगे. इस मार - धाड़ में कुछ लोग गलतफहमी से बच गए; लेकिन कुल 34 मार डाले गए. कैसी भयावह घटना होगी इसका अंदाज़ कोई भी लगा सकता है. 

उस वक़्त मैं दिल्ली में था. स्वाभाविक था देश भर के अख़बारों में पहले पेज की खबर यह घटना बनी थी. नीतीश जी तब रेल मंत्री थे.  बी डी मार्ग पर उन दिनों उनका आवास था. मैं उनके आवास पर ही रुका हुआ था. बिहार से जुड़े तीन मंत्री जार्ज फर्नांडिश, नीतीश कुमार और संभवतः यशवंत सिन्हा स्पेशल विमान से उसी रोज बिहार आए और घटना स्थल का निरीक्षण कर उसी रोज रात दिल्ली लौट गए . नीतीश जी ने आँखों देखा जो हाल सुनाया वह दिल दहलाने वाला था. उनकी बात याद कर सकता हूँ- 'खून से लथपथ ऐसा वीभत्स दृश्य आज तक मैंने नहीं देखा. मुझे शायद आज नहीं जाना चाहिए था...'  उन्होंने रात का भोजन लेने से इंकार कर दिया. मैंने भी नहीं खाया.  देर तक हमलोग बिहार की सामाजिक स्थितियों पर बात करते रहे. 

लेकिन इसे लेकर राजनीति शुरू हुई. इस घटना को लछमनपुर बाथे और शंकर बीघा - नारायणपुर की प्रतिक्रिया बताया गया, जहाँ भूमिहारों की रणवीर सेना ने सब मिला कर लगभग सौ दलितों-पिछड़ों को बेमतलब मौत के घाट उतार दिया था. यह जातीय वर्चस्व दिखाने का बस एक जूनून था. उन दिनों बिहार नरसंहारों का खेलगाह बन गया था. झूठे वर्चस्व दिखाने का  पागलपन भरा मिजाज किसी एक तबके में ही नहीं था. मध्य बिहार के ग्रामीण इलाकों में यह पागलपन दुर्भाग्यवश अत्यंत प्रभावशाली रूप में था.

यह जरूर था, इन जातीय सेनाओं के लीडरान शहरों में बैठ कर इसे भुनाते थे. उन्हीं दिनों बिहार की इस समस्या को लेकर मैंने लेखों की एक श्रृंखला अख़बारों में लिखी थी. इन का संकलित रूप मेरी एक किताब है  'खूनी खेल के इर्द - गिर्द '. 

मैंने स्थिति सामान्य होने पर स्वयं सेनारी गाँव का निरीक्षण किया. उस स्थान को देखा जहाँ उन अभागों को बेरहमी से काट दिया गया था. उस स्थान पर मेरे जाने के समय तक घास और गेंदे के छोटे -छोटे फूल उग आए थे. घटना का अंदाज़ कर मेरी आँखें भर गईं. लेकिन उसी रोज मैं उन लोगों से भी मिला, जो उसी गाँव के दलित थे और गाँव से खदेड़ दिए गए थे, या डर के मारे जहानाबाद भाग आए थे. गाँव से विस्थापित उन दलितों को केंद्र में रख कर मैंने तभी एक लेख लिखा था - 'सेनारी का सच. ' 

सेनारी के बाद नरसंहार बंद नहीं हुआ. अगले ही साल जून महीने में मियांपुर में 45 दलितों की हत्या फिर कर दी गई. इसका बदला नवादा के अपसढ़ गाँव में दर्जन भर भूमिहारों की हत्या से लिया बताया गया. यह सब एक सिलसिला बन गया था . 
इतने रोज बाद इन सबको याद करना बेमतलब नहीं है. लोग समझते हैं कि वह लड़ाई ख़त्म हो गई है. बेशक हिंसा का वह रूप अब नहीं है. कोई हिंसक दौर इतने लम्बे समय तक चलता भी नहीं. इसके स्थगित होने में सरकार की कोई भूमिका शायद नहीं है.

सभी पक्ष के लोग थक - हार कर बैठ गए हैं और मान चुके हैं कि हिंसा से किसी का लाभ होने वाला नहीं है. यह अच्छी बात है कि ऐसी समझदारी समाज में विकसित हुई है. लेकिन सच यह भी है कि इस हिंसा के जो कारण तत्व थे वह आज भी बने हुए हैं. मेरा मानना है कि यह इलाका आज भी ज्वालामुखी पर है, जहाँ विस्फोट कभी भी हो सकता है. यह विस्फोट किसी समझदार राजनीति के रूप में हो, हमारी कोशिश यही होनी चाहिए. 

बिहार में नरसंहारों का एक  इतिहास है. पहला जनसंहार 1971 में  रूपसपुर - चंदवा गाँव में हुआ, जहाँ 14 खेतिहर मजदूर आदिवासियों को सामंतों ने बर्बरतापूर्वक मार दिया था. उस वक़्त समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर ने अपनी पूरी ताकत इसके विरोध में झोंक दी थी. उस समय बिहार विधान सभा के अध्यक्ष लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जो एक लब्धप्रतिष्ठ लेखक भी थे, इस नरसंहार केलिए जवाबदेह पाए गए थे. समाजवादियों के संघर्ष ने उनकी गिरफ़्तारी के लिए सरकार को विवश कर दिया. अंततः वह गिरफ्तार किए गए. 

फिर तो बेलछी, पिपरा, कंसारा, परसबिगहा, छेछानि, दलेलचक - बघौरा आदि का एक सिलसिला बनता चला गया. 1990 में बिहार में कांग्रेसी सरकार का खात्मा हुआ . लालू प्रसाद के नेतृत्व में गैर - कांग्रेसी सरकार बनी और तब से आज तक, यानी 31 वर्षों  से गैर कांग्रेसी सरकार ही चल रही है. इस दौर के पहले चरण में सामाजिक हिंसा का आवेग देखा गया. सूचनाओं के अनुसार 1990 से सन 2000 तक कोई 33 उल्लेखनीय जनसंहार होते हैं. ये सब मध्य बिहार में होते हैं.

इनके प्रभावित जिले मुख्य रूप से हैं - जहानाबाद, अरवल, भोजपुर, औरंगाबाद, नवादा, पटना, गया और रोहतास. यह पुराना शाहाबाद और गया जिले का क्षेत्र बनता है, जिसमें पटना जिले का का भी एक हिस्सा है. पूर्णिया में 1998 में 20  आदिवासियों की हत्या की एक बड़ी घटना इस इलाके से बाहर की है.

मध्य बिहार का यह खूनी खेल का इलाका पुराने ज़माने में कीकट - करूष कहा जाता था. यह ब्रात्य जनों का इलाका था. वेदों के ऋषि इस इलाके को फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे. ज्वर से वे प्रार्थना करते हैं कि तुम कीकट जाओ और लोगों को सताओ, जहाँ हमारे विरोधी रहते हैं. तथागत बुद्ध नेपाल की तराई से इस इलाके में यूँ ही नहीं आए थे. यहीं उन्हें ज्ञान मिला. यहीं वह सम्यक सम्बुद्ध हुए. कहते हैं, जब वह यहां आए थे, तब केवल राजगीर में कोई साठ विचारकों का जमघट  था. छह तो विशिष्ट रूप से  उल्लेखनीय थे. 

लेकिन हम छोड़ें उस पुराने ज़माने को. आधुनिक ज़माने में ही आवें. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इसी इलाके से स्वामी सहजानंद और यदुनंदन शर्मा ने किसान आंदोलन का बिगुल फूंका. यह रैयत किसानों का जमींदार किसानों के खिलाफ विद्रोह था. इस आंदोलन ने उपनिवेशवादविरोधी स्वतंत्रता आंदोलन को किसानों से जोड़ कर उसे जमीन पर उतार दिया था.  सहस्रमुखी फ़क़ीर यानि जदुनन्दन मेहता ने बगल के भोजपुर से पिछड़े किसानो, दस्तकारों और छोटे व्यापारियों के संघ  त्रिवेणी संघ का सिंहनाद किया.

1937 के चुनाव में इस संघ ने अपने उम्मीदवार उतार कर कांग्रेस को एक सबक देने की कोशिश की थी. पहला आमचुनाव हुआ, तब इस इलाके ने अपनी पहचान एक बार फिर प्रदर्शित की. तब उत्तरी गया (आज जहानाबाद ) भारत का  पहला संसदीय क्षेत्र था जहाँ से कांग्रेस की जमानत जब्त हुई थी. सोशलिस्ट उम्मीदवार बिगेश्वर मिश्र लोकसभा के लिए जीते थे. छहों विधानसभाई सीटों से भी सोशलिस्ट उम्मीदवार जीते थे. 

सोन नद के दोनों तटों पर सामाजिक परिवर्तन नई अंगड़ाइयां ले रहा था. आज का रोहतास - भोजपुर जिला ही मानवेंद्रनाथ राय के रेडिकल आंदोलन का भी केंद्र था. त्रिवेणी संघ और रेडिकल पार्टी के अन्तर्सम्बन्धों पर आज तक कोई काम नहीं हुआ है. यह अकारण नहीं था कि 1970  के दशक में इसी इलाके से जगदेव प्रसाद ने सोशलिस्ट राजनीति से द्विजवाद विरोध को नत्थी करने की वैचारिकी विकसित की, जिसे बाद में कांशीराम ने अखिलभारतीय स्वरुप दिया.

इसी इलाके में नक्सलबाड़ी तर्ज के किसान आंदोलन भी विकसित हुए. बिलकुल आज को देखें तो बस पिछले विधानसभा चुनाव (2020 ) के नतीजों पर नजर डालिए. इस इलाके ने एकबार फिर भाजपा - जदयू गठजोड़ को उल्लेखनीय शिकस्त दी है. यह सब अकारण नहीं है. इसकी पृष्ठभूमि है. 

सुप्रीम कोर्ट जाने की बात चाहे इस सेनारी मामले में हो, या उस बाथे मामले में. इससे कोई सार्थक  नतीजा निकलने वाला नहीं है. चूकि यह सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा था, इसलिए कोई यह या वह अभियुक्त इसके लिए जवाबदेह नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में क्या करेगा सबको मालूम है.

एक समय के बाद यह  फांसी और उम्रकैद बेमतलब हो जाता है. हाँ, सामाजिक स्तर पर इस पर विमर्श जरूर होना चाहिए. हम एक नई दुनिया की ओर बढ़ें. नए सपनों को साकार करें, यही उन लोगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जो एक भयावह जूनून के दौर में असमय ख़त्म हो गए. कम से कम उनकी संततियों को तो एक ऐसा समाज दें, जहाँ नफरत का नामोनिशाँ न हो.


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