कर्णन : दलित प्रतिरोध की अद्भुत प्रस्तुति

पीयूष कुमार

 

'कर्णन' इसी जातीय उपेक्षा में गुंथी हुई वंचना, भेद, पीड़ा, आक्रोश और प्रतिरोध का अद्भत बिंबों और प्रतीकों में प्रस्तुत शानदार आख्यान है।

फ़िल्म का आधा आरंभिक हिस्सा इस कहानी की स्थापना का आधार तैयार करता है जिसमें एक गांव पोडियानकुलम जो कि एक बहुत पिछड़े जातीय समूह के रूप में है, उसकी अपनी दैवीय मान्यताएं, जीवन शैली और एक आक्रामक युवा कर्णन (धनुष) है।

कहानी का यह पूरा हिस्सा धीमी आंच में प्रेशर कुकर की तरह काम करता है। कहानी तात्कालिक कारण के रूप में उनके गांव में बस नहीं रोके जाने के नियम से उपजे आक्रोश से मोड़ लेती है। यहां भारतीय समाज का वर्गीय चरित्र जो कि सिस्टम में काफी गहरे पैठा हुआ है, उससे टकराव होता है। हिंसा और प्रतिहिंसा के घटनाक्रम में पूरा गांव शामिल होता है जिसका नेतृत्व कर्णन करता है।

इस फ़िल्म के असली नायक हैं इसके डायरेक्टर मारी सेल्वेराज जिन्होंने इस कहानी को चुना और एक नए व्याकरण में फ़िल्म को प्रस्तुत किया। फ़िल्म का पहला ही दृश्य कलेजा चाक करनेवाला है जिसमें सड़क पर एक 10 साल की बच्ची एड़ियां रगड़ रही है और मुंह से झाग फेंक रही है और उसके बाजू से बसें गुजरती जा रही हैं।

यह बच्ची मौत के बाद प्रतीकात्मक रूप में 'कट्टू पेची' देवी बनकर फ़िल्म में दिखती है। सेल्वेराज ने सशक्त प्रतीको के रूप में अगले पैर बंधे गधे का एक बच्चा, एक हाथी, गांव में मौजूद एक घोड़े, मुर्गी के चूजों को झपटने आती चील, गांव का सिरविहीन देवता, पवित्र तलवार और बादलों में सूरज के माध्यम से जो बात कही है, वह पहले नहीं देखी गयी या कम देखी गयी है।

सबसे प्रभावशाली प्रतीक कट्टू पेची देवी (पोस्टर में जो आगे जमीन पर दिख रही है) का है जो फ़िल्म खत्म होने के बाद दिमाग में गहरे बैठ जाता है। पूरी फिल्म वास्तविक लोकेशन पर फिल्माई गयी है जिसके लिए इसके कला निर्देशक की दाद देनी पड़ेगी। फिल्मों के चरित्र, संवाद और जीवन वास्तविक हैं। फ़िल्म का मुख्य चरित्र है, कर्णन। यह भूमिका धनुष ने निभाई है।

धनुष की पिछली फिल्म 'असुरन' से काफी आगे की फ़िल्म है यह। एक आक्रामक पर समझदार युवा लीडर के रूप में धनुष ने इस फ़िल्म में अभिनय की जो प्रत्यंचा खींची है, वह याद रखी जायेगी। इस फ़िल्म में उनका फिल्मी स्टारडम कहीं नजर नही आता, बस कर्णन ही रह जाता है।

फ़िल्म तमिल में अंग्रेजी सब टाइटल के साथ है। समझ मे आने के बावजूद भाषा का अपना महत्व और भाव होता है इसलिए लगता है और भी बारीकियां जो संवादों में सन्निहित हैं, वह मैं पकड़ न पाया। ऐसा लगता है कि अभी की कुछ तमिल फिल्मों (कबायली, काला, असुरन) पर पेरियार द्वारा स्थापित दलित चेतना का प्रभाव है।

तमिल फिल्म इंडस्ट्री समृद्ध है और सारी दुनिया मे अपना कारोबार करती हैं। ऐसे में इन विषयों पर बड़ा बजट, बड़ा कैनवास, बड़े स्टार और वर्ल्डवाइड प्रदर्शन बहुत मायने रखता है। इस फ़िल्म को मेरी ओर से 09/10 अंक। मैं अगली फिल्म मारी सेल्वेराज की फिर देखना चाहूंगा उसमें धनुष हों या न हों। आप भी अमेजन प्राइम के सदस्य हैं और बेहतर फिल्मों में रुचि रखते हैं तो आपको यह फ़िल्म जरूर देखना चाहिए।


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